शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

सूचना के अधिकार क़ानून का बेजां इस्तेमाल [राज एक्सप्रेस और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

किसी भी राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था के कुशलतापूर्वक संचालित होने की एक प्रमुख शर्त यह होती है कि वहाँ लोक और तंत्र के बीच परस्पर समझ और सहयोग बना रहे। निश्चित तौर पर इसमें तंत्र की प्रत्यक्ष रूप से अधिक भूमिका होती है, किन्तु लोक की भूमिकाएं भी कम नहीं होतीं। भारत की स्थिति इस दृष्टि से एक हद तक संतोषजनक कही जाएगी  क्योंकि यहाँ के नागरिकों ने अपने संविधान और  लोकतांत्रिक मूल्यों को न केवल अतिशीघ्र आत्मसात कर लिया बल्कि उसके प्रति लोगों के मन में काफी सम्मान और स्वीकार्यता भी है। नागरिकों में अपने राजनेताओं, राजनीतिक दलों और व्यवस्था के प्रति चाहें जितना रोष हो, प्रेम हो या कोई भी भाव हो, किन्तु  संविधान और लोकतंत्र के प्रति उनमें निरपवाद रूप से सम्मान का भाव ही पाया जा सकता है। हालांकि इन्हीं सब के बीच कभी-कभी कुछ ऐसे मामले भी सामने आ जाते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि तमाम लोग लोकतंत्र के प्रति सम्मान होने के बावजूद कैसे इसको लेकर एक तरह की नासमझी, अजागरुकता या लापरवाही का भी शिकार हैं।  ताज़ा मामला सूचना के अधिकार क़ानून के तहत सूचना आयोग को दी गई एक अर्जी से सम्बंधित है। 
गौर करें तो गत लोकसभा चुनाव के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो तब प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे, ने  एक रैली में कहा था कि देश का जितना काला धन विदेशों में है, अगर वो वापस आ जाय तो सभी देशवासियों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये की रकम पहुँच सकती है। शब्द अलग हो सकते हैं, पर उनकी बात का आशय यही था। प्रधानमंत्री के इसी बयान को आधार बनाकर विपक्षियों द्वारा उनपर निशाना साधा जाता रहा है। जबकि यह सिर्फ एक भाषण के दौरान बोली गई व्यंजनात्मक बात थी। इसके जरिये तब मोदी सिर्फ काले धन की रकम की अधिकता को ही प्रतिसूचित करना चाहते थे। लेकिन, विपक्ष इसको लेकर ऐसा गंभीर हुआ और अब भी दिखता है कि जैसे भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादे के रूप में  इसका उल्लेख ही कर दिया हो।
राजस्थान के एक व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत प्रधानमंत्री से यह जानकारी मांगी है कि लोकसभा चुनाव-२०१४ के दौरान लोगों के बैंक खातों में काले धन का पंद्रह-पंद्रह लाख रुपया पहुंचाने का जो वादा किया गया था, वो रकम खाते में कब आएगी? गौर करें तो गत लोकसभा चुनाव के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो तब प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे, ने  एक रैली में कहा था कि देश का जितना काला धन विदेशों में है, अगर वो वापस आ जाय तो सभी देशवासियों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये की रकम पहुँच सकती है। शब्द अलग हो सकते हैं, पर उनकी बात का आशय यही था। 
अमर उजाला कॉम्पैक्ट 

प्रधानमंत्री के इसी बयान को आधार बनाकर विपक्षियों द्वारा उनपर निशाना साधा जाता रहा है। जबकि यह सिर्फ एक भाषण के दौरान बोली गई व्यंजनात्मक बात थी। इसके जरिये तब मोदी सिर्फ काले धन की रकम की अधिकता को ही प्रतिसूचित करना चाहते थे।  लेकिन, विपक्ष इसको लेकर ऐसा गंभीर हुआ और अब भी दिखता है कि जैसे भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादे के रूप में  इसका उल्लेख ही कर दिया हो। संभवतः विपक्षी दलों द्वारा इस एक अलग भाव में कही गई बात को निरर्थक रूप से मुद्दा बनाने का कुछ न कुछ प्रभाव भोले-भाले आम लोगों पर भी पड़ा है और कहीं न कहीं इसीका परिणाम है ये अर्जी जो सूचना के अधिकार के तहत यह सवाल पूछते हुए दी गई है। अर्जी देने वाले व्यक्ति की समझ का अंदाजा इसी अर्जी के कुछेक और सवालों पर गौर करने पर हो जाता है। अर्जी में प्रधानमंत्री से एक सवाल यह पूछा गया है कि  चुनाव के दौरान कहा गया था कि देश से भ्रष्टाचार ख़त्म कर दिया जाएगा, पर वो नब्बे प्रतिशत बढ़ गया है ? अब इस सवाल में जो ये नब्बे प्रतिशत का आंकड़ा दिया गया है, इसका आधार क्या है ? क्योंकि पहली चीज कि भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में देश की स्थिति पर अभी फिलहाल कोई सर्वेक्षण हुआ नहीं है। ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट इस साल की शुरुआत में आई थी, जिसमे भ्रष्टाचार के मामले में देश की स्थिति यथावत होने की बात कही गई थी। फिर ये नब्बे प्रतिशत भ्रष्टाचार बढ़ने का आंकड़ा अर्जीकर्ता ने कहाँ से दे दिया है। समझना मुश्किल नहीं है कि दैनिक जीवन में बातचीत में हम जिस तरह से भ्रष्टाचार, महंगाई आदि समस्याओं पर चर्चा करते हुए लोग अतिवादी अंदाज में बढ़ी-चढ़ी बातें कर जाते हैं, ये नब्बे प्रतिशत का आंकड़ा भी वैसे ही है। 
राज एक्सप्रेस 

बहरहाल इन सब चीजों को देखते हुए कह सकते हैं कि सूचना के अधिकार क़ानून के तहत ऐसे निराधार और फिजूल प्रश्नों को पूछने वाला व्यक्ति या तो एकदम अजागरूक है अथवा बेहद शरारती है। क्योंकि इन्हीं दो स्थितियों में ऐसे सवाल पूछे जा सकते हैं। अजागरूक व्यक्ति हो तो उसे इस क़ानून की गंभीरता को पहले समझना चाहिए फिर इसके इस्तेमाल की तरफ बढ़ना चाहिए। लेकिन, यदि ये अर्जी शरारत से प्रेरित होकर दी गई है, तो यह उस व्यक्ति का एक देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते बेहद गलत और निंदनीय आचरण है। लोगों को समझना चाहिए कि सूचना का अधिकार क़ानून उनके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने के एक कारगर हथियार की तरह है, इसलिए इसका सही ढंग से आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करने के लिए उपयोग करें न कि इसे शरारत और कौतूहल के लिए इसका मज़ाक बनाएं। ऐसा करने पर न केवल वे इस क़ानून के लिए संकट खड़ा करेंगे बल्कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस कारगर हथियार को कमजोर करने जैसी स्थिति भी पैदा करेंगे। लोकतंत्र में लोक और तंत्र दोनों के अपने-अपने दायित्व होते हैं। तंत्र ने क़ानून बनाकर और उसका क्रियान्वयन करके अपनी जिम्मेदारी निभाई है, अब ये लोक का दायित्व है कि उसका सही ढंग से उपयोग कर उसे सार्थक और प्रभावी सिद्ध करे।

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