शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

लेखकों की भीड़ में बचा-खुचा पाठक [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
पुस्तक मेले की चर्चा सुन-सुनके मन बड़ा मचल रहा था, पर अवकाश नहीं मिलता था कि जाऊं। लेकिन, एक सुबह तो अचानक पहुँच ही गया। पहुँचते-पहुँचते ख्याल आया कि कुछ मोटी-मोटी पुस्तकें हाथ में लेकर उनके साथ सिर्फ एक सेल्फी लूंगा, जिसे फेसबुक-इन्स्टाग्राम पर शेयर करने पर एकदम पढ़ाकू और बौद्धिक जैसा भौकाल बन जाएगा। बाकी पढ़ने के लिए तो अभी पिछले कई सालों के पुस्तक मेलों से ली गयी किताबें ही कतार में हैं। इसलिए कुछ ख़ास खरीदने की जरूरत नहीं है। यही सब सोच-विचार रहा था कि नजर पड़ी हिंदी के एक ठीकठाक बड़े पब्लिशर की दूकान पर, जो दस-बारह लोगों की अच्छी-खासी भीड़ से भरी पड़ी थी। लगभग सभी लोगों के हाथ में कोई कोई किताब भी थी। मन खुश हुआ कि हिंदी किताबों की खरीद के लिए भीड़ लग रही है।
 
दैनिक जागरण
सोचा कि चलकर देखूं कि आखिर कैसी किताबें हैं, अगर पसंद आया तो अपन भी कुछ ले लेंगे। यही सोचकर मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बन गया। अंदर घुसा तो देखा कि भीड़ के बीच में भी चार लोगों की एक भीड़ है, जो बाकायदा कुर्सियों पर विराजमान हैं। शेष लोग उनके अगल-बगल चिपकाकर सेल्फी लेने में लगे हैं। पता चला कि ये वरिष्ठ साहित्यकार कहे जाने वाले प्राणी थे। ये दृश्य देखने के बाद मेरे मन को धक्का तो लगा, पर मेरी सहज सकारात्मक बुद्धि ने ख्याल दिया कि चलो वरिष्ठ साहित्यकारों के बहाने ही सही पाठक किताबों तक तो रहे हैं। यहाँ जुटे लोगों के हाथ में कोई कोई पुस्तक है, मतलब उन्होंने खरीदी है। अभी मेरा ये ख्याली पुलाव थोड़ी देर और पकता कि तभी उन वरिष्ठ लोगों से निवृत होने के बाद भीड़ के ज्यादातर लोग एकदूसरे को बधाई देते नज़र आने लगे। मेरा सिर चकराया कि ये क्या चक्कर है। प्रकाशक महोदय को पकड़ा तो पता चला कि इनमें सामान्य पाठक कोई नहीं है, ये सब तो लेखकत्व को प्राप्त हो चुके प्राणी हैं और इसी बात की एकदूसरे को बधाई दे रहे हैं। कुछ एकाध साल पूर्व ही लेखक बन गए थे तो कुछ इसी साल बने हैं। अब मुझे आभास हुआ कि लेखकों की इस भीड़ में सिर्फ मैं ही बचा-खुचा पाठक हूँ। तभी लेखकों की वो भीड़ मुझे अपनी तरफ बढ़ती दिखाई दी और मुझे लगा कि कहीं ये पाठक भी लेखकों की भीड़ में दबकर दम तोड़ दे। बस इतना ख्याल आते ही मेरी आँख खुल गयी, और दो मिनट हकबकाने के बाद मैंने रजाई दुरुस्त करके करवट बदल ली।

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

कैदियों की भीड़ से बदहाल कारागार [जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
भारतीय समाज में जेल के प्रति अधिकांश लोगों में यह धारणा देखने को मिल जाएगी कि जेल एक यंत्रणा-स्थल होती है, जहां अपराधी को उसके अपराधों के लिए यातनाप्रद ढंग से रखकर दण्डित किया जाता है। इस धारणा को एकदम से गलत तो नहीं कह सकते, मगर यह पूरी तरह से सही भी नहीं है। निस्संदेह जेल में व्यक्ति को अपेक्षाकृत कठिन परिस्थितियों में ही रहना होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वो यंत्रणा-स्थल होती है। वास्तव में, जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दण्डित करने के साथ-साथ उसे स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी होता है। इसके लिए जेलों में कैदियों को पढ़ने-लिखने से लेकर उनका कौशल-विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं। अभी पिछले दिनों ही खबर आई थी कि मथुरा के केन्द्रीय कारागार में ग्रेटर नोएडा के एक शिक्षण संस्थान द्वारा पुस्तकालय खोलने का निर्णय लिया गया है। बिड़ला इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट द्वारा उस जेल में पंद्रह सौ पुस्तकें देते हुए पुस्तकालय स्थापित करने का फैसला किया गया है। इससे पूर्व इस संस्थान द्वारा आगरा, मेरठ, गौतमबुद्ध नगर, गाज़ियाबाद, लखनऊ और अलीगढ़ की जेलों में भी पुस्तकालय स्थापित किए जा चुके हैं। निस्संदेह यह एक सार्थक कदम है और इस प्रकार के और भी क़दमों की जानकारी यदा-कदा सामने आती रहती है। परन्तु, बावजूद इन सबके भारत की अधिकांश जेलों की स्थिति किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है, जिसके मद्देनजर अक्सर जेल सुधार की मांग उठती रहती है।

अभी गत वर्ष सितम्बर में  सर्वोच्च न्यायालय ने २०१३ में दाखिल जेलों में बंद कैदियों से सम्बंधित एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जेल सुधार से सम्बंधित निर्देश जारी किए गए थे। याचिका में कहा गया था कि देश भर की 1382 जेलों में बंद कैदियों की स्थिति बेहद ख़राब है, ऐसे में जेल सुधार के लिए निर्देश जारी किए जाने चाहिए।


प्रश्न यह है कि आखिर जेलों की दुर्दशा का कारण क्या है ? जेलों की दुर्दशा के मुख्य कारण को समझने के लिए इस आंकड़े पर गौर करना आवश्यक होगा कि देश की सभी जेलों में कुल मिलाकर ३३२७८२ लोगों को रखने की क्षमता है, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की २०१५ की रिपोर्ट के अनुसार देश भर की जेलों में ४११९९२ कैदी बंद हैं। अर्थात जेलों की क्षमता से ७९२१० अधिक कैदी इस वक़्त उनमें मौजूद हैं। ये २०१५ का आंकड़ा है, तो हो सकता है कि तबसे अबतक इसमें कुछ मामूली फर्क गया हो। पर मोटे तौर पर स्थिति यही है कि भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। ऐसे में, अगर जेलों की हालत बदहाली का शिकार होती है, तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। तिसपर गजब यह कि जेलों में मौजूद कुल कैदियों में से लगभग ६७ फीसदी कैदी विचाराधीन हैं। यानी ६७ फीसदी कैदी ऐसे हैं, जिनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है, लेकिन उनकों भी जेल में रखा गया है। इनमें तमाम कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं साथ ही बहुत से कैदी ऐसे भी हो सकते हैं, जो अपने ऊपर लगे आरोप के लिए संभावित सजा की अवधि से अधिक समय जेल में बिना कुछ सिद्ध हुए ही बिता चुके हों। परन्तु, ऐसे लोगों की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। समझा जा सकता है कि जेलों में कैदियों की ये ठूसमठूस कितनी बड़ी और व्यापक समस्या है। जेलों की दुर्दशा का मूल कारण यही है। इस समस्या से कैदी और कारागार दोनों की दुर्दशा हो रही है, जिसके समाधान की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखाई देती।

किसी भी व्यवस्था पर जब उसकी क्षमता से अधिक का भार डाल दिया जाता है, तो वो अव्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। भारतीय जेलों की दुर्दशा के सम्बन्ध में यही तथ्य है। अब जिस जेल में उसकी क्षमता से अधिक कैदी रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से उसकी खान-पान से लेकर अन्य व्यवस्थाओं पर सीमा से अधिक बोझ पड़ेगा और परिणामस्वरूप ये व्यवस्थाएं अपनी गुणवत्ता खो देंगी। यही कारण है कि अक्सर जेल में खराब खाने से लेकर शौच आदि से सम्बंधित अव्यवस्थाओं की बातें सामने आती रहती हैं। उनमें कैदी नारकीय जीवन जी रहे हैं। आए दिन विभिन्न जेलों से कैदियों के संदिग्ध स्थिति में मरने, उनके हंगामा मचाने और भागने की खबरें आती रहती हैं। इनके पीछे मूल वजह अव्यवस्था ही होती है।

उपर्युक्त बातों को देखते हुए कहना होगा कि जेल सुधार की पहली सीढ़ी यही है कि न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए, जिससे जेल में मौजूद कैदियों की ठूसमठूस भीड़ में कमी आए। इसके बाद ही जेल से सम्बंधित अन्य सुधारों पर बात करने की स्थिति में हम होंगे। इस सम्बन्ध में गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए जेल सुधार के निर्देश कुछ हद तक कारगर हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित जेल सुधारों में प्रमुखतः कैदियों के परिजनों और वकीलों से उनकी बात-मुलाक़ात को बढ़ावा देने, हिंसक प्रवृत्ति के कैदियों की काउंसलिंग की व्यवस्था करने, पुलिस अधिकारियों को कैदियों के प्रति उनके दायित्वों के बारे सुशिक्षित करने, कैदियों की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं पर ध्यान देने आदि बातों का उल्लेख किया गया है। निस्संदेह ये कदम जेल सुधार की दिशा में कारगर सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इन निर्देशों से पूर्व न्यायिक प्रक्रियाओं की सुस्ती के कारण जेलों में भरी भीड़ को लेकर भी कोई निर्देश देना चाहिए था।   

जेल सुधार की दिशा में अबतक कोई ठोस कदम भले उठाया गया हो, लेकिन देश में आजादी के बाद जेल सुधार से सम्बंधित सुझावों के लिए विभिन्न समितियों का गठन जरूर किया गया। इनमें वर्ष 1983 की मुल्ला समिति, 1986 की कपूर समिति और 1987 की अय्यर समिति प्रमुख है। इन समितियों ने अपने-अपने स्तर पर जेलों की स्थिति की पड़ताल कर सुधार से सम्बंधित विविध सुझाव भी दिए, लेकिन सबके सुझावों को प्रशासनिक सुस्ती के कारण ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह भी एक बड़ा कारण है कि आज जेलों की हालत बद से बदतर होती जा रही है।

आज जेल सुधार के लिए एक चरणबद्ध योजना पर काम करने की आवश्यकता है। इसमें सबसे पहले तो जेलों में जमी कैदियों की अनावश्यक भीड़ को कम करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए आने चाहिए। इसका असल समाधान तो न्यायिक तंत्र के दुरुस्तीकरण से ही होगा, लेकिन जबतक ऐसा नहीं तब तक ऐसे कैदियों को चिन्हित करके जमानत पर रिहा किया जा सकता है, जिनके अपराध की प्रवृत्ति बहुत संगीन हो या जिन्होंने अपनी संभावित सजा से अधिक की अवधि जेल में ही बिता ली हो। जेलों में भीड़ कम होते उनकी अव्यवस्था सम्बन्धी बहुत-सी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएंगी। जब यह स्थूल समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी, तो कैदियों की मानसिकता आदि से सम्बंधित सूक्ष्म समस्याओं पर भी ध्यान दिया जा सकता है। कैदियों की काउंसलिंग आदि के जो निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हैं, उनपर भी काम किया जा सकता है। भारत जैसे एक लोकतान्त्रिक और मानवाधिकारों के सनातन समर्थक राष्ट्र में जेल सुधार से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।