मंगलवार, 26 सितंबर 2017

तीसरे विश्व युद्ध की आहट [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
आतंकवाद के उन्मूलन के लिए संयुक्त प्रयास पर सहमति बना रहे विश्व के समक्ष इस समय उत्तर कोरिया एक महासंकट के रूप में उपस्थित हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ समेत विश्व के लगभग सभी महाशक्ति देशों के प्रतिबंधों और चेतावनियों को अनदेखा करते हुए तानाशाह किम जोंग के नेतृत्व में यह पिद्दी-सा देश विश्व के लिए भारी सिर दर्द बनता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को धता बताते हुए एक के बाद एक घातक प्रक्षेपास्त्रों का परीक्षण करने से लेकर अमेरिका जैसे देश को खुलेआम चुनौती देने तक उत्तर कोरिया का रवैया पूरी तरह से उकसावे वाला रहा है। अभी हाल ही में उसने जापान के होकैडो शहर के ऊपर से मिसाइल ही दाग दी थी, जिसके बाद जापान ने अपने इस शहर समेत अपनी राजधानी क्षेत्र में मिसाइल रक्षा प्रणाली की तैनाती कर ली है। 

उत्तर कोरिया का क्या करना है, इसका कोई ठोस उत्तर फिलहाल विश्व के किसी भी महाशक्ति देश के पास नहीं है। अबतक उत्तर कोरिया की इन अराजक गतिविधियों के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र और विश्व के महाशक्ति देशों की तरफ से सिवाय जुबानी जमाखर्च के धरातल पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कह तो बहुत कुछ रहे हैं, मगर मालूम उन्हें भी होगा कि किम जोंग का खात्मा इतना आसान नहीं है। कहा यह भी जा रहा कि अमेरिका ने लादेन को जैसे पाकिस्तान में घुसकर मार गिराया था, वैसे ही किम को भी मार सकता है। लेकिन, हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन दोनों ही मामलों में भारी अंतर है। लादेन एक आतंकी था, जिसके पास सिवाय कुछ लड़ाकों और पाकिस्तानी हुकूमत के अप्रत्यक्ष सहयोग के कुछ नहीं था। जबकि किम जोंग एक देश का सनकी राष्ट्राध्यक्ष है, जिसके साथ न केवल लादेन से कहीं अधिक सुरक्षा तंत्र होगा बल्कि उसके नियंत्रण में परमाणु हथियारों का जखीरा भी है। ऐसे में, क्या उसको लादेन की तरह मार गिराने की कल्पना की जा सकती है ? यकीनन नहीं! यह बात अमेरिका भी बाखूबी समझता है, तभी तो अबतक उसने कोई भी कार्यवाही करने से परहेज किया है। स्पष्ट है कि किम जोंग के तानाशाही नेतृत्व में उत्तर कोरिया विश्व के लिए एक घातक यक्ष-प्रश्न बन गया है। घातक यक्ष-प्रश्न इसलिए क्योंकि अगर जल्द से जल्द इसका उचित उत्तर नहीं खोजा गया तो पूरी संभावना है कि ये दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध की तरफ ले जाएगा।

तीसरे विश्व युद्ध की संभावना क्यों ?
तीसरे विश्व युद्ध की बात करने के पीछे ठोस कारण हैं, जिन्हें समझने के लिए आवश्यक होगा कि हम पिछले दोनों विश्व युद्धों के इतिहास और उनकी पृष्ठभूमि का एक संक्षिप्त अवलोकन करें। विश्व युद्धों के इतिहास पर दृष्टि डालें तो दोनों ही विश्व युद्धों की परिस्थितियाँ तो पहले से ही ज्वालामुखी की तरह निर्मित हो रही थीं, जिनका किसी छोटी सी तत्कालीन घटना को कारण बनाकर दोनों विश्व युद्ध के रूप में महाविस्फोट हुआ। आस्ट्रिया के राजकुमार और उनकी पत्नी की सेराजोवा में हुई हत्या प्रथम विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण बनी। इस विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि के अध्ययन पर स्पष्ट होता है कि तत्कालीन दौर में योरोपीय देशों के बीच उपनिवेशों की स्थापना की होड़ के कारण परस्पर ईर्ष्या और द्वेष का भाव बुरी तरह से भर चुका था। हितों के टकराव जैसी स्थिति जन्म ले चुकी थी। गुप्त संधियाँ आकार लेने लगी थीं। परिणाम विश्व युद्ध के रूप में सामने आया।  


1918 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् विश्व बिरादरी ने एक तरफ जहां आगे से विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियों को रोकने के लिए राष्ट्र संघ (लीग ऑफ़ नेशंस) की स्थापना की, वहीं दूसरी तरफ ‘वर्साय की संधि’ के तहत जर्मनी पर लगाए गए अनुचित और अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों के माध्यम से अनजाने में ही द्वितीय विश्व युद्ध की भूमिका का निर्माण भी कर दिया। फलस्वरूप 1935 में जर्मनी जब हिटलर के नेतृत्व में ताकतवर होकर उभरा तो उसने वर्साय की संधि और प्रतिबंधों का उल्लंघन आरम्भ कर दिया। 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया और बस यहीं से द्वितीय विश्व युद्ध का आरम्भ हो गया। ये विश्व युद्ध भयानक रूप से संहारक रहा। इसका अंत होते-होते अमेरिका ने जापान पर परमाणु हमले तक कर दिए। राष्ट्र संघ जिसकी स्थापना विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियों को रोकने के लिए की गयी थी, अप्रासंगिक होकर रहा गया।

इन दोनों विश्व युद्धों में जो एक बात समान है, वो ये कि इनके लिए वैश्विक वातावरण तो पहले से बना हुआ था, मगर इनकी शुरुआत किसी एक छोटे-से तात्कालिक कारण से हुई। फिर चाहें वो प्रथम विश्व युद्ध के समय आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हो या द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी का पोलैंड पर आक्रमण करना हो।

आज भी वैश्विक वातावरण में तनाव साफ़ है, ऐसे में उत्तर कोरिया का रवैया इस नाते डराता है कि उसकी या उसके साथ की गयी किसी अन्य की कोई सी भी हरकत तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकती है। यह बात सर्वस्वीकृत है कि उत्तर कोरिया को चीन का अंदरूनी समर्थन और सहयोग है, जिसके दम पर वो हथियारों आदि के मामले में बेहद सशक्त हो चुका है। साथ ही, चीन का जापान और अमेरिका से मुखर विरोध है। ऐसे में, उत्तर कोरिया पर हाथ डालने की स्थिति में उसके साथ-साथ चीन भी दिक्कतें खड़ी कर सकता है। पाकिस्तान का समर्थन भी चीन के ही साथ होगा। अमेरिका और योरोपीय देश एक साथ आ सकते हैं। इसके बाद तीसरे विश्व युद्ध के लिए और आवश्यकता ही किस चीज की रह जाएगी। संयुक्त राष्ट्र संघ आज उत्तर कोरिया के संदर्भ में निष्प्रभावी ही सिद्ध हो रहा है।

इन संभावित परिस्थितियों को देखते हुए तीसरे विश्व युद्ध की आहट न महसूस करने का कोई कारण नहीं दिखता। एक मार्ग यह है कि उत्तर कोरिया पर हाथ न डाला जाए, लेकिन किम जोंग का सनकीपना और आक्रामकता देखते हुए ऐसा करने का भी कोई लाभ नहीं है। क्योंकि, उत्तर कोरिया खुद ही किसी न किसी से उलझकर विश्व युद्ध की परिस्थितियों को आमंत्रित कर देगा। ये विश्व युद्ध हुआ तो पिछले दोनों विश्व युद्धों से कहीं अधिक विनाशकारी और भयावह होगा। द्वितीय विश्व युद्ध में दो परमाणु बम गिरे थे, जिनके चिन्ह जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी में अबतक मौजूद हैं। अब तो हर छोटे-बड़े देश के पास परमाणु क्षमता है, सो विश्व युद्ध में क्या विभीषिका मच सकती है, इसकी कल्पना ही डराने वाली है। अगर तीसरे विश्व युद्ध की इस आशंका पर विराम लगाना है तो उत्तर कोरिया का समाधान शीघ्रातिशीघ्र विश्व के महाशक्ति राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ मिलकर खोजना पड़ेगा।

संयुक्त राष्ट्र में सशक्त भारत का संबोधन [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
संयुक्त राष्ट्र महासभा के ७२वें सत्र में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का संबोधन कई मायनों में महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक रूप से उल्लेखनीय है। सुषमा के संबोधन से पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी ने अपने संबोधन में भारत पर आतंक प्रायोजित करने और कश्मीर में अत्याचार फैलाने का आरोप लगाया था। उनके भाषण का लम्बा हिस्सा भारत की बुराई करने में ही बीता था। इसके जवाब में जब भारतीय राजनयिक ईनम गांधी ने पाकिस्तान को टेररिस्तान बताते हुए सख्त रुख दिखाया, तभी स्पष्ट हो गया था कि सुषमा स्वराज के वक्तव्य की रूपरेखा क्या रहेगी। सुषमा स्वराज ने अपने वक्तव्य में न केवल आजादी के बाद से अबतक भारत की विकासयात्रा की तस्वीर विश्व के समक्ष रखी बल्कि पाकिस्तान के आतंक पोषक चेहरे को भी बाखूबी उजागर किया। सुषमा ने कहा कि भारत और पाकिस्तान एक ही साथ आजाद हुए, लेकिन आज भारत अपने आईटी क्षेत्र के लिए मशहूर है, तो पाकिस्तान अपने आतंकी संगठनों के लिए जाना जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि हम गरीबी से लड़ रहे हैं, जबकि पड़ोसी पाकिस्तान हमसे लड़ रहा है। आतंकवाद पर संदिग्ध रुख रखने वाले विश्व के चीन आदि देशों को आड़े हाथों लेते हुए सुषमा ने संयुक्त राष्ट्र के सांगठनिक विस्तार पर भी बल दिया। सुषमा के वक्तव्य में स्पष्ट दिखा कि भारत अब किसीके समक्ष दबकर बोलने वाला नहीं, अब वह विश्व पटल पर मजबूती से अपनी बात रख सकता है। 


देखा जाए तो पाकिस्तान के प्रति अबकी संयुक्त राष्ट्र महासभा में ईनम गांधी से लेकर सुषमा स्वराज तक भारत की तरफ से जैसा सख्त और स्पष्ट रुख दिखाया गया, वो अभूतपूर्व है। निश्चित तौर पर भारत अबसे पहले भी इस मंच के माध्यम से पाकिस्तान की कारिस्तानियों को उजागर करता रहा है, लेकिन उसके स्वर इतने सख्त और स्पष्ट अबसे पहले कभी शायद ही रहे हों। प्रधानमंत्री मोदी ने भी जब संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया था, तो पिछले संबोधनों की तरह ही इशारों-इशारों में ही पाकिस्तान पर निशाना साधे थे। लेकिन, अबकी इशारों-इशारों में नहीं, एकदम खुले तौर पर पाकिस्तान का नाम लेकर न केवल उसे ‘टेररिस्तान’ बताया गया बल्कि खुलेआम उसकी कारिस्तानियों की काली तस्वीर भी दुनिया के सामने रखी गयी।

सुषमा के वक्तव्य से पूर्व बांग्लादेश और अफगानिस्तान ने भी पाकिस्तान पर आतंक का प्रायोजक होने का आरोप लगाया, जो कि भारत के पक्ष को मजबूती देने वाला था। जाहिर है, अफगानिस्तान और बांग्लादेश भी अब पाकिस्तान का साथ पूरी तरह से छोड़ चुके हैं। इतना ही नहीं, चीन को अपना खास दोस्त और बड़ा हितैषी समझने वाले पाकिस्तान को तब और बड़ा झटका लगा, जब चीन ने भी पाक के द्वारा कश्मीर में अंतराष्ट्रीय हस्तेक्षेप की मांग पर इसे द्विपक्षीय मामला कहकर कन्नी काट ली। इसके अलावा जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में चर्चा हो रही थी, उसी समय संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने बलूचिस्तान और सिंध के लोग पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगा रहे थे, इसने पाकिस्तान की पोल खोल के रख दी। संभव है कि इन सब घटनाक्रमों के पश्चात् ही सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान की स्थिति का आकलन करके उसके आतंक प्रायोजक रूप को उजागर करने का निश्चय किया होगा।

विचारणीय यह है कि ऐसा क्या हो गया कि इशारों-इशारों में बात करने वाला भारत अब वैश्विक मंच से खुलेआम पाकिस्तान का नाम लेकर उसे आतंक का पोषक बता रहा है। दरअसल जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तो इस सरकार ने भी पिछली सभी सरकारों की तरह पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयास किए थे। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को बुलाना, अचानक पाकिस्तान पहुँच जाना, द्विपक्षीय वार्ताओं का दौर चलना आदि चीजों के माध्यम से भारत ने भरसक कोशिश की कि पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सहयोग और मधुरता की बुनियाद पर आधारित संबंधों की स्थापना हो सके। 

परन्तु, इन प्रयासों के प्रतिफल में पाकिस्तान की तरफ से पठानकोट और उड़ी जैसे आतंकी हमले और सीमा पर संघर्ष विराम का अनवरत उल्लंघन होता रहा। इस कारण देश में यह सवाल उठने लगा कि मोदी सरकार के पास भी पिछली सरकार की ही तरह पाकिस्तान को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है। सरकार पर इस बात का अप्रत्यक्ष रूप से भारी दबाव था कि पाकिस्तान को लेकर एक ठोस नीति होनी चाहिए। तब मोदी सरकार ने पाकिस्तान के प्रति अपने नरम रुख में परिवर्तन किया। 

सैन्य स्तर पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसे अभियान अंजाम दी गए तो कूटनीतिक स्तर पर पाक को विश्व बिरादरी से अलग-थलग करने की नीति अपनाई गई। हर वैश्विक मंच से पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों को उजागर किया जाने लगा। कश्मीर की बात करने वाले पाकिस्तान का जवाब भारत ने बलूचिस्तान और पीओके में पाकिस्तान के अत्याचारों को दुनिया के सामने लाकर देना शुरू किया। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से बलूचिस्तान का प्रश्न उठाया। कुलदीप जाधव मामला आया तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जाकर वहाँ पाकिस्तान को घुटनों पर लाने का काम किया। भारत के प्रभाव में अमेरिका भी पाकिस्तान की तरफ से अपने हाथ खींचने लगा है। पाकिस्तान को आतंकी देशों की सूची में डालना, अफगान नीति से बाहर करना और उसे दी जाने वाली सहायता में कटौती करना जैसे क़दमों से अमेरिका ने इस बात का प्रमाण भी दे दिया है। 

चीन भी अब भारत के खिलाफ तो कम से कम पाकिस्तान के साथ खड़ा होने की स्थिति में नहीं है। रूस, फ़्रांस जैसे देशों की भी यही स्थिति है। दक्षिण एशियाई और इस्लामिक देश भी पाकिस्तान को छोड़ भारत के साथ खड़े हैं। ऐसी स्थिति में यदि सुषमा स्वराज पाकिस्तान को सीधे-सीधे आतंक का प्रायोजक कह रही हैं, तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं दिखता। भारत आज पाकिस्तान के समक्ष पहले से कई गुना अधिक सशक्त स्थिति में है और संयुक्त राष्ट्र में सुषमा ने उसी सशक्त भारत का संबोधन दिया है।
 
हालांकि उपर्युक्त सफलताओं के गुमान में हमें नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति संपन्न और लगभग विफल हो चुका देश है, अतः वो दुनिया खासकर भारत के लिए अब भी खतरा खड़ा कर सकता है। अतः उसस बराबरपूरी तरह से सावधान रहने की जरूरत है।

सोमवार, 11 सितंबर 2017

हिंदी दिवस : अंग्रेजीदां मानसिकता से हिंदी को बचाने की जरूरत [पाञ्चजन्य में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
कुछ दिन पहले हिंदी के प्रयोग से संबंधित एक संसदीय समिति की रपट आई है। इसकी सिफारिशों के अनुसार राष्ट्रपति और सरकार के मंत्रियों समेत सभी प्रतिष्ठित पदों पर आसीन व्यक्तियों, जिन्हें हिंदी आती हो, के लिए अपने वक्तव्य हिंदी में देना जरूरी हो जाएगा। साथ ही समिति द्वारा केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) तथा अन्य केन्द्रीय विद्यालयों में दसवीं तक की शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य कर देने की सिफारिश भी की गई है। इसी प्रकार की और भी कई सिफारिशें इस समिति द्वारा की गई हैं, जिन्हें राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी है। हालांकि अभी इन सिफारिशों को सिर्फ राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी मिली है, अभी ये लागू नहीं हुई हैं, मगर अभी से ही इन पर देश के गैर-हिंदी भाषी राज्यों के दलों की भृकुटियां तन गई हैं। इस रपट के स्वीकृत होने के बाद द्रमुक नेता एम. के. स्टालिन ने झटपट केंद्र सरकार पर यह आरोप लगा दिया कि वह गैर-हिंदीभाषी राज्यों पर हिंदी को थोप रही है।
 
बहरहाल, यह लड़ाई बेहद पुरानी है। जब भी देश में हिंदी के हित में कोई राष्ट्रव्यापी पहल की बात आती है, उस पर तमिलनाडु आदि राज्यों के राजनेताओं का रुख बिना सोचे-विचारे तल्ख हो जाता है। गैर-हिंदीभाषी राज्यों का हिंदी के प्रति यह विद्वेष समझ से परे है कि  एक तरफ तो वे अपने यहां एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को अपनाए बैठे हैं,  दूसरी तरफ हिंदी के नाम ही भी उन्हें चिढ़ मच जाती है। यदि उन्हें सिर्फ अपनी क्षेत्रीय भाषाओं से ही लगाव होता और वे इसी कारण हिंदी का विरोध कर रहे होते तो उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी को भी नहीं अपनाना चाहिए था। लेकिन, ऐसा नहीं है। देखा जा सकता है कि उन्हें अंग्रेजी से कोई दिक्कत नहीं है, मगर इस देश, जिसके वे अंग हैं, की संविधान स्वीकृत राजभाषा हिंदी से उन्हें समस्या हो जाती है। प्रश्न यह है कि यदि इन गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी को अपना सकते हैं, तो हिंदी को अपनाने में उन्हें दिक्कत क्या है? कहना न होगा कि हिंदी को लेकर देश के इन प्रदेशों का विरोध तार्किक कम, पूर्वाग्रह प्रेरित अधिक है। सीधे शब्दों में कहें तो ये अनुचित हठधर्मिता है, जिसने आज से पांच दशक पहले हिंसक आंदोलन का रूप ले लिया था। दरअसल, तत्कालीन सरकार ने तब उस हिंदी विरोधी आंदोलन के आगे झुक कर बड़ी भूल की थी, जिसके फलस्वरूप आज दक्षिण का हिंदी विरोध इतना बढ़ गया है कि इस भाषा को लेकर एक छोटी-सी राष्ट्रव्यापी पहल भी उसे स्वीकार नहीं होती।
 
यहां यह कहना उल्लेखनीय होगा कि हिंदी की महत्ता की बात करने का कतई यह अर्थ नहीं है कि अन्य भारतीय भाषाओं को कमतर समझा जा रहा है। निस्संदेह कोई भी भारतीय भाषा हिंदी से कम नहीं है। सबका बराबर स्थान है। लेकिन, राष्ट्र को एकसूत्र में पिरोए रखने और संस्कृतियों का संवहन करने की सामर्थ्य यदि किसी भाषा में है, तो वह हिंदी में ही है। हिंदी ही ऐसी भाषा है, जो अंग्रेजी का मुकाबला कर देश के अंग्रेजीकरण को रोक सकती है। कोई अन्य भारतीय भाषा फिलहाल अंग्रेजी का मुकाबला कर पाने की स्थिति में नजर नहीं आती। उदाहरणस्वरूप हिंदी का विरोध करने वाले तमिलनाडु का उल्लेख करें तो उसने हिंदी को स्वीकार नहीं किया, फलस्वरूप आज उसकी अपनी क्षेत्रीय भाषा के साथ अंग्रेजी का पूर्ण वर्चस्व है, बल्कि अंग्रेजी अधिक ही है।
 
इसी क्रम में विचार करें तो आज हिंदी के लिए जितनी भी चुनौतियां आ रही हैं, इनके लिए कहीं न कहीं स्वतंत्रता के पश्चात् के हमारे नीति-नियंताओं की ऐतिहासिक भूलें जिम्मेदार हैं। अंग्रेजी आज हिंदी के लिए सबसे बड़ा संकट बन चुकी है। हर मोर्चे पर हिंदी को अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजी से संघर्ष और समझौता करना पड़ रहा है। रोजगार के क्षेत्र में तो अंग्रेजी का लगभग एकछत्र राज कायम हो ही चुका है, अब धीरे-धीरे वह आम बोलचाल में हिंदी का जो संप्रभु अस्तित्व था, उसे भी चुनौती देने लगी है। इसी का परिणाम है कि आज हिंग्लिश के रूप में एक कथित भाषा चलन में आ गई है। इस स्थिति के लिए सबसे ज्यादा दोषी आजादी के बाद अंग्रेजी को हिंदी के बराबर रूप में स्वीकारते जाने की हमारी अनावश्यक उदारता है। तब हमने अंग्रेजी को राजकाज की भाषा के रूप में सिर्फ दशक भर के लिए रखा था कि धीरे-धीरे हिंदी के चलन में आ जाने के बाद इसे हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा आज तक नहीं हो सका। इस तरह मैकाले ने अंग्रेजी के जरिए भारतीयता को मिटाने का जो तरीका रखा था, उसका अनुसरण आजाद भारत की सरकारें भी करने लगीं।
 
आज इस देश में अंग्रेजी सिर्फ एक भाषाभर नहीं रह गई है, बल्कि उच्चता- बोध का साधन और प्रतीक बन गई है। लोगों में अंग्रेजी को लेकर यह अवधारणा गहराई तक पैठ चुकी है कि अंग्रेजी जानना विशिष्टता का चिह्न है। यहां तक कि किसी व्यक्ति के विविध विषयों के ज्ञान से अधिक महत्व उसके अंग्रेजी ज्ञान का है। ज्यादातर लोग इस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि अंग्रेजी का ज्ञान विद्वान होने का लक्षण है। ऐसे में, उन्हें यह बात समझाना मुश्किल है कि ब्रिटेन का एक अनपढ़ व्यक्ति भी अंग्रेजी में ही बात करता है। यानी कि अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा है, ज्ञान का आधार नहीं।
 
इस स्थिति के मद्देनजर आज हिंदी को बढ़ावा देने की जरूरत तो है ही, साथ ही इस अंग्रेजीदां मानसिकता को समाप्त करने की भी है। इसके लिए सबसे बेहतर रास्ता यही है कि देश में अंग्रेजी माध्यम शिक्षा को पूर्णत: समाप्त कर दिया जाए। और शिक्षा का माध्यम हिंदी समेत भारतीय भाषाएं हों। अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा के रूप में पढ़ाए जाने तक सीमित रहे, इससे अधिक कुछ नहीं। वास्तव में तो यह कार्य आजादी के तुरंत बाद ही कर लेना चाहिए था। गांधीजी भी यही चाहते थे। उनका कथन था, ''राष्ट्र के बालक अपनी मातृभाषा में नहीं, अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, तो वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है। विदेशी भाषा से बच्चों पर बेजा जोर पड़ता है और उनकी सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है। इसलिए किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना मैं राष्ट्र का बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं।'' यह इस देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा कि आजादी के छह महीने बाद ही गांधी की हत्या हो गई। यदि वे कुछ वर्ष भी जीवित रहते तो संभवत: आज हिंदी की यह दशा न होती।
 
मगर, तब नहीं हुआ तो न सही, अब इस तरह का कदम उठाने में सरकार को पीछे नहीं हटना चाहिए। इतना अवश्य है कि इससे अस्थायी तौर पर थोड़ी असुविधा हो सकती है। उच्च शिक्षा में विज्ञान आदि विषयों की अध्ययन सामग्री का हिंदी में अधिक न होना समस्या उत्पन्न करेगा, मगर अपने देश की भाषा के उत्थान और औपनिवेशिक भाषा के चंगुल से छूटने के लिए हमें इन समस्याओं से लड़ना ही होगा। हम थोड़ी-सी असुविधा के भय से हिंदी को इस तरह अंग्रेजी के समक्ष हाशिए पर जाते हुए नहीं छोड़ सकते। वैसे भी ये समस्याएं कोई बहुत बड़ी नहीं हैं। हिंदी में अनुपलब्ध पठन सामग्री का अनुवाद कराकर धीरे-धीरे इस प्रकार की समस्याओं को समाप्त किया जा सकता है।
 
हिंदी के उत्थान और अंग्रेजीदां मानसिकता के उन्मूलन के लिए सरकार को इस तरह के कदम उठाने की इच्छाशक्ति दिखानी होगी, अन्यथा देश में व्याप रही अंग्रेजीदां मानसिकता हिंदी को धीरे-धीरे निगल जाएगी। स्मरण रहे, अगर ऐसा होता है तो यह सिर्फ एक भाषा पर संकट नहीं होगा, बल्कि इस देश की सांस्कृतिक विरासत पर भी कुठाराघात होगा।