रविवार, 28 फ़रवरी 2016

पुस्तक समीक्षा : ज़िन्दगी के ज़ज्बातों से खनकती एक अनूठी 'गुल्लक'

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पुस्तक का आवरण 
आज जब हिंदी में साहित्य का अर्थ निरपवाद रूप से केवल कहानी, कविता और बहुत हुआ तो उपन्यास  रचना ही रह गया है, ऐसे में मनीषा श्री की किताब ‘जिंदगी की गुल्लक’ इतना संतोष जरूर देती है कि हिंदी साहित्य के इस बासी से हो रहे माहौल में भी कुछ नया व ताज़ा करने की कोशिश पूरी तरह से मरी नहीं है। मनीषा की इस किताब का सबसे प्रमुख नयापन है इसमे मौजूद ‘विधागत प्रयोग’। ये किताब न तो पूरी तरह गद्य है और न ही पूरी पद्य। यह न तो कोई कहानी, कविता, निबंध आदि का संग्रह है और न ही उपन्यास, नाटक आदि की रचना; इसकी रचावट-बनावट कुछ यूं है कि इसमे कविता भी है और कहानी भी। यूं कह सकते हैं कि कहानियों की कवितायेँ या कविताओं की कहानियों का संग्रह है ये किताब। चूंकि कोई भी कविता पढ़ते समय पाठक उसके प्रति मन में अपने अनुसार एक कल्पना-चित्र बना लेता है कि ये कविता इस भाव को प्रदर्शित कर रही है। लेकिन, यह कत्तई जरूरी नहीं कि रचनाकार ने उस कविता की रचना उसी भाव में की हो। अब जैसे कि एक पेड़ पर यदि पांच लोग कविता लिखें तो यह तय है कि सबकी नहीं तो कईयों की कविताएँ अलग होंगी। निष्कर्ष यह कि पेड़ एक ही है, पर उसके प्रति सबका नजरिया अलग-अलग है। इसी तरह कोई रचनाकार रचना अपनी दृष्टि से करता है और पाठक उसे अपनी दृष्टि से समझता है, दोनों की दृष्टि एक भी हो सकती है और अलग भी। लेकिन मनीषा की इस किताब में कविताओं की कहानियां देकर इस समस्या को ही समाप्त कर दिया गया है यानी कि अमुक कविता किस कारण से और किस भाव व मनोस्थिति में लिखी गई है, ये पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया गया है। पुस्तक का जो गद्य है, उसे संस्मरण और डायरी जैसी श्रेणियों में रखा जा सकता है। बाकी तो छंदमुक्त-अतुकांत कविता है ही।
  यूँ तो इस किताब का प्रत्येक अध्याय अपने आप में स्वतंत्र है लेकिन, जरा गहराई से अगर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्र से दिखने वाले ये अध्याय कहीं न कहीं एक दुसरे से क्रमवार ढंग से न केवल जुड़े हैं बल्कि लेखिका को अपने अबतक के जीवन में मिले अनुभवों का क्रमवार विश्लेषण भी हैं। इसी क्रम में किताब के कुछ प्रमुख अध्यायों पर एक संक्षिप्त नज़र डालें तो इसका पहला अध्याय ‘शब्द’ किताब की वास्तविक भूमिका है। इसमें जीवन की आपाधापी से कुछ समय मिलने पर लेखिका में लेखन की अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होती है और वो अपनी सबसे प्यारी सहेली यानी अपनी डायरी की तरफ मुडती है। दूसरे अध्याय में चीजें फ्लैशबैक में चली जाती है और एक बच्चे को जन्म देने जा रही लेखिका काफी पीछे शादी से पहले की आईआईटी में आल इण्डिया २० रैंक लाने वाली एक छात्रा हो जाती है जिसे तब उसके नाना समझाते हैं कि कामयाबियां कितनी भी बड़ी हों, कदम हमेशा जमीन पर ही रहने चाहिए और नाना की यही सीख लेखिका के इस अध्याय की कविता है – कदम जमीन पर रहें। तीसरे अध्याय ‘जिंदगी’ में लेखिका आइआइटी मे अंतिम वर्ष में है लेकिन, आर्थिक मंदी के कारण  प्लेसमेंट करने कोई कंपनी नहीं आ रही जिस कारण बेहद हताश और परेशान है। वो काबिल है लेकिन, किस्मत के कारण उसे नौकरी नहीं मिल पा रही। तिसपर घरवालों की उम्मीदों का दबाव अलग है। इन तनावों में उलझा उसका दिमाग एकबारगी आत्महत्या जैसी चीज तक सोच लेता है। हताशा की इस हालत में जब फोन पर उसके पापा यह कहते हैं कि ‘पापा इज ऑलवेज विथ यू’ तो जैसे उसे ‘लाइफ टॉनिक’ मिल जाती है  और जिंदगी फिर खूबसूरत लगने लगती है। कुल मिलाकर ज़िन्दगी के उत्साह-उम्मीद-निराशा-तनाव आदि विविध गाढ़े-फीके रंगों और उनपर मनुष्य की प्रतिक्रियाओं का बाखूबी चित्रण इस अध्याय में हुआ है। ऐसे ही, १३वे  अध्याय ‘कोशिश’ में दुर्घटना से पैर में फ्रैक्चर के बावजूद लेखिका अकेले ही खुद को और अपने छोटे-से बेटे को अपनी कोशिशों से संभालने की घटना का जिक्र कर कोशिश के  महत्व और उसके बाद होने वाले संतोष को बाखूबी बयां की है तो वहीँ १४वे अध्याय ‘सपने’ में लेखिका ने अपने माँ बनने के सपने और उसके पूरे होने में हुई जद्दोजहद का वर्णन करते हुए यही कहने की कामयाब कोशिश की है कि सपना कोई भी हो, उसके पूरा होने का एक सही वक़्त होता है और उसे तभी पूरा होना चाहिए।      
  इसी तरह आगे के कुछ अध्यायों जैसे ‘दहेज़’, ‘बेटी की माँ’, ‘माँ हूँ, भगवान् नहीं’, आदि में लेखिका द्वारा बेटी या कि स्त्री के प्रति समाज के संकुचित दृष्टिकोण पर बेबाकी और तार्किकता के साथ अपनी बात कहने की काफी हद तक कामयाब कोशिश की गई है। ‘माँ’ और ‘मेरे पापा’ जैसे अध्याय तो शीर्षक से ही स्पष्ट हैं कि लेखिका के अपने माता-पिता से समबन्ध के वर्णन को समर्पित  हैं। फिर अन्धविश्वास, वक़्त, टुकड़े, असमंजस, नदी की कहानी, आदि में भी जीवन के विविध पहलुओं की मौजूदगी है। इन सब में किताब का १२वा अध्याय ‘मै चुप थी’ सबसे बेहतरीन है। इसमें काम से थकी-हारी लेखिका जब अपने पति के पास जाती है तो वो खुद अपनी परेशानियों में उलझा है और लेखिका पर चिल्ला पड़ता है तथा गुस्से में उसके सभी पारिवारिक योगदानों को नकार देता है। लेखिका इन बातों का जवाब देने में पूर्णतः समर्थ है लेकिन, वो अपने रिश्ते को इस क्षणिक आवेश की भेंट नहीं चढ़ने देना चाहती इसलिए चुप रहती है और अगली सुबह सबकुछ ठीक हो जाता है। लेकिन उसका यह भी कहना है कि आज तो मै चुप रही“बस एक गुज़ारिश है कि समय पड़ने पर तुम भी मुझको सुनना, मेरे गुस्से को झेलना क्योंकि मेरे पास सिवा तुम्हारे कोई नहीं है जिसके सामने अपना दिल खोल सकूँ।” इस प्रकार अधिकांश समकालीन स्त्रीवादियों के लिए भी यह अध्याय पठनीय है कि सशक्त स्त्री के नाम पर उनके द्वारा स्त्री को  लड़ाकू, हठी या अभिमानिनी बनाने के जो विचार गढ़े जा रहे हैं, वो कत्तई सच्चा स्त्री सशक्तिकरण नहीं है। वे इस अध्याय की स्त्री को देखें जो सशक्त तो है किन्तु समझदार, लचीली और धैर्यवान भी है और अपनी सशक्तता के भौंडे प्रदर्शन के लिए अपने रिश्ते की तिलांजलि नहीं देती  क्योंकि, उसमे ये समझ है कि हर बात को सिर्फ स्त्री-पुरुष की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कुल मिलाकर इस अध्याय को हासिल-ए-किताब भी कहा जा सकता है।
  भाषा-शैली की बात करें तो मनीषा की भाषा काफी लचीली है जिसमे वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहती जाती हैं। हालांकि अभी यह मनीषा की पहली किताब है तो इसमें शब्दों के प्रयोग में तनिक असावधानी दिखती है। असावधानी ये कि एक ही वाक्य में चार हल्के और सामान्य शब्दों के साथ दो भारी-भरकम शब्दों जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है, का इस्तेमाल मनीषा कर गई हैं। जैसे कुछ वाक्य हैं, ‘बेफिक्र होकर अपना कर्म कर’, ‘भले लड़का कितना ही विवेकशील क्यों न हो’, ‘जीत नमक रहित पकवान की भांति’ इन वाक्यों में कर्म, विवेकशील, भांति  जैसे भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग हुआ है जिनसे अर्थ पर तो नहीं लेकिन, वाक्य के प्रवाह और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे वाक्य में ‘विवेकशील’ की जगह समझदार शब्द रखिये तो भी अर्थ यही रहेगा लेकिन, वाक्य अधिक सहज और ग्राह्य हो जाएगा। यह लेखन का कला-पक्ष है, इसमे मनीषा को अभी जरा और काम करने की आवश्यकता है।
  इसी क्रम में अगर कविताओं की बात करें तो मनीषा के पास कथ्य और भाव तो भरपूर हैं जिन्हें उन्होंने अपनी कविताओं में ठीकठाक बयाँ भी किया है। लेकिन अभी इस दिशा में उन्हें और मेहनत करने  की जरूरत है। अतुकांत कविता के स्तर को गिराकर आज के रचनाकारों ने उसे जरूरत से ज्यादा आसान बना दिया है, अन्यथा उसका भी एक ढंग होता है। चूंकि, अतुकांत कविता में लय-तुक नहीं होती, इसलिए अगर आप सावधान नहीं रहे तो वो कब गद्य बन जाएगी आपको पता भी नहीं चलेगा। इसलिए उसकी रचना के समय उसके पदों में एक अलग-सा प्रवाह रखा जाता है ताकि वो गद्य न बने और ये करना पूरी तरह से रचनाकार की सृजन क्षमता पर ही निर्भर करता है। मनीषा ने काफी हद ऐसा करने की कोशिश की है लेकिन, अभी और प्रयास की जरूरत है। साथ ही कविताओं में भी शब्दों को लेकर उन्हें उपर्युक्त प्रकार से ही सावधान रहने की जरूरत है।        

  बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि मनीषा की इस गुल्लक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये अपनी बनावट (डिजाईन) में ही एकदम अलग और अनूठी है और हमें यह मानना होगा कि इस   गुल्लक ने अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध करने का ही काम किया है। गुल्लक के अन्दर  सबके लिए कुछ न कुछ मौजूद है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसीको भी ये गुल्लक निराश नहीं करने वाली। और चूंकि, मनीषा शहरी परिवेश में पली-बढ़ी एक प्रगतिशील लड़की रही हैं, इसलिए उनके अनुभवों से भरी ये गुल्लक कहीं न कहीं शहरी प्रगतिशील लड़कियों के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करने की भी विशेष क्षमता रखती हैं। संभव है कि मनीषा की इस गुल्लक से कहानी-कविता-उपन्यास में डूबे हिंदी साहित्य के समकालीन सूरमाओं को भी कुछ नया रचने की प्रेरणा मिले और वे समझें कि अभी बहुत कुछ है, जिसे रचकर हिंदी साहित्य को न केवल कथ्य के बल्कि कला और शिल्प के स्तर पर भी और समृद्ध किया जा सकता है। आखिर में, इस सुन्दर व सार्थक रचना के लिए मनीषा को ढेरों बधाइयाँ..!

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

महिषासुर के 'आधुनिक मानस-पुत्र' (दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

महिषासुरमर्दिनी 
जेएनयू प्रकरण पर लोकसभा में हो रही चर्चा के दौरान बोलते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने देश में वामपंथी ब्रिगेड द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरूपयोग से सम्बंधित कई तथ्य प्रस्तुत किए, जिनमे से एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जेएनयू में मनाया जाने वाला ‘महिषासुर शहादत दिवस’ और इस देश की बहुसंख्य लोगों द्वारा माँ के रूप में पूजित पौराणिक पात्र देवी दुर्गा के लिए ‘वेश्या’ जैसे अश्लील विशेषणों के प्रयोग से सम्बंधित है। हालांकि यह तथ्य एकदम नया नहीं है क्योंकि, देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले कुछेक लोग इन बातों से जरूर परिचित होंगे मगर, देश की बहुसंख्य आबादी तो ऐसी बातों  के विषय में  सोच भी नहीं सकती। देश के किसी भी क्षेत्र और जाति के लोग हों, उनके लिए दुर्गा एक उपास्य देवी और शक्ति की प्रतीक हैं, जो संसार को कष्ट देने वाले महिषासुर और उसके जैसे अनेक दुष्टात्माओं का अंत करने के लिए समय दर समय प्रकट होती रही हैं। लोगों की यह मान्यता पूरी तरह से भारतीय पौराणिक आख्यानों जो दुर्गा-महिषासुर चरित्र का प्रमुख स्रोत रहे हैं, पर आधारित है। दरअसल हमारे पुराणों में यह कथा है कि महिषासुर नामक दैत्य जिसकी उत्पति  पुरुष और महिषी (भैंस) के संयोग से हुई थी, ने तप करके ब्रह्मा से यह वर प्राप्त कर लिया कि उसे कोई न मार सके सिवाय स्त्री के। फिर उसने समस्त देवताओं को पराजित कर उनके भवनों पर अपना आधिपत्य जमा लिया और देवता चूंकि पुरुष थे इसलिए वर के प्रभाव के कारण उसे मार नहीं सके। तब सभी देवताओं ने अपनी शक्तियों को एकत्रित कर एक सर्वशक्तिमान देवी (स्त्री) को उत्पन्न किया, जिनने महिषासुर को काफी समझाया किन्तु जब वो न माना व कामातुर हो उनसे विवाह प्रस्ताव करने लगा तो विवश हो उसका वध किया। फिर कालांतर में यही देवी अपने कर्मानुसार दुर्गा, काली आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध हुईं। देवी और महिषासुर का युद्ध नौ दिन तक चला था और क्वार मॉस की दशमी तिथि को देवी ने महिषासुर का वध किया था, जिसके उपलक्ष्य में देश में आज क्वार महीने में नवरात्र आयोजित कर दशमी तिथि को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। अब इसी पौराणिक आख्यान के पात्रों को उठाकर जेएनयू वासी लाल सलामी प्रज्ञाचक्षुओं  द्वारा एक नए हवा-हवाई इतिहास को गढ़ा गया है कि महिषासुर एक दलितोद्धारक, न्यायप्रिय और जनप्रिय राजा था, जिसको सवर्णों द्वारा प्रेरित एक चरित्रहीन स्त्री दुर्गा ने क्षल से मार दिया। इस प्रकार जब देश नवरात्र मनाता है तो ये गोमांस की दावत का आयोजन करने लगते हैं और विजयदशमी को ये अपने मानसिक पिता महिषासुर की शहादत के रूप में आयोजित करके बैठ जाते हैं। अब ये लाल सलामी मूर्ख देवी दुर्गा के लिए ‘वेश्या’ जैसे घृणित विशेषणों का प्रयोग करते हैं, इनका पूज्य महिषासुर भी यही करने की नाकाम कोशिश किया था। अर्थात कि इनकी और महिषासुर की मानसिकता एकदम समान रूप से स्त्री-विरोधी है, यह देखते हुए इन्हें ‘महिषासुर के आधुनिक मानस-पुत्र’ कहना अत्यंत समीचीन ही होगा।
   हालांकि  हर बात में दूसरों से तथ्य और प्रमाण मांगने वाले ये महिषासुर के मुट्ठी भर आधुनिक मानस-पुत्र अपने इस मनगढ़ंत और वाहियात इतिहास के विषय में आजतक कोई ठोस प्रमाण नहीं दे सके है; बस हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स की तरह इस झूठ को बार-बार रट-रटकर सही साबित करने की नाकाम कोशिश में लगे रहते हैं। यहाँ तक कि इसपर झूठों, कपोल-कल्पित वाहियात तथ्यों और कुतर्कों से भरी पत्रिका तक निकाल चुके हैं। वैसे, इनके इस बौद्धिक कुकृत्य का विडंबनात्मक पक्ष ये है कि एक तरफ तो ये भारतीय पौराणिक इतिहास को मिथक और कपोल-कल्पित कहके खारिज करते हैं और दूसरी तरफ उसीसे दुर्गा-महिषासुर जैसे चरित्रों को उठाकर मनगढ़ंत ढंग से पेश भी करते हैं। यह देखते हुए कह सकते हैं कि जैसे महिषासुर समय और आवश्यकतानुसार रूप बदल लेता था, वैसे ही उसके ये आधुनिक मानस-पुत्र भी अवसर देखकर चेहरे बदलने की कला में पूरे माहिर हैं।
दैनिक जागरण 
   वे कहते हैं कि यह इस पौराणिक आख्यान की दलित व्याख्या है। ऐसे में मेरी इन महिषासुर-पुत्रों से गुजारिश है कि इस देश के शहरी इलाकों से लेकर दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों तक कहीं भी दलितों से अपनी इस तथाकथित ‘दलित-व्याख्या’ की चर्चा करके जरा इसकी जन-स्वीकार्यता की जांच कर लें; दावा है कि इनके इस नवीन इतिहास को सुनने के बाद शायद ही कोई दलित ऐसा होगा जो इनको गरियाता हुआ अपने दरवाजे से न भगा दे। लात-जूते पड़ जाएं तो भी आश्चर्य नहीं। सच्चाई यही है कि इस देश की दलित-सवर्ण आदि कोई भी जाति हों, सबके लिए दुर्गा ही अलग-अलग रूपों में परम पूजनीय हैं न कि महिषासुर! मगर, यह बात दिल्ली के जेएनयू में बैठकर देश के बहुसंख्य दुर्गा भक्त लोगों के टैक्स के पैसे से प्राप्त सब्सिडी पर पढ़ रहे महिषासुर के इन आधुनिक मानस-पुत्रों को समझ में नहीं आ सकती क्योंकि, इन्हें इस देश और इसके सभी जाति-धर्म के वासियों की एक प्रतिशत भी समझ नहीं है। इनकी समझ का दायरा इनके लाल सलाम की बजबजाहट से शुरू होकर कभी महिषासुर को अपना ‘वैचारिक बाप’ तो कभी  अफज़ल गुरु जैसे देशद्रोही दरिंदों को अपना जीवनादर्श मानकर ख़त्म हो जाता है।
  स्मृति ईरानी के वक्तव्य के बाद कांग्रेस-वामदल आदि इनके राजनीतिक संगठनों की तरफ से तर्क यह दिया गया कि पूजा तो देश में कई एक जगहों पर रावण की भी होती है, यह सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा का विषय है। पर अपनी दो कौड़ी की राजनीति में अंधे हो रहे इन पतित नेताओं को कौन समझाए कि बेशक सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा होती है लेकिन, उसका ये अर्थ नहीं कि किसी और की श्रद्धा का अपमान किया जाय। वे बताएं कि देवी दुर्गा के लिए वेश्या जैसे शब्दों का प्रयोग करना कौन सी श्रद्धा है ? आप बेशक महिषासुर को पूजिए लेकिन, माँ दुर्गा जो देश की बहुसंख्य आबादी के लिए प्राचीन काल से परम पूजनीय रही हैं, के अपमान का आपको कोई अधिकार नहीं। फिर भी, अगर आप अपनी बातों को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध हैं तो हिम्मत दिखाइये और पश्चिम बंगाल जो एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ अभी आपके वाम का कुछ राजनीतिक वजूद शेष है, की राजधानी कलकत्ता की सड़कों पर जाकर जरा अपने इस इतिहास का एक वाचन करके देखिये तो कि कितनी स्वीकार्यता है इसकी ? देश में और सब जगहों से तो आप खारिज हो ही चुके हैं, कलकत्ता के कानों में भी जिस दिन आपके इस इतिहास का स्वर गया उसदिन वहां से भी आपका बचा-खुचा सूपड़ा साफ़ हो जाएगा। इसके बाद आराम से जेएनयू में बैठकर महिषासुर के आधुनिक मानस-पुत्र होने का अपना कर्तव्य निभाते हुए उसकी शहादत पर गर्वित होइएगा, विलाप करियेगा या मन करे तो अपना सिर धुनियेगा।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

जल संकट से कैसे बचेंगे ? [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
विगत दिनों में हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग के मद्देनज़र जाटों द्वारा मचाए गए उत्पात का असर सिर्फ हरियाणा तक सीमित नहीं रहा बल्कि राजधानी दिल्ली को भी जाटों के इस तथाकथित आन्दोलन के कारण पानी की समस्या से दो-चार होना पड़ रहा है। दरअसल जाट आन्दोलनकारियों ने हरियाणा मुनक नहर जिससे दिल्ली को बड़ी मात्रा में जलापूर्ति होती है, को क्षतिग्रस्त कर वहीँ डेरा डाल दिया था, जिस  कारण दिल्ली को पानी की आपूर्ति रुक गई। परिणामतः दिल्लीवासियों को पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ा और अब जब आन्दोलन काफी हद तक नियंत्रित है तथा मुनक नहर पर सेना का कब्ज़ा हो गया है फिर भी नहर के बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उसकी मरम्मत तक लगभग पन्द्रह दिन तक दिल्लीवासियों को पानी की समस्या से जूझना पड़ सकता है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि देश की राजधानी में ऐसी स्थिति क्यों है कि एक नहर के बाधित होने के कारण वहां पानी के लाले ही पड़ जाते हैं ? सच्चाई  यही है कि देश की राजधानी में जल का भारी संकट है और फिलवक्त इस संकट से निपटने की दिशा में कुछ विशेष नहीं किया जा रहा। देश की राजधानी ही क्यों, जलसंकट तो इस वक़्त लगभग समूचे देश के लिए बड़ी समस्या बन चुका है। देश का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। गिरते जलस्तर को आंकड़े से समझें तो पहले जहाँ ३० फीट की खुदाई पर पानी मिल जाता था, वहां अब ६० से ७० फीट की खुदाई करनी पड़ती है। भारतीय केंद्रीय जल आयोग द्वारा २०१४ में जारी आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश बड़े जलाशयों का जलस्तर वर्ष २०१३ के मुकाबले घटता हुआ पाया गया था। आयोग के अनुसार देश के बारह राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, त्रिपुरा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट पाई गई थी। आयोग की तरफ से ये भी बताया  गया  कि २०१३ में इन राज्यों का जलस्तर जितना अंकित किया गया था, वो तब ही काफी कम था। लेकिन, २०१४ में  वो गिरकर तब से भी कम हो गया। गौरतलब है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) देश के ८५ प्रमुख जलाशयों की देख-रेख व भंडारण क्षमता की निगरानी करता है। संभवतः इन स्थितियों के मद्देनज़र ही अभी  हाल में जारी जल क्षेत्र में प्रमुख परामर्शदाता  कंपनी ईए की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत २०२५ तक जल संकट वाला देश बन जाएगाअध्ययन में कहा गया है कि परिवार की आय बढ़ने और सेवा व उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। देश की सिंचाई का करीब ७० फीसदी और घरेलू जल खपत का ८०  फीसदी हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घट रहा है। हालांकि घटते जलस्तर को लेकर जब-तब देश में पर्यावरण विदों द्वारा चिंता जताई जाती रहती हैं, लेकिन जलस्तर को संतुलित रखने के लिए सरकारी स्तर पर कभी कोई ठोस प्रयास किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता।
   अब सवाल ये उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरंतर रूप से गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है ? अगर इस सवाल की तह  में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती  हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियंत्रित और अनवरत दोहन ही है। आज दुनिया  अपनी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए सर्वाधिक रूप से भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, अब एक तरफ तो भू-जल का ये अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों-पहाड़ों आदि की मात्रा में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है । परिणामतः धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस, यही वो प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। हालांकि मौसम विभाग द्वारा अनुमान व्यक्त किया गया है कि अलनीनो में आई कमी के कारण इस वर्ष मानसून अच्छा रह सकता है और बढ़िया बरसात हो सकती है। अब यह पूर्वानुमान कितना सही है ये तो आगे पता चलेगा लेकिन, इतना तो किया जाना चहिए कि अच्छी बरसात होने की स्थिति में उसके जल का संग्रहण किया जाय ताकि भू-जल पर से हमारी निर्भरता कम हो सके। अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए एक-दो टंकियां लग जाएँ व घर के आस-पास कुएँ आदि की व्यवस्था हो जाए, तो वर्षा जल का समुचित संरक्षण हो सकेगा, जिससे जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए भू-जल पर से लोगों की निर्भरता भी कम हो जाएगी। परिणामतः भू-जल का स्तरीय संतुलन कायम रह सकेगा। जल संरक्षण की यह व्यवस्थाएं हमारे पुरातन समाज में थीं जिनके प्रमाण उस समय के निर्माण के ध्वंसावशेषों में मिलते हैं, पर विडम्बना यह है कि आज के इस आधुनिक समय में हम उन व्यवस्थाओं को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

शहादतों पर कितना 'निर्दय गर्व' करेगा ये देश ?

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

देश के मौजूदा हालात बेहद उथल-पुथल भरे हैं। देश की राजधानी दिल्ली में बुद्धि के स्वघोषित ठेकेदारों द्वारा देशभक्ति और देशद्रोह की नई-नई परिभाषाएँ गढ़कर स्वयं को सही साबित करने की कवायद की जा रही हैं, तो इसीसे सटे हरियाणा राज्य का संभवतः सर्वाधिक संपन्न जाट समुदाय स्वयं को पिछड़ा सिद्ध करने में लगा हुआ है ताकि वंचितों के ‘हितों के रक्षक’ आरक्षण का अनुचित लाभ पा सके। ऐसा नहीं कह रहे कि इन चीजों में केवल गलत हो रहा या सबकुछ गलत ही है लेकिन, इन सब वितंडों से फिलवक्त देश को सिवाय नुकसान के एक लाभ होता हुआ भी तो नहीं दिख रहा। इस कारण ये स्थितियां एक आम हिन्दुस्तानी के मन को कहीं न कहीं बेहद व्यथित करती हैं। वैसे, इन सब वितंडों से हजारों मील दूर भी बहुत कुछ हो रहा है, जहाँ ऋणात्मक ४५ डीग्री के तापमान से भरी बर्फ की पहाड़ियों से लेकर दुश्मन की गोलियों के बीच में तक हमारे जवान इस देश जो उन्हें शायद उन्हें उनकी सेवाओं के बदले कुछ विशेष नहीं देता, की रक्षा के लिए अपना जीवन बीता रहे हैं। ऐसे ही जीवन बिताते-बिताते कभी सियाचिन में कोई हिमस्खलन होता है तो बर्फ में दबकर दस जवान अपनी देशभक्ति साबित कर जाते हैं तो कभी जिस जम्मू-कश्मीर पर दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में बौद्धिक विलास हो रहा है, उसके किसी पम्पोर इलाके में न केवल इस देश बल्कि समूची मानवता के दुश्मन आतंकियों से लोहा लेते हुए पांच जवान अपना बलिदान दे जाते हैं। ये सब होता है तो देश की नज़र दिल्ली के बौद्धिक विलास और बेकार वितंडों से कुछ हटकर ज़रा उधर भी जाती है और देश यह देखकर हमेशा की तरह फूलकर चौड़ा हो जाता है कि इस देश के लिए फिर कुछ शहादतें हो गई हैं! यानी देश सुरक्षित है।
   फिर कुछ समय के लिए जवानों की  देशभक्ति पर देश मगन हो जाता है। टीवी मीडिया में उनकी तस्वीरे ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ के पार्श्व संगीत के साथ तैरने लगती हैं, जो बेशक देश के भावुक लोगों की आँखों में गर्वयुक्त प्रसन्नता के आंसू ला देती हैं। इस अवसर पर देश के नेता भी गर्व और वीररस से भरे बयान देने में बिलकुल देरी नहीं करते। तदुपरांत सब शांत हो जाता है और फिर देश, मीडिया, नेता सब पुनः दिल्ली के बौद्धिक विलास की तरफ कूच कर जाते हैं। इस दौरान शहादतों पर मदमस्त देश में इस बात पर विचार करने का विवेक नहीं रह जाता कि इन शहादतों का अंत कब होगा ? देश इस बात पर थोड़ा भी विचार नहीं करता कि गुलामी में आजादी के लिए देश ने शहादतें दीं, लेकिन आज इस आज़ाद देश में भी इतनी शहादतें क्यों कि हर वर्ष कमोबेश हमारे सैकड़ों जवान अपनी जान गंवा बैठते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि देश ने जवानों की शहादतों को एक अंतहीन प्रक्रिया की तरह स्वीकार लिया है जिस कारण इसके कारणों और निवारणों पर कभी बात ही नहीं करता ? अगर ऐसा है तो देश समझ ले  कि ये बहुत गलत है। क्योंकि, एक आज़ाद मुल्क में जवानों की शहादत यदि प्रतिवर्ष निरंतरता के साथ जारी है तो ये गर्व से अधिक चिंता का विषय है। इस बात पर बेशक गर्व होना चाहिए कि हमारे जवान देश के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं करते, लेकिन शहादत यदि एक निश्चित प्रक्रिया बन जाए तो ये चिंताजनक है। अब जो देश ऐसी शहादतों पर सिर्फ गर्वित होकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझ लेता है, निस्संदेह वो अपने जवानों के प्रति बेहद गैर-जिम्मेदार देश है। ऐसी शहादतों पर गर्वित होना, भीषण  निर्दयता है। लिहाजा, दिल्ली में बैठकर कश्मीर हल करने से अगर फुर्सत मिल जाए तो ज़रा इन बातों पर भी विचार करियेगा।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

आतंकवाद पर अमेरिकी नूरा-कुश्ती [पंजाब केसरी और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
ये विडम्बना ही है कि एक तरफ अमेरिकी जेल में बंद आतंकी हेडली द्वारा २६/११ हमले की ऑनलाइन पूछताछ में भारत के समक्ष पाकिस्तान पोषित आतंकवाद की पोल खोली जा रही थी, तो वहीँ दूसरी तरफ अमेरिका पाकिस्तान को आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर ८६० मिलियन डॉलर की मदद समेत अमेरिकी वायुसेना द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एफ-१६ जैसा  अत्याधुनिक लड़ाकू विमान देने की कवायद कर रहा था। यह लड़ाकू विमान पाकिस्तान को बेचे जाने के प्रस्ताव का अमेरिकी रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों के प्रभावशाली सांसदों द्वारा विरोध किया गया तथा इधर भारत ने भी अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा को तलब कर इस सम्बन्ध में अपनी नाखुशी जाहिर की, लेकिन इन सब विरोधों को नज़रंदाज़ कर ओबामा प्रशासन ने इस प्रस्ताव को आगे बढ़ा दिया। इस सम्बन्ध में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कांग्रेस को अधिसूचित किया है कि वह पाकिस्तान सरकार को एफ-१६ ब्लॉक ५२ विमान, उपकरण, प्रशिक्षण और साजो सामान से जुड़ी संभावित विदेशी सैन्य बिक्री करने को मंजूरी दे रहा है। हालांकि  अभी यह प्रस्ताव कांग्रेस के पास जाएगा और वहां से मंजूरी के बाद ही आगे बढ़ सकेगा। कांग्रेस की आपत्ति की स्थिति में प्रक्रियाएं बेहद जटिल हो जाएंगी और मामला लम्बा खींचने की स्थिति में आ जाएगा।  अतः कह सकते हैं कि प्रक्रियाओं के दृष्टिकोण से पाकिस्तान को अभी यह विमान बेचने का रास्ता ओबामा प्रशासन के लिए साफ़ नहीं हुआ है लेकिन, यहाँ सवाल विमानों के बिकने से अधिक अमेरिका की नीयत का है। सवाल यह कि अमेरिका के सामने जब अनेक माध्यमों से यह बात आती रही है और अमेरिका खुद कई दफे इस बात को स्वीकार भी चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद के नाम पर मिल रही अमेरिकी मदद का इस्तेमाल आतंकियों के संरक्षण और संवर्द्धन तथा भारत विरोधी अभियानों में करता है,  इसके बावजूद वह पाकिस्तान को एफ-१६ जैसा अत्याधुनिक विमान देने का फैसला कैसे कर सकता है ? सामरिक विशेषज्ञों का मत है कि आम तौर पर एफ-१६ को आतंकवाद से लड़ाई के लिए प्रयोग भी नहीं किया जाता है, इसका प्रयोग विशेष रूप से दो देशों के बीच होने वाले युद्धों में ही होता है। फिर इस विमान का पाकिस्तान की आतंक विरोधी लड़ाई में क्या काम जो ओबामा प्रशासन अपने सांसदों के विरोध को नज़रन्दाज करके भी यह विमान पाकिस्तान को देने पर अड़ा हुआ है ? ये प्रश्न कहीं न कहीं आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में अमेरिकी निष्ठा पर गहरे सवाल खड़े करते हैं और अमेरिका पर लगने वाले इस पुराने आरोप को बल देते हैं कि अमेरिका की आतंकवाद से लड़ाई सिर्फ एक नूरा-कुश्ती ही है, जिसके तहत पहले वो आतंकी पैदा करता है, उनका पोषण करता है और फिर जब वे उसे ही चुनौती देने लगते हैं तो उन्हें मिटा देता है। 
दैनिक जागरण 
      एक तथ्य यह भी गौर करने लायक है कि अभी भारतीय गणतंत्र दिवस के अवसर पर जब फ़्रांसिसी राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलांद भारत आए थे तो भारत और फ़्रांस के बीच   राफेल जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमान जो फ़्रांसिसी सेना द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं, की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इस समझौते के तहत फ़्रांस से भारत को १२६ राफेल विमान मिलने हैं जो कुछ प्रक्रियाओं के बाद मिल जाएंगे। यूँ तो अभी भी भारतीय वायुसेना के समक्ष पाकिस्तानी वायुसेना कहीं नहीं ठहरती, तिसपर राफेल के भारतीय वायुसेना में शामिल होने के बाद तो भारतीय वायुसेना की ताकत और बढ़ जाएगी। अब चूंकि, भारत ने ऐसे अत्याधुनिक विमानों की खरीद के लिए रूस और अमेरिका को छोड़ फ़्रांस को चुना तो पूरी संभावना है कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को एफ-१६ बेचने के निर्णय के जरिये कहीं न कहीं भारत के राफेल सौदे का जवाब देने की भी एक कोशिश की गई है। तभी तो ओबामा प्रशासन अपने सांसदों के विरोध तक को नज़रंदाज़ कर रहा है, अन्यथा पाकिस्तान को मदद देना ऐसा कोई विषय नहीं है जिसको टाला या परिवर्तित न किया जा सके। लेकिन ऐसा किया जा रहा है तो इसके पीछे कहीं न कहीं अमेरिका द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से भारत को यह सन्देश देने या ब्लैकमेल करने की कोशिश है कि अगर तुम हमारी साझीदारी नहीं चुनोगे तो हम पाकिस्तान को साझीदार बना लेंगे। दरअसल शुरूआती समय में भारत का केवल एक रक्षा सहयोगी था - रूस। मनमोहन सरकार के कार्यकाल में इस स्थिति में परिवर्तन आया और रूस के साथ अमेरिका भी भारत की प्राथमिकता में आ गया। हालांकि इस अवधि में अमेरिका से भारत ने अधिकांशतः सिर्फ कागज़ी समझौते ही किए, जमीन पर उसे अमेरिका से कोई विशेष लाभ नहीं मिला।  लेकिन वर्ष २०१४ में मोदी सरकार के आने के बाद जब देश का नेतृत्व बदला तो धीरे-धीरे नीति में भी परिवर्तन आया। अब भारत रक्षा सहयोग के मामले में रूस और अमेरिका तक केन्द्रित रहने की बजाय बहुविकल्पीय नीति पर चलने लगा है। अब उसने फ़्रांस, इजरायल, आदि देशों की तरफ भी अपना ध्यान केन्द्रित किया है। निष्कर्ष यह कि वर्तमान में भारत कई राष्ट्रों से रक्षा सहयोग लेने लगा है जिससे भारत के बाजार से अमेरिका का वर्चस्व कम हुआ है। अब भारत जैसे बड़े बाजार में अपने अधिकार कम होने की यह बात अमेरिका को निश्चित ही खटक रही होगी, जिस खटक को भारत-फ़्रांस के हालिया राफेल समझौते ने और बढ़ा दिया। संभवतः इसीका परिणाम है  कि वो तमाम विरोधों के बावजूद पाकिस्तान को एफ-१६ बेचने पर उतारू है। लेकिन, अपनी इस हठधर्मिता के अन्धोत्साह में अमेरिका संभवतः यह नहीं समझ पा रहा कि उसकी ये गतिविधियाँ और कुछ करें न करें, पर दक्षिण एशिया में हथियारों की होड़ का माहौल ज़रूर पैदा करेंगी। अगर उसे लगता है कि पाकिस्तान को एफ-१६ देकर वो उसे भारत के बराबर शक्तिशाली बना देगा या भारत को इससे अपनी तरफ झुका लेगा तो वो बड़े मुगालते में है। उसे समझना होगा कि अब भारत पहले की तरह दूसरों पर निर्भर रहने वाली स्थिति से बाहर आकर एक सशक्त और समर्थ राष्ट्र बन चुका है और वो अब अगर किसीको दबाएगा नहीं तो किसीसे दबेगा भी नहीं। रही बात पाकिस्तान की तो वो भारत के समक्ष सामजिक, आर्थिक और राजनीतिक  से लेकर सैन्य व्यवस्था तक किसी भी स्तर पर कहीं नहीं ठहरता। इसलिए पाकिस्तान को ताकत देकर अमेरिका सिर्फ और सिर्फ दक्षिण एशिया का माहौल और अपनी छवि ही ख़राब करेगा। इससे सीधे-सीधे भारत को कोई समस्या नहीं होने वाली है।

       वैसे, मौजूदा स्थिति के मद्देनज़र भारत को चाहिए कि वो अबसे पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के सम्बन्ध में अमेरिका से शिकायत करने की नीति को ख़त्म करे। निश्चित ही मोदी सरकार के आने के बाद से पाकिस्तान के सम्बन्ध में भारत की अमेरिका परस्ती में कमी  आई है, लेकिन उचित होगा कि इसे पूरी तरह से ख़त्म किया जाय। भारत, पाकिस्तान और उसके आतंकवाद दोनों से निपटने में खुद ही सक्षम है, इसलिए उसकी शिकायतें अमेरिका से करना बंद करे और अपने स्तर पर जो कर सकता है, कार्रवाई करे। भारत की अमेरिका सम्बन्धी नीति यह हो कि अमेरिका को पाक तथा रक्षा सहयोग के सम्बन्ध में किसी भी विषय में आवश्यकता से अधिक  महत्व न दिया जाय। भारत के पास आज रक्षा सहयोगियों की कोई कमी नहीं है, इसलिए इस सम्बन्ध में अमेरिका को कोई विशेष तवज्जो न दे। भारत इस नीति पर चले तो अमेरिका खुद अपनी सारी अकड़ भूल भारत की तरफ आएगा क्योंकि, भारत का बाजार उसकी ज़रुरत है और इसे वो छोड़ नहीं सकता। 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

वामपंथियों का स्याह चेहरा [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
कितनी बड़ी और क्रूर विडंबना है कि एक तरफ जिस जम्मू-कश्मीर सीमा की सुरक्षा के लिए देश के दस जवान सियाचिन की बर्फ में दबकर अपनी जान गँवा देते हैं, वहीँ दूसरी तरफ उनकी शहादत के कुछ रोज बाद ही देश के एक तथाकथित प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में उसी कश्मीर की आज़ादी, भारत की बर्बादी और अफज़ल गुरु के समर्थन जैसे देश विरोधी नारे लगने लगते हैं। दरअसल पूरा मामला कुछ यूँ है कि विगत १० फ़रवरी को जेएनयू कैम्पस के कुछ दलित, अल्पसंख्यक और कश्मीरी विद्यार्थियों द्वारा संसद हमले के फांसी पर लटकाए जा चुके गुनाहगार अफज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया, जिसका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् द्वारा कड़ा विरोध जताते हुए इस सम्बन्ध में प्रशासन से शिकायत की  गई। स्वाभाविक रूप से प्रशासन द्वारा उन छात्रों के इस देश विरोधी कृत्य पर रोक लगा दी गई। बस फिर क्या था! उन विद्यार्थियों द्वारा प्रशासन के निर्णय के विरोध के नाम पर न केवल हुड़दंग शुरू कर दिया गया, बल्कि कश्मीर की आजादी और भारत की बर्बादी के नारे भी लगाए जाने लगे। ‘कश्मीर मांगे आजादी’, ‘कश्मीर की आज़ादी  तक जंग रहेगी, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी’ जैसे देश विरोधी नारे लगा रहे इन छात्रों का जब एबीवीपी के छात्रों ने जेएनयू  छात्रसंघ के संयुक्त सचिव के नेतृत्व में विरोध किया तो न केवल उनके खिलाफ भी नारे लगाए गए, बल्कि कट्टा आदि हथियार दिखाकर उन्हें धमकाया भी गया। अब प्राप्त ख़बरों के अनुसार, नारे लगाने वाले उन छात्रों का यह कहना तो और भी चकित करता है कि संविधान द्वारा मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत ही उन्होंने अफज़ल गुरु और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मकबूल भट की याद में उस सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया था और यदि एबीवीपी ने प्रशासन से कहकर उसपर रोक नहीं लगवाई होती तो वे हंगामा नहीं करते। अर्थात यह कि अभियक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें यदि देश विरोधी गतिविधियों को  करने दिया जाता तो वे ये हंगामा नहीं होता। अब इन छात्रों को कौन समझाए कि जिस संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार दिए हैं, उसीने बतौर देश के नागरिक उनके लिए कुछ मौलिक कर्तव्य भी निर्धारित किए हैं और उन्हीं कर्तव्यों में से एक ‘राष्ट्र की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण’ रखना भी है, जिसका वे पालन नहीं कर रहे। अब संविधान के अधिकार अपनाएं और कर्तव्यों को छोड़ दें, ऐसे दोहरे मानदंड तो कत्तई स्वीकार्य नहीं हैं। इनका एक विरोधाभास यह है कि जिस संविधान द्वारा दिए गए एक अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दम पर ये छात्र ‘भारत की बर्बादी’ के नारे जैसी देश विरोधी गतिविधियाँ तक संचालित करने की हिम्मत दिखा रहे हैं, उसी संविधान की एक कार्यस्थली यानी संसद पर हमला करने वाले अफज़ल गुरु का समर्थन भी कर रहे हैं। हालांकि ये पहली बार नहीं है जब जेएनयू के छात्रों पर देशविरोधी हरकतें करने का आरोप लगा है। अभी हाल ही में जेएनयू के वामपंथी छात्रों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर बेहद अपमानजनक और भद्दे नारे लगाए थे। ३०  जनवरी को वामपंथी छात्र संगठन आईसा और केवाईएस के छात्र हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की मौत को लेकर दिल्ली में आरएसएस दफ्तर के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे। तब इनपर पुलिस ने कार्रवाई की थी तो उसे इन्होने अभिव्यक्ति के हनन से लेकर जाने क्या-क्या बताया था।  स्पष्ट है कि इन छात्रों का विरोध पूरी तरह से तर्क और विवेक से हीन और मृतप्राय हो चुकी अपनी वाम विचारधारा को चर्चा में लाने के एजेंडे पर आधारित है।

  यह सर्वविदित है कि जेएनयू वामपंथियों का गढ़ रहा है और फिलवक्त देश में वही एक ऐसी जगह है जहाँ वामी समुदाय का कुछ अस्तित्व भी है, अन्यथा पूरे देश में इस विचारधारा को छात्र स्तर से लेकर शासन के स्तर तक मतदाताओं द्वारा पूरी तरह से खारिज किया जा चुका है। और अब तो जेएनयू में भी इनकी सत्ता में सेंध लगने लगी हैं। विगत वर्ष के छात्रसंघ चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का संयुक्त सचिव की सीट पर कब्ज़ा करना इसको पूरी तरह से स्पष्ट करता है। कुल मिलाकर वाम विचारधारा पूरी तरह से जनता से दूर किस ऑफ़ लव और महिषासुर को महापुरुष बनाने जैसे जाने किन आसमानी मुद्दों में गुम है और इसी नाते वो दिन ब दिन खारिज हो रही है। लेकिन बावजूद इसके वो स्वयं में सुधार करने की बजाय चर्चा में आने के लिए  अफज़ल गुरु के समर्थन, कश्मीर की आज़ादी और भारत की बर्बादी जैसे देशविरोधी कृत्य करने तक से पीछे नहीं हट रहे। अब उन्हें को कौन समझाए कि ऐसे कृत्यों से उनका तो कोई लाभ नहीं होगा, पर देश की छवि अवश्य ख़राब होगी और देश के दुश्मनों को इसे घेरने का मौका मिलेगा। इन छात्रों के इस विरोध प्रदर्शन के समर्थन में पाकिस्तान में बैठे  भारत के सबसे बड़े दुश्मन हाफ़िज़ सईद का आना इसी बात का उदाहरण है। ऐसा नहीं है कि ये छात्र इन चीजों से अंजान हैं, ये सबकुछ जानते-समझते हुए भी देशविरोधी गतिविधियां करते हैं, अतः इनपर नियंत्रण का सिर्फ एक ही उपाय है कि सख्त से सख्त कार्रवाई की जाय। हालांकि इस सम्बन्ध में कार्रवाई करते हुए दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष जो वामपंथी छात्र संगठन का नेता है और उस देशविरोधी कार्यक्रम का हिस्सा था, को गिरफ्तार कर लिया है तथा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दोषियों पर सख्त कारवाई की बात भी कही है। बहरहाल, भारतीय दंड संहिता के अनुसार इन्हें जो सजा मिले सो मिले ही, एक कार्रवाई यह भी हो सकती है कि जेएनयू में कुछ समय के लिए छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाय. इसका विरोध तो होगा, पर यह कार्रवाई कारगर बहुत होगी। इस तरह की कार्रवाईयों के जरिये ही इन भटके और बिगड़े छात्रों को  सही रास्ते पर लाया जा सकता है। 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

पुलिस की कार्रवाई पर बेजां हंगामा [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला थमने का नाम लेता नहीं दिख रहा। विगत ३० जनवरी को यह मामला फिर चर्चा में तब आया जब कुछ छात्र संगठनों के लोग दिल्ली के झंडेवालान स्थित संघ कार्यालय पर रोहित की आत्महत्या को लेकर विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे। यहाँ पुलिस द्वारा उन्हें रोकने का प्रयास किया गया जिसमे दोनों पक्षों के बीच कुछ खींचतान और हाथापाई भी हुई। आख़िरकार पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित कर लिया गया। अब बवाल तब मचा, जब इस पूरे घटनाक्रम का एक वीडियो सामने आया। वीडियो में पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को पीटते दिखाया गया है। इस वीडियो के आने बाद उन छात्र संगठनों और विपक्ष आदि के द्वारा दिल्ली पुलिस से लेकर केंद्र सरकार पर तक तरह-तरह के आरोप लगाए जाने लगे हैं। वीडियो में कुछ महिला प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की कार्रवाई से लेकर पुलिस से इतर एक अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदर्शनकारियों की पिटाई आदि अनेक विन्दुओं को आधार बनाकर विपक्षियों द्वारा पुलिस और सरकार को घेरा जा रहा है। अक्सर दिल्ली पुलिस को अपने हवाले करने की मांग करने वाले और दिल्ली पुलिस से खुन्नस खाए हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल महोदय को तो जैसे इस मामले के बाद बिन मांगे मुराद मिल गई हो। मामला सामने आने के बाद उन्होंने ट्विट किया कि भाजपा और संघ द्वारा दिल्ली पुलिस का इस्तेमाल ‘प्राइवेट आर्मी’ की तरह किया जा रहा है। ऐसे ही और भी कई लोगों द्वारा इस वीडियो के आधार पर पुलिस और केंद्र सरकार को निशाने पर लिया जा रहा है। हालांकि पुलिस की तरफ से वीडियो की प्रमाणिकता को लेकर संदेह व्यक्त किया गया है। लेकिन, यदि यह वीडियो सही भी है तो इस पूरे प्रकरण में जितनी गलती पुलिस की है, उतनी या उससे कुछ अधिक ही प्रदर्शन करने उतरे छात्रों की भी है। कहा जा रहा है कि प्रदर्शनकारी शांति से विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस ने उनपर कार्रवाई कर दी, जबकि इसी प्रदर्शन का एक और वीडियो सामने आया है, जिसमे यही प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर बेहद अपमानजनक अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। किसी भी व्यक्ति के प्रति अपशब्द का प्रयोग अनुचित है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसा कत्तई  नहीं किया जा सकता। लेकिन ये प्रदर्शनकारी तो चुनौती भरे अंदाज़ में देश के प्रधानमंत्री के प्रति बेहद अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। ऐसा करते वक्त प्रदर्शनकारी शायद ये भूल गए थे कि जो संविधान उन्हें अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, उसी संविधान के तहत मोदी देश के प्रधानमंत्री चुने गए हैं। अतः उनके प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग केवल उनका नहीं, देश और संविधान दोनों का अपमान है। ऐसा अभद्र और बेतुका विरोध करने वाले अराजक विरोधियों को  नियंत्रित करने के लिए यदि पुलिस ने कोई कार्रवाई की तो उसे बहुत गलत नहीं कहा जा सकता। विरोध प्रदर्शन के नाम पर ऐसी अभद्रता और अराजकता मचाने वालों पर कार्रवाई होनी ही चाहिए।
  दूसरी चीज कि रोहित वेमुला ने आत्महत्या की तो उससे संघ का क्या सम्बन्ध था कि ये प्रदर्शनकारी  संघ कार्यालय के सामने विरोध करने पहुँच गए ? इसीसे स्पष्ट होता है कि इस विरोध का न तो कोई स्वरुप था और न ही कोई उद्देश्य। छात्रों का यह विरोध पूरी तरह निराधार और अतार्किक था। इसके अलावा विरोधियों की तरफ से ये जो तर्क दिया जा रहा है कि पुलिस ने महिलाओं के साथ भी मार-पीट की तो प्रश्न यह है कि क्या महिलाएं प्रदर्शनकारियों का हिस्सा नहीं थीं ? निश्चित ही महिलाएं भी प्रदर्शन कर रही थीं और इसलिए उन्हें भी प्रदर्शकारियों पर हुई कार्रवाई का हिस्सा बनना पड़ा। अब अगर कार्रवाई से इतना ही परहेज था तो महिलाओं को प्रदर्शन में उतरना ही नहीं चाहिए था। महिला-पुरुष समानता की बात करने वाले समाज का महिलाओं पर हुई कार्रवाई को  विशेष रूप से रेखांकित करना समझ से परे है। वहां महिला-पुरुष सब प्रदर्शनकारी थे, इसलिए सबको कार्रवाई का सामना करना पड़ा। इसमें बवाल मचाने या सरकार पर सवाल उठाने जैसा कुछ नहीं है। लेकिन ऐसा किया जा रहा है तो उसके पीछे सिर्फ राजनीतिक कारण ही जिम्मेदार हैं।
  कुल मिलाकर स्पष्ट है कि बात कुछ नहीं है, मगर फिर भी कुछ लोगों द्वारा येन-केन-प्रकारेण जबरन रोहित मामले को चर्चा में रखा जा रहा है। जैसे कि ये मामला यदि दब गया तो उन कुछ विशेष विचारधारा के लोगों को ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाएगा। गौर करें तो रोहित की तरह कॉलेज प्रशासन से पीड़ित छात्रों की आत्महत्या के तमाम मामले सामने आते रहते हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं होती। लेकिन विचारधारा विशेष के लोगों द्वारा इस मामले को सिर्फ इसलिए उठाया जा रहा है कि इसके जरिये वे अपने मोदी सरकार के अंधविरोध के मृतप्राय हो रहे एजेंडे को जारी रख सकें। बस इसीलिए वे किसी न किसी तरह से इस मामले को लेकर बवाल मचाने में लगे हुए हैं।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

औचित्यहीन हैं समलैंगिक सम्बन्ध [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
देश में समलैंगिक संबंधों पर एकबार फिर चर्चा शुरू हो गई है । समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था नाज़ फाउंडेशन ने समलैंगिक संबंधों को अपराध बताने वाले सर्वोच्च न्यायालय के २०१३ के फैसले के खिलाफ याचिकाएं दायर की थी, जिनपर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को नए सिरे से विचार करने के लिए ५ न्यायाधीशों की एक बेंच के हवाले कर दिया है । दरअसल इस मामले की शुरुआत तो २००१ में हो गई थी, जब नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करते हुए समलैंगिक संबंधों को वैधानिक मान्यता देने की मांग की थी । सितम्बर, २००४ में उच्च न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी तो मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा जिसने इसे पुनर्विचार के आदेश के साथ उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया । उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस सम्बन्ध में राय मांगी तो तत्कालीन सरकार ने स्पष्ट किया कि यह अनैतिक और विकृत मानसिकता का द्योतक है, इससे समाज का नैतिक पतन हो जाएगा ।  लेकिन उच्च न्यायालय इस दलील से सतुष्ट नहीं हुआ और इस प्रकार करते-धरते आज से लगभग सात साल पहले २ जुलाई, सन २००९ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में समलैंगिक संबंध को जायज घोषित कर दिया । तत्कालीन दौर में उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि ये संबंध भी सामाजिक स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं, अतः इन्हें आपराधिक नही माना जा सकता । उसवक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को जहाँ दुनिया के कई देशों में सराहा गया, वहीँ हिंदू, मुस्लिम आदि धार्मिक संगठनों द्वारा इस फैसले का विरोध करते हुए इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई, जिसपर सुनवाई करते हुए सन २०१३ में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को संवैधानिक रूप से अपराध बताया । हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में क़ानून में बदलाव की बात संसद और सरकार के ऊपर छोड़ दी थी । अब अपने  उसी फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को पुनर्विचार के लिए स्वीकार लिया है ।
 पुनर्विचार के बाद न्यायालय का फैसला क्या होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन, समलैंगिक सबंधों के औचित्य और आवश्यकता पर फ़िलहाल हमें एकबार पुनः विचार करने की जरूरत अवश्य है । अगर विचार करें तो आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पारम्परिक रूप से चले आ रहे स्त्री-पुरुष या नर मादा संबंधों के बीच हमारे इस समाज में समलैंगिक संबंधों की क्या आवश्यकता है ? और इनका क्या औचित्य है ?  इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए सर्वप्रथम हमें समझना होगा कि आखिर समलैंगिक संबंध क्या है तथा ये हमारे समाज और संस्कृति के कितने अनुकूल है । समलैंगिक संबंध दो समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच मुख्यतः शारीरिक व कुछ हद तक मानसिक संबंध कायम करने की एक आधुनिक पद्धति है । अर्थात इस संबंध पद्धति के अंतर्गत दो स्त्रियां अथवा दो पुरुष आपस में पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं । अब अगर इस संबंध पद्धति को भारत की सामाजिक व कानूनी व्यवस्था के संदर्भ में देखें तो इस तरह के संबंध के लिए न तो भारतीय समाज के तरफ से अनुमति है और न ही क़ानून की तरफ से । जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने पूर्व निर्णय में कहा है, भारत के संविधान में इस तरह के संबंधो को अप्राकृतिक बताते हुए इनके लिए सज़ा तक का प्रावधान किया गया है । भारतीय संविधान की धारा-३७७ के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को आपराधिक माना गया है और इसके लिए दस साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा का भी प्रावधान है । लेकिन, सन २००९ में उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद ये बातें गौण हो गई और कानूनी रूप से समलैंगिक संबंध स्वीकृत हो गए । पर फिर जब सर्वोच्च न्यायालय का २०१३ का निर्णय आया तो ये क़ानून प्रासंगिक हुए और माना गया कि समलैंगिक सम्बन्ध संविधानानुसार अवैध हैं । ये तो बात हुई कानून की । अब अगर एक नज़र समाज पर डालें तो सामाजिक दृष्टिकोण से भी सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंध कायम करने को सही माना जाता है, वो भी तब जब स्त्री-पुरुष वैवाहिक पद्धति से एकदूसरे को स्वीकार चुके हों । हालांकि आज के इस आधुनिक युग में लोगों, खासकर शहरी युवाओं द्वारा शारीरिक संबंध के लिए वैवाहिक अनिवार्यता की इस सामाजिक मान्यता को दरकिनार करके संबंध बनाए जा रहे हैं । पर ऐसा करने वालों की संख्या अभी काफी कम है ।

  अगर विचार करें तो स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित होने के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं – प्रजनन एवं शारीरिक और कुछ एक हद तक मानसिक संतुष्टि । इनमे भी प्रजनन का स्थान सबसे पहले आता है । क्योंकि सभी संबंधों की बारी प्रजनन के बाद ही आती है । अगर प्रजनन ही नही होगा तो फिर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं प्राकृतिक संतुलन अर्थविहीन हो जायेगा । बात चाहें समाज की स्थापना की हो या सम्बन्ध की स्थापना की या फिर प्राकृतिक संतुलन की ही क्यों न हो,  सबका स्रोत प्रजनन ही है और समलैंगिक सम्बन्धों में प्रजनन की सम्भावनाओं को प्राकृतिक  रूप से प्राप्त करना असम्भव नज़र आता है । जाहिर है कि प्रजनन की योग्यता  से हीन समलैंगिक संबंध दो समलिंगी लोगों की शारीरिक इच्छाओं को पूर्ण करने का एक विकृत माध्यम भर है । इसके अतिरिक्त  फ़िलहाल इनका कोई औचित्य नही है । यानी कि यह पूरी तरह से स्वार्थपूर्ण सम्बन्ध पद्धति है, जिसे देश-समाज से कोई सरोकार नहीं है । संविधान में समलैंगिक सम्बन्ध को अप्राकृतिक कहने का एक कारण यह भी है कि समाज में प्राकृतिक एवं परम्परागत रूप से जो सम्बन्ध स्थापित होते आ  रहें हैं और जिन सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है, उनको  समाज में उत्पन्न यह नया सम्बन्ध खुली चुनौती दे रहा है । तात्पर्य यह कि समलैंगिकता प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचना को ही चुनौती दे रही है । समलैंगिक रिश्तों के भावी परिणामो की अनदेखी करते हुए  इसके वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति के आधार पर इसे क़ानूनी एवं सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर देना शायद हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल होगी । बेशक, आज इस समलैंगिक संबंध के समर्थकों की संख्या काफी कम है, पर जिस तरह से इसके समर्थक बढ़ रहे हैं, वो आने वाले समय में हमारी सामाजिक व्यवस्था को व्यापक तौर पर प्रभावित या दुष्प्रभावित करेगा । अगर इसे शह मिले तो संभव है कि दूर भविष्य में ये प्रजनन विहीन सम्बन्ध पद्धति हमारी सामजिक व्यवस्था को ही ठेस पहुंचाने लगे । लिहाजा यही उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में पुनर्विचार करके भी पुनः अपने पूर्व निर्णय पर ही कायम रहेगा । और यदि न्यायालय सबकुछ सरकार पर छोड़ता है तो सरकार से भी यही उम्मीद की जा सकती है कि वो समलैंगिक संबंधों को अवैध बताने वाली धारा-३७७ के में कोई विशेष फेर बदल नहीं करे, बल्कि उस क़ानून में ऐसे प्रावधान करे जिससे कि इस तरह के अप्राकृतिक, अनावश्यक और निराधार संबंध स्थापित करने वालों पर समुचित नियंत्रण स्थापित किया जा सके ।