- पीयूष द्विवेदी भारत
देश के मौजूदा हालात बेहद उथल-पुथल भरे हैं। देश की राजधानी दिल्ली में बुद्धि
के स्वघोषित ठेकेदारों द्वारा देशभक्ति और देशद्रोह की नई-नई परिभाषाएँ गढ़कर स्वयं
को सही साबित करने की कवायद की जा रही हैं, तो इसीसे सटे हरियाणा राज्य का संभवतः
सर्वाधिक संपन्न जाट समुदाय स्वयं को पिछड़ा सिद्ध करने में लगा हुआ है ताकि
वंचितों के ‘हितों के रक्षक’ आरक्षण का अनुचित लाभ पा सके। ऐसा नहीं कह रहे कि इन
चीजों में केवल गलत हो रहा या सबकुछ गलत ही है लेकिन, इन सब वितंडों से फिलवक्त
देश को सिवाय नुकसान के एक लाभ होता हुआ भी तो नहीं दिख रहा। इस कारण ये स्थितियां
एक आम हिन्दुस्तानी के मन को कहीं न कहीं बेहद व्यथित करती हैं। वैसे, इन सब
वितंडों से हजारों मील दूर भी बहुत कुछ हो रहा है, जहाँ ऋणात्मक ४५ डीग्री के
तापमान से भरी बर्फ की पहाड़ियों से लेकर दुश्मन की गोलियों के बीच में तक हमारे
जवान इस देश जो उन्हें शायद उन्हें उनकी सेवाओं के बदले कुछ विशेष नहीं देता, की
रक्षा के लिए अपना जीवन बीता रहे हैं। ऐसे ही जीवन बिताते-बिताते कभी सियाचिन में कोई
हिमस्खलन होता है तो बर्फ में दबकर दस जवान अपनी देशभक्ति साबित कर जाते हैं तो
कभी जिस जम्मू-कश्मीर पर दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में बौद्धिक विलास हो रहा
है, उसके किसी पम्पोर इलाके में न केवल इस देश बल्कि समूची मानवता के दुश्मन
आतंकियों से लोहा लेते हुए पांच जवान अपना बलिदान दे जाते हैं। ये सब होता है तो
देश की नज़र दिल्ली के बौद्धिक विलास और बेकार वितंडों से कुछ हटकर ज़रा उधर भी जाती
है और देश यह देखकर हमेशा की तरह फूलकर चौड़ा हो जाता है कि इस देश के लिए फिर कुछ शहादतें
हो गई हैं! यानी देश सुरक्षित है।
फिर कुछ समय के लिए जवानों की देशभक्ति पर देश मगन हो जाता है। टीवी मीडिया
में उनकी तस्वीरे ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ के पार्श्व संगीत के साथ तैरने लगती हैं,
जो बेशक देश के भावुक लोगों की आँखों में गर्वयुक्त प्रसन्नता के आंसू ला देती हैं।
इस अवसर पर देश के नेता भी गर्व और वीररस से भरे बयान देने में बिलकुल देरी नहीं
करते। तदुपरांत सब शांत हो जाता है और फिर देश, मीडिया, नेता सब पुनः दिल्ली के
बौद्धिक विलास की तरफ कूच कर जाते हैं। इस दौरान शहादतों पर मदमस्त देश में इस बात
पर विचार करने का विवेक नहीं रह जाता कि इन शहादतों का अंत कब होगा ? देश इस बात
पर थोड़ा भी विचार नहीं करता कि गुलामी में आजादी के लिए देश ने शहादतें दीं, लेकिन
आज इस आज़ाद देश में भी इतनी शहादतें क्यों कि हर वर्ष कमोबेश हमारे सैकड़ों जवान
अपनी जान गंवा बैठते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि देश ने जवानों की शहादतों को एक
अंतहीन प्रक्रिया की तरह स्वीकार लिया है जिस कारण इसके कारणों और निवारणों पर कभी
बात ही नहीं करता ? अगर ऐसा है तो देश समझ ले कि ये बहुत गलत है। क्योंकि, एक आज़ाद मुल्क में
जवानों की शहादत यदि प्रतिवर्ष निरंतरता के साथ जारी है तो ये गर्व से अधिक चिंता का
विषय है। इस बात पर बेशक गर्व होना चाहिए कि हमारे जवान देश के लिए अपनी जान तक की
परवाह नहीं करते, लेकिन शहादत यदि एक निश्चित प्रक्रिया बन जाए तो ये चिंताजनक है।
अब जो देश ऐसी शहादतों पर सिर्फ गर्वित होकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझ लेता
है, निस्संदेह वो अपने जवानों के प्रति बेहद गैर-जिम्मेदार देश है। ऐसी शहादतों पर
गर्वित होना, भीषण निर्दयता है। लिहाजा, दिल्ली
में बैठकर कश्मीर हल करने से अगर फुर्सत मिल जाए तो ज़रा इन बातों पर भी विचार
करियेगा।
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