सोमवार, 27 जून 2016

एनएसजी प्रकरण के आईने में [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित}

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आख़िरकार भारत की परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी की सदस्यता को लेकर लंबे समय से चल रही तमाम चर्चाओं और अटकलों का भारत को एनएसजी सदस्यता न मिलने के साथ ही दुखद अंत हुआ। हालाकि इससे भी अधिक दुखद तो ये है कि एक तरफ सियोल से भारत को एनएसजी सदस्यता न मिलने की खबर आई और दूसरी तरफ इस देश के विपक्षी राजनीतिक दलों समेत एक विशेष किस्म के वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इसपर प्रधानमंत्री मोदी पर तरह-तरह से निशाना साधा जाने लगा। कहाँ तक इस समय में सबके स्वर देश के समर्थन में और इस वैश्विक पक्षपात के विरुद्ध होने चाहिए थे, वहीँ वे अपने संकीर्ण हितों से प्रेरित मोदी विरोध के एजेंडे को अंजाम देते हुए प्रधानमंत्री मोदी को कोसने में अपनी सारी ऊर्जा लगा दिए। ये विरोध सियोल के विरोध से कई गुना अधिक चिंताजनक, भयानक और कष्टकारी है।  
एनएसजी सदस्य देशों की सियोल में हुई बैठक में जहाँ चीन ने भारत की एनएसजी सदस्यता का प्रत्यक्ष रूप से विरोध किया तो वहीँ अन्य नौ सदस्य देशों ने भी प्रक्रिया आदि पर सवाल उठाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपना विरोध जताया। विरोध जताने वाले देशों में चीन के अतिरिक्त तुर्की, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड, न्यूजीलैंड आदि देश रहे, जिनके विरोध के फलस्वरूप भारत की सदस्यता का मामला अधर में ही लटका रह गया। ख़बरों के अनुसार, आयरलैंड, आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, ब्राजील आदि ज्यादातर देशों ने भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर न किए जाने के कारण उसे एनएसजी की सदस्यता के लिए अयोग्य माना तो चीन अंत समय तक भारत के विरोध पर ही अडिग रहा। स्विजरलैंड ने भारत का समर्थन तो किया, मगर एनएसजी की सदस्यता के नियमों पर सवाल उठाकर अपने समर्थन को हल्का कर दिया। तुर्की भी चीन के ही रास्ते पर चला। कुल मिलाकर  समझना मुश्किल नहीं है कि भारत का विरोध करने वाले इन देशों में से ज्यादातर के विरोध का कारण एनपीटी पर हस्ताक्षर कम, निजी कूटनीति अधिक है। वास्तव में एनपीटी जिसको पक्षपातपूर्ण मानते हुए भारत द्वारा अस्वीकार किया जाता रहा है, के बहाने जहाँ कई देशों ने भारत को वैश्विक स्तर पर बढ़ने न देने की अपनी प्रतिस्पर्धात्मक कूटनीति को साधने का प्रयास किया है तो वहीँ तुर्की आदि कुछेक देश ऐसे भी हैं, जिनका भारत विरोध चीन के प्रभावस्वरूप उपजा है। चीन का भारत-वैर तो खैर इतिहास प्रसिद्ध ही है और फ़िलहाल जब भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख और शक्ति निरंतर रूप से बढ़ रही है तो ये चीन को कैसे बर्दाश्त हो सकता है ? चूंकि, भारत का वैश्विक उभार एशिया में चीन के वर्चस्व को कम करने की क्षमता रखता है, बस यही चीन द्वारा भारत के प्रति भय और असुरक्षा महसूस करने का कारण है। इसलिए निश्चित तौर पर जहां तक संभव होगा, उसके द्वारा भारत की वैश्विक सफलताओं और प्रगतियों को कुंठित करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग किया ही जाएगा। संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर पर प्रतिबन्ध के भारतीय प्रस्ताव का विरोध और अब भारत की एनएसजी सदस्यता में रोड़ा, ये सब चीन की उक्त भारत-विरोध की नीति का ही हिस्सा है। २००८ में भी भारत की एनएसजी सदस्यता की बात आने पर चीन का यही रुख रहा था जो आज है। कहना गलत नहीं होगा कि एनपीटी तो केवल एक बहाना है, अन्यथा एनएसजी की सियोल बैठक में हुए भारत विरोध के मूल में तो भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ने न देने की चिर-परिचित भारत-विरोधी चीनी नीति का ही प्रभाव रहा है। 
बात को थोड़ा और बेहतर ढंग से समझने के लिए अगर एनएसजी और उसकी सदस्यता प्रक्रिया पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें तो सन १९७४ में जब भारत द्वारा स्माइलिंग बुद्धा नामक अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया गया तो इसने दुनिया की महाशक्तियों को हैरान-परेशान कर दिया। इस परीक्षण से सशंकित महाशक्ति देशों द्वारा तुरंत ही एक बैठक कर परमाणु ऊर्जा को सीमित करने के उद्देश्य से परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की स्थापना की गई। प्रारंभ में सात सदस्यीय एनएसजी के सदस्यों का समयानुसार विस्तार होता गया और आज ४८ देश इसके सदस्य हैं। इसके नियमानुसार परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जिसका तथाकथित उद्देश्य परमाणु अस्त्रों के विकास और प्रसार  को नियंत्रित करना है, पर हस्ताक्षर करने वाले देश ही इसकी सदस्यता के लिए योग्य होते हैं। इसपर हस्ताक्षर करने वाला देश भविष्य में परमाणु अस्त्र विकसित नहीं कर सकता। अभी १९० देश इसपर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इसे अन्यायपूर्ण मानते हुए इसका विरोध करता रहा है। भारत का विरोध उचित भी है। विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले  अमेरिका, रूस, फ़्रांस, आदि महाशक्ति देशों ने खुद तो पहले से ही परमाणु हथियारों का जखीरा तैयार कर रखा है और अब भारत जैसे नए उभरते देशों के ऊपर निशस्त्रीकरण की आड़ लेकर इस संधि के रूप में प्रतिबन्ध थोपने का अनुचित और कुटिल प्रयास कर रहे हैं। यह वैसे ही है जैसे कि कोई खुद तो भरपेट भोजन कर ले और फिर दूसरों को भोजन की हानियाँ बताते हुए भोजन न करने के लिए बाध्य करे। अगर महाशक्तियां वाकई में दुनिया को परमाणु अस्त्रों से मुक्त देखना चाहती हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने पास संग्रहित हजारों की संख्या में परमाणु अस्त्रों को नष्ट कर देना चाहिए। ज्ञात आंकड़ों के अनुसार, अकेले अमेरिका और रूस के ही पास दुनिया के आधे से अधिक परमाणु अस्त्र मौजूद हैं जो कि इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप उपजे हैं। अन्य देशों ने तो सिर्फ अपनी सुरक्षात्मक चिंताओं के मद्देनज़र परमाणु हथियार विकसित किए हैं। भारत भी उनमे से ही एक है। इस बात को इस तथ्य के जरिये ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं कि भारत के बाद में परमाणु हथियार की क्षमता अर्जित करने वाले पाकिस्तान के पास आज भारत से अधिक परमाणु हथियार होने की बात जब-तब अमेरिकी संस्थाओं की ही रिपोर्ट्स में सामने आती रही है। ऐसे में समझना आसान है कि वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों के मद्देनज़र भारत ने परमाणु हथियार सिर्फ अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता और सुरक्षा के लिए विकसित किए हैं न कि महाशक्ति देशों की तरह उसमे हथियारों की होड़ जैसा कोई भाव है। अतः अगर महाशक्ति देश वाकई में निशस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें भारत को एनपीटी जैसी अन्यायपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर न करने के कारण संदेह की दृष्टि से देखने की बजाय पहले अपने परमाणु जखीरे को समाप्त कर खुद इसकी पहल करनी चाहिए।  मगर वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि, निशस्त्रीकरण तो सिर्फ बहाना है, उनकी वास्तविक मंशा तो परमाणु हथियारों पर एकाधिकार के बलबूते अपने अप्रत्यक्ष वैश्विक वर्चस्व को बरकरार रखने की है। इन परिस्थितियों को देखने के बाद भारत का एनपीटी पर हस्ताक्षर न करने का निर्णय एकदम सही प्रतीत होता है। और आगे भी बेशक भारत को एनएसजी की सदस्यता न मिले, मगर उसे एनपीटी पर अपने मौजूदा पक्ष के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध ही रहना चाहिए।
बहरहाल, ताज़ा मामले पर आएं तो यह ठीक है कि अभी भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिल सकी, लेकिन इस दौरान उसे ४८ सदस्यीय एनएसजी के 38 सदस्य देशों का समर्थन मिलने से एकबार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति अब बेहद मजबूत हो चुकी है। यह उम्मीद भी प्रबल हुई है कि अभी बेशक भारत को विशेष रूप से चीन के कूटनीतिक दुष्प्रयासों और विरोध के कारण एनएसजी की सदस्यता से वंचित रहना पड़ा हो, लेकिन भारत के लिए बढ़ते वैश्विक समर्थन के मद्देनज़र अब अधिक समय तक चीन के लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा। भारत की वैश्विक स्वीकृति जैसे-जैसे बढ़ेगी चीन पर दबाव बढ़ता जाएगा और अंततः उसे भारत को स्वीकारना ही पड़ेगा। अतः फ़िलहाल जो हुआ वो भले बहुत अच्छा न हो, मगर इसमें भी आशा ही दिखती है। निराश होने का कोई कारण नहीं दिखता।

बुधवार, 22 जून 2016

मोदी विरोध का हठयोग [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राज एक्सप्रेस 
गत २१ जून को जब पूरा विश्व भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर पिछले वर्ष शुरू किया गया विश्व योग दिवस मना रहा था, तो वहीँ  भारत के एक बड़े राज्य बिहार के मुख्यमंत्री बाबू नीतीश कुमार योग दिवस का बहिष्कार कर इस अवसर पर 'संगीत दिवस' मनाने में मशगुल थे।  योग दिवस नहीं मनाने के लिए नीतीश कुमार साहब ने ये तर्क  दिया है कि जब तक देश में पूरी तरह से शराबबंदी नहीं हो जाती तबतक योग का कोई लाभ नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि शराब की लत रखने वाले योग नहीं कर सकते। गौर करें तो एक तरफ तो नीतीश बाबू कह रहे हैं कि जो शराब पीते हैं  वे योग कर ही नहीं सकते और दूसरी तरफ खुद योग दिवस का बहिष्कार कर योग नहीं कर रहे। अब इससे क्या ये समझा जाय कि वे योग को छोड़ शराब का समर्थन कर रहे हैं ? कहने की आवश्यकता नहीं कि नीतीश कुमार के उक्त सभी तर्क पूरी तरह से अमान्य और निराधार हैं। अब सवाल ये उठता है कि नीतीश कुमार जैसा गंभीर और विवेकशील नेता आखिर किस कारण योग जैसे स्वास्थ्यवर्द्धक और रचनात्मक कार्य का विरोध कर रहा है ?  इस सवाल की तह में जाने पर स्पष्ट होता  है कि नीतीश कुमार का यह विरोध पूरी तरह से राजनीती से प्रेरित है। इसका कारण बताने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है, क्योंकि नीतीश बाबू के मोदी विरोध का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। हम देख चुके हैं कि कैसे जब विगत लोकसभा चुनाव भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ना निर्धारित किया था तो बिहार में भाजपा के सहयोग से सरकार चला रहे नीतीश कुमार ने पहले तो इसका खुलकर विरोध किया और जब किसीने उनकी बात नहीं सुनी तो मोदी विरोध में हठयोगी हुए नीतीश ने भाजपा से गठबंधन ही ख़त्म कर दिया। इसके बाद तरह-तरह से प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधने से लेकर हर तरह से उन्हें नीचा दिखाने की फिजूल कोशिशें नीतीश कुमार की तरफ से की जाती रहीं। आज उनके मोदी विरोध का आलम ये है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी का कोई भी विरोधी स्वतः ही उनका परममित्र हो जाता है। आलम ये है कि गत बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार भाजपा को रोकने  के लिए उन्होंने अपने कट्टर विरोधी लालू प्रसाद यादव के दल राजद तक से गठबंधन कर लिया। आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  जिन्होंने गत  दिल्ली चुनाव में भाजपा का विजयरथ रोका था और जो अपने मोदी विरोध के लिए भी प्रसिद्ध हैं, नीतीश कुमार के इतने प्रिय हो गए कि  बिहार चुनाव में उनका प्रचार करने का ऐलान कर दिए।  इन बातों से स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति नीतीश कुमार का रवैया एकदम कट्टर विरोधी का रहा है और ये विरोध अक्सर अपने पूरे मुखर रूप में देखने को भी मिलता रहता है।
अब ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि वर्तमान में विश्व योग दिवस का जो विरोध नीतीश कर रहे हैं, वो भी उनके मोदी विरोध का ही एक हिस्सा है। कारण कि यह विश्व योग दिवस विगत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा यूएन में की गई पहल के फलस्वरूप आरम्भ हुआ है, जिसके लिए देश से लेकर विदेशों तक से नरेंद्र मोदी को उचित सराहना भी मिल रही है। अब नीतीश कुमार को निश्चित तौर पर यही बात नहीं पच रही और वे अपनी खीझ योग दिवस की जगह संगीत दिवस मनाकर जाहिर कर रहे हैं। मोदी की पहल से आरम्भ होने के कारण हमारे पूर्वजों की  उत्कृष्ट   धरोहर योग भी उनके लिए 'अछूत' सा हो गया है।  लेकिन नीतीश कुमार को कौन समझाए कि अपनी महत्वाकांक्षा से उपजे मोदी विरोध के अन्धोत्साह में वे जिस योग के दिवस को नहीं मना रहे, वह योग किसी व्यक्ति विशेष की नहीं समग्र राष्ट्र की  धरोहर है।  शरीर को आंतरिक व बाह्य रूप से स्वस्थ, सुदृढ़  तथा तेजयुक्त रखने में  सहायक योग की यह पद्धति हमारे पूर्वजों की एक अमूल्य रचना है, जिसको कि गत वर्ष विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दिलवाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाकई में महत्वपूर्ण कार्य किया है और इसके लिए निश्चित रूप से वे प्रशंसा के पात्र हैं। ऐसे में, नीतीश कुमार को समझना चाहिए कि  मोदी से उनका राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, लेकिन वर्तमान में मोदी इस देश के प्रधानमंत्री हैं और बतौर प्रधानमंत्री उनके कार्यों का पूर्वाग्रहों से रहित होकर स्वागत किया जाना चाहिए। और नीतीश कुमार जो एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं, के लिए तो ये दायित्व और भी बढ़ जाता है। मगर, इससे इतर मोदी विरोध के कारण योग दिवस न मनाने का जो हठयोग नीतीश बाबू कर रहे हैं, वो और कुछ नहीं केवल और केवल उनकी संकीर्ण मानसिकता को ही दिखाता  है।  इससे न केवल देश के प्रति दुनिया में गलत संदेश जा सकता है, बल्कि व्यक्तिगत रूप से नीतीश बाबू की विवेकपूर्ण और सुलझे हुए नेता की छवि के भी और धूमिल होने का खतरा है। अच्छा होगा कि नीतीश अब भी संभल जाएं और मोदी विरोध के हठयोग को छोड़कर परमशान्ति दायक योग को अपना लें।

गुरुवार, 16 जून 2016

कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की गुत्थी [हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हरिभूमि 
गत वर्ष २०१४ में जब भाजपा की सरकार पहले केंद्र तथा उसके बाद जम्मू-कश्मीर चुनावोपरांत राज्य सरकार में भी सहयोगी भूमिका में आई तो लगभग ढाई दशक से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के मन में उम्मीद जगी कि संभवतः अब उनका  पुनर्वास हो जाएगा। उन्हें लगा कि अब वे अपने उन पैतृक आवासों को पुनः प्राप्त कर सकेंगे जहाँ से उन्हें आज से ढाई दशक पहले समुदाय विशेष के तथाकथित झंडाबरदारों द्वारा  अपने मजहब की जाने किस हिफाजत के लिए आतंकित और प्रताड़ित करके खदेड़ दिया गया था। तबसे अपने पुनर्वास की आस में जी रहे इन कश्मीरी पंडितों के माँ खीरी भवानी दर्शन को जा रहे  एक काफिले पर विगत दिनों जिस तरह से ईंट-पत्थरों द्वारा हमला किया गया, उसने देश को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि वे कितनी क्रूर मानसिकता के मजहबी लोग हैं, जिन्हें इन हिन्दू पंडितों को वर्षों पहले विस्थापित और बर्बाद करने के बावजूद भी अबतक चैन नहीं मिला है ? इस संदर्भ में अगर  कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो आज से लगभग २६ वर्ष पहले सन १९९० में कश्मीर के मुसलमानों के साथ एकता और प्रेम से रहने वाले इन कश्मीरी पंडितों यानी हिन्दुओं पर समुदाय विशेष के रहनुमाओं का ऐसा कहर बरपा कि उन्होंने अपने मजहब की हिफाजत के नाम पर पाकिस्तान से प्रेरित होकर हिन्दू पंडितों को उनके ठिकानों से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। इन पंडितों को चुन-चुनकर मारा गया। यहाँ तक कि कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक लसा कौल, राजनीतिक कार्यकर्त्ता टीकालाल टप्लू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, बाल कृष्ण गंजू आदि दर्जनों बेकसूर पंडितों को भी तथाकथित इस्लामिक रहनुमाओं द्वारा बेरहमी से मौत के घाट उतार देने का मामला भी सामने आया। बताया जाता है कि उस समय कश्मीर की मस्जिदों की गुम्बदों पर लगे माइकों से अजान की बजाय हिन्दुओं के लिए  धमकी भरे संदेश प्रसारित होते रहते थे। उनके घरों की दीवारों पर सूचना चिपकाई जाती कि अपनी पत्नियों को छोड़कर यहाँ से भाग जाएं, अन्यथा मारे जाएंगे। उनके सामने ही उनकी पत्नियों से सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया जाता और उनके बच्चों की निर्ममता से हत्या कर दी जाती। समझा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में बेचारे शांतिप्रिय कश्मीरी पंडितों की क्या दशा हुई होगी और कितनी विवशता में उन्हें अपनी जान की सलामती के लिए अपनी जन्मभूमि को छोड़कर पलायन करना पड़ा होगा। एक आंकड़े के मुताबिक़ उस दौर में हजारों की संख्या में कश्मीरी पंडितों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और लगभग 3.5 लाख पंडित पलायन करने को विवश हुए। जब यह फसाद शुरू हुआ उस समय केंद्र में जनता दल की सरकार थी और राज्य में फारुक अब्दुल्ला सरकार के जाने के बाद राष्ट्रपति शासन लग गया था। जून १९९१ में जनता दल की सरकार चली गई और केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई तथा नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। अब भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन यानी अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र का शासन ही था। लेकिन, कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और उक्त किसी भी दौर की सरकार ने जाने किस कारण उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ नहीं किया। ये असंवेदनशीलता सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं थी बल्कि आज कहीं किसी दादरी की झड़प में एक समुदाय विशेष के आदमी के मारे जाने पर अपने पुरस्कार वापस कर असहिष्णुता का विलाप करने वाले इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के कानों में भी तब हजारों-लाखों कश्मीरी पंडितों के चीत्कार के स्वर नहीं पड़े। ये बुद्धिजीवी वर्ग भी धरती का स्वर्ग कहीं जाने वाली घाटी के उस खुनी खेल पर पूरी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए मूकदर्शक बना बैठा रहा। निष्कर्षतः देश की धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले सत्ता से लेकर समाज तक सबने तब उन कश्मीरी पंडितों पर मजहबी उन्माद के कारण हो रहे भीषण अत्याचार की तरफ से ऐसे आँखें मूँद ली थी, जैसे जम्मू-कश्मीर इस देश का अंग ही न हो। भारतीय सेना भी आदेश के अभाव में कुछ नहीं कर सकी। ऐसे में, उन हिन्दू पंडितों की बेबसी के आलम का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। पंडितों पर सन नब्बे में शुरू हुआ ये जुल्म अगले कई वर्षों तक चला और धीरे-धीरे घाटी इन कश्मीरी पंडितों से खाली हो गई। इनमे से तमाम पंडित वर्षों से सरकार की राहत शिविरों में इसी उम्मीद के साथ अपने दिन काट रहे हैं  कि कभी न कभी उन्हें अपने पैतृक आवास में लौटने का सुअवसर मिलेगा। हालांकि अबतक उन्हें केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक से वादों और दिलासों के अलावा और कुछ नहीं मिला है। ऐसे में, अब सवाल यह उठता है कि केंद्र की भाजपा सरकार जिसने अपने एजेंडे में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की बात कही है और इस सम्बन्ध में पैकेज का ऐलान भी कर चुकी है, के पास  कश्मीर के मौजूदा जमीनी हालात के मद्देनज़र अपने वादे को पूरा करने के लिए क्या योजना है ? 
हालांकि कश्मीरी पंडितों के मंदिर जा रहे काफिले पर हुए ताज़ा हमले के बाद जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने न केवल माँ खीरी भवानी मंदिर में जाकर पूजा की है, बल्कि यह सकारात्मक बयान भी दिया है कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है और उनके पुनर्वास के लिए पूरा प्रयास किया जा रहा है। अब महबूबा मुफ़्ती जैसी कट्टर इस्लामिक और अलगाववादी प्रेमी दल की नेता का ये धर्मनिरपेक्ष रवैया और बयान पहले पहल चौंकाता भले हो, लेकिन इसमे निहित राजनीतिक मजबूरी को समझने पर यह सब सामान्य ही लगता है। दरअसल कश्मीरी पंडितों के प्रति महबूबा मुफ़्ती की ये मधुर भाषा सिर्फ और सिर्फ इसलिए है कि उनकी सरकार  हिन्दुत्ववादी विचारधारा वाली भाजपा के दम पर चल रही है। बस इसी राजनीतिक मजबूरी से ये बयान उपजा है और अगर इस सम्बन्ध में महबूबा सरकार कुछ काम करेगी तो वो भी इस राजनीतिक मजबूरी के कारण ही होगा जिसका पूरा श्रेय भाजपा को ही जाएगा। ये भाजपा की बड़ी सफलता भी होगी। यह देखते हुए समझा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर चुनाव के बाद आखिर क्यों भाजपा ने सभी विरोधों और आरोपों को नज़रन्दाज कर पीडीपी संग न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार बनाने का निर्णय लिया था। मौजूदा राजनीतिक हालात भाजपा के उस निर्णय को सही साबित करते ही दिख रहे हैं। अगर भाजपा उसवक्त यह नहीं करती तो संभव था कि पुनः चुनाव की स्थिति में पीडीपी को पूर्ण बहुमत मिल जाता और फिर भाजपा के पास राज्य में कुछ शेष नहीं रह जाता। लेकिन, अभी वो राज्य सरकार के साथ सहयोगी भूमिका में है और उसकी इच्छा के विरुद्ध महबूबा मुफ़्ती कोई निर्णय नहीं ले सकती। तिसपर केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। ऐसे में, कहना गलत नहीं होगा कि गठबंधन में भाजपा की स्थिति अधिक मजबूत है और इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम की सरकार में अगर भाजपा अपने एजेंडे से दो कदम पीछे हटेगी तो महबूबा मुफ़्ती को चार कदम पीछे हटना पड़ेगा। ये स्थिति कश्मीरी पंडितों के लिए अच्छा संकेत तो है, लेकिन फिर भी उनका पुनर्वास अभी दूर की कौड़ी ही नज़र आता है। क्योंकि केंद्र सरकार पैकेजों के जरिये उन्हें भौतिक रूप से तो पुनर्वासित कर सकती है, लेकिन ठोस योजना और सुरक्षा सुनिश्चित किए बगैर कश्मीर के मौजूदा सामाजिक हालात में उनका ये पुनर्वास पुनः उन्हें आफत में डालने जैसा ही होगा। निश्चित ही सरकार का ध्यान इन पहलुओं पर भी होना चाहिए और होगा भी। सरकार इन सब गुत्थियों को सुलझाए बिना कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर आगे नहीं ही बढ़ेगी।

शुक्रवार, 10 जून 2016

अमेरिकी कांग्रेस को सशक्त भारत का संबोधन [राज एक्सप्रेस और दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राज एक्सप्रेस 
इसमे  कोई संदेह नहीं कि दो वर्ष पूर्व मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से अबतक विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के सूझबूझ और कूटनीति से पूर्ण प्रयासों के मिश्रित फलस्वरूप भारतीय विदेश नीति को न केवल एक नई ऊँचाई और आयाम प्राप्त हुआ है बल्कि बतौर  वैश्विक  इकाई भारत की स्थिति भी विश्व पटल और अधिक मजबूत तथा मुखर हुई है। विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्व भर के तमाम छोटे-बड़े देशों की तमाम यात्राओं का  भारत की ये नवीन वैश्विक छवि गढ़ने में अत्यंत महत्वपूर्ण और अभूतपूर्व योगदान रहा है। हालांकि वैश्विक महाशक्ति अमेरिका से तो भारत के सम्बन्ध संप्रग-१ के कार्यकाल के समय से ही एक हद तक गतिशील हो गए थे, लेकिन बावजूद इसके संप्रग के कार्यकाल के अंतिम वर्षों तक उनमे अस्थिरता की स्थिति ही मौजूद रही साथ ही तत्कालीन संबंधों में भारत  काफी हद तक   अमेरिका  के समक्ष याचक की भूमिका में ही रहा। लेकिन मोदी सरकार के इन दो वर्षों में इस वैश्विक महाशक्ति से भारत के सम्बन्ध एकदम नए रूप में उभरकर सामने आते दिख रहे हैं और इसका बड़ा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है, जिन्होंने अपने दो वर्षों के कार्यकाल में ही अमेरिका की चार यात्राएं की हैं। और ये यात्राएं पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह सिर्फ व्यापारिक गतिविधियां बढ़ाने या भारत को अमेरिकी सहायता दिलाने जैसी बातों पर आधारित नहीं रही, बल्कि प्रत्येक यात्रा का अपना एक अलग और ठोस महत्व रहा है। इसी तरह से उनकी इस वर्तमान अमेरिकी यात्रा  का भी अपना अलग महत्व और उद्देश्य है, इस यात्रा के दौरान उन्होंने अमेरिकी संसद को संबोधित भी किया, जिसमे उनके द्वारा भारत समेत समूचे विश्व की तमाम चुनौतियों और संभावनाओं तथा इनके बीच भारत-अमेरिका संबंधों के महत्व को बेहद तार्किक  ढंग से  रेखांकित किया गया।
दैनिक जागरण 
प्रधानमन्त्री मोदी ने अपने तकरीबन ४२ मिनट के संबोधन में २१वीं सदी को संभावनाओं और चुनौतियों की सदी बताया तथा यह आह्वान किया कि इस दौरान भारत-अमेरिका अपने संबंधों के इतिहास की कटुता को भुलाते हुए भविष्य की मजबूती के लिए साथ मिलकर कदम बढ़ाएं। उनकी इस बात में निहित उस ऐतिहासिक तथ्य को यहाँ रेखांकित करना आवश्यक है जिसमे कि एक समय तक अमेरिका द्वारा अक्सर भारत की उपेक्षा की जाती रही और पाकिस्तान को महत्व दिया जाता रहा, जिसका एक सशक्त प्रमाण यह भी है कि नेहरु से लेकर इंदिरा तक भारत के किसी भी प्रधानमन्त्री को अमेरिकी संसद में संबोधन करने का निमंत्रण अमेरिका ने नहीं दिया जबकि इसी कालावधि पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्रियों को यह निमंत्रण मिला और उन्होंने अमेरिकी संसद को संबोधित भी किया। भारत की ऐतिहासिक उपेक्षा को  रेखांकित कर प्रधानमंत्री मोदी ने कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका को उसकी इस ऐतिहासिक भूल का स्मरण भी दिलाया। प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि उन्होंने आतंकवाद को वर्तमान समय में विश्व की सबसे बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने आतंकवाद से लड़ाई में भारत और अमेरिका के सैनिकों की शहादत को स्मरण करते हुए पूरा जोर देकर यह भी रेखांकित किया कि भारत के तो  पड़ोस में ही आतंकवाद का परिपोषण हो रहा है, जिसको अमेरिकी संसद द्वारा न केवल कड़ा सन्देश दिया जाना चाहिए  बल्कि उसके विरुद्ध संघर्ष में अमेरिका और भारत को साथ-साथ लड़ना भी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने  एकबार फिर अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय देते हुए बिना नाम लिए पाकिस्तान को कड़ा सन्देश देने का काम किया। हम देख चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी कभी भी इस तरह के किसी वैश्विक मंच से पाकिस्तान का नाम नहीं लेते, लेकिन इशारों-इशारों में ही उसे कड़ा सन्देश अवश्य दे देते हैं। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के बिंदु पर भी उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर भारत को यह सदस्यता मिलती है तो वैश्विक स्तर  पर उसका सहयोग और अधिक हो जाएगा, लेकिन इसके लिए विश्व के कुछ देशों को अपनी पिछड़ी सोच से आगे बढ़कर वर्तमान समय की सच्चाई को स्वीकारते हुए भारत की सदस्यता का समर्थन करना होगा। समझना सरल है कि यह उस चीन के लिए एक सन्देश था जो संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है। साथ ही, इस कथन में कहीं न कहीं यह भी भाव निहित था कि भारत को यह सदस्यता मिलना सिर्फ भारत की ही आवश्यकता नहीं है, बल्कि विश्व समुदाय के लिए भी इसका बराबर महत्व है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री मोदी  वक्तव्य में भारत और अमेरिका की विभूतियों का भी उचित और समयानुकूल स्मरण किया गया। उन्होंने अमेरिकी गांधी कहे जाने वाले मार्टिन लूथर किंग को महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत से प्रेरित बताया तथा कभी शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन में सम्पूर्ण विश्व को भारत के सत्य सनातन धर्म के महत्व अनुगूंजित और आप्यायित करने वाले स्वामी विवेकानंद का भी उल्लेख किया। प्रधानमंत्री मोदी के इस पूरे संबोधन में कही गई इन सब बातों पर अमेरिकी संसद की गंभीरता और समर्थन को इसी बात से समझा जा सकता है कि इस संबोधन के दौरान अमेरिकी सांसदों ने नौ बार खड़े होकर ताली बजाई तो बैठे-बैठे सत्तर बार से भी अधिक तालियों की गूँज से अमेरिकी संसद गहगहा उठी। यह सही है कि मोदी अमेरिकी संसद को संबोधित करने वाले पांचवे भारतीय प्रधानमन्त्री हैं, इससे पहले राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह भी यह संबोधन कर चुके हैं। लेकिन, मोदी के वक्तव्य के दौरान अमेरिकी सांसदों की तालियों के रूप में उन्हें मिली प्रतिक्रिया निश्चित तौर पर अभूतपूर्व है। यह दिखाती है कि भारत अब पहले की तरह अमेरिका के समक्ष नज़रे झुकाए खड़ा याचक नहीं, नज़रें मिलाकर खड़ा होने वाला एक सहयोगी मित्र है। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका बिना लाभ के कुछ नहीं करता यानी यह सब स्वागत लाभ से प्रेरित है। निस्संदेह यह बात सत्य है और अमेरिका के इस रुख में कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि किसी भी सफल विदेशनीति का मूल तत्व ही राष्ट्रहित की प्रमुखता होती है। अब समझने वाली बात यह है कि अगर अमेरिका बिना लाभ के भारत से नहीं जुड़ रहा तो भारत भी उससे कोई निस्वार्थ प्रेम नहीं दिखा रहा है। अगर भारतीय बाजार अमेरिका की आवश्यकता है तो वैश्विक मंचों पर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत को भी अमेरिका का सहयोग अपेक्षित है। अतः  यह स्वार्थ आधारित सम्बन्ध है और कहीं न कहीं यही इसकी सुदृढ़ता का आधार भी है।