शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

आर्थिक आधार पर ही हो समग्र आरक्षण [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

आरक्षण तो इस देश  में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है, पर फ़िलहाल कुछ समय से ये विषय ठण्डा पड़ा था, लेकिन विगत दिनों शीतकालीन सत्र की समाप्ति के ठीक एक रोज पहले मोदी सरकार की केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी के ऐलान के बाद यह विषय पुनः चर्चा में आ गया। फिर सरकार द्वारा इससे सम्बंधित संविधान संशोधन विधेयक क्रमशः लोकसभा और राज्यसभा में पारित करवाने में भी सफलता हासिल कर ली गयी। लोकसभा में 323 मतों और राज्यसभा में 165 मतों से यह विधेयक पारित हुआ। लोकसभा चुनाव से पहले इसे मोदी सरकार का मास्टरस्ट्रोक बताया जा रहा है।  

गौरतलब है कि इस समय देश में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलाकर लगभग पचास प्रतिशत जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था है। लम्बे समय से सामान्य वर्ग के पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण की मांग की जाती रही थी जो अब आखिर एक अंजाम को पहुंची है। बताया जा रहा है कि 8 लाख से कम वार्षिक आय तथा एक निश्चित मात्रा से कम जमीन का स्वामित्व रखने वाले परिवार के लोग इस दस प्रतिशत आरक्षण के लिए पात्र होंगे।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तीन राज्यों की हार और एससी-एसटी विधेयक को लेकर सवर्णों की नाराजगी को देखते हुए मोदी सरकार ने यह निर्णय लिया है। बहरहाल इस निर्णय का मोदी सरकार को कितना चुनावी लाभ मिलेगा या हानि होगी, ये तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन फिलहाल इतना जरूर कह सकते हैं कि आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था करना मोदी सरकार का एक बेहद साहसिक निर्णय है।

देखा जाए तो अबतक जाति के अलावा आरक्षण के किसी और आधार की बात ही नहीं होती थी। जाति आधारित आरक्षण के औचित्य या लाभ को लेकर सवाल उठाने वालों को दलितों-पिछड़ों का विरोधी घोषित किया जाना भी हम देखते रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार ने अपने इस निर्णय के जरिये यह सन्देश देकर कि वो आर्थिक आधार पर आरक्षण की हिमायती है, एक तरह से राजनीतिक जोखिम ही लिया है। नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक में प्रधानमंत्री मोदी की जो साहसिक निर्णय क्षमता प्रकट हुई थी, इस निर्णय में भी कहीं न कहीं उसीका अक्स दिखाई देता है। वैसे आर्थिक आधार पर आरक्षण की इस सीमित व्यवस्था ने कहीं न कहीं भविष्य में आरक्षण को समग्रतः आर्थिक आधार पर किए जाने का भी मार्ग खोला है।   

दरअसल संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज से असमानता को समाप्त करना तथा निम्न व पिछड़े वर्गों को जीवन के हर क्षेत्र में अवसर की समानता देना था। आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक  परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा। पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिज्ञ है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि। साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है। आरक्षण की समीक्षा न होने व उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही है कि आज आरक्षण जातिगत राजनीति करने वाले दलों और नेताओं के लिए तुष्टिकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है। ऐसे कई दल हैं जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण के भरोसे है। आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा  अनुसूचित जातियों-जनजातियों को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है। इन सब बातों को देखते हुए अब ये समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टिकरण की राजनीति के ही कारण ज्यादातर राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और इससे इतर आरक्षण पर किसी भी पक्ष का विरोध किया जाता है।

वास्तव में आज इस बात की पुख्ता तौर पर ज़रूरत महसूस होती है कि आरक्षण की समीक्षा हो तथा उसके हानि-लाभ का आंकलन कर उसके वर्तमान स्वरूप को कायम रखने या न रखने का निर्णय लिया जाए। अम्बेडकर की भी यही इच्छा थी और इसीके लिए उन्होंने समीक्षा का प्रावधान भी किया था।  

ये सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के तमाम लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं। लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नही है जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर तरह से सशक्त हो चुके हैं। पर बावजूद इस सक्षमता के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है। ऐसे ही लोगों के लिए सन १९९२ में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। इस क्रीमी लेयर के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार व बच्चों को आरक्षण का लाभ नही मिलना चाहिए। लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के इस क्रीमी लेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता  रहा? हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में कोई सवाल न उठाए इसके लिए हमारे सियासी आकाओं ने क्रीमी लेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया।

मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लिए जिस तरह से आर्थिक आधार पर आरक्षण की पहल की है, उससे उम्मीद जगती है कि आने वाले समय में समग्र आरक्षण के स्वरूप में बदलाव करने की दिशा में भी सरकार कदम बढ़ाएगी। समय की ज़रूरत है कि आरक्षण की वर्तमान जाति आधारित व्यवस्था जो जातिगत राजनीति का एक उपकरण भर बनकर रह गयी है, में बदलाव लाया जाए और इसकी जगह पूर्णतः आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाए।

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