सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

दुनिया में बढ़ रही हिंदी की धाक (दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

देश की न्यायपालिका में हिंदी को भले उपेक्षा झेलनी पड़ती हो, लेकिन पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राजधानी अबुधाबी के न्यायिक विभाग से इस विषय में एक अच्छी खबर आई। खबर यह कि अबुधाबी की अदालत में हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। इससे पूर्व अरबी और अंग्रेजी ही वहाँ न्यायपालिका की आधिकारिक भाषा थीं। अबुधाबी के न्यायिक विभाग की तरफ से बयान जारी कर कहा गया है, ‘हमारा लक्ष्य हिंदी भाषियों को मुक़दमों की प्रक्रिया सीखने में मदद करना है। इसके अलावा हम उन्हें उनके अधिकारों और कर्तव्यों को भाषाई अड़चनों के बिना समझाना चाहते हैं।‘
गौरतलब है कि यूएई की कुल आबादी लगभग 92 लाख है, जिसमें तकरीबन 26 लाख की जनसंख्या के साथ भारतीय लोग वहाँ के सबसे बड़े प्रवासी समुदाय हैं। ऐसे में, माना जा रहा है कि भारतवासियों को खुश करने के लिए यूएई की तरफ से हिंदी को न्यायपालिका में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है।      
हिंदी के न्यायिक भाषा बनने की वजह
अबुधाबी न्यायिक विभाग के सचिव यूसुफ सईद अल आबरी ने हिंदी के न्यायिक भाषा बनने पर कहा कि ‘कई भाषाओं में याचिकाओं, आरोपों और अपीलों को स्वीकार करने के पीछे हमारा मकसद 2021 के विजन को देखते हुए सभी के लिए न्याय व्यवस्था को प्रसारित करना है। हम न्यायिक व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी बनाना चाहते हैं।‘
आबरी की तरफ से यह भी स्पष्ट किया गया कि शेख मंसूर बिन जायद अल नाह्यान, यूएई के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और अबुधाबी न्यायिक विभाग के अध्यक्ष के निर्देशों पर न्यायपालिका में कई भाषाओं की ये व्यवस्था लाई गयी है। इस व्यवस्था के पहले चरण की शुरुआत नवंबर 2018 में हुई थी।

आबरी के कथनानुसार यह काम यूएई के जिस विजन-2021 के तहत किया गया है, उस विजन की शुरुआत 2010 में यूएई सरकार द्वारा की गयी थी, जिसके तहत देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। निर्धारित लक्ष्यों में से ही एक लक्ष्य प्रभावी न्याय प्रणाली की व्यवस्था करना भी है। इसी विजन के तहत यूएई ने अपनी आबादी के लगभग तीस प्रतिशत हिस्से के रूप में मौजूद भारतीयों के न्याय की चिंता की है। स्पष्ट है कि विजन-2021 यूएई द्वारा हिंदी को न्यायिक भाषा बनाए जाने का एक प्रमुख कारण है, लेकिन एकमात्र यही कारण नहीं है। भारतीय विदेशनीति का भी इसमें प्रमुख योगदान माना जाना चाहिए। वर्ना भारतीय तो बहुत समय से यूएई में हैं और विजन-2021 भी 2010 में शुरू हो गया था, फिर यूएई को उनको न्याय मिलने में भाषाई अड़चन की चिंता पहले क्यों नहीं हुई? यूएई को अब भारतीयों की चिंता होने के पीछे कहीं न कहीं मोदी राज में भारत-यूएई संबंधों में आई गर्मजोशी भी एक बड़ा कारण है।  
गौर करें तो मोदी सरकार के आने के बाद से यूएई के साथ भारत के संबंधों में काफी प्रगाढ़ता आई है। गत वर्ष मोदी खुद वहाँ गए थे और अबुधाबी के क्राउन प्रिंस के साथ उनके बहुक्षेत्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए। इसके अलावा संबंधों की ये प्रगाढ़ता हाल में भी स्पष्ट हुई जब यूएई ने अगस्ता वेस्टलैंड मामले में पहले क्रिश्चियन मिशेल और फिर राजीव सक्सेना का प्रत्यपर्ण भारत को किया। ऐसे में, संभव है कि हिंदी को न्यायिक भाषा का दर्जा देने के पीछे भी यूएई की भारत के प्रति सदेच्छा प्रकट करने की मंशा हो। बहरहाल, एक बात तो साफ़ है कि यूएई के इस निर्णय से न केवल अबुधाबी में रहने वाले भारतीयों के लिए न्याय पाना सुगम होगा, बल्कि वैश्विक तौर पर हिंदी की साख में भी वृद्धि होगी।

संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का मुद्दा
हिंदी की वैश्विक साख के संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि भारत की तरफ से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने की मांग भी लम्बे समय से होती रही है। वर्तमान में अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रसियन और अंग्रेजी इन छः भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आधिकारिक मान्यता प्रदान की गयी है। देखा जाए तो इनमे अरबी, चाइनीज, रसियन आदि के मुकाबले बोले और समझे जाने के मामले में हिंदी का प्रभाव कहीं अधिक व्यापक है। गौर करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.2 अरब आबादी में से 41.03 फीसदी की मातृभाषा हिंदी है। हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले अन्य भारतीयों को मिला लिया जाए तो देश के लगभग 75 प्रतिशत लोग हिन्दी बोल सकते हैं। भारत के इन 75 प्रतिशत हिंदी भाषियों सहित पूरे विश्व में तकरीबन 80 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो इसे बोल या समझ सकते हैं। नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, यूगांडा, दक्षिण अफ्रीका, अरब सहित ट्रिनिडाड एवं टोबेगो और कनाडा आदि में हिंदी बोलने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। इसके आलावा इंग्लैंड, अमेरिका आदि में भी इसे बोलने और समझने वाले अच्छे-खासे लोग हैं। लेकिन बावजूद इसके हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा न मिल पाना बेहद अखरने वाली बात है।
सवाल उठता है कि आखिर हिंदी को यूएन की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन क्या है? इस सवाल का जवाब भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा सदन में चर्चा के दौरान दी गयी जानकारी में मिलता है। सुषमा स्वराज ने बताया था कि यूएन के नए नियम के तहत उसके सदस्य देश जिस भाषा को आधिकारिक भाषा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन करेंगे, उन्हें प्रस्ताव के स्वीकृत होने के बाद अपने यहाँ उस भाषा के प्रचार-प्रसार में आने वाले खर्च को खुद ही उठाना पड़ेगा। ऐसे में, छोटे और कम संपन्न देश चाहते हुए भी हिंदी के समर्थन में नहीं खड़े होते। यह समस्या सिर्फ हिंदी के साथ ही हो, ऐसा भी नहीं है; जापानी और जर्मन भाषा को आधिकारिक दर्जा दिलाने की राह में भी इसी कारण रोड़ा खड़ा हुआ। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज यह भी कह चुकी हैं कि भारत संयुक्त राष्ट्र के इस नियम में बदलाव के लिए प्रयास कर रहा है और इस नियम को ऐसा बनाने पर जोर दे रहा है जिससे हिंदी को यूएन की भाषा बनाने के बाद सभी सम्बंधित खर्च भारत ही करे जिससे अन्य किसी देश पर कोई भार न पड़े। जाहिर है कि नियमवाली के पेंचों के कारण हमारी हिंदी को पात्रता होते हुए भी यूएन की आधिकारिक भाषा के दर्जे से वंचित रहना पड़ रहा है।
भारतीय न्यायपालिका और हिंदी
अबुधाबी के न्यायिक विभाग ने बेशक हिंदी को अपनी आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया है, लेकिन हमारे यहाँ न्यायालय अभी भी इससे नाक-भौं ही सिकोड़ते हैं। दिक्कत ये है कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार संविधान ने ही दे रखा है। दरअसल आज़ादी के बाद सन 1949 में हिंदी को भारतीय राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि आज़ाद भारत के कानून और प्रशासन की भाषा हिंदी के साथ-साथ पूर्ववत ढंग से अंग्रेजी भी रहेगी। तब यह कहा गया था कि इन क्षेत्रों में धीरे-धीरे हिंदी को लाया जाएगा और जब हिंदी पूरी तरह से इन क्षेत्रों में आ जाएगी तो अंग्रेजी को समाप्त कर दिया जाएगा। परन्तु, ऐसा कभी नहीं हो सका। अंग्रेजी ख़त्म तो नहीं हुई, बल्कि प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के साथ स्थायी रूप से स्थापित होती गयी। न्यायालयों में तब भी अंग्रेजी को यही तर्क देकर रहने दिया गया था कि क़ानून हिंदी में नहीं हैं, इस तरह वहाँ हिंदी के लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया। आज स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय वहाँ हिंदी को स्थान देने के लिए तैयार ही नहीं हैं; क्योंकि उन्हें वो अपने लिए व्यावहारिक ही नहीं लगती।
ऐसे में महात्मा गांधी द्वारा सन 1909 जब भारत पराधीन था, में लिखित पुस्तक हिन्द स्वराजका यह अंश उल्लेखनीय होगा जिसमें उन्होंने भारतीयों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग पर क्षोभ पूर्ण कटाक्ष करते हुए लिखा था, ‘यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है। यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।दुखद यह है कि गांधी आज़ादी से पहले भारतीयों की जिस अंग्रेजीदां मानसिकता से व्यथित थे, आज़ादी के बाद भी वो देश की व्यवस्थाओं में यथावत बनी और फल-फूल रही है।
विचार करें तो ये थोड़ा कठिन अवश्य था, परन्तु असंभव नहीं कि आज़ादी के बाद न्यायपालिका की समस्त सामग्रियों के हिंदी अनुवाद के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए गए होते; कानूनों का हिंदी अनुवाद कर लिया गया होता; और सभी भारतीय भाषाओं में न सही, कम से कम राजभाषा हिंदी में तो न्याय की व्यवस्था कर ही दी गयी होती। लेकिन, तब भी इस कार्य को आवश्यक न समझते हुए यथास्थिति को चलने दिया गया और आज भी वही किया जा रहा है।
बहरहाल, तब जो हुआ सो हुआ, आज न्यायपालिका की कार्यवाहियों में भारतीय भाषाओं को धीरे-धीरे सम्मिलित करने का प्रयास  किया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत हिंदी को न्यायपालिका की प्रमुख भाषा बनाकर की जा सकती है। फिर धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं को भी स्थान दिया जाता रहेगा। आज हमारे पास तकनीक की वो शक्ति है, जिसके ज़रिये ये कार्य बहुत कठिन नहीं है। दुनिया में हिंदी अपनी क्षमता से अपनी धाक बढ़ा रही है, ऐसे में अपने ही देश में उसकी उपेक्षा होना शर्मनाक ही है। सरकार को इस दिशा में गंभीर होकर विचार करना चाहिए। चूंकि, न्यायपालिका में इस दिशा में कुछ करने की मंशा नहीं दिखाई देती, ऐसे में संसद को ही अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए क़ानून के जरिये हिंदी को न्याय की भाषा का दर्ज़ा दिलाने की दिशा में प्रयास करने की जरूरत है।

शहादतों का अंत कब (राज एक्सप्रेस में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत 14 फरवरी की शाम जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सेना के जवानों पर हुए आत्मघाती आतंकी हमले ने देश में शोक और आक्रोश की लहर पैदा कर दी है। आत्मघाती आतंकी ने साढ़े तीन सौ किलो विस्फोटक से लदी गाड़ी सीआरपीएफ के काफिले में घुसाकर विस्फोट कर दिया, जिसमें 44 जवान शहीद हो गए और कितने ही जवान ज़ख़्मी हालत में जीवन-मरण से जूझ रहे हैं। शहीद जवानों की संख्या के हिसाब से ये वर्ष 2017 में हुए उड़ी हमले से भी बड़ा हमला है। हमले की खबर आने के बाद से ही सोशल मीडिया पर लोगों की शोक और रोष से भरी तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। चूंकि, उड़ी हमले के बाद मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक कर शहादतों का बदला लिया था, इसलिए अबकी लोग और बड़े बदले की उम्मीद कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से कहा गया है कि आतंकियों ने बड़ी गलती की है, उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। विपक्ष की तरफ से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो सरकार और सेना के साथ खड़े होने की बात कही है, लेकिन उन्हीकी पार्टी की पंजाब सरकार में मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने इस पाक प्रेरित आतंकी हमले पर कहा है कि आतंकवाद का कोई देश नहीं होता। कहने की जरूरत नहीं कि सिद्धू का हाल के कुछ समय में उपजा पाक प्रेम अब भी हिलोरे मार रहा है। ऐसे में, राहुल गांधी यदि सरकार और सेना के साथ वास्तव में खड़े दिखना चाहते हैं, तो अपने ऐसे बड़बोले नेताओं की जबान पर जरा कसकर रखें।
पुलवामा हमले के बाद केंद्र सरकार द्वारा सुरक्षा मामलों की कबिनेट समिति (सीसीएस) की बैठक बुलाई गयी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली इस समिति में वित्त मंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री सहित कई और प्रमुख लोग होते हैं। समिति की बैठक में लिए गए जिन निर्णयों के विषय में जानकारी दी गयी, उनमें प्रमुख पाकिस्तान से ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा वापस लेने का निर्णय है। यह बात काफी समय से उठ रही थी कि पाकिस्तान की भारी भारत विरोधी गतिविधियाँ करने के बावजूद उसे एमएफएन का दर्जा क्यों दिया गया है? आखिर इस हमले ने सरकार के सब्र का भी अंत किया और पाकिस्तान से एमएफएन का दर्जा वापस लेने का निर्णय लिया गया।

गौर करें तो किसी देश को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने का मतलब यह होता है कि उस देश को व्यापार में अधिक प्राथमिकता दी जाएगी। एमएफएन का दर्जा प्राप्त देश को आयात-निर्यात में विशेष छूट मिलती है। इसमें दर्जा पाने वाला देश सबसे कम आयात शुल्क पर कारोबार करता है। इससे इन देशों को एक बड़ा बाजार मिलता है, जिससे वे अपने सामान को वैश्विक बाजार में आसानी से पहुंचा सकते हैं। जाहिर है, विकासशील देशों के लिए एमएफएन दर्जा फायदे का सौदा है और पाकिस्तान जैसे आर्थिक बदहाली से गुजर रहे देश के लिए तो यह बड़ी चीज था। परन्तु अब उसके लिए ये सारी सहूलियतें बंद हो जाएंगी जिससे उसकी पहले से ही डांवाडोल आर्थिक हालत के और भी डांवाडोल होने की संभावना है। यह ठीक है कि सिर्फ इतने से हमारे जवानों की शहादत का प्रतिशोध पूरा नहीं होता, लेकिन ये एक जरूरी काम था, जिसे करने में अब और देर करने में अब और देर नहीं की जा सकती थी।
बताया जा रहा कि इस तरह का कोई हमला होने की सूचना इंटेलिजेंस द्वारा दी गयी थी और इसलिए सीआरपीएफ की तरफ से गोलीबारी या बमबाजी जैसी चीजों बचने के लिहाज से सुरक्षा इंतजाम भी किए गए थे। लेकिन इस तरह वाहन बम के जरिये हमला होगा, इसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी। परिणामस्वरूप 44 जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी।
सब बातों के बाद यह प्रश्न बना हुआ है कि आखिर हमारे जवानों की शहादतों का अंत कब होगा? दस के बदले सौ और चालीस के बदले चार सौ जैसी भावावेश से भरी बातें अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हमें इस बिंदु पर अधिक गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि किस तरह अपने वीर जवानों को आए दिन शहीद होने से बचा सकें। सरहद पार से आने वाले आतंकियों से निपटने के लिए तो हम स्मार्ट फेंसिंग कर रहे हैं, जिससे जवानों का जोखिम कम होगा। लेकिन जो दहशतगर्द घर के भीतर बैठे हैं, उनसे बचने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। 
इस हमले में पाकिस्तानी आतंकी संगठन की योजना अवश्य है, लेकिन इसे अंजाम देने वाले जम्मू-कश्मीर में ही बैठे हैं। ये वही लोग हैं जो कभी पत्थरबाज बनकर दहशतगर्दों की हिफाजत करने उतर पड़ते हैं। ऐसे में केवल पाकिस्तान में घुसकर कुछ आतंकियों के खात्मे या उसपर किसी भी प्रकार की कार्यवाही से ऐसे हमलों को नहीं रोका जा सकता, ऐसे हमलों को रोकने के लिए जरूरी है कि कश्मीर में जो आतंकियों के मददगार हैं, उनकी पहचान कर पहले उन्हें ख़त्म किया जाए। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 35ए के तहत राज्य को मिले विशेषाधिकारों को समाप्त कर उसे कुछ समय के लिए सैन्य-नियंत्रण में दे देने की जरूरत है। जब राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं रहेगा तो हमारी सेना राज्य के भीतर-बाहर दोनों जगह बैठे दहशतगर्दों का अपने तरीके से खात्मा कर सकेगी। निश्चित ही ये कड़ा कदम होगा, लेकिन बड़े बदलाव के लिए सरकार को ये  साहस दिखाना ही होगा।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

नारीशक्ति का सही अर्थ [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत दिनों संपन्न हुए जयपुर साहित्य महोत्सव में ‘ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश’ द्वारा ‘नारीशक्ति’ को वर्ष 2018 का हिंदी शब्द (वर्ड ऑफ़ द इयर) चुनने की घोषणा की गयी। खबरों के अनुसार, गत वर्ष नवम्बर में ऑक्सफ़ोर्ड की तरफ से ‘वर्ड ऑफ़ द इयर’ को लेकर लोगों की राय मंगाई गयी थी, जिसमें प्राप्त अनेक शब्दों में से चिंतन-मनन के पश्चात् ‘नारीशक्ति’ शब्द को ‘2018 के शब्दकोश’ में शामिल करने का निर्णय लिया गया। ऑक्सफ़ोर्ड की तरफ से ये घोषणा करते हुए कहा गया कि 'साल का हिंदी शब्द नारीशक्ति, एक शब्द या भाव है, जिसने काफी ध्यान खींचा है। यह पिछले साल की प्रकृति, मिजाज और विचारमग्नता को जाहिर करता है।‘ जाहिर है, इस शब्द को चुनने का आधार पिछले पूरे वर्ष में अलग-अलग कारणों से इसका प्रासंगिक बने रहना है। बता दें कि वर्ष 2017 में ऑक्सफ़ोर्ड द्वारा भारत में ‘वर्ड ऑफ़ द ईयर’ चुनने की शुरुआत की गयी थी और ‘आधार’ को उस वर्ष का शब्द चुना गया था।

गौर करें तो ‘नारीशक्ति’ को साल 2018 का शब्द चुने जाने के पीछे कई कारण नजर आते हैं। गत वर्ष नारी सशक्तिकरण की दिशा में देश ने कुछ महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए हैं जिस कारण पूरे वर्ष यह शब्द प्रासंगिक बना रहा। केंद्र सरकार द्वारा तीन तलाक की अमानवीय कुप्रथा का अंत करने के लिए ‘तीन तलाक विधेयक’ संसद में पेश  किया गया जो लोकसभा में पारित भी हो गया है। इस क़ानून के तहत तीन तलाक को अवैध करार देते हुए सम्बंधित पुरुष को तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। निस्संदेह इस कदम से मुस्लिम महिलाओं जो तीन तलाक की मर्दवादी इस्लामिक व्यवस्था से त्रस्त थीं, के लिए उम्मीद की किरण पैदा हुई है। मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण से ही सम्बंधित एक और निर्णय भी पिछले साल लिया गया कि वे अब हज यात्रा में बिना किसी मेहरम (पुरुष अभिभावक) के अकेले भी जा सकती हैं। दरअसल पहले मुस्लिम महिलाओं को बिना किसी पुरुष अभिभावक के हज पर जाने की अनुमति नहीं थी। ये पूरी तरह से उनपर मर्दों का नियंत्रण स्थापित करने वाली एक मर्दवादी व्यवस्था थी, जिसे वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने ख़त्म कर दिया। इसके बाद 2018 में लगभग 1300 महिलाओं ने अकेले हज यात्रा की थी। इस वर्ष भी लगभग 2300 महिलाओं के अकेले यात्रा का आवेदन सरकार को मिल चुका है।

वर्ष 2018 में ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केरल के प्राचीन सबरीमाला मंदिर में दस से पचास साल तक की महिलाओं को भी प्रवेश की अनुमति देने का फैसला सुनाया गया। हालांकि स्थानीय श्रद्धालुओं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं, द्वारा इस निर्णय का विरोध जताते हुए अनुमति प्रदान महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की गयी। साथ ही, इस अनुमति के औचित्य पर तब सवाल भी उठे जब एक महिला इस्तेमाल सेनेटरी पैड लेकर मंदिर में पहुँचने की बात सामने आई। गौरतलब बात यह भी रही कि तीन जजों की जिस पीठ ने सबरीमाला में दस से पचास साल तक की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति प्रदान की, उसमें शामिल महिला जज इस निर्णय से सहमत नहीं थीं। जाहिर है, इन विरोधाभासों के कारण नारी सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण माने जाने वाला यह निर्णय न केवल तार्किकता के धरातल पर कमजोर पड़ा, बल्कि एक सकारात्मक बदलाव की बजाय नकारात्मक धारणाओं का प्रसार करने वाला भी साबित हुआ है।  

बहरहाल, इन धार्मिक जकड़नों से महिलाओं की आजादी के अलावा वर्ष 2018 उनके शौर्य और साहस को समुचित स्थान व सम्मान मिलने के लिए भी यादगार रहा। गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह घोषणा की कि अब सेना में शामिल महिलाओं को भी सशस्त्र लड़ाके की भूमिका में जाने का मौका मिलेगा। अबतक महिलाएं सेना में सक्रिय तो थीं, लेकिन युद्ध के अवसरों से उन्हें दूर रखा जाता था। मगर, इस निर्णय के बाद यदि महिलाएं चाहेंगी तो सीमा पर भी जा सकेंगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सही अर्थों में नारीशक्ति के सम्मान का निर्णय है। गत वर्ष की एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि भारत सरकार की ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना जो कुछ जिलों तक सीमित थी, को पूरे देश में लागू किया गया।   

इन सबके अलावा वर्ष 2018 में कुछ बेहद नकारात्मक कारणों से भी नारीशक्ति की चर्चा रही। ऊपर वर्णित सबरीमाला मामले को छोड़ भी दें तो सोशल मीडिया पर चले मीटू नामक एक अतार्किक अभियान ने नारीशक्ति को सवालों के घेरे में खड़ा करने का ही काम किया। इस अभियान के तहत जिस तरह से महिलाओं ने वर्षों पुराने मामलों का जिक्र करते हुए अप्रमाणिक ढंग से अलग-अलग पुरुषों पर छेड़छाड़ और यौन शोषण का आरोप लगाया, उसने उन्हें क्षणिक नकारात्मक चर्चा तो दिलाई लेकिन उसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। इस अभियान के तहत अप्रामाणिक आरोप लगाने वाली महिलाओं ने कहीं न कहीं ‘भेड़िया आया’ वाली कहानी को ही चरितार्थ किया है। संभव है कि ऐसे आरोपों में कुछ सच्चाई भी हो, लेकिन अगर वे महिलाएं शोषण के समय चुप रही थीं, तो वर्षों बाद बिना प्रमाण के उन मामलों को उजागर करने का कोई औचित्य नहीं था। हालांकि इस अभियान को भी नारीशक्ति के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करने के लिए तथाकथित नारीवादियों द्वारा जोर लगाया गया, लेकिन इससे सिवाय विवादों के ऐसा कोई परिणाम या सन्देश नहीं निकला जिसके आधार पर इससे सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की जा सके। देश की नारी को ऐसे आधारहीन संघर्षों में अपनी शक्ति को व्यर्थ करने से बचने की आवश्यकता है।

‘नारीशक्ति’ शब्द पर गौर करें तो ये संस्कृत भाषा के ‘नारी’ और ‘शक्ति’ दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें प्रयुक्त ‘शक्ति’ शब्द का साधारण अर्थ ‘ताकत’ है, परन्तु हमारे सनातन ग्रंथों में इस शब्द का प्रयोग ‘देवी’ के लिए किया गया है। वो देवी जो समस्त देवों की ‘शक्ति’ हैं और जिनका अवतरण लोककल्याण के लिए होता है। मीटू जैसे अभियानों में उलझने वाली नारियों को यह बात समझने की जरूरत है। उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग व्यर्थ विवादों की बजाय अपने और सबके हित से संबंधित रचनात्मक कार्यों में करने की आवश्यकता है। मोटे तौर पर कहें तो आज की नारी को यदि ‘नारीशक्ति’ बनना है तो उसका आदर्श तनुश्री दत्ता जैसी नहीं, कल्पना चावला और मैरीकॉम जैसी नारियां होनी चाहिए। नारीशक्ति का वास्तविक भाव यही है।