- पीयूष द्विवेदी भारत
देश
की न्यायपालिका में हिंदी को भले उपेक्षा झेलनी पड़ती हो, लेकिन
पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात
(यूएई) की
राजधानी अबुधाबी के
न्यायिक विभाग से इस विषय में
एक अच्छी खबर आई।
खबर यह कि अबुधाबी की अदालत में हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान
किया गया है। इससे पूर्व अरबी और अंग्रेजी ही वहाँ
न्यायपालिका की आधिकारिक भाषा थीं। अबुधाबी के न्यायिक विभाग की तरफ से बयान जारी
कर कहा गया है, ‘हमारा लक्ष्य हिंदी भाषियों को मुक़दमों की प्रक्रिया सीखने में
मदद करना है। इसके अलावा हम उन्हें उनके अधिकारों और कर्तव्यों को भाषाई अड़चनों
के बिना समझाना चाहते हैं।‘
गौरतलब
है कि यूएई की कुल आबादी लगभग 92 लाख है,
जिसमें तकरीबन 26 लाख की
जनसंख्या के साथ भारतीय लोग वहाँ के सबसे बड़े प्रवासी समुदाय हैं। ऐसे में, माना
जा रहा है कि भारतवासियों को खुश करने के लिए यूएई की तरफ से हिंदी को न्यायपालिका
में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है।
हिंदी के न्यायिक भाषा बनने की वजह
अबुधाबी
न्यायिक विभाग के सचिव यूसुफ सईद अल आबरी ने हिंदी के न्यायिक भाषा बनने पर कहा कि
‘कई भाषाओं में याचिकाओं, आरोपों और अपीलों को स्वीकार करने के पीछे
हमारा मकसद 2021 के विजन को देखते हुए सभी के लिए न्याय व्यवस्था को प्रसारित करना
है। हम न्यायिक व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी बनाना चाहते हैं।‘
आबरी
की तरफ से यह भी स्पष्ट किया गया कि शेख मंसूर बिन जायद अल नाह्यान, यूएई के
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति
और अबुधाबी न्यायिक
विभाग के अध्यक्ष के निर्देशों पर न्यायपालिका में कई भाषाओं की ये व्यवस्था लाई
गयी है। इस व्यवस्था के पहले चरण की शुरुआत नवंबर 2018 में हुई थी।
आबरी
के कथनानुसार यह काम यूएई के जिस विजन-2021 के तहत किया गया है, उस विजन की शुरुआत 2010 में यूएई सरकार द्वारा की गयी थी, जिसके तहत देश
के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। निर्धारित
लक्ष्यों में से ही एक लक्ष्य प्रभावी न्याय प्रणाली की व्यवस्था करना भी है। इसी
विजन के तहत यूएई ने अपनी आबादी के लगभग तीस प्रतिशत हिस्से के रूप में मौजूद
भारतीयों के न्याय की चिंता की है। स्पष्ट है कि विजन-2021 यूएई
द्वारा हिंदी को न्यायिक भाषा बनाए जाने का एक प्रमुख कारण है, लेकिन एकमात्र यही
कारण नहीं है। भारतीय विदेशनीति का भी इसमें प्रमुख योगदान माना जाना चाहिए। वर्ना
भारतीय तो बहुत समय से यूएई में हैं और विजन-2021 भी 2010 में शुरू हो गया था, फिर
यूएई को उनको न्याय मिलने में भाषाई अड़चन की चिंता पहले क्यों नहीं हुई? यूएई
को अब भारतीयों की चिंता होने के पीछे कहीं न कहीं मोदी राज में भारत-यूएई संबंधों
में आई गर्मजोशी भी एक बड़ा कारण है।
गौर
करें तो मोदी सरकार के आने के बाद से यूएई के साथ भारत के संबंधों में काफी
प्रगाढ़ता आई है। गत वर्ष मोदी खुद वहाँ गए थे और अबुधाबी के क्राउन प्रिंस के साथ
उनके बहुक्षेत्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए। इसके अलावा संबंधों
की ये प्रगाढ़ता हाल में भी स्पष्ट हुई जब यूएई ने अगस्ता वेस्टलैंड मामले में पहले
क्रिश्चियन मिशेल और फिर राजीव सक्सेना का प्रत्यपर्ण भारत को किया। ऐसे में, संभव
है कि हिंदी को न्यायिक भाषा का दर्जा देने के पीछे भी यूएई की भारत के प्रति
सदेच्छा प्रकट करने की मंशा हो। बहरहाल,
एक बात तो साफ़ है कि
यूएई के इस निर्णय से न केवल अबुधाबी में रहने वाले भारतीयों के लिए न्याय पाना
सुगम होगा, बल्कि वैश्विक तौर पर हिंदी की साख में भी वृद्धि होगी।
संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का मुद्दा
हिंदी
की वैश्विक साख के संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि भारत की तरफ से हिंदी को संयुक्त
राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने की मांग भी लम्बे समय से होती रही है। वर्तमान
में अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रसियन और अंग्रेजी इन छः भाषाओं को संयुक्त
राष्ट्र द्वारा आधिकारिक मान्यता प्रदान की गयी है। देखा जाए तो इनमे अरबी,
चाइनीज, रसियन आदि के मुकाबले बोले और समझे जाने के मामले में हिंदी का प्रभाव कहीं
अधिक व्यापक है। गौर करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.2 अरब आबादी में
से 41.03 फीसदी की मातृभाषा हिंदी है। हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर इस्तेमाल
करने वाले अन्य भारतीयों को मिला लिया जाए तो देश के लगभग 75 प्रतिशत लोग हिन्दी
बोल सकते हैं। भारत के इन 75 प्रतिशत हिंदी भाषियों सहित पूरे विश्व में तकरीबन 80
करोड़ लोग ऐसे हैं, जो इसे बोल या समझ सकते हैं। नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, यूगांडा, दक्षिण
अफ्रीका, अरब सहित
ट्रिनिडाड एवं टोबेगो और
कनाडा आदि में हिंदी बोलने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। इसके आलावा इंग्लैंड, अमेरिका आदि
में भी इसे बोलने और समझने वाले अच्छे-खासे लोग हैं। लेकिन बावजूद इसके हिंदी को संयुक्त
राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा न मिल पाना बेहद अखरने वाली बात है।
सवाल
उठता है कि आखिर हिंदी को यूएन की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन क्या है?
इस सवाल का जवाब भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा सदन में चर्चा के दौरान
दी गयी जानकारी में मिलता है। सुषमा स्वराज ने बताया था कि यूएन के नए नियम के तहत
उसके सदस्य देश जिस भाषा को आधिकारिक भाषा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन करेंगे,
उन्हें प्रस्ताव के स्वीकृत होने के बाद अपने यहाँ उस भाषा के प्रचार-प्रसार में
आने वाले खर्च को खुद ही उठाना पड़ेगा। ऐसे में, छोटे और कम संपन्न देश चाहते हुए
भी हिंदी के समर्थन में नहीं खड़े होते। यह समस्या सिर्फ हिंदी के साथ ही हो, ऐसा
भी नहीं है; जापानी और जर्मन भाषा को आधिकारिक दर्जा दिलाने की राह में भी इसी
कारण रोड़ा खड़ा हुआ। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज यह भी कह चुकी हैं कि भारत
संयुक्त राष्ट्र के इस नियम में बदलाव के लिए प्रयास कर रहा है और इस नियम को ऐसा
बनाने पर जोर दे रहा है जिससे हिंदी को यूएन की भाषा बनाने के बाद सभी सम्बंधित
खर्च भारत ही करे जिससे अन्य किसी देश पर कोई भार न पड़े। जाहिर है कि नियमवाली के
पेंचों के कारण हमारी हिंदी को पात्रता होते हुए भी यूएन की आधिकारिक भाषा के
दर्जे से वंचित रहना पड़ रहा है।
भारतीय न्यायपालिका और हिंदी
अबुधाबी
के न्यायिक विभाग ने बेशक हिंदी को अपनी आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया है, लेकिन
हमारे यहाँ न्यायालय अभी भी इससे नाक-भौं ही सिकोड़ते हैं। दिक्कत ये है कि उन्हें
ऐसा करने का अधिकार संविधान ने ही दे रखा है। दरअसल आज़ादी के बाद सन 1949
में हिंदी को भारतीय राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन
साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि आज़ाद भारत के कानून और प्रशासन की भाषा हिंदी के
साथ-साथ पूर्ववत ढंग से अंग्रेजी भी रहेगी। तब यह कहा गया था कि इन क्षेत्रों में
धीरे-धीरे हिंदी को लाया जाएगा और जब हिंदी पूरी तरह से इन क्षेत्रों में आ जाएगी
तो अंग्रेजी को समाप्त कर दिया जाएगा। परन्तु,
ऐसा कभी नहीं हो सका।
अंग्रेजी ख़त्म तो नहीं हुई, बल्कि प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के साथ
स्थायी रूप से स्थापित होती गयी। न्यायालयों में तब भी अंग्रेजी को यही तर्क देकर
रहने दिया गया था कि क़ानून हिंदी में नहीं हैं,
इस तरह वहाँ हिंदी के
लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया। आज स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय वहाँ हिंदी को
स्थान देने के लिए तैयार ही नहीं हैं;
क्योंकि उन्हें वो अपने
लिए व्यावहारिक ही नहीं लगती।
ऐसे
में महात्मा गांधी द्वारा सन 1909 जब भारत पराधीन था, में
लिखित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’
का यह अंश उल्लेखनीय
होगा जिसमें उन्होंने भारतीयों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग पर क्षोभ पूर्ण कटाक्ष
करते हुए लिखा था, ‘यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश
में मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना
चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे
लिए तरजुमा कर देना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है। यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमें
मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना?
हिन्दुस्तान को गुलाम
बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर
नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।‘
दुखद यह है कि गांधी
आज़ादी से पहले भारतीयों की जिस अंग्रेजीदां मानसिकता से व्यथित थे, आज़ादी
के बाद भी वो देश की व्यवस्थाओं में यथावत बनी और फल-फूल रही है।
विचार
करें तो ये थोड़ा कठिन अवश्य था, परन्तु असंभव नहीं कि आज़ादी के बाद
न्यायपालिका की समस्त सामग्रियों के हिंदी अनुवाद के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए
गए होते; कानूनों का हिंदी अनुवाद कर लिया गया होता; और
सभी भारतीय भाषाओं में न सही, कम से कम राजभाषा हिंदी में तो न्याय की
व्यवस्था कर ही दी गयी होती। लेकिन,
तब भी इस कार्य को
आवश्यक न समझते हुए यथास्थिति को चलने दिया गया और आज भी वही किया जा रहा है।
बहरहाल, तब जो हुआ सो हुआ, आज न्यायपालिका की
कार्यवाहियों में भारतीय भाषाओं को धीरे-धीरे सम्मिलित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत हिंदी को
न्यायपालिका की प्रमुख भाषा बनाकर की जा सकती है। फिर धीरे-धीरे अन्य भारतीय
भाषाओं को भी स्थान दिया जाता रहेगा। आज हमारे पास तकनीक की वो शक्ति है, जिसके ज़रिये ये कार्य बहुत कठिन नहीं है। दुनिया में
हिंदी अपनी क्षमता से अपनी धाक बढ़ा रही है, ऐसे में अपने ही देश में उसकी उपेक्षा
होना शर्मनाक ही है। सरकार को इस दिशा में गंभीर होकर विचार करना चाहिए। चूंकि,
न्यायपालिका में इस दिशा में कुछ करने की मंशा नहीं दिखाई देती, ऐसे में संसद को ही अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए
क़ानून के जरिये हिंदी को न्याय की भाषा का दर्ज़ा दिलाने की दिशा में प्रयास करने
की जरूरत है।