मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

नारीशक्ति का सही अर्थ [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत दिनों संपन्न हुए जयपुर साहित्य महोत्सव में ‘ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश’ द्वारा ‘नारीशक्ति’ को वर्ष 2018 का हिंदी शब्द (वर्ड ऑफ़ द इयर) चुनने की घोषणा की गयी। खबरों के अनुसार, गत वर्ष नवम्बर में ऑक्सफ़ोर्ड की तरफ से ‘वर्ड ऑफ़ द इयर’ को लेकर लोगों की राय मंगाई गयी थी, जिसमें प्राप्त अनेक शब्दों में से चिंतन-मनन के पश्चात् ‘नारीशक्ति’ शब्द को ‘2018 के शब्दकोश’ में शामिल करने का निर्णय लिया गया। ऑक्सफ़ोर्ड की तरफ से ये घोषणा करते हुए कहा गया कि 'साल का हिंदी शब्द नारीशक्ति, एक शब्द या भाव है, जिसने काफी ध्यान खींचा है। यह पिछले साल की प्रकृति, मिजाज और विचारमग्नता को जाहिर करता है।‘ जाहिर है, इस शब्द को चुनने का आधार पिछले पूरे वर्ष में अलग-अलग कारणों से इसका प्रासंगिक बने रहना है। बता दें कि वर्ष 2017 में ऑक्सफ़ोर्ड द्वारा भारत में ‘वर्ड ऑफ़ द ईयर’ चुनने की शुरुआत की गयी थी और ‘आधार’ को उस वर्ष का शब्द चुना गया था।

गौर करें तो ‘नारीशक्ति’ को साल 2018 का शब्द चुने जाने के पीछे कई कारण नजर आते हैं। गत वर्ष नारी सशक्तिकरण की दिशा में देश ने कुछ महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए हैं जिस कारण पूरे वर्ष यह शब्द प्रासंगिक बना रहा। केंद्र सरकार द्वारा तीन तलाक की अमानवीय कुप्रथा का अंत करने के लिए ‘तीन तलाक विधेयक’ संसद में पेश  किया गया जो लोकसभा में पारित भी हो गया है। इस क़ानून के तहत तीन तलाक को अवैध करार देते हुए सम्बंधित पुरुष को तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। निस्संदेह इस कदम से मुस्लिम महिलाओं जो तीन तलाक की मर्दवादी इस्लामिक व्यवस्था से त्रस्त थीं, के लिए उम्मीद की किरण पैदा हुई है। मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण से ही सम्बंधित एक और निर्णय भी पिछले साल लिया गया कि वे अब हज यात्रा में बिना किसी मेहरम (पुरुष अभिभावक) के अकेले भी जा सकती हैं। दरअसल पहले मुस्लिम महिलाओं को बिना किसी पुरुष अभिभावक के हज पर जाने की अनुमति नहीं थी। ये पूरी तरह से उनपर मर्दों का नियंत्रण स्थापित करने वाली एक मर्दवादी व्यवस्था थी, जिसे वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने ख़त्म कर दिया। इसके बाद 2018 में लगभग 1300 महिलाओं ने अकेले हज यात्रा की थी। इस वर्ष भी लगभग 2300 महिलाओं के अकेले यात्रा का आवेदन सरकार को मिल चुका है।

वर्ष 2018 में ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केरल के प्राचीन सबरीमाला मंदिर में दस से पचास साल तक की महिलाओं को भी प्रवेश की अनुमति देने का फैसला सुनाया गया। हालांकि स्थानीय श्रद्धालुओं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं, द्वारा इस निर्णय का विरोध जताते हुए अनुमति प्रदान महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की गयी। साथ ही, इस अनुमति के औचित्य पर तब सवाल भी उठे जब एक महिला इस्तेमाल सेनेटरी पैड लेकर मंदिर में पहुँचने की बात सामने आई। गौरतलब बात यह भी रही कि तीन जजों की जिस पीठ ने सबरीमाला में दस से पचास साल तक की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति प्रदान की, उसमें शामिल महिला जज इस निर्णय से सहमत नहीं थीं। जाहिर है, इन विरोधाभासों के कारण नारी सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण माने जाने वाला यह निर्णय न केवल तार्किकता के धरातल पर कमजोर पड़ा, बल्कि एक सकारात्मक बदलाव की बजाय नकारात्मक धारणाओं का प्रसार करने वाला भी साबित हुआ है।  

बहरहाल, इन धार्मिक जकड़नों से महिलाओं की आजादी के अलावा वर्ष 2018 उनके शौर्य और साहस को समुचित स्थान व सम्मान मिलने के लिए भी यादगार रहा। गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह घोषणा की कि अब सेना में शामिल महिलाओं को भी सशस्त्र लड़ाके की भूमिका में जाने का मौका मिलेगा। अबतक महिलाएं सेना में सक्रिय तो थीं, लेकिन युद्ध के अवसरों से उन्हें दूर रखा जाता था। मगर, इस निर्णय के बाद यदि महिलाएं चाहेंगी तो सीमा पर भी जा सकेंगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सही अर्थों में नारीशक्ति के सम्मान का निर्णय है। गत वर्ष की एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि भारत सरकार की ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना जो कुछ जिलों तक सीमित थी, को पूरे देश में लागू किया गया।   

इन सबके अलावा वर्ष 2018 में कुछ बेहद नकारात्मक कारणों से भी नारीशक्ति की चर्चा रही। ऊपर वर्णित सबरीमाला मामले को छोड़ भी दें तो सोशल मीडिया पर चले मीटू नामक एक अतार्किक अभियान ने नारीशक्ति को सवालों के घेरे में खड़ा करने का ही काम किया। इस अभियान के तहत जिस तरह से महिलाओं ने वर्षों पुराने मामलों का जिक्र करते हुए अप्रमाणिक ढंग से अलग-अलग पुरुषों पर छेड़छाड़ और यौन शोषण का आरोप लगाया, उसने उन्हें क्षणिक नकारात्मक चर्चा तो दिलाई लेकिन उसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। इस अभियान के तहत अप्रामाणिक आरोप लगाने वाली महिलाओं ने कहीं न कहीं ‘भेड़िया आया’ वाली कहानी को ही चरितार्थ किया है। संभव है कि ऐसे आरोपों में कुछ सच्चाई भी हो, लेकिन अगर वे महिलाएं शोषण के समय चुप रही थीं, तो वर्षों बाद बिना प्रमाण के उन मामलों को उजागर करने का कोई औचित्य नहीं था। हालांकि इस अभियान को भी नारीशक्ति के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करने के लिए तथाकथित नारीवादियों द्वारा जोर लगाया गया, लेकिन इससे सिवाय विवादों के ऐसा कोई परिणाम या सन्देश नहीं निकला जिसके आधार पर इससे सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की जा सके। देश की नारी को ऐसे आधारहीन संघर्षों में अपनी शक्ति को व्यर्थ करने से बचने की आवश्यकता है।

‘नारीशक्ति’ शब्द पर गौर करें तो ये संस्कृत भाषा के ‘नारी’ और ‘शक्ति’ दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें प्रयुक्त ‘शक्ति’ शब्द का साधारण अर्थ ‘ताकत’ है, परन्तु हमारे सनातन ग्रंथों में इस शब्द का प्रयोग ‘देवी’ के लिए किया गया है। वो देवी जो समस्त देवों की ‘शक्ति’ हैं और जिनका अवतरण लोककल्याण के लिए होता है। मीटू जैसे अभियानों में उलझने वाली नारियों को यह बात समझने की जरूरत है। उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग व्यर्थ विवादों की बजाय अपने और सबके हित से संबंधित रचनात्मक कार्यों में करने की आवश्यकता है। मोटे तौर पर कहें तो आज की नारी को यदि ‘नारीशक्ति’ बनना है तो उसका आदर्श तनुश्री दत्ता जैसी नहीं, कल्पना चावला और मैरीकॉम जैसी नारियां होनी चाहिए। नारीशक्ति का वास्तविक भाव यही है।

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