गुरुवार, 28 अगस्त 2014

बिहार उपचुनाव परिणामों के निहितार्थ [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
लोकसभा चुनाव के बाद बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब की खाली हुई विधानसभा सीटों पर उपचुनाव संपन्न हो गए और अब परिणाम भी हमारे सामने हैं. इन उपचुनावों में चकित करने वाली बात ये रही कि बीते लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के लिए इन उपचुनावों में किसी भी राज्य से कोई खास अच्छी खबर नहीं आयी. सभी राज्यों में उसे विपक्षियों द्वारा पुरजोर टक्कर मिली है और हर जगह उसका प्रदर्शन अपेक्षा से कम औसत रहा है. इन चारों राज्यों के उपचुनावों में सर्वाधिक चर्चित बिहार के उपचुनाव ही रहे. चर्चित होने का कारण ये था कि इन उपचुनावों में बिहार के दो धुर-विरोधी नीतीश और लालू  एक होकर भाजपा को चुनौती दे रहे थे. एक तरफ  भाजपा-लोजपा का गठबंधन था और दूसरी तरफ राजद-जदयू-कांग्रेस का महागठबंधन. ऐसे में बिहार की इन दस सीटों के उपचुनाव बेहद दिलचस्प हो गए थे. आखिर परिणाम आए और जहाँ दस में से ४ सीटें भाजपा के हाथ लगीं तो वहीँ बाकी की छः सीटों पर राजद-जदयू और कांग्रेस के गठबंधन का कब्ज़ा रहा. इससे पहले अभी हाल ही में उत्तराखंड की ३ सीटों पर भी उपचुनाव हुए थे और संयोगवश वहाँ भी भाजपा को  निराशा ही हाथ लगी थी. उत्तराखंड उपचुनाव परिणामों के बाद से ही  ये सवाल प्रासंगिक हो गया था कि क्या जनता के बीच से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम होती जा रही है या लोग मौजूदा सरकार से नाखुश हैं ? अब बिहार समेत एमपी आदि अन्य राज्यों में भी भाजपा के औसत प्रदर्शन को देखते हुए इस सवाल को एकबार फिर हवा मिल गई है. बिहार में अपने गठबंधन की बढ़त से उत्साहित जदयू नेता नीतीश कुमार ने कहा है कि बिहार विधानसभा उपचुनावों में जनता ने मोदी सरकार के प्रति अपनी नाखुशी जाहिर की है. हालांकि भाजपा की तरफ से ऐसी सभी बातों को खारिज करते हुए कहा जा रहा है कि भाजपा ने ये उपचुनाव मोदी के नाम पर लड़े ही नहीं थे और इनमे हार के लिए क्षेत्रीय संगठन की जिम्मेदारी है. कहने का अर्थ है कि हर दल के पास अपने-अपने तर्क हैं. लेकिन इन दलीय तर्कों से इतर अगर हम ये समझने की कोशिश करें कि लोकसभा चुनाव में शानदार बहुमत हासिल  करने वाली भाजपा का प्रदर्शन स्तर आखिर इन उपचुनावों में कैसे गिर रहा है तो इसके कई कारण  हमारे सामने आते हैं. अगर बिहार के  उपचुनाव को लें तो हम देखते हैं कि इसमें एक भाजपा को रोकने के लिए बिहार के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय दल जो कि एकदूसरे के धुर-विरोधी थे, एक होकर लड़ाई में उतर गए. तिसपर कांग्रेस भी उनके साथ हो गई. इतने के बाद भी ये सब मिलकर भी भाजपा से महज दो सीटें ही अधिक हासिल कर सकें. निजी तौर पर इनमे से कोई सा भी दल भाजपा से अधिक सीटें नहीं पा सका है. भाजपा चार सीटों के साथ निजी रूप से बिहार के हर दल से आगे है. ये स्थिति अभी तब है जब एक तरफ भाजप के विरुद्ध बने  गठबंधन के दो दल राजद और जदयू बिहार के सबसे बड़े दल हैं और बिहार के ही दम पर इनकी राजनीतिक गाड़ी चलती है, तो वहीं दूसरी तरफ इन दलों की अपेक्षा बिहार में संगठनात्मक स्तर पर अभी भाजपा की हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है. सुशील मोदी को छोड़ बिहार भाजपा में कोई बहुत बड़ा नाम है भी नहीं. शाहनवाज हुसैन हैं तो वो लोकसभा में अपनी सीट ही नहीं बचा पाए थे तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है. वैसे, भी ये महज बिहार विधानसभा की दस सीटों के उपचुनाव थे न कि बिहार विधानसभा के चुनाव.  लिहाजा,  ये भी साफ़ तौर पर दिखा कि इन उपचुनावों को लेकर भाजपा कोई खास गंभीर नहीं थी. कोई विशेष प्रचार-प्रसार आदि नहीं किया गया. अब इस अ-गंभीरता के कई कारण हो सकते हैं. संभव है कि लोकसभा चुनावों की जीत के कारण भाजपा अति-आत्मविश्वास में आ गई हो और इसीलिए उसने इन उपचुनावों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया हो. अगर ऐसा था तो इस अति-आत्मविश्वास का खामियाजा उसने भुगत लिया है. या यह भी हो सकता है कि भाजपा की नज़र अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों पर हो और इसीलिए उसने इन उपचुनावों को संजीदा नहीं लिया हो. बहरहाल, अब वास्तविकता जो भी हो, लेकिन इन सब बातों को देखते हुए इतना तो स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि बिहार उपचुनावों में भाजपा के औसत प्रदर्शन को मोदी सरकार के प्रति जनता की नाखुशी की प्रतिक्रिया कहना पूरी तरह से गलत है. क्योंकि, अभी मोदी सरकार को सत्ता में आए लगभग तीन महीने का समय हुआ, ऐसे में जनता इस सरकार के प्रति को राय कैसे बना सकती है ? और वैसे भी अबतक इस सरकार के कार्य सही दिशा में ही दिख रहे हैं. ऐसे में, लालू-नीतीश को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उनके गठबंधन को जनता की स्वीकृति मिल गई है और उनका गठबंधन भाजपा को रोकने की ताकत रखता है. उनके गठबंधन की असली परीक्षा अगर वो कायम रहता है, तो अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में होगी. उससे पहले इस गठबंधन को लेकर अगर कोई उम्मीद पाली जाती है तो ये ठीक वैसे ही होगा कि दिल बहलाने को ख्याल ठीक है ग़ालिब.

सोमवार, 25 अगस्त 2014

वार्ता के लायक नहीं पाकिस्तान [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
अभी अधिक समय नहीं हुआ जब विपक्ष में रहते हुए भाजपा द्वारा पाकिस्तान को लेकर संप्रग सरकार की रक्षात्मक  नीति की आलोचना करते हुए सख्त रुख अपनाने की सलाह दी जाती थी. लेकिन, आज जब वही भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में आ चुकी है, तो मूलतः वो भी कहीं ना कहीं पाकिस्तान के प्रति उन्हीं रक्षात्मक नीतियों पर चल रही है जिनपर पिछली संप्रग सरकार चली थी. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव के दौरान ही अपनी रैलियों में ये स्पष्ट कर दिए थे कि उनकी नीति आँख दिखाने वाली नहीं, आँख मिलाने वाली होगी. लेकिन यहाँ तो पाकिस्तान जैसा  देश लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर हमें लगातार चुनौती देने  में लगा है  और हमारे प्रधानमंत्री जी संप्रग सरकार की ही तरह केवल जुबानी जोर दिखाने में लगे हैं. यह सही है कि भारत  हमेशा से उदारवादी और शांतिप्रिय राष्ट्र रहा हैं, लेकिन अब क्या शांति की कीमत भारत को अपनी अखंडता और संप्रभुता से समझौता करके चुकानी होगी ?  दरअसल, आज भारत की सबसे बड़ी समस्या यही हो चुकी है कि वो शांति के लिए किसी भी समझौते को तैयार खड़ा है.  भारत की इस अतिवादी शांति-नीति का दुनिया में काफी गलत संदेश गया है और काफी हद तक इसे भारत की कमजोरी भी माना जा चुका है. इसी नीति का परिणाम है कि  पाकिस्तान जैसा देश जो कि हर तरह से हमारे सामने काफी कमजोर है, सदैव हम पर हावी रहता है. वो आए दिन सीमा पर गोलीबारी करके संघर्ष विराम संधि का उल्लंघन करता रहता है और दुनिया की सर्वश्रेष्ठ  पाँच सेनाओं में से एक का स्वामी भारत सिवाय निंदा और विरोध जताने के जमीनी स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पाता. पिछली संप्रग सरकार के दौरान पाकिस्तान की इन गतिविधियों को लेकर हद से ज्यादा लापरवाही बरती गई, जिस कारण पाक के नापाक इरादे और मजबूत हुए. यहाँ तक कि पाकिस्तानी जवान हमारी सीमा में घुसकर हमारे जवानों के  सिर तक  काट के ले गए और संप्रग सरकार सिर्फ जुबानी विरोध ही जताती रही. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वो कहीं पाकिस्तान के प्रति आक्रामक नीति के तहत कार्य करें. लेकिन, मौजूदा हालातों को देखते हुए ये उम्मीद अब बेमानी  प्रतीत होने लगी है. मोदी सरकार के सत्ता सम्हालने के बाद से अबतक पाकिस्तान पचास से अधिक बार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है, लेकिन इस सरकार की तरफ से भी ठीक उसी तरह से केवल जुबानी आक्रोश दिखाया जा रहा है, जैसे बीती संप्रग सरकार के नेताओं द्वारा दिखाया जाता था. हालांकि अभी कुछेक दिन पूर्व प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी एलओसी यात्रा के दौरान पाकिस्तान को कड़ा संदेश देते हुए ये जरूर कहा गया था कि पाकिस्तान में सीधी जंग की ताकत नहीं है, इसीलिए वो छिपकर वार करता है. लेकिन, क्या पाकिस्तान के प्रति सख्त होने के लिए इतना पर्याप्त है ? या इस वक्तव्य से पाकिस्तानी सेना की नापाक गतिविधियों पर कोई विराम लगेगा ? तिसपर भारत के सचिव स्तरीय वार्ता   का  पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा कश्मीरी अलगाववादियों से नई दिल्ली मुलाकात कर बुरी तरह से मखौल ही उड़ाया गया. हालांकि गनीमत रही कि इसके बाद सरकार द्वारा सचिव स्तरीय वार्ता को निरस्त कर दिया गया. लेकिन, सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान जैसे पीठ में खंजर घोंपने वाले देश से शांति वार्ता की कोई उम्मीद की जा सकती है ? और क्या अब भी वो वार्ता के लायक है ? इतिहास गवाह है कि भारत ने हमेशा से पाकिस्तान से सौहार्द और मैत्रीपूर्ण संबंध के लिए प्रयास किया है, तो वहीँ पाकिस्तान द्वारा हमेशा से हर स्तर पर भारत को केवल धोखा ही दिया जाता रहा है. अगर हमारे हुक्मरान भूलें न हों तो सन १९९९ में भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यही नवाज शरीफ थे, जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लाहौर बस यात्रा के रूप में पाकिस्तान से मधुर संबंध बनाने का एक और प्रयास किया गया था. और इस शांति प्रयास के बदले में पाकिस्तान की तरफ से हमें कारगिल जैसा एक भयानक युद्ध मिला. और अब तो हालत ये हो गई है कि  भारत के तमाम शांति प्रयासों को पाकिस्तान भारत की कमजोरी समझने लगा है, जिस कारण वो लगातार अपनी मनमानियां करता रहता है. बावजूद इसके जाने क्या कारण है कि भारत पाकिस्तान से मधुर संबंध बनाने के लिए अब भी लगा हुआ है. सही मायने में आज समय की मांग ये है कि भारत अब पाकिस्तान से मधुर संबंध बनाने के अपने प्रयासों पर पूरी तरह से विराम लगाए और पाकिस्तान की हर एक कारिस्तानी का मुंहतोड़ जवाब दें.  क्योंकि, पाकिस्तान से संबंध बनाने का प्रयास न सिर्फ कूटनीतिक स्तर पर भारत को हानि पहुंचाएगा  जरूरत ये है कि सीमा से लेकर विश्व समुदाय की बैठकों में तक हर जगह भारत पाकिस्तान को पूरी तरह से दबा के रखे. विश्व स्तर पर पाकिस्तान को कसने के लिए भारत पाक प्रेरित आतंकवाद और आतंकियों को पाकिस्तान की शह आदि को मुद्दा बना सकता है. इन मुद्दों के जरिए पाकिस्तान को पूरी तरह से दबा के रखा जा सकता है. और भारत जैसे देश के लिए यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं है. भारत पाकिस्तान पर नियंत्रण करने में पूरी तरह से सक्षम है, बशर्ते कि हमारे नेता अपनी अतिवादी शांति-नीति की बजाय राष्ट्र की संप्रभुता को तरजीह देना शुरू करें.

सोमवार, 18 अगस्त 2014

सरकार की मंशा पर सवाल [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
किसी ने बिलकुल सही कहा है कि सियासत में अवसर का सबसे अधिक महत्व होता है और जो अवसर के अनुसार स्वयं को ढाल ले वही सियासत के मैदान में अधिक समय तक टिक भी सकता है। अगर आपको याद हो तो अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब केन्द्र की पिछली संप्रग-२ सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के लिए एक संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था । तत्कालीन दौर में उस संशोधन विधेयक को न्यायपालिका की स्वायत्तता   पर चोट बताते हुए मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने उसका भारी विरोध किया था। लेकिन, आज जब वही भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में आ चुकी है, तब वह उस संशोधन विधेयक को तनिक परिवर्तनों के साथ लाने की कवायद करती नज़र आ रही है । सरकार द्वारा संविधान संशोधन के जरिये जजों की नियुक्ति सम्बन्धी वर्तमान कालेजियम व्यवस्था को खत्म कर उसके स्थान पर जजों की नियुक्ति के लिए एक नई इकाई के गठन के लिए लोकसभा में विधेयक पारित करवाया जा चुका है । संभव है कि संसद के उच्च सदन में भी इस विधेयक को पारित करवाने में सरकार को कोई बहुत समस्या न हो । सरकार का कहना  है कि उसने विपक्ष में रहते हुए संप्रग सरकार के जिस संशोधन विधेयक का विरोध किया था, ये उससे अलग विधेयक है । सरकार द्वारा लाए जा रहे इस विधेयक को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश  आर एम लोढ़ा का रुख  बेहद ही सख्त है । वे इसे न्यायपालिका की स्वायत्तता पर हमला बता रहे हैं । लेकिन, सरकार है कि किसीकी सुनने को तैयार नहीं दिख रही और कोलेजियम व्यवस्था को खत्म करने के लिए जोर-शोर से लगी है । अगर दिमाग पर थोड़ा जोर डालें  तो अभी कुछ ही दिन पहले जजों की नियुक्ति के ही मसले पर सरकार और प्रधान न्यायाधीश के बीच  काफी तनातनी देखने को मिली थी । पूरा मामला कुछ यों था कि सर्वोच्च न्यायालय की कोलेजियम की तरफ से जजों की नियुक्ति के लिए चार नाम सरकार को भेजे गए थे। अब सरकार की तरफ से उनमे से तीन नामों को तो स्वीकार लिया गया, लेकिन एक नाम को कुछ कमियां बताते हुए पुनर्विचार के आग्रह के साथ वापस कर दिया गया। इस पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा द्वारा बेहद तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा गया था कि सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण का प्रयास न करे, अगर ऐसा होगा तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे।  बहरहाल, यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि विपक्ष में रहते हुए जब भाजपा ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया सम्बन्धी उस संसोधन विधेयक का विरोध किया था, तो अब ऐसा क्या हो गया कि कुछ परिवर्तनों के साथ ही सही, उसे लाने की बात कर रही है ? उसका ये रवैया तो कहीं ना कहीं उसकी राजनीतिक अवसरवादिता को ही दर्शाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता में आने से पहले भाजपा संप्रग सरकार पर न्यायपालिका पर नियंत्रण कायम करने का जो आरोप लगा रही थी, अब वो स्वयं न्यायपालिका पर वही नियंत्रण स्थापित करने की कवायद कर रही है ? यह सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि जजों की नियुक्ति संबंधी जो व्यवस्था अभी देश में काम कर रही है, वो न्यायिक स्वायत्तता के लिहाज से अत्यंत उपयुक्त है। अतः उसमे किसी भी तरह के बदलाव, सुधार आदि का कोई औचित्य ही नहीं दिखता। अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं उसका ही एक कोलेजियम करता है, जिसमे सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश समेत अन्य जज होते हैं। इसमें कार्यपालिका आदि का कोई विशेष  हस्तक्षेप नहीं होता। इस नियुक्ति प्रक्रिया पर कोई सवाल इसलिए भी नहीं उठाया जाना चाहिए कि आज इस देश की संवैधानिक व्यवस्था की तीनों इकाइयों में निरपवाद रूप से सर्वाधिक जन विश्वसनीयता न्यायपालिका के प्रति ही दिखती है। अब अगर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया गलत या भ्रष्ट होती, तो उन्हें ये विश्वसनीयता कहाँ से मिलती ? खासकर कि पिछली संप्रग सरकार के दौरान जिस तरह से कार्यपालिका के भ्रष्टाचार तथा गलत निर्णयों आदि को लेकर न्यायपालिका सख्त रही, उसने लोगों में उसके प्रति विश्वास को कई गुना बढ़ाया है। और संभवतः इसी कारण संप्रग सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए संसद में संशोधन विधेयक भी लाया गया था। अब भाजपा-नीत राजग सरकार का उस संशोधन विधेयक को पुनः  लाना  तो केवल यही दिखाता है  कि ये सरकार भी स्वयं को न्यायपालिका से बचाना चाहती है और बस इसीलिए ऐसा कर रही है।   हालांकि इस पर भाजपा सरकार की तरफ से बड़े ही गोल-मोल तरीके से कहा जा रहा है कि वे ये कवायदें  केंद्रीय न्यायिक आयोग बनाने व न्यायिक सुधारों के अपने वादे को पूरा करने के मकसद से कर रहे हैं। लेकिन, प्रश्न यथावत है कि आप न्यायिक सुधार करिए, पर उसके लिए ये संशोधन विधेयक लाकर न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका को घुसाने की क्या आवश्यकता है ? अब इस विधेयक में चाहे सरकार कितना भी बदलाव करके लाए, पर इसका मूल स्वरूप ही ऐसा है कि जैसे-तैसे न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ ही जाएगा । इसी क्रम में अगर इसके कुछ मुख्य प्रावधानों पर गौर करें तो जजों की नियुक्ति की इस  संवैधानिक इकाई में कुल छः सदस्य होंगे । इनमे देश के प्रधान न्यायाधीश एवं दो अन्य जजों  समेत सरकार द्वारा चयनित अन्य तीन सदस्य होंगे । जाहिर है, इस विधेयक के पारित होने के बाद जो कि लगभग तय है, जजों की नियुक्ति सम्बन्धी प्रक्रिया पर काफी हद तक सरकारी या यूँ कहें कि राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो जाएगा । लिहाजा, मूल बात ये है कि कितने भी बदलाव के साथ हो या किसी भी रूप में हो, फ़िलहाल इस संशोधन विधेयक की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अगर सरकार वाकई में न्यायिक सुधार के प्रति इतनी प्रतिबद्ध है तो न्यायपालिका में कार्यपालिका को घुसाने की बजाय पहले अदालतों में रिक्त पड़े पदों पर जजों की नियुक्ति करे, जिससे कि लंबित पड़े मामले निपटें और पीड़ितों को न्याय मिल सके। साथ ही, न्याय को सरल, सहज व सस्ता बनाने के लिए भी प्रयास करे, जिससे गरीब व्यक्ति के मन में भी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था जग सके और वो भी न्याय के लिए लड़ सके। इन चीजों को करके सरकार न सिर्फ सही मायने में न्यायिक सुधार के अपने वादे को पूरा करेगी, बल्कि जनता के मन में उसके प्रति विश्वास भी मजबूत होगा । 

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

खतरे में राष्ट्रीय पशु का अस्तित्व [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राष्ट्रीय सहारा 
प्रगतिशीलता के अन्धोत्साह में मानव द्वारा किए जा रहे अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन का  नुकसान मानव को तो उठाना पड़ ही रहा है, बेजुबान और निर्दोष जानवरों को भी उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. मानव के अनियंत्रित प्राकृतिक दोहन के कारण दिन ब दिन पेड़-पौधे, नदी, पहाड़ आदि खत्म होते जा रहे हैं, जिस कारण इनमे पनाह लेने वाले पशु-पक्षियों के अस्तित्व पर संकट बढ़ता जा रहा है. मानव द्वारा मचाए गए इस प्राकृतिक विनाश के चलते  आज पशु-पक्षियों की कितनी प्रजातियों का अस्तित्व तो लगभग समाप्त भी हो गया है. वहीँ  कितनी प्रजातियां ऐसी हैं, जो दिन ब दिन समाप्ती की ओर बढ़ रही हैं. भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों में राष्ट्रीय पशु के रूप में शुमार बाघ भी समाप्ती की ओर बढ़ रही प्रजातियों में से ही एक है. धरती पर अपने लिए अनुकूल जीवन संभावनाओं के लगातार खत्म होने के कारण बाघ प्रजाति का भी अस्तित्व धीरे-धीरे अंत की ओर बढ़ता जा रहा है. एक आंकड़े के अनुसार २०वी सदी की शुरुआत तक  धरती पर बाघों की संख्या तकरीबन एक लाख थी, जबकि  सदी की समाप्ती के समय ५ से ७ हजार बाघ होने का अनुमान व्यक्त किया गया था. लेकिन, मौजूदा आंकड़ों  के अनुसार वर्तमान में बाघों की संख्या महज ३२०० रह गई है. बाघ की कुल नौ प्रजातियों में से तीन प्रजातियां तो पूरी तरह से खत्म भी हो चुकी हैं. शेष छः प्रजातियों में से भी कई प्रजातियों की मौजूदगी के विषय में अभी संदेह की ही स्थिति बनी हुई है. मूलतः बाघ दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया समेत रूस के कुछ पूर्वी क्षेत्रों में पाए जाते हैं. भारत के अलावा एशिया के चीन, नेपाल, बांग्लादेश, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, आदि और भी कई देशों में कमोबेश बाघ की मौजूदगी हैं. इनमे सर्वाधिक १४११ (अनुमानित) बाघ भारत में ही हैं. लेकिन, भारत समेत बाघ पाए जाने इन सभी देशों में से कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ बाघ  अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष न कर रहे हों. अब चूंकि, बाघ को उसकी शक्ति, स्फूर्ति और आकर्षक देह के कारण भारत के राष्ट्रीय पशु का गौरव प्राप्त है, अतः यहाँ उसकी कम होती संख्या के प्रति आए दिन चिंता जताई जाती रहती है और उसके  संरक्षण के लिए हमेशा से काफी प्रयास भी होते रहे हैं. भारत सरकार द्वारा बाघों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम प्रयास किए गए हैं. इनमे राष्ट्रीय स्तर पर संचालित  बाघ परियोजना प्रमुख है, इसका आरम्भ सन १९७३ में किया गया. इसके तहत तत्कालीन समय में कई बाघ अभयारण्य बनाए गए और समय दर समय इनमे बढ़ोत्तरी भी की जाती रही. आज देश में ३५  से ऊपर बाघ अभयारण्य हैं. बाघ अभयारण्यों में बाघों को लेकर किसी भी तरह की आपराधिक गतिविधि पर अंकुश लगाने के लिए सरकार द्वारा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके उसे और भी कड़ा किया गया. अब अगर इस बाघ परियोजना के परिणामों को समझने का प्रयास करें तो इससे देश में बाघों की कम होती संख्या पूरी तरह से रुकी तो नहीं, पर उसपर कुछ विराम जरूर लगा है. क्योंकि, इस परियोजना के आने से ठीक पहले तक देश में १८७२ बाघ थे जिनकी संख्या में इस परियोजना के लागू होने के बाद से अबतक यानी तकरीबन चार दशक के समय में लगभग  ४५० बाघों की कमी आई है. कहना गलत नहीं होगा कि  इन ४५० में से भी तमाम बाघ अपनी स्वाभाविक मृत्यु से ही मरे होंगे. इन सब बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि सरकार के बाघ संरक्षण के प्रयासों के कारण भारत में बाघों की कम होती संख्या की रफ़्तार कुछ हद तक थमी जरूर है, लेकिन उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी अब भी दूर की ही कौड़ी नज़र आती है. 
    वैसे, बाघों के कम होने का मुख्य कारण तो धरती पर उनके अनुकूल जीवन संभावनाओं  का खत्म होते जाना ही है, लेकिन इसके अलावा और भी कुछ बातें हैं जो बाघों के अस्तित्व पर संकट बनी हुई हैं. इनमे बाघों का शिकार और उनके अंगों की अवैध तस्करी प्रमुख है. प्राचीनकाल में तो राजाओं द्वारा शौकिया तौर पर बाघ का शिकार किया जाता था, लेकिन इस आधुनिक समय में बाघ के शिकार का मकसद पूरी तरह से बदल चुका है. दरअसल, बाघों के शरीर की हड्डियां, खून व चमड़ी आदि  तमाम रोगों से लेकर कामोत्तेजना पैदा करने वाली  दवाएं तक बनाने में काम आते है. इस नाते विश्व बाजार में इनकी कीमत बहुत अधिक है. एक आंकड़े के अनुसार सिर्फ एशिया के चीन जैसे देशों में बाघ के लिंग की कीमत जहाँ ८०००० डॉलर है तो वहीँ  बाघ के खाल की कीमत १०००० से लेकर १००००० डॉलर प्रति किग्रा तक है.   इनके अलावा बाघ के ह्रदय आदि अंगों की कीमत भी हजारों-लाखों में है. ऐसे में बाघ के अंगों का अवैध कारोबार  करके पैसा कमाने के लिए आपराधिक लोगों द्वारा अब उसका शिकार किया जाता है. हालांकि भारत सरकार द्वारा बाघ के शिकार को प्रतिबंधित किया गया है और इस प्रतिबन्ध की वजह से बाघ के शिकार में पूर्व की अपेक्षा भारी कमी भी आई है. लेकिन अब भी जब-तब पुलिस द्वारा बाघ के अंग, खाल आदि को जहाँ-तहां से जब्त किया जाता है, जिससे स्पष्ट होता है कि तस्करों द्वारा बाघ का शिकार और उसके अंगों का अवैध कारोबार  चोरी-छिपे अब भी चल रहा है. 
    उपर्युक्त सभी तथ्यों को देखने पर निष्कर्ष ये निकलता है कि बाघों के संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा तमाम कार्य किए गए हैं. लेकिन, सरकार के सभी प्रयासों के बावजूद हम सिर्फ बाघों की कम होती संख्या की रफ़्तार को कुछ थाम पाए हैं, न कि उनकी संख्या में वृद्धि करने में हमें कोई सफलता मिली है.  लिहाजा, आज जरूरत है कि सरकार केवल बाघ संरक्षण पर ध्यान देने की बजाय बाघ संवर्द्धन को भी अपनी प्राथमिकता में शामिल करे. बाघ संवर्द्धन के लिए अनिवार्य है कि अभी देश में मौजूद नर-मादा बाघों के संयोग से अधिकाधिक शावक उत्पन्न हों. अब चूंकि, बाघ एक बार में २ से तीन शावक तक पैदा करते  हैं. इससे स्पष्ट है कि उनकी प्रजनन क्षमता अत्यंत उच्च है. अतः सरकार को बाघों की इस उच्च प्रजनन क्षमता का उपयोग उनके तीव्र संवर्द्धन के लिए करना चाहिए. इसके लिए सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर ठोस योजना तैयार कर उसके आधार पर कार्य करने की जरूरत है. सर्वप्रथम सरकार को देश के ऐसे सभी नर और मादा बाघों की एक सूची तैयार करवानी चाहिए जो कि प्रजनन के लिए उपयुक्त हों.  इसके बाद व्यवस्थित ढंग से उनके बीच संयोग उत्पन्न करवाया जाए.   ऐसा करने से  बाघ प्रजाति संवर्द्धित तो होगी ही, बाघों की एक नई, स्वस्थ व मजबूत पीढ़ी भी हमारे सामने होगी. न सिर्फ भारत बल्कि विश्व स्तर पर इस दिशा में काम होना चाहिए. क्योंकि, सही मायने यही एक ऐसा उपाय है जिसके जरिये बाघ प्रजाति को स्थायी तौर पर संरक्षित किया जा सकता है, अन्यथा ये कहना गलत नहीं होगा कि वो दिन दूर नहीं जब बाघों की दहाड़ भी इतिहास की बात हो जाएगी.