- पीयूष द्विवेदी भारत
डीएनए |
लोकसभा चुनाव के बाद बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब की खाली हुई विधानसभा सीटों पर उपचुनाव संपन्न हो गए और अब परिणाम भी हमारे सामने हैं. इन उपचुनावों में चकित करने वाली बात ये रही कि बीते लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के लिए इन उपचुनावों में किसी भी राज्य से कोई खास अच्छी खबर नहीं आयी. सभी राज्यों में उसे विपक्षियों द्वारा पुरजोर टक्कर मिली है और हर जगह उसका प्रदर्शन अपेक्षा से कम औसत रहा है. इन चारों राज्यों के उपचुनावों में सर्वाधिक चर्चित बिहार के उपचुनाव ही रहे. चर्चित होने का कारण ये था कि इन उपचुनावों में बिहार के दो धुर-विरोधी नीतीश और लालू एक होकर भाजपा को चुनौती दे रहे थे. एक तरफ भाजपा-लोजपा का गठबंधन था और दूसरी तरफ राजद-जदयू-कांग्रेस का महागठबंधन. ऐसे में बिहार की इन दस सीटों के उपचुनाव बेहद दिलचस्प हो गए थे. आखिर परिणाम आए और जहाँ दस में से ४ सीटें भाजपा के हाथ लगीं तो वहीँ बाकी की छः सीटों पर राजद-जदयू और कांग्रेस के गठबंधन का कब्ज़ा रहा. इससे पहले अभी हाल ही में उत्तराखंड की ३ सीटों पर भी उपचुनाव हुए थे और संयोगवश वहाँ भी भाजपा को निराशा ही हाथ लगी थी. उत्तराखंड उपचुनाव परिणामों के बाद से ही ये सवाल प्रासंगिक हो गया था कि क्या जनता के बीच से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम होती जा रही है या लोग मौजूदा सरकार से नाखुश हैं ? अब बिहार समेत एमपी आदि अन्य राज्यों में भी भाजपा के औसत प्रदर्शन को देखते हुए इस सवाल को एकबार फिर हवा मिल गई है. बिहार में अपने गठबंधन की बढ़त से उत्साहित जदयू नेता नीतीश कुमार ने कहा है कि बिहार विधानसभा उपचुनावों में जनता ने मोदी सरकार के प्रति अपनी नाखुशी जाहिर की है. हालांकि भाजपा की तरफ से ऐसी सभी बातों को खारिज करते हुए कहा जा रहा है कि भाजपा ने ये उपचुनाव मोदी के नाम पर लड़े ही नहीं थे और इनमे हार के लिए क्षेत्रीय संगठन की जिम्मेदारी है. कहने का अर्थ है कि हर दल के पास अपने-अपने तर्क हैं. लेकिन इन दलीय तर्कों से इतर अगर हम ये समझने की कोशिश करें कि लोकसभा चुनाव में शानदार बहुमत हासिल करने वाली भाजपा का प्रदर्शन स्तर आखिर इन उपचुनावों में कैसे गिर रहा है तो इसके कई कारण हमारे सामने आते हैं. अगर बिहार के उपचुनाव को लें तो हम देखते हैं कि इसमें एक भाजपा को रोकने के लिए बिहार के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय दल जो कि एकदूसरे के धुर-विरोधी थे, एक होकर लड़ाई में उतर गए. तिसपर कांग्रेस भी उनके साथ हो गई. इतने के बाद भी ये सब मिलकर भी भाजपा से महज दो सीटें ही अधिक हासिल कर सकें. निजी तौर पर इनमे से कोई सा भी दल भाजपा से अधिक सीटें नहीं पा सका है. भाजपा चार सीटों के साथ निजी रूप से बिहार के हर दल से आगे है. ये स्थिति अभी तब है जब एक तरफ भाजप के विरुद्ध बने गठबंधन के दो दल राजद और जदयू बिहार के सबसे बड़े दल हैं और बिहार के ही दम पर इनकी राजनीतिक गाड़ी चलती है, तो वहीं दूसरी तरफ इन दलों की अपेक्षा बिहार में संगठनात्मक स्तर पर अभी भाजपा की हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है. सुशील मोदी को छोड़ बिहार भाजपा में कोई बहुत बड़ा नाम है भी नहीं. शाहनवाज हुसैन हैं तो वो लोकसभा में अपनी सीट ही नहीं बचा पाए थे तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है. वैसे, भी ये महज बिहार विधानसभा की दस सीटों के उपचुनाव थे न कि बिहार विधानसभा के चुनाव. लिहाजा, ये भी साफ़ तौर पर दिखा कि इन उपचुनावों को लेकर भाजपा कोई खास गंभीर नहीं थी. कोई विशेष प्रचार-प्रसार आदि नहीं किया गया. अब इस अ-गंभीरता के कई कारण हो सकते हैं. संभव है कि लोकसभा चुनावों की जीत के कारण भाजपा अति-आत्मविश्वास में आ गई हो और इसीलिए उसने इन उपचुनावों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया हो. अगर ऐसा था तो इस अति-आत्मविश्वास का खामियाजा उसने भुगत लिया है. या यह भी हो सकता है कि भाजपा की नज़र अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों पर हो और इसीलिए उसने इन उपचुनावों को संजीदा नहीं लिया हो. बहरहाल, अब वास्तविकता जो भी हो, लेकिन इन सब बातों को देखते हुए इतना तो स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि बिहार उपचुनावों में भाजपा के औसत प्रदर्शन को मोदी सरकार के प्रति जनता की नाखुशी की प्रतिक्रिया कहना पूरी तरह से गलत है. क्योंकि, अभी मोदी सरकार को सत्ता में आए लगभग तीन महीने का समय हुआ, ऐसे में जनता इस सरकार के प्रति को राय कैसे बना सकती है ? और वैसे भी अबतक इस सरकार के कार्य सही दिशा में ही दिख रहे हैं. ऐसे में, लालू-नीतीश को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उनके गठबंधन को जनता की स्वीकृति मिल गई है और उनका गठबंधन भाजपा को रोकने की ताकत रखता है. उनके गठबंधन की असली परीक्षा अगर वो कायम रहता है, तो अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में होगी. उससे पहले इस गठबंधन को लेकर अगर कोई उम्मीद पाली जाती है तो ये ठीक वैसे ही होगा कि दिल बहलाने को ख्याल ठीक है ग़ालिब.