रविवार, 26 फ़रवरी 2017

पुस्तक समीक्षा : आधुनिक स्त्री की अधूरी कहानी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
मनीषा श्री का उपन्यास ‘रिक्ता’ शहरी कामकाजी स्त्री की कहानी है। इसका मुख्य कथानक एक कामकाजी स्त्री के जीवन में अचानक ही बच्चे के आ जाने से उत्पन्न संघर्षों और समझौतों पर आधारित है। कहानी कुछ यूँ है कि मुंबई में रह रहे प्रेम विवाहित रितेश और राशि के जीवन में अनियोजित (अनप्लांड) बच्चे के आने के बाद समस्या शुरू हो जाती है। दोनों नौकरीशुदा  हैं और घर की किश्तें भरने की मजबूरी के चलते रितेश राशि की नौकरी भी छुड़वाने को तैयार नहीं है। अतः समस्या के समाधान के रूप में रितेश बच्चे को अपने माँ-पापा के पास भेजने की योजना बनाता है। बच्चे के मोह में फंसी राशि इसका विरोध करती है, लेकिन आखिरकार उसे रितेश की जिद और गुस्से के आगे झुकना पड़ता है। यहाँ तक कहानी ठीक चलती है और लगता है कि अब राशि के अंदर मौजूद एक आधुनिक स्त्री जागेगी और उसका कोई उदात्त चरित्र प्रकट होगा जो कोई समझौता नहीं करेगा। किन्तु, ऐसा कुछ नहीं होता। सास-ससुर के साथ बच्चे के और काम के सिलसिले में रितेश के अमेरिका चले जाने के बाद अकेली पड़ी राशि अवसादग्रस्त हो जाती है। राशि जैसी सुशिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी स्त्री का इस तरह से लाचार व टूटा हुआ व्यक्तित्व हैरान करता है। इसके अलावा उसका रितेश के निर्णय का विरोध न कर पाना भी एकदम अटपटा लगता है। ऐसा नहीं कह रहे कि इस प्रकार की स्त्रियाँ नहीं होती हैं, किन्तु राशि का चरित्र समाज के जिस वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें इस तरह की बेबस स्त्रियों कम ही दिखाई देती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो अपनी कथा की मुख्य पात्र राशि के चरित्र-चित्रण में लेखिका को पूरी सफलता नहीं मिल पायी है।
 
दैनिक जागरण
वैसे, चरित्र चित्रण की ये समस्या सिर्फ राशि तक ही सीमित नहीं रही है। कहानी के शुरू में गुस्सैल, अड़ियल और अपने परिवार के सामने राशि का बिलकुल भी साथ नहीं देने वाला रितेश कहानी के अंत में अमेरिका से लौटते ही नाटकीय ढंग से राशि का सहयोग करने वाला बन जाता है। परिवार का विरोध कर बच्चे को अपने साथ मुंबई ले आता है।  रितेश में आया ये बदलाव इसलिए नाटकीय लगता है, क्योंकि लेखिका इस बदलाव के लिए किसी तार्किक पृष्ठभूमि की रचना नहीं कर पायी हैं। उपन्यास में कथा-विस्तार के द्वारा चरित्र-चित्रण की व्यापक संभावनाएं होती हैं। विभिन्न घटनाक्रमों की रचना और परिस्थिति अनुसार पात्रों का मनोविश्लेषण करके उनके चरित्र को एक निश्चित स्वरूप दिया जाता है। फिर यदि किसी चरित्र में कोई बदलाव लाना होता है, तो उसके लिए आवश्यक घटनाक्रमों का सृजन करके ऐसी तार्किक पृष्ठभूमि तैयार की जाती है कि वह बदलाव व्यावहारिक लगे। लेकिन, यह उपन्यास इस स्तर पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो इस उपन्यास का कथानक तो अच्छा है, मगर प्रस्तुतिकरण के कच्चेपन और कहानी की लचर बुनावट के कारण अपना प्रभाव छोड़ने में पूर्णतः सफल नहीं हो पाता।

भाषा की बात करें तो इस स्तर पर भी अभी कुच्छ कच्चापन दिखाई देता है। हिंदी के तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का भी बी पूरा प्रयोग दिखता है। लेकिन, भाषा में ऐसे किसी आकर्षण या विशिष्टता के दर्शन नहीं होते जो पाठक को रुकने पर विवश कर दे। लगभग पूरे उपन्यास में एकालाप की शैली अपनाई गयी है, जो कि ध्यान खींचती है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यह प्रगतिशील व सक्षम बनने की और बढ़ रही आधुनिक स्त्रियों की एक सच्ची कहानी है, किन्तु समुचित कथा-विस्तार व चरित्र-चित्रण के अभाव में ये अधूरी रहते हुए ही समाप्त हो जाती है।

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

पुलिस की जांच प्रणाली में सुधार की जरूरत [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
पिछले दिनों सन २००५ में हुए सरोजनी नगर बम ब्लास्ट मामले में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट का फैसला आया, जिसमें न्यायालय द्वारा इस हमले के तीन में से एक आरोपी अहमद डार को दोषी मानते हुए दस वर्ष की सज़ा सुनाई गई, जबकि दो आरोपियों मोहम्मद हुसैन फ़ाज़ली और मोहम्मद रफ़ीक शाह को बरी कर दिया गया। वर्ष २००५ में धनतेरस के मौके पर दिल्ली के सरोजनी नगर इलाके और गोविन्दपुरी बस स्टैंड पर हुए तीन सीरियल धमाकों जिसमें ६० लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, के आरोप में दिल्ली पुलिस ने इन तीनों को गिरफ्तार किया था। इनपर देशद्रोह, हत्या आदि अनेक संगीन आपराधिक धाराओं में मामला दर्ज किया गया था। लेकिन, पुलिस अपनी जांच के द्वारा इनमें से किसी भी आरोप के पक्ष में ठोस सबूत पेश नहीं कर सकी, जिस कारण अदालत द्वारा दो आरोपियों को तो पूरी तरह से बरी कर दिया गया। वहीँ एक आरोपी तारिक अहमद डार पर भी दिल्ली पुलिस सिर्फ आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप ही साबित कर पायी और इस आरोप में उसे दस साल जेल की सज़ा सुनाई गयी। इतनी अवधि वो जेल में पहले ही गुज़ार चुका था, अतः अदालत ने उसको भी रिहा कर दिया। इस फैसले के बाद हमले के पीड़ितों में घोर निराशा है और इसपर तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन, यहाँ अदालत पर सवाल उठाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि यह मामला पुलिस की कमज़ोर, लचर और तथ्यहीन जांच से जुड़ा है। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की अनदेखी करना, आरोपियों के मोबाइल फ़ोनों के असली मालिकों का पता नहीं लगा पाना, गवाहों का मुकर जाना आदि अनेक बिन्दुओं पर पुलिसिया जांच की लचरता उजागर हुई है। इन बिन्दुओं पर पुलिस की जांच में यदि दम होता और वो अभियुक्तों पर लगी धाराओं के पक्ष में ठोस सबूत पेश कर पाई होती तो अदालत से उन्हें कठोरतम सजा मिलती। लेकिन, ऐसा नहीं हो सका और धमाकों के पीड़ितों की न्याय की आस को बड़ा धक्का लगा है।

दैनिक जागरण
वैसे, यह कोई पहला मामला नहीं है, जब पुलिस की कमज़ोर जांच की समस्या सामने आई हो। अबसे पहले भी अनेक छोटे-बड़े मामलों में पुलिस की लचर जांच के कारण आरोपियों को बरी करना पड़ा है। कितने दफे तो ऐसा भी देखने में आया है कि अदालत ने पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र को अपूर्ण मानते हुए उसे दुबारा जांच कर नया आरोपपत्र दाखिल करने का आदेश तक दे दिया है। समझा जा सकता है कि यहाँ समस्या पुलिस की पूरी की पूरी कार्यप्रणाली में ही है, जिसमें सुधार की मांग लम्बे समय से होती रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित पुलिस सुधार का एक छः सूत्रीय प्रारूप लगभग दशक भर से अपने लागू होने की राह देख रहा है। चूंकि, पुलिस राज्य सरकार के अंतर्गत आने वाला विषय है, इस कारण इस सम्बन्ध में सभी अधिकार राज्य सरकारों के पास हैं। अब कुछ राज्य सरकारों ने तो अपने हिसाब से नए पुलिस अधिनियम बना लिए जबकि बहुत से राज्यों की पुलिस व्यवस्था अब भी अंग्रेजों के ज़माने के ही पुलिस अधिनियम के द्वारा संचालित होती है। कुल मिलाकर किसी भी राज्य ने ठोस पुलिस सुधार की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।

खैर, अब समय बदल चुका है और अब इस समय के अनुरूप ही पुलिस सुधारों की दरकार है। सबसे पहले तो पुलिस में खाली पदों को भरा जाए तथा तकनीकी तौर पर पुलिस कर्मियों को सुप्रशिक्षित किया जाए। अभी पुलिस ट्रेनिंग में शारीरिक प्रशिक्षण तथा शास्त्राभ्यास ही मुख्य बिंदु होते हैं, लेकिन इनके अलावा अब जरूरत यह भी है कि जांच-पड़ताल के बुनियादी पहलुओं को लेकर पुलिस के प्रशिक्षण में विशेष ध्यान दिया जाए। इस तरह के सुधार करने के बाद संभव है कि हम पुलिस की जांच प्रणाली के स्तर में गुणात्मक सुधार ला सकें।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

गायत्री प्रजापति प्रकरण से सवालों के घेरे में अखिलेश सरकार [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री और अमेठी विधानसभा क्षेत्र से सपा प्रत्याशी गायत्री प्रजापति जो पहले से ही खनन घोटाले सम्बन्धी आरोपों से घिरे थे, पर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का आरोप सामने आना सपा की मुश्किलें बढ़ा सकता है। दरअसल मामला कुछ यूँ है कि विगत दिनों एक महिला द्वारा गायत्री प्रजापति पर यह आरोप लगाया गया है कि २०१४ में उन्होंने उसे प्लाट दिलाने के बहाने अपने लखनऊ स्थित आवास पर बुलाया जहां चाय में नशीला पदार्थ पिलाकर उसका अश्लील विडियो बनाया गया। फिर अश्लील विडियो के जरिये उसे ब्लैकमेल कर गायत्री प्रजापति उनके सहयोगी दो साल तक उसके साथ यौन शोषण करते रहे। वो अबतक चुप क्यों रही और अभी अचानक सामने क्यों आई, इस सवाल पर महिला का कहना है कि अपने ऊपर होने वाले जुल्मों को तो वो सहती रही, पर जब गायत्री प्रजापति और उनके आदमियों ने उसकी बेटी पर भी अपनी बुरी नज़र डालनी शुरू की तो उसके लिए चुप रहना संभव नहीं रह गया और उसे सामने आना पड़ा।  

राज एक्सप्रेस
पीड़िता द्वारा जिस तरह से पूरे ठोस और तथ्यात्मक ढंग से गायत्री प्रजापति पर यह आरोप लगाए गए हैं, उसे देखते हुए ये आरोप प्रथमद्रष्टया सही प्रतीत होते हैं। मामले से सम्बंधित एक-एक स्थान, समय और व्यक्तियों को लेकर पीड़िता द्वारा जिस तरह से जानकारी दी गयी है, उसे देखते हुए उसके आरोपों में दम नज़र आता है। लेकिन, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि चुनावों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े  वादे करने वाली सपा की सरकार में इस पीड़ित महिला की प्राथमिकी तक दर्ज करने से पुलिस ने इंकार कर दिया। मजबूरन उसे सर्वोच्च न्यायालय में जाना पड़ा और तब जाके न्यायालय के आदेश पर प्राथमिकी दर्ज हुई। सोचकर ही कितना विचित्र और शर्मनाक लगता है कि बलात्कार जैसे संगीन मामले में एक महिला को प्राथमिकी तक दर्ज कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से आदेश लाना पड़ रहा है। लेकिन, इससे भी अधिक त्रासद ये है कि प्राथमिकी दर्ज होने के बाद भी ऐसे गंभीर आरोप के बावजूद यूपी पुलिस ने गायत्री प्रजापति की गिरफ्तारी तो दूर उनसे सामान्य पूछताछ तक करने की ज़रूरत नहीं समझी। जबकि नियम तो यह कहता है कि इस तरह के संगीन और प्रथमद्रष्टया गलत नहीं प्रतीत होने वाले मामले में आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार कर उससे पूछताछ कर मामले की तह तक जाने की कोशिश की जाए। मगर, यूपी पुलिस तो इस मामले में ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है, जैसे कि मंत्रीजी पर कार्रवाई करने के लिए किसी विशेष मुहूर्त की प्रतीक्षा कर रही हो। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस मामले में यूपी पुलिस का रवैया बेहद ढुलमुल और गायत्री प्रजापति को बचाने का ही नज़र रहा है। पुलिस के इस सुस्त रवैये के कारण अब सर्वोच्च न्यायालय में गायत्री प्रजापति की गिरफ़्तारी का आदेश देने के लिए पुनः याचिका दी गयी है। अब शायद न्यायालय का आदेश आने पर ही प्रजापति पर कोई कार्रवाई होती नज़र आये।

वैसे, यूपी पुलिस के इस ढुलमुल रवैये को समझना कोई राकेट साइंस नहीं है। आखिर वे उसी सपा सरकार के मंत्री और विधायक प्रत्याशी हैं, जिसके सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव ने कभी बलात्कारियों के विषय मेंलड़के हैं, गलती हो जाती हैका ज्ञान दिया था। बस प्रजापति से भी शायद गलती हो गयी। उसपर प्रजापति तो मुलायम के अतिप्रिय होने के साथ-साथ अब प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के भी बेहद नज़दीकी हो गए हैं। इतने नज़दीकी कि कभी जिन अखिलेश यादव ने उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया था, आज वे खुद उनके लिए रैली करके वोट मांगते नज़र रहे हैं। अब यूपी में जिस नेता के प्रचार के लिए खुद अखिलेश उतर रहे हों और हर आरोप पर मीडिया के समक्ष उसका बचाव भी कर रहे हों, ऐसे नेता पर हाथ डालने की अपेक्षा यूपी पुलिस से करना बेमानी ही होगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि गायत्री प्रजापति को यूपी में सत्ता का पूरा संरक्षण मिला हुआ है। इसी कारण पहले तो उनके ख़िलाफ़ एक प्राथमिकी तक दर्ज करने में यूपी पुलिस हिचकती रही, लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर मजबूरी में प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी तो प्राथमिकी दर्ज करके कान में रुई डालकर सोई पड़ी है।

दरअसल गायत्री प्रजापति सपा के अमेठी क्षेत्र से विधायक प्रत्याशी हैं, ऐसे में उनपर कानूनी कार्रवाई होने से उनकी चुनावी गतिविधियों के प्रभावित होने की आशंका अखिलेश यादव को होगी। इसी कारण बलात्कार जैसे संगीन आरोप के बावजूद उनपर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। लेकिन, इन सबके बीच यूपी में क़ानून व्यवस्था का जो मखौल बन रहा है, उसका जवाब अखिलेश यादव को देना चाहिए। अपने घोषणापत्र में यूपी में क़ानून व्यवस्था को चाक-चौबंद करने और विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा के लिए वादे करने वाले अखिलेश यादव को बताना चाहिये कि क्या इसी तरह की क़ानून व्यवस्था वे प्रदेश में कायम करेंगे जिसमें एक बलात्कार पीड़िता को प्राथमिकी दर्ज कराने तक के लिए सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगानी पड़े ? क्या ऐसी ही व्यवस्था के बलबूते वे महिला सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े वादे और दावे करते नज़र आते हैं ? पत्नी डिम्पल यादव को चुनाव प्रचार के मैदान में उतारकर सपा को महिलाओं की समर्थक पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने का स्वांग रच रहे अखिलेश यादव और उनकी सरकार की महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता की कलई इस ताज़ा मामले में एकबार फिर खुलकर सामने गयी है। कहना होगा कि अखिलेश यादव, गायत्री प्रजापति प्रकरण में उठने वाले सवालों की आंच से बच नहीं सकते। जवाब तो उन्हें देना ही होगा, वर्ना चुनाव में जनता जवाब दे देगी।