- पीयूष द्विवेदी भारत
मनीषा
श्री का उपन्यास ‘रिक्ता’ शहरी कामकाजी स्त्री की कहानी है। इसका मुख्य कथानक एक
कामकाजी स्त्री के जीवन में अचानक ही बच्चे के आ जाने से उत्पन्न संघर्षों और
समझौतों पर आधारित है। कहानी कुछ यूँ है कि मुंबई में रह रहे प्रेम विवाहित रितेश
और राशि के जीवन में अनियोजित (अनप्लांड) बच्चे के आने के बाद समस्या शुरू हो जाती
है। दोनों नौकरीशुदा हैं और घर की किश्तें
भरने की मजबूरी के चलते रितेश राशि की नौकरी भी छुड़वाने को तैयार नहीं है। अतः
समस्या के समाधान के रूप में रितेश बच्चे को अपने माँ-पापा के पास भेजने की योजना
बनाता है। बच्चे के मोह में फंसी राशि इसका विरोध करती है, लेकिन आखिरकार उसे
रितेश की जिद और गुस्से के आगे झुकना पड़ता है। यहाँ तक कहानी ठीक चलती है और लगता
है कि अब राशि के अंदर मौजूद एक आधुनिक स्त्री जागेगी और उसका कोई उदात्त चरित्र
प्रकट होगा जो कोई समझौता नहीं करेगा। किन्तु, ऐसा कुछ नहीं होता। सास-ससुर के साथ
बच्चे के और काम के सिलसिले में रितेश के अमेरिका चले जाने के बाद अकेली पड़ी राशि
अवसादग्रस्त हो जाती है। राशि जैसी सुशिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी स्त्री
का इस तरह से लाचार व टूटा हुआ व्यक्तित्व हैरान करता है। इसके अलावा उसका रितेश
के निर्णय का विरोध न कर पाना भी एकदम अटपटा लगता है। ऐसा नहीं कह रहे कि इस
प्रकार की स्त्रियाँ नहीं होती हैं, किन्तु राशि का चरित्र समाज के जिस वर्ग-विशेष
का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें इस तरह की बेबस स्त्रियों कम ही दिखाई देती हैं। सीधे
शब्दों में कहें तो अपनी कथा की मुख्य पात्र राशि के चरित्र-चित्रण में लेखिका को
पूरी सफलता नहीं मिल पायी है।
वैसे,
चरित्र चित्रण की ये समस्या सिर्फ राशि तक ही सीमित नहीं रही है। कहानी के शुरू
में गुस्सैल, अड़ियल और अपने परिवार के सामने राशि का बिलकुल भी साथ नहीं देने वाला
रितेश कहानी के अंत में अमेरिका से लौटते ही नाटकीय ढंग से राशि का सहयोग करने
वाला बन जाता है। परिवार का विरोध कर बच्चे को अपने साथ मुंबई ले आता है। रितेश में आया ये बदलाव इसलिए नाटकीय लगता है,
क्योंकि लेखिका इस बदलाव के लिए किसी तार्किक पृष्ठभूमि की रचना नहीं कर पायी हैं।
उपन्यास में कथा-विस्तार के द्वारा चरित्र-चित्रण की व्यापक संभावनाएं होती हैं।
विभिन्न घटनाक्रमों की रचना और परिस्थिति अनुसार पात्रों का मनोविश्लेषण करके उनके
चरित्र को एक निश्चित स्वरूप दिया जाता है। फिर यदि किसी चरित्र में कोई बदलाव
लाना होता है, तो उसके लिए आवश्यक घटनाक्रमों का सृजन करके ऐसी तार्किक पृष्ठभूमि
तैयार की जाती है कि वह बदलाव व्यावहारिक लगे। लेकिन, यह उपन्यास इस स्तर पर अपना
प्रभाव नहीं छोड़ पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो इस उपन्यास का कथानक तो अच्छा है,
मगर प्रस्तुतिकरण के कच्चेपन और कहानी की लचर बुनावट के कारण अपना प्रभाव छोड़ने
में पूर्णतः सफल नहीं हो पाता।
भाषा
की बात करें तो इस स्तर पर भी अभी कुच्छ कच्चापन दिखाई देता है। हिंदी के
तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का भी बी पूरा प्रयोग
दिखता है। लेकिन, भाषा में ऐसे किसी आकर्षण या विशिष्टता के दर्शन नहीं होते जो
पाठक को रुकने पर विवश कर दे। लगभग पूरे उपन्यास में एकालाप की शैली अपनाई गयी है,
जो कि ध्यान खींचती है।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यह प्रगतिशील व सक्षम बनने
की और बढ़ रही आधुनिक स्त्रियों की एक सच्ची कहानी है, किन्तु समुचित कथा-विस्तार व
चरित्र-चित्रण के अभाव में ये अधूरी रहते हुए ही समाप्त हो जाती है।
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