गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

पुलिस की जांच प्रणाली में सुधार की जरूरत [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
पिछले दिनों सन २००५ में हुए सरोजनी नगर बम ब्लास्ट मामले में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट का फैसला आया, जिसमें न्यायालय द्वारा इस हमले के तीन में से एक आरोपी अहमद डार को दोषी मानते हुए दस वर्ष की सज़ा सुनाई गई, जबकि दो आरोपियों मोहम्मद हुसैन फ़ाज़ली और मोहम्मद रफ़ीक शाह को बरी कर दिया गया। वर्ष २००५ में धनतेरस के मौके पर दिल्ली के सरोजनी नगर इलाके और गोविन्दपुरी बस स्टैंड पर हुए तीन सीरियल धमाकों जिसमें ६० लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, के आरोप में दिल्ली पुलिस ने इन तीनों को गिरफ्तार किया था। इनपर देशद्रोह, हत्या आदि अनेक संगीन आपराधिक धाराओं में मामला दर्ज किया गया था। लेकिन, पुलिस अपनी जांच के द्वारा इनमें से किसी भी आरोप के पक्ष में ठोस सबूत पेश नहीं कर सकी, जिस कारण अदालत द्वारा दो आरोपियों को तो पूरी तरह से बरी कर दिया गया। वहीँ एक आरोपी तारिक अहमद डार पर भी दिल्ली पुलिस सिर्फ आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप ही साबित कर पायी और इस आरोप में उसे दस साल जेल की सज़ा सुनाई गयी। इतनी अवधि वो जेल में पहले ही गुज़ार चुका था, अतः अदालत ने उसको भी रिहा कर दिया। इस फैसले के बाद हमले के पीड़ितों में घोर निराशा है और इसपर तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन, यहाँ अदालत पर सवाल उठाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि यह मामला पुलिस की कमज़ोर, लचर और तथ्यहीन जांच से जुड़ा है। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की अनदेखी करना, आरोपियों के मोबाइल फ़ोनों के असली मालिकों का पता नहीं लगा पाना, गवाहों का मुकर जाना आदि अनेक बिन्दुओं पर पुलिसिया जांच की लचरता उजागर हुई है। इन बिन्दुओं पर पुलिस की जांच में यदि दम होता और वो अभियुक्तों पर लगी धाराओं के पक्ष में ठोस सबूत पेश कर पाई होती तो अदालत से उन्हें कठोरतम सजा मिलती। लेकिन, ऐसा नहीं हो सका और धमाकों के पीड़ितों की न्याय की आस को बड़ा धक्का लगा है।

दैनिक जागरण
वैसे, यह कोई पहला मामला नहीं है, जब पुलिस की कमज़ोर जांच की समस्या सामने आई हो। अबसे पहले भी अनेक छोटे-बड़े मामलों में पुलिस की लचर जांच के कारण आरोपियों को बरी करना पड़ा है। कितने दफे तो ऐसा भी देखने में आया है कि अदालत ने पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र को अपूर्ण मानते हुए उसे दुबारा जांच कर नया आरोपपत्र दाखिल करने का आदेश तक दे दिया है। समझा जा सकता है कि यहाँ समस्या पुलिस की पूरी की पूरी कार्यप्रणाली में ही है, जिसमें सुधार की मांग लम्बे समय से होती रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित पुलिस सुधार का एक छः सूत्रीय प्रारूप लगभग दशक भर से अपने लागू होने की राह देख रहा है। चूंकि, पुलिस राज्य सरकार के अंतर्गत आने वाला विषय है, इस कारण इस सम्बन्ध में सभी अधिकार राज्य सरकारों के पास हैं। अब कुछ राज्य सरकारों ने तो अपने हिसाब से नए पुलिस अधिनियम बना लिए जबकि बहुत से राज्यों की पुलिस व्यवस्था अब भी अंग्रेजों के ज़माने के ही पुलिस अधिनियम के द्वारा संचालित होती है। कुल मिलाकर किसी भी राज्य ने ठोस पुलिस सुधार की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।

खैर, अब समय बदल चुका है और अब इस समय के अनुरूप ही पुलिस सुधारों की दरकार है। सबसे पहले तो पुलिस में खाली पदों को भरा जाए तथा तकनीकी तौर पर पुलिस कर्मियों को सुप्रशिक्षित किया जाए। अभी पुलिस ट्रेनिंग में शारीरिक प्रशिक्षण तथा शास्त्राभ्यास ही मुख्य बिंदु होते हैं, लेकिन इनके अलावा अब जरूरत यह भी है कि जांच-पड़ताल के बुनियादी पहलुओं को लेकर पुलिस के प्रशिक्षण में विशेष ध्यान दिया जाए। इस तरह के सुधार करने के बाद संभव है कि हम पुलिस की जांच प्रणाली के स्तर में गुणात्मक सुधार ला सकें।

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