- पीयूष द्विवेदी भारत
यदि आपको भारत के
दक्षिण से लेकर उत्तर तक के भूभागों के बीच व्याप्त विविधता में एकता की महान
भारतीय संस्कृति, हमारे गौरवपूर्ण अतीत और उसकी तुलना में कम समृद्ध वर्तमान को एक
साथ देखना, जानना और महसूस करना है, तो राजीव रंजन प्रसाद का नवीन
यात्रा-वृत्तान्त संग्रह ‘मैं फिर लौटूंगा अश्वत्थामा’ आपके लिए उपयोगी साहित्य सिद्ध
हो सकता है। इसके यात्रा-वृत्तांतों में भारतीय सांस्कृतिक विविधता की झांकी सहज
ही मौज़ूद है।
यात्रा-वृत्तान्त
का अपना एक शिल्प होता है और इसमें बहुत नवीनता की कोई संभावना नहीं होती, किन्तु
राजीव के यात्रा-वृत्तांतों में कथ्य से लेकर वस्तु-स्थिति के प्रति लेखक की
दृष्टि आदि स्तरों पर एक हद तक विशिष्टता के दर्शन होते हैं। इस कारण कहीं न कहीं इन
यात्रा-वृत्तांतों में एक प्रकार की ताज़गी का अनुभव किया जा सकता है।
ये
यात्रा-वृत्तान्त विविधताओं से भरपूर हैं। इनमें महाराष्ट्र का शनि शिंगणापुर ,
मध्य प्रदेश का असीरगढ़, बिहार का बोधगया, राजस्थान का भानगढ़ किला, एशिया का
स्वच्छ्तम मेघालय का मावल्यानाँग गाँव आदि
देश के विविध राज्यों से सम्बंधित विभिन्न पर्यटन स्थलों के वर्णन मौज़ूद हैं,
इसलिए इसमें स्वतः ही विविधता का समावेश हो गया है। ये विविधता पुस्तक में
यत्र-तत्र रोचकता का भी सृजन करती है। विविधता के अतिरिक्त रोचकता इस कारण भी
सृजित होती है कि लेखक ने तमाम ऐसे स्थलों के यात्रा-वृत्तांतों को सम्मिलित किया
है, जो अपने आप में एक वृहद् इतिहास और वर्तमान में रहस्यों के भंडार समेटे हुए हैं।
अच्छी बात ये है कि लेखक का ध्यान सम्बंधित यात्रा-स्थल की भौगोलिक विशेषताओं व
संरचनाओं में अधिक उलझने की बजाय उससे सम्बद्ध इतिहास की तरफ मुख्य रूप से उन्मुख
रहा है। हालांकि इसका ये अर्थ नहीं कि यात्रा-स्थलों की संरचनाओं पर लेखक का ध्यान
नहीं है, देश की विविध प्राचीन वास्तु-संरचनाओं को देखते हुए लेखक में भारत के
गौरवपूर्ण अतीत का बोध स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है।
यदि किस यात्रा-स्थल
से जुड़ा कोई रहस्य है, तो उसका अपने अनुसार परीक्षण व विश्लेषण करने का प्रयत्न भी
लेखक अपने यात्रा-वृत्तांतों में करता हुआ नज़र आता है। उदाहरणार्थ, इसके शीर्षक
यात्रा-वृत्तान्त ‘मैं फिर लौटूंगा अश्वत्थामा’ का उल्लेख करें तो मध्य प्रदेश के
खांडवा में अवस्थित असीरगढ़ के किले का वर्णन करते हुए लेखक महाभारत के पात्र
अश्वत्थामा के जीवित होने से सम्बंधित जनश्रुतियों की चर्चा करता है। निश्चित तौर
पर यह एक यात्रा-वृत्तान्त है, कोई रहस्यपूर्ण उपन्यास नहीं, लेकिन लेखक ने शब्दों
के द्वारा इस पूरे वर्णन में रहस्य व रोमांच का वातावरण बनाए रखा है। यहाँ लेखक असीरगढ़
किले की संरचनाओं के साथ-साथ यथास्थान और यथासंदर्भ सम्बंधित इतिहास को भी
उद्घाटित करता जाता है। राजस्थान में अवस्थित भानगढ़ किले के भुतिया रहस्यों के
वर्णन में लेखक का यह कौशल और निखरकर सामने आया है। किले में पायल की झंकार सुने
जाने सम्बन्धी स्थानीय मान्यता की बात की चर्चा करते हुए लेखक जब अचानक खुद भी
पायल की झंकार सुनने की बात कहता है, और आवाज़ की दिशा में देखने पर चहचहाती
चिड़ियों को देखता है, तो यहाँ हम रहस्य, रोमांच और भय के मनोविज्ञान में
डूबने-इतराने लगते हैं। फिर किले के इतिहास की चर्चा करते हुए इन रहस्यों, भयों की
पृष्ठभूमि को उकेरने का लेखक ने यथोचित प्रयास किया है। हालांकि इस क्रम में कहीं-कहीं
ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक यात्रा-वृत्तान्त जैसी वास्तविक वर्णन की विधा में
कल्पना के अत्यधिक रंग भरने लगा है। जैसे कि एक कुत्ते का ज़िक्र जो किले में घूमते
हुए लेखक के साथ रहता है और फिर उसे किले के अंतिम द्वार तक छोड़कर वापस मुड़ जाता
है। संभव है कि ऐसा कुछ हुआ भी हो, लेकिन यह वर्णन ऐसे किया गया है कि कुछ अधिक ही
नाटकीय लगने लगता है। बावजूद इन सबके यह यात्रा-वर्णन पाठक को पूरी तरह से बांधे रखने
में समर्थ है।
इस संग्रह के
यात्रा-वृत्तांतों की सबसे बड़ी विशेषता इनमे निहित लेखक की वो वैज्ञानिक दृष्टि है,
जिसके द्वारा वो केवल चीज़ों को देखकर के छोड़ नहीं देता, बल्कि उनका अपने हिसाब से
परीक्षण, अन्वेषण व विश्लेषण करने का प्रयत्न भी करता है। पुस्तक की प्रस्तावना
में वर्णित कुछ किस्सों से ही हमें लेखक की इस वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय मिल जाता
है, जो कि आगे के सभी यात्रा-वृत्तांतों में भी जारी रहता है।
भाषा की बात करें
तो वो सीधी-सरल खड़ीबोली है। उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी ठीकठाक मात्रा में
प्रयोग हुआ है, लेकिन हिंदी की तत्सम शब्दावली की तरफ लेखक का रुझान कुछ अधिक
प्रतीत होता है। लेखक ने यथासंभव तत्सम
हिंदी में अपनी बात कहने का प्रयत्न किया है, लेकिन अन्य भाषाओँ के शब्दों से भी
उसे कोई समस्या नहीं है। कुल मिलाकर कहें तो ये सादगी से भरी और सहज ही समझ में आ
जाने वाली भाषा है।
यहाँ रचना के
शिल्प पर भी दृष्टि डालना समीचीन होगा। यात्रा-वृत्तान्त, संस्मरण और रेखाचित्र ये
तीन ऐसी विधाएं हैं, जिनमें अंतर की बेहद महीन रेखा है। इस कारण अक्सर इनका
एकदूसरे में समायोजन होने लगता है और इनकी पहचान में भ्रम भी बन जाता है। प्रस्तुत
यात्रा-वृत्तान्त संग्रह में भी एक हद तक यह समस्या दृष्टिगत होती है। कई
यात्रा-वृत्तान्त, संस्मरण प्रतीत होने लगते हैं, तो कई में रेखाचित्र के तत्व नज़र
आते हैं। यूँ कहें कि कई वर्णनों में इन तीनों विधाओं के रचना-तत्वों का
अंतर्मिश्रण हो गया तो गलत नहीं होगा। जैसे कि भानगढ़ किले व गांधी सेवाश्रम वर्धा
से सम्बंधित वर्णनों में यात्रा-वृत्तान्त से अधिक रेखाचित्र व संस्मरण का पुट नज़र
आता है, तो एलोरा और अजंता की गुफाओं के वर्णन में भी ये तीनों विधाएं आवश्यकतानुसार
साथ-साथ चलती दिखाई देती हैं। इस प्रकार कह सकते हैं कि इस पुस्तक की रचनाएं मूलतः
तो यात्रा-वृत्तान्त ही हैं, मगर इन विधाओं की शिल्पगत समानता के कारण इसमें
संस्मरण और रेखाचित्र के तत्व भी एक हद तक आ गए हैं। विधाओं के इस अंतर्मिश्रण से
यह पुस्तक और अच्छी ही बन गयी है। हालांकि
कई यात्रा-स्थलों का बेहद संक्षिप्त वर्णन किया जाना खटकता है।
बहरहाल, आज जब हिंदी गद्य
साहित्य का अर्थ अधिकांशतः कहानी, उपन्यास, निबंध आदि की रचना करना भर रह गया है,
ऐसे वक़्त में इस प्रकार के यात्रा-साहित्य की हिंदी को बहुत आवश्यकता है। ये न
केवल हिंदी के यात्रा-साहित्य को समृद्ध करने के लिए आवश्यक है, बल्कि इस तरह की
कृतियाँ सांस्कृतिक विविधताओं को एक सूत्र में समेटे अपने इस भारतवर्ष को
जानने-समझने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो सकती हैं।
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