शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

औचित्यहीन हैं समलैंगिक सम्बन्ध [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
देश में समलैंगिक संबंधों पर एकबार फिर चर्चा शुरू हो गई है । समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था नाज़ फाउंडेशन ने समलैंगिक संबंधों को अपराध बताने वाले सर्वोच्च न्यायालय के २०१३ के फैसले के खिलाफ याचिकाएं दायर की थी, जिनपर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को नए सिरे से विचार करने के लिए ५ न्यायाधीशों की एक बेंच के हवाले कर दिया है । दरअसल इस मामले की शुरुआत तो २००१ में हो गई थी, जब नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करते हुए समलैंगिक संबंधों को वैधानिक मान्यता देने की मांग की थी । सितम्बर, २००४ में उच्च न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी तो मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा जिसने इसे पुनर्विचार के आदेश के साथ उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया । उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस सम्बन्ध में राय मांगी तो तत्कालीन सरकार ने स्पष्ट किया कि यह अनैतिक और विकृत मानसिकता का द्योतक है, इससे समाज का नैतिक पतन हो जाएगा ।  लेकिन उच्च न्यायालय इस दलील से सतुष्ट नहीं हुआ और इस प्रकार करते-धरते आज से लगभग सात साल पहले २ जुलाई, सन २००९ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में समलैंगिक संबंध को जायज घोषित कर दिया । तत्कालीन दौर में उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि ये संबंध भी सामाजिक स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं, अतः इन्हें आपराधिक नही माना जा सकता । उसवक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को जहाँ दुनिया के कई देशों में सराहा गया, वहीँ हिंदू, मुस्लिम आदि धार्मिक संगठनों द्वारा इस फैसले का विरोध करते हुए इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई, जिसपर सुनवाई करते हुए सन २०१३ में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को संवैधानिक रूप से अपराध बताया । हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में क़ानून में बदलाव की बात संसद और सरकार के ऊपर छोड़ दी थी । अब अपने  उसी फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को पुनर्विचार के लिए स्वीकार लिया है ।
 पुनर्विचार के बाद न्यायालय का फैसला क्या होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन, समलैंगिक सबंधों के औचित्य और आवश्यकता पर फ़िलहाल हमें एकबार पुनः विचार करने की जरूरत अवश्य है । अगर विचार करें तो आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पारम्परिक रूप से चले आ रहे स्त्री-पुरुष या नर मादा संबंधों के बीच हमारे इस समाज में समलैंगिक संबंधों की क्या आवश्यकता है ? और इनका क्या औचित्य है ?  इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए सर्वप्रथम हमें समझना होगा कि आखिर समलैंगिक संबंध क्या है तथा ये हमारे समाज और संस्कृति के कितने अनुकूल है । समलैंगिक संबंध दो समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच मुख्यतः शारीरिक व कुछ हद तक मानसिक संबंध कायम करने की एक आधुनिक पद्धति है । अर्थात इस संबंध पद्धति के अंतर्गत दो स्त्रियां अथवा दो पुरुष आपस में पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं । अब अगर इस संबंध पद्धति को भारत की सामाजिक व कानूनी व्यवस्था के संदर्भ में देखें तो इस तरह के संबंध के लिए न तो भारतीय समाज के तरफ से अनुमति है और न ही क़ानून की तरफ से । जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने पूर्व निर्णय में कहा है, भारत के संविधान में इस तरह के संबंधो को अप्राकृतिक बताते हुए इनके लिए सज़ा तक का प्रावधान किया गया है । भारतीय संविधान की धारा-३७७ के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को आपराधिक माना गया है और इसके लिए दस साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा का भी प्रावधान है । लेकिन, सन २००९ में उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद ये बातें गौण हो गई और कानूनी रूप से समलैंगिक संबंध स्वीकृत हो गए । पर फिर जब सर्वोच्च न्यायालय का २०१३ का निर्णय आया तो ये क़ानून प्रासंगिक हुए और माना गया कि समलैंगिक सम्बन्ध संविधानानुसार अवैध हैं । ये तो बात हुई कानून की । अब अगर एक नज़र समाज पर डालें तो सामाजिक दृष्टिकोण से भी सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंध कायम करने को सही माना जाता है, वो भी तब जब स्त्री-पुरुष वैवाहिक पद्धति से एकदूसरे को स्वीकार चुके हों । हालांकि आज के इस आधुनिक युग में लोगों, खासकर शहरी युवाओं द्वारा शारीरिक संबंध के लिए वैवाहिक अनिवार्यता की इस सामाजिक मान्यता को दरकिनार करके संबंध बनाए जा रहे हैं । पर ऐसा करने वालों की संख्या अभी काफी कम है ।

  अगर विचार करें तो स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित होने के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं – प्रजनन एवं शारीरिक और कुछ एक हद तक मानसिक संतुष्टि । इनमे भी प्रजनन का स्थान सबसे पहले आता है । क्योंकि सभी संबंधों की बारी प्रजनन के बाद ही आती है । अगर प्रजनन ही नही होगा तो फिर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं प्राकृतिक संतुलन अर्थविहीन हो जायेगा । बात चाहें समाज की स्थापना की हो या सम्बन्ध की स्थापना की या फिर प्राकृतिक संतुलन की ही क्यों न हो,  सबका स्रोत प्रजनन ही है और समलैंगिक सम्बन्धों में प्रजनन की सम्भावनाओं को प्राकृतिक  रूप से प्राप्त करना असम्भव नज़र आता है । जाहिर है कि प्रजनन की योग्यता  से हीन समलैंगिक संबंध दो समलिंगी लोगों की शारीरिक इच्छाओं को पूर्ण करने का एक विकृत माध्यम भर है । इसके अतिरिक्त  फ़िलहाल इनका कोई औचित्य नही है । यानी कि यह पूरी तरह से स्वार्थपूर्ण सम्बन्ध पद्धति है, जिसे देश-समाज से कोई सरोकार नहीं है । संविधान में समलैंगिक सम्बन्ध को अप्राकृतिक कहने का एक कारण यह भी है कि समाज में प्राकृतिक एवं परम्परागत रूप से जो सम्बन्ध स्थापित होते आ  रहें हैं और जिन सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है, उनको  समाज में उत्पन्न यह नया सम्बन्ध खुली चुनौती दे रहा है । तात्पर्य यह कि समलैंगिकता प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचना को ही चुनौती दे रही है । समलैंगिक रिश्तों के भावी परिणामो की अनदेखी करते हुए  इसके वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति के आधार पर इसे क़ानूनी एवं सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर देना शायद हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल होगी । बेशक, आज इस समलैंगिक संबंध के समर्थकों की संख्या काफी कम है, पर जिस तरह से इसके समर्थक बढ़ रहे हैं, वो आने वाले समय में हमारी सामाजिक व्यवस्था को व्यापक तौर पर प्रभावित या दुष्प्रभावित करेगा । अगर इसे शह मिले तो संभव है कि दूर भविष्य में ये प्रजनन विहीन सम्बन्ध पद्धति हमारी सामजिक व्यवस्था को ही ठेस पहुंचाने लगे । लिहाजा यही उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में पुनर्विचार करके भी पुनः अपने पूर्व निर्णय पर ही कायम रहेगा । और यदि न्यायालय सबकुछ सरकार पर छोड़ता है तो सरकार से भी यही उम्मीद की जा सकती है कि वो समलैंगिक संबंधों को अवैध बताने वाली धारा-३७७ के में कोई विशेष फेर बदल नहीं करे, बल्कि उस क़ानून में ऐसे प्रावधान करे जिससे कि इस तरह के अप्राकृतिक, अनावश्यक और निराधार संबंध स्थापित करने वालों पर समुचित नियंत्रण स्थापित किया जा सके । 

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