रविवार, 21 दिसंबर 2014

आतंक से मिलकर लड़ने की जरूरत [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
यूँ तो पाकिस्तान में आतंकियों का वर्चस्व ही ऐसा है कि वहां वे आए-दिन कहीं न कहीं छोटे-बड़े हमले करते ही रहते हैं, लेकिन पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी स्कूल पर हुआ ताज़ा आतंकी हमला तो अमानवीयता की सारी हदें पार करने वाला है। प्राप्त जानकारी के अनुसार बीते मंगलवार सुबह तकरीबन ११ बजे पाकिस्तानी रेंजर्स के ड्रेस में करीब ६-७ आतंकी स्कूल में घुस गए और अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दिए। उस वक्त विद्यालय में छात्र व शिक्षक मिलाकर कुल ५०० लोग मौजूद थे, जिनमे से १३२ बच्चों समेत १४० से ऊपर लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। साथ ही तकरीबन २५० लोग घायल भी हुए हैं। सभी आतंकियों ने सुसाइड जैकेट पहन रखे थे जिनमे से चार ने खुद को धमाका करके उड़ा दिया, तो बाकी को पाक सुरक्षाबलों ने मार गिराया।  आतंकी संगठन तहरीके-तालिबान पाकिस्तान द्वारा इस बर्बर आतंकी हमले की जिम्मेदारी लेते हुए कहा गया है कि यह हमला उत्तरी वजीरिस्तान में पाक सेना द्वारा की गई कार्रवाई का नतीजा है। अब यहाँ सोचने वाली बात यह है कि आखिर मासूम बच्चों की जान लेने से आतंकियों का पाक सेना से कौन सा बदला पूरा हुआ ? अगर उन्हें बदला लेने की ऐसी बेचैनी थी तो सेना का सामना करके बदला ले लेते, मासूम बच्चों ने आखिर उनका क्या बिगाड़ा था, जो उनकी जान के दुश्मन बन गए। दरअसल, बात सिर्फ सेना से बदले की नहीं है, आतंकियों के हमले के लिए इस आर्मी स्कूल को चुनने के पीछे कई और वजहें भी हो सकती हैं। गौरतलब है कि अभी हाल ही में बच्चों की शिक्षा के लिए तालिबान के विरुद्ध आवाज उठाकर अपनी जान की बाजी लगा देने वाली मलाला युसुफजई को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कहीं न कहीं स्कूल पर हमले के जरिये आतंकियों ने मलाला को नोबेल मिलने का विरोध जताने की भी कोशिश की है। अब जो भी हो, पर इस आतंकी हमले ने एकबार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि आतंकियों के आगे पाकिस्तानी सेना समेत पाकिस्तान की पूरी सुरक्षा व्यवस्था बेहद बेबस और लाचार हो चुकी   है। आब चूंकि पाकिस्तान भारत का सबसे निकटवर्ती पड़ोसी देश है, ऐसे में पाकिस्तान में आतंकियों का ये बोलबाला भारत के लिए भी बड़ी चिंता का विषय है। इसी हमले को लें तो ये जिस पेशावर में हुआ है, वो भारत की राजधानी नई दिल्ली से महज ९०० किमी दूर है। कहने का मतलब यह है कि दूरी सिर्फ सरहदों की यानी नाम भर की है, वर्ना जमीन पर पाकिस्तान में मचने वाला आतंक भारत से बहुत दूर नहीं है। दरअसल, यह वो समय है जब अफ़गानिस्तान से नाटो सेनाएं जिन्होंने तालिबान पर काफी हद तक अंकुश कर रखा था, वापसी कर रही हैं। ऐसे में, तालिबानी आतंकी अब बेहद निरंकुश हो चुके हैं । इन आतंकियों की ये निरंकुशता न सिर्फ पाकिस्तान के लिए संकट का सबब है, बल्कि भारत के लिए भी बेहद चिंताजनक है । यह आतंकी जम्मू-कश्मीर सीमा पर अशांति फैलाने से लेकर भारत में तबाही मचाने तक अनेक घातक मंसूबों के साथ-साथ भारत की तरफ भी अवश्य ही बढ़ेंगे । और उनके इन मंसूबों को पूरा करने के लिए उन्हें पाकिस्तानी सेना से मदद नहीं मिलेगी, यह अब भी विश्वास से नहीं कहा जा सकता बहरहाल, पाकिस्तान में हुए इस बर्बर आतंकी हमले को देखते हुए भारत में सुरक्षा के स्तर पर भारी सजगता बरतने के निर्देश सुरक्षा एजेंसियों को दे दिए गए हैं।

  इसमें तो कोई संदेह नहीं कि पेशावर में जो हुआ है, वो बेहद दुखद है और इस मामले में भारत की संवेदनाएं पूरी तरह से पाकिस्तान के साथ हैं, लेकिन बावजूद इसके इस तथ्य से भी  इंकार नहीं किया जा सकता कि आज जो आतंक पाकिस्तान के लिए नासूर बन चुका है, उसे पालने-पोषने वाला वो खुद ही है अब इस ताज़ा मामले में ही देखें तो भारत जहाँ पाक में हुए इस आतंकी हमले पर शोकाकुल है तो वहीं पाक में बैठा २६/११ का मास्टर माइंड हाफिज सईद इस आतंकी हमले के लिए भारत को ही दोषी ठहरा रहा है । विडम्बना यह है कि हाफिज सईद के इस बयान पर पाकिस्तान खामोश है । अभी हाल ही में पेंटागन की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि भारत की मजबूत व शक्तिशाली सेना का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान आतंकियों की मदद लेता रहा है । इन तथ्यों से स्पष्ट है कि आज पाकिस्तान वही काट रहा है, जो कभी उसने बोया था। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई हो, पाकिस्तानी सेना हो या पाकिस्तानी हुकूमत हो, इनमे से कोई ऐसा नहीं है, जिसने भारत में आतंक फैलाने के लिए आतंकियों को शह नहीं दी हो। भारत में होने वाले अधिकांश आतंकी हमलों में किसी न किसी तरह आईएसआई आदि का हाथ सामने आता रहा है। फिर चाहें वो संसद भवन पर हुआ हमला हो या मुंबई में हुआ २६/११ का हमला या और भी तमाम आतंकी हमले, सभी में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, सेना व पाकिस्तानी हुकूमत की भूमिका पाई गई है। पर दुर्भाग्य तो ये है कि इतने के बाद भी अबतक इस संबंध में पूरी तरह से पाकिस्तान की अक्ल पर से परदा नहीं हटा  है। वो अब भी आतंकवाद को लेकर भारत के साथ मिलकर लड़ने की बजाय भारत में आतंकी हमले करवाने की अपनी कोशिशें जारी रखे हुए है। सीमा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा जो आए दिन संघर्ष विराम का उल्लंघन किया जाता है, उसका उद्देश्य यही होता है कि गोलीबारी के बीच कुछ आतंकियों को भारतीय सीमा में घुसा दिया जाए। इसके अलावा अभी कुछ समय पहले ही भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा टुंडा आदि जो कुछ आतंकी पकड़े गए हैं, उनके तार भी पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी से ही जुड़ते नज़र आ रहे हैं। स्पष्ट है कि भारत को तबाह करने के लिए उपजाए अपने आतंकवाद के चक्र में बुरी तरह पिसने के बावजूद पाकिस्तान के रवैये में अब तक कोई विशेष सुधार नहीं आया है। उचित तो ये होता कि आतंकियों व तमाम हथकण्डों के जरिये भारत को मिटाने का ख्वाब देखने की बजाय पाकिस्तान पूरी इच्छाशक्ति से भारत के साथ मिलकर आतंक के खिलाफ लड़ता। ऐसा करके ही वो आतंक के चंगुल से स्वयं को बचा सकता है, वरना वो स्वयं तो आतंक से जूझेगा ही, समूची दुनिया को भी परेशानी में डाले रहेगा।

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

दुनिया के लिए संकट बनता मोटापा [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि आज जहाँ एक तरफ दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से को खाने के लिए भरपेट अन्न नहीं मिल रहा और वो भुखमरी से अभिशप्त जीवन गुजारने को विवश है, तो वहीँ दूसरी तरफ इसी दुनिया की आबादी के एक दुसरे बड़े हिस्से में बढ़ रहा मोटापा धीरे-धीरे  इसके लिए एक बड़ा संकट बनता जा रहा है यह बात चौंकाने वाली अवश्य है किन्तु सत्य है कि आज मोटापा दुनिया के लिए धूम्रपान और आतंकवाद के बाद तीसरा सबसे बड़ा संकट बन चुका है इस तथ्य का खुलासा मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट (एमजीआई) द्वारा अभी हाल ही में जारी की गई एक अध्ययन  रिपोर्ट से हुआ है रिपोर्ट के अनुसार आज दुनिया में सामान्य से अधिक वजन वाले लोगों समेत पूरी तरह से मोटापे से ग्रस्त लोगों की संख्या लगभग २.१ अरब है जो कि वैश्विक आबादी का ३० प्रतिशत है रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लोगों में बढ़ रहे मोटापे के चलते  आज वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष तकरीबन २००० अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है रिपोर्ट में यह आशंका भी जताई गई है कि अगर दुनिया में इसी तरह मोटापा बढ़ता रहा तो अगले डेढ़ दशक में दुनिया की आधी आबादी पूरी तरह से इसकी चपेट में आ सकती है गौर करने वाली बात यह भी है कि विकासशील देशों में मोटापे की समस्या का प्रकोप कुछ अधिक ही है आंकड़े के मुताबिक विकासशील देशों में स्वास्थ्य के मद में होने वाले कुल खर्च में मोटापे की हिस्सेदारी यों तो अधिकतम ७ प्रतिशत है, लेकिन अगर इसमें  मोटापाजनित बीमारियों के खर्च को भी जोड़ दें तो ये आंकड़ा २० प्रतिशत के पास पहुँच जाता है इन तथ्यों को देखते हुए  सर्वाधिक चिंताजनक प्रश्न यह उठता है कि अभी जब दुनिया में ३० फीसद लोग कमोबेश मोटापे से ग्रस्त हैं, तब ये समस्या वैश्विक अर्थव्यवस्था को २००० अरब डॉलर यानि वैश्विक जीडीपी के २.८ प्रतिशत का नुकसान पहुँचा रही है ऐसे में उक्त रिपोर्ट के अनुसार अगर अगले डेढ़ दशक में दुनिया की आधी आबादी पूरी तरह से इसकी चपेट में आ गई, तब यह वैश्विक अर्थव्यवस्था को कितनी हानि पहुंचाएगा ? संभव है कि तब मोटापा दुनिया के लिए सबसे बड़ी और चुनौतीपूर्ण समस्या बन जाय एक ऐसी समस्या जिसके लिए दुनिया किसी भी तरह से तैयार न हो
    इसी क्रम में अगर इस बात पर विचार करें कि आखिर मोटापा किस प्रकार वैश्विक अर्थव्यवस्था को कुप्रभावित करता है तो कई चीजे हमारे सामने आती हैं दरअसल, मोटापा एक ऐसी समस्या है जो न सिर्फ ग्रस्त व्यक्तियों के निजी व्यक्तित्व को बल्कि उनके समग्र कार्य-कलापों, कार्य-क्षमताओं व  गतिविधियों को बुरी तरह से प्रभावित करता है इसको थोड़ा और अच्छे से समझने की कोशिश करें तो एक तरफ तो मोटे व्यक्तियों की खाद्य आवश्यकता सामान्य व्यक्ति से कहीं अधिक होती है, वहीँ दूसरी तरफ वे  अपने सामान्य से अधिक वजन के कारण सामान्य वजनी लोगों की अपेक्षा काफी सुस्त व ढुलमुल रवैये वाले हो जाते हैं अर्थात उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी लागत जहाँ सामान्य से बहुत अधिक होती है, वही सुस्त व ढुलमुल रवैये के कारण उनकी  उत्पादकता का स्तर काफी कम होता है सीधे शब्दों में कहें तो मोटे व्यक्तियों में खपत बहुत अधिक होती है जबकि उनसे उत्पादकता बेहद कम अब मोटे लोगों में  खपत और उत्पादकता के बीच का यह असंतुलन ही वो कारण है कि आज मोटापा वैश्विक अर्थव्यवस्था को भारी हानि पहुँचा रहा है
   हालांकि ऐसा नहीं है कि आज दुनिया इस समस्या को लेकर बिलकुल भी सचेत नहीं है दुनिया में मोटापे को नियंत्रित करने के लिए कमोबेश प्रयास किए जा रहे हैं एमजीआई के उपर्युक्त अध्ययन में ही दुनिया में मोटापे की रोकथाम के लिए किए जा रहे करीब छः दर्जन प्रयासों का उल्लेख किया गया है इनमे  खाद्य पदार्थों पर कैलोरी व पोषण की जानकारी देने से लेकर जन स्वास्थ्य जैसे अभियान चलाने तक के उपायों की लम्बी फेहरिस्त है हालांकि अध्ययन में पाया यही गया है कि इनमे से अधिकाधिक प्रयास मोटापे की रोकथाम में कोई ख़ास कारगर नहीं हो रहे विचार करें तो इन उपायों के विशेष रूप से कारगर न रहने के पीछे मूल कारण जागरूकता का अभाव ही है होता ये है कि मोटापा उन्ही लोगों को सर्वाधिक चपेट में लेता है जो खान-पान के विषय में अजागरूक, केवल स्वादलोभी व बेहद आलसी होते हैं ऐसे लोग स्वाद लेने के चक्कर में उच्च कैलोरीयुक्त खाना तो खूब खाते हैं, लेकिन आलस के मारे उस कैलोरी की मात्रा को  नियंत्रित करने के लिए कोई विशेष व्यायाम आदि  नहीं करते परिणाम यह होता है कि उनके शरीर में धीरे-धीरे कैलोरी की मात्रा काफी अधिक हो जाती है और वे मोटापे की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं अतः कुल मिलाकर स्पष्ट  है कि मोटापे की समस्या पर रोकथाम के लिए सबसे पहली आवश्यकता जागरूकता लाने की है अब चूंकि मोटापा किसी एक देश की समस्या नहीं है, इससे दुनिया का कमोबेश हर देश प्रभावित है ऐसे में इसकी रोकथाम के लिए जागरूकता लाने को वैश्विक स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए जागरूकता अभियानों के जरिये लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि मोटापा न सिर्फ उनके निजी व्यक्तित्व को बेढंग कर देता है, बल्कि उनकी कार्य क्षमता पर भी काफी बुरा असर डालता है इसके अतिरिक्त मोटापे से बचने के लिए खुराक सम्बन्धी तमाम जानकारियों  समेत नियमित व्यायाम आदि के बारे भी लोगों को बताया जाना चाहिए इस दिशा में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा यूएन में रखी गई ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ की सोच को यूएन की मान्यता मिलना काफी कारगर सिद्ध हो सकता  है अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस जैसी चीज से योग व व्यायाम आदि  को लेकर लोगों में स्वतः ही काफी जागरूकता आएगी अब अगर लोग अपने जीवन में नियमित योग व व्यायाम को स्थान देने लगें तो मोटापे की समस्या को छूमंतर होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा अतः कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि अगर दुनिया को मोटापे की इस समस्या जो काफी विकराल रूप ले चुकी है तथा आगे और विकराल हो सकती है, से बचना है तो उसे अभी से इस दिशा में गंभीर होते हुए उपर्युक्त प्रयास करने की जरूरत है क्योंकि अगर अभी इसको लेकर गंभीरता न दिखाई गई तो संभव है कि एक समय ऐसा आ जाएगा जब दुनिया के लिए मोटापे की इस समस्या से मुक्ति पाना तो दूर, इसको झेलना मुश्किल हो जाएगा

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

भुखमरी से मुक्ति कब - २ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो प्रमुखतः रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता हैइनमे भी रोटी अर्थात भोजन सर्वोपरि है । भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है । अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि आज भी भारत की लगभग २२-२५ फिसदी आबादी की हालत ऐसी है कि अगर वो रात में खाकर सोती है तो उसे नही पता कि अगली सुबह फिर खाने को मिलेगा या नहीइसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहाँ भी हमसे कम मात्रा में भुखमरी की स्थिति हैग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में इस वर्ष भारत को श्रीलंका व नेपाल से नीचे ५५ वे स्थान पर रखा गया है। अभी ये हालत तब है जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है। गौर करें तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ही २०१३ की सूची  में भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों में भारत को ६३ वा स्थान दिया गया था। तब भारत श्रीलंका, नेपाल के अतिरिक्त पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे था। लेकिन इस वर्ष की रिपोर्ट में भारत ने अपनी हालत में सुधार किया है और पाकिस्तान व बांग्लादेश को पीछे छोड़ते हुए ६३ वे स्थान से ५५ वे पर पहुँचा है। यह सही है कि   भुखमरी पर नियंत्रण के मामले में भारत की  स्थिति में काफी सुधार आया है,  लेकिन बावजूद इसके अभी तमाम सवाल हैं जो भुखमरी को लेकर भारत की सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं।  जी एच आई की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहाँ भुखमरी की समस्या गंभीर रूप से है जिससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है।
   उल्लेखनीय होगा कि नेपाल और श्रीलंका भारत से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की श्रेणी में आते हैं,  ऐसे में ये सवाल  गंभीर हो उठता है कि जो श्रीलंका, नेपाल हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम  के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है ?  इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका व नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलु पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि  भारत की  आबादी  श्रीलंका, नेपाल से जितनी अधिक है,  भारत के पास क्षमता व संसाधन भी उतने ही अधिक हैं।  अतः यह नहीं कह सकते कि अधिक आबादी के कारण भारत भुखमरी पर नियंत्रण करने के मामले में श्रीलंका आदि से पीछे रह रहा है। इसका असल कारण तो यही है कि हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी भी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए। यहाँ सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया, कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया ।
   महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है ? यहाँ मामला ये है कि  हमारे यहाँ प्रायः हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है, पर उस अनाज अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है । संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग २० फिसद अनाज, भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा  समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है। खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में हैसंयुक्त राष्ट्र के ही  मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष . अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है । कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग ८५ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं । क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं आ सकता ? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा ।

  उल्लेखनीय होगा कि पिछली संप्रग-२ सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित ‘खाद्य सुरक्षा क़ानून’ बड़े जोर-शोर से लाया गया था। संप्रग नेताओं का  कहना था कि ये क़ानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा। गौर करें तो इसके तहत कमजोर व गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी। लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम व प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुँच सके। अर्थात कि मूल समस्या यहाँ भी नज़रन्दाज ही की गई। बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है, अब केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार है, लेकिन खाद्य सुरक्षा क़ानून अब भी है।  और मौजूदा सरकार इस कानून को चलाने की इच्छा भी जता चुकी है। ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली आदि की व्यवस्था पर ध्यान देगी।  जरूरत यही  है कि एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकेंसाथ ही, अनाज की रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बर्बाद होने से बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जा सकेइसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर भी नियंत्रण की  जरूरत हैये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का ईलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए