शनिवार, 14 नवंबर 2020

जेएनयू में नए युग का आगाज

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

गत 12 नवम्बर की तारीख दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए ऐतिहासिक रही। इस दिन वामपंथी विचारधारा की नर्सरी माने जाने वाले इस विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। निश्चित रूप से जेएनयू देश का एक अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान है, लेकिन स्थापना के समय से ही इसकी वैचारिक पहचान मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित रही है। संस्थान की छात्र राजनीति पर वामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व रहा है। अतः आज जब इस विश्वविद्यालय में देश की सांस्कृतिक पहचान व भारतीयता की भावना से विश्व को परिचित कराने वाले महान राष्ट्रवादी चिंतक स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा की स्थापना हुई है, तो इससे एक उम्मीद जगती है कि अब यहाँ आयातित वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व कम होगा तथा भारतीयता के विचारों को प्रोत्साहन मिलेगा।

स्वामीजी की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कई महत्वपूर्ण बातें कही। प्रधानमंत्री के वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राष्ट्र के विरोध में रहने वाली कोई भी विचारधारा स्वीकार्य नहीं हो सकती। इस कथन के माध्यम से कहीं न कहीं प्रधानमंत्री ने बिना नाम लिए इशारों-इशारों में वामपंथी विचारधारा के छात्र संगठनों व अनुयायियों को ही नसीहत देने का काम किया है। दरअसल इस विचारधारा के अनुयायी जेएनयू में अनेक बार ऐसी-ऐसी चीजों के लिए चर्चा में आए हैं, जो राष्ट्र के विरुद्ध रही हैं। फिर चाहें नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों की मृत्यु पर जश्न मनाना हो या आतंकवादी अफज़ल गुरु की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित कर देशविरोधी नारे लगाना हो अथवा नवरात्र में महिषासुर शहादत दिवस मनाना हो। इस तरह के अनेक आपत्तिजनक कृत्य इस संस्थान में वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा न केवल किए जाते रहे हैं, बल्कि उल-जुलूल दलीलें देकर उन्हें सही ठहराने की कोशिश भी की जाती रही है। यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के इस अनावरण पर भी वामपंथी छात्र संगठनों ने सवाल उठाया है और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है।

दरअसल जेएनयू को सरकार से भारी सब्सिडी मिलती रही है, जिस कारण यहाँ रहने-खाने और पढ़ने का खर्च अपेक्षाकृत रूप से काफी कम है। इसके हॉस्टल के कमरों का किराया लम्बे समय से दस और बीस रूपये था तथा अन्य खर्च भी कम थे, जिसमें गत वर्ष वृद्धि की गयी तो छात्रों ने बवाल मचा दिया था। खैर तब किसी तरह ये मामला सुलझा था। लेकिन आज सवाल ये है कि देश के करदाताओं के पैसे से मिली सब्सिडी पर जेएनयू में नाममात्र के खर्च पर पढ़ने वाले ये छात्र, वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में आकर, आखिर कैसे देश के ही खिलाफ बातें करने लगते हैं ? प्रधानमंत्री द्वारा अपने उक्त कथन में विचारधारा के इन्हीं अनुयायियों की तरफ इशारा किया है।

इसके अलावा प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता को लेकर भी महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का अर्थ केवल संसाधनों की ही नहीं, बल्कि सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता भी है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री स्वामी विवेकानंद से जुड़ा बड़ा रोचक प्रसंग भी सुनाया कि विदेश में एकबार स्वामी विवेकानंद से किसीने पूछा कि आप ऐसे कपड़े क्यों नहीं पहनते जिससे जेंटलमैन लगें। इसपर स्वामीजी ने बड़ी विनम्रता से कहा कि आपके कल्चर में एक टेलर जेंटलमैन बनाता है, लेकिन हमारे कल्चर में चरित्र तय करता है कि कौन जेंटलमैन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वामी विवेकानंद का ये कथन भारतीय संस्कृति की तेजस्विता और आत्मनिर्भरता को ही दर्शाता है। वास्तव में, आज जब देश का युवा, विशेषकर शहरी युवा वर्ग, पश्चिमी संस्कृति के आकर्षण में डूबता जा रहा है और इसके कई दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं, तब भारत की इस सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता पर बात करना और इससे युवाओं को परिचित कराना बेहद जरूरी हो जाता है। प्रधानमंत्री का ‘सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता’ का कथन मुख्यतः युवा वर्ग के प्रति ही है। देश का युवा सही अर्थों में तब ‘ब्रांड इंडिया’ का ब्रांड एम्बेसडर  बन पाएगा जब वो अपने देश की सांस्कृतिक विशिष्टता को समझ व ग्रहण कर लेगा। क्योंकि, भारत की पहचान उसकी सनातन संस्कृति से ही है, अतः बिना इसको अपनाए ‘ब्रांड इंडिया’ की वैश्विक प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।

दैनिक जागरण आई-नेक्स्ट
अपने वक्तव्य में स्वामी विवेकानंद से जुड़े एक और महत्वपूर्ण प्रसंग की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि एक बार स्वामीजी से किसीने कहा कि संतों को केवल अपने देश की नहीं, पूरे विश्व की चिंता करनी चाहिए. इसपर स्वामीजी ने बड़ी सहजता से यह सुन्दर उत्तर दिया कि जो अपनी माँ की पीड़ा को नहीं समझ सकता वो अन्य किसीकी पीड़ा को कैसे समझेगा. इस कथन के माध्यम से उन्होंने राष्ट्र को ‘माँ’ मानने वाली सनातन भारतीय संस्कृति का ही परिचय दिया था. आज की पीढ़ी में अपने राष्ट्र के प्रति आत्मगौरव का ऐसा ही भाव होना चाहिए. दरअसल स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनके द्वारा न केवल उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझा जा सकता है, बल्कि प्रेरणा भी ग्रहण की जा सकती है। स्वामी विवेकानंद के विचारों का प्रभाव इतना व्यापक था कि किसी भी विचारधारा का व्यक्ति हो, वो उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था. उनके विचारों से बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू और बाबा साहब भीमराव आंबेडकर से लेकर वामपंथी नेता तक सब उनसे प्रभवित थे। यही कारण था कि विवेकानंद जी के स्मारक निर्माण के लिए समाजवादी नेता श्री राम मनोहर लोहिया, साम्यवादी नेता रेणु चक्रवर्ती द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (डीएमके) के संस्थापक और तमिलनाडु  के  प्रथम मुख्यमंत्री अन्नादुराई  ने  सहयोग भी दिया थाI स्वामीजी के विचारों का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि  एकबार गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था, ”आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद जी को पढ़िए उनमें सबकुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं। स्वामी विवेकानंद के विचारों के प्रभाव का सबसे बड़ा उदाहरण मार्गरेट एलिजाबेथ नोबलका भगिनी निवेदिता बन जाना है। मार्गरेट नोबेल नवम्बर, 1895 में स्वामी विवेकानंद से उनके एक व्याख्यान के दौरान मिली थीं।  मार्गरेट स्वामीजी के दार्शनिक ज्ञान, व्यक्तित्व और धर्म को अनुभूति के तौर पर देखने वाली चर्चा से प्रभावित हुईंI मार्गरेट आने वाले दिनों में उनके अनेक व्याख्यानों में सम्मलित होने लगीं और निरंतर अपनी जिज्ञासाओं के कारण प्रश्न भी करती रहती थींI तब वो स्वामीजी के विचारों से इतनी प्रभावित हुईं कि एक पत्र में उन्होंने अपने मित्र को लिखा – ”मानो यदि स्वामीजी उस समय लंदन में आते ही नहीं तो मेरा जीवन निष्प्राण पुतले जैसा होताI” स्वामीजी ने निवेदिता से भारत में आकर सेवा कार्य करने का आह्वान किया. उन्होंने पत्र में लिखा, ‘भारत के कार्य में आपका भविष्य उज्जवल है, ऐसा मुझे विश्वास हैI आवश्यकता है एक स्त्री की, पुरुष की नहीं I भारत की स्त्रियों के लिए कार्य करने वाली एक सिंह के सदॄश्य धैर्यवान स्त्री कीI अपनी विद्या, मन की शुद्धता और केल्टिक वंश से होने के कारण इस कार्य के लिए जैसी स्त्री की आवश्यकता है संयोग से तुम वैसी ही होI” वे भारत आईं और भारत आने के बाद 25 मार्च, 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उनको ब्रह्मचर्य की दीक्षा और निवेदिता नाम दोनों दियाI                 

स्वामी विवेकानंद जब शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में पहुँचे थे, तो भारत को लेकर विश्व का दृष्टिकोण पूर्वग्रहों पर आधारित था। इसी कारण स्वामीजी को एकदम अंत में बोलने का अवसर दिया गया। लेकिन इस उपेक्षा के कारण उनमें अपने भारतीय संस्कृति और दर्शन को लेकर कोई हीनताबोध नहीं विकसित हुआ, बल्कि जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वो वक्तव्य इतिहास की धरोहर बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्वामीजी के शब्दों में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का सारगर्भित समावेश था। उनके स्वर में भारत की सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता का आत्मविश्वास था।  इसी आत्मविश्वास की जरूरत आज के युवाओं को भी है। उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा ही आत्मविश्वास, जेएनयू में स्थापित स्वामीजी की प्रतिमा विश्वविद्यालय परिसर के युवाओं में भी पैदा करेगी। संभव है कि यह जेएनयू में एक नए वैचारिक युग के आगाज की मजबूत आधारशिला भी बने।