शुक्रवार, 29 मई 2020

ऑनलाइन परीक्षा की कठिनाई (दैनिक जागरण में प्रकाशित)


  • पीयूष द्विवेदी भारत

कोविड-19 वैश्विक महामारी के प्रकोप ने जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है। शिक्षा भी इससे अछूती नहीं है। कोविड के दौर में शिक्षा के क्षेत्र में एक तरफ जहां विविध चुनौतियाँ खड़ी हुई हैं, वहीं उन चुनौतियों से निपटने के लिए विभिन्न प्रयोग भी हो रहे हैं। प्राथमिक व माध्यमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षण संस्थानों द्वारा ऑनलाइन पढ़ाई करवाई जा रही है।
शहर तो शहर, गांवों में भी यह ऑनलाइन शिक्षण की यह व्यवस्था कमोबेश देखने-सुनने में आने लगी है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से लेकर संचार व संपर्क के अन्य माध्यमों तक से अध्यापक घर बैठे छात्रों को पढ़ाने में लगे हैं। इन शैक्षिक नवाचारों के बीच ही पिछले दिनों देश के प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा गत 14 मई को एक अधिसूचना जारी की गयी जिसका सार यह था कि कोविड-19 द्वारा पैदा परिस्थितियों के कारण स्नातक और परास्नातक कर रहे अंतिम वर्ष या सेमेस्टर के छात्रों के लिए विश्वविद्यालय ओपन बुक मोड में परीक्षा करवाने जा रहा है। 

इस तरीके से परीक्षा में यह होगा कि छात्रों को तय प्रारूप के अंतर्गत प्रश्न भेजे जाएंगे जिन्हें उनको एक निर्धारित समय के भीतर लिखकर ऑनलाइन भेजना होगा। इस विषय में डीयू के डीन एग्जामिनेशन की तरफ से जारी जानकारी के मुताबिक, प्रत्येक प्रश्न पत्र के लिए दो घंटे का समय निर्धारित किया जाएगा, कुल छह प्रश्न होंगे, जिसमें से विद्यार्थियों को चार प्रश्न हल करने होंगे और एक घंटे के अंदर उसे वापस भेज देना होगा। विश्वविद्यालय प्रशासन की इस घोषणा के बाद से ही डीयू के छात्र संघ तथा दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ एकसाथ इसके विरोध में खड़े हैं। इस घोषणा के बाद ट्विटर पर ‘डीयूअगेंस्टऑनलाइनएग्जाम’ हैश टैग के साथ हजारों की तादाद में विद्यार्थियों ने ट्विट कर इस निर्णय के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया है। 
प्रश्न यह है कि आखिर विश्वविद्यालय के इस निर्णय का इतना विरोध क्यों हो रहा है? गौर करें तो इस विरोध के पीछे कारणों की लम्बी फेहरिश्त नजर आती है। दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय जिस प्रकार की परीक्षा लेने की तैयारी कर रहा, उसके लिए छात्रों के पास कम्यूटर-लैपटॉप या स्मार्टफोन के साथ-साथ अच्छे इंटरनेट की उपलब्धता भी जरूरी है। ऐसे में जिन छात्रों के पास ये तकनीकी संसाधन नहीं होंगे, वे कैसे इस परीक्षा में भाग ले पाएंगे? वो कौन-सा तंत्र है जिसने यह सुनिश्चित कर लिया कि छात्रों के पास लैपटॉप-स्मार्टफोन जैसे संसाधन तथा बढ़िया इंटरनेट भी उपलब्ध होगा? क्या डीयू प्रशासन की तरफ से कभी अपने सभी छात्रों को यह संसाधन उपलब्ध कराए गए थे? जवाब है, नहीं. जब ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तो अब इस संकटकाल में अचानक विश्वविद्यालय प्रशासन किस आधार पर छात्रों से ऑनलाइन परीक्षा देने की अपेक्षा कर रहा है? इतना ही नहीं, ऑनलाइन परीक्षा का जो प्रारूप विश्वविद्यालय ने तय किया है, उसमें न्याय की भावना भी कम ही दिखती है। क्या यह संभव नहीं कि कोई कम पढ़ा छात्र इस ओपन बुक परीक्षा में किताब की सहायता से बेहतर कर जाए जबकि कोई खूब पढ़ा छात्र तकनीकी संसाधनों के अभाव में परीक्षा दे ही न पाए। जाहिर है, ऑनलाइन परीक्षा का यह प्रारूप फिलहाल किसी भी ढंग से उचित व व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता।
वैसे भी, सवाल ये है कि जब देश के कई बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों ने अपनी परीक्षा आदि गतिविधियाँ आगे बढ़ा दी हैं; यहाँ तक कि यूजीसी और संघ लोकसेवा आयोग ने अपनी परीक्षाओं का समय भी आगे कर दिया है, फिर  दिल्ली विश्वविद्यालय को परीक्षाएं कराने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं कि केवल अपने सत्र को नियमित और अबाध रखने की मंशा के मोह में डीयू प्रशासन ने तमाम छात्रों के लिए परेशानी पैदा करने वाला यह अविवेकपूर्ण निर्णय ले लिया है।
यह सही है कि हाल के वर्षों में भारत में तकनीकी उपकरणों का प्रयोग बढ़ा है और स्मार्टफोन भी लोगों के हाथ में दिखने लगे हैं, लेकिन बावजूद इसके आंकड़ों की मानें तो 135 करोड़ की आबादी वाले इस देश में स्मार्टफोन चलाने वालो की संख्या मात्र 40 करोड़ है। पूरी संभावना है कि कम्प्यूटर और लैपटॉप जैसे संसाधन जो सामान्यतः स्मार्टफोन से महंगे होते हैं, का उपयोग करने वालों की संख्या इससे कम ही होगी। इसी तरह इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या भी फिलहाल लगभग 55 करोड़ के आसपास है। इन आंकड़ों का सार यही है कि देश की आबादी के अनुपात में उक्त तकनीकी संसाधनों से संपन्न लोग आधे भी नहीं हैं, ऐसी स्थिति में फिलहाल देश में ऑनलाइन परीक्षा जैसी चीज पर बिना पुख्ता तैयारी के सोचा भी नहीं जा सकता।
अगर कोई शिक्षण संस्थान इस दिशा में बढ़ना चाहता है तो पहले उसे इसके लिए छात्रों को तैयार करना होगा तभी उसके द्वारा किया गया ऐसा कोई प्रयास तर्कसंगत सिद्ध होगा अन्यथा इससे केवल छात्रों की मुश्किलें ही बढ़ेंगी। अतः उचित होगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय फिलहाल ऑनलाइन परीक्षा आयोजित कर छात्रों की मुश्किलें न बढ़ाए बल्कि सत्र की तारीख आगे बढ़ाकर चीजें ठीक होने की थोड़ी और प्रतीक्षा करे। इसके अलावा यदि विश्वविद्यालय चाहे तो भविष्य में ऑनलाइन परीक्षा कराने के लिए एक बेहतर व्यवस्था, जिसमें छात्रों का हित सुरक्षित रहे, विकसित करने की दिशा में भी काम कर सकता है।  

शनिवार, 16 मई 2020

संकट में संबल बनी रामायण [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

24 मार्च को देशव्यापी लॉक डाउन की घोषणा होने के बाद 28 मार्च से दूरदर्शन पर नब्बे के दशक के लोकप्रिय धारावाहिक रामायण का पुनर्प्रसारण शुरू हुआ। 18 अप्रैल को इसका अंतिम भाग प्रसारित होने के बाद उत्तर रामायण के रूप में आगे की कथा शुरू हुई जिसका समापन दो मई को हो चुका है। 28 मार्च से 2 मई के बीच की इस कालावधि में मनोरंजन कार्यक्रमों की श्रेणी में रामायण ने दर्शकों की संख्या के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। दूरदर्शन का दावा है कि न केवल भारत अपितु विश्व का यह सर्वाधिक देखा जाना मनोरंजन कार्यक्रम बन गया है। हालांकि एक दावा यह भी सामने आ रहा कि 1983 के एक अमेरिकी वॉर शो का अंतिम भाग अब भी सबसे ज्यादा देखा जाने वाला कार्यक्रम है। यदि इस दावे में सत्यता है तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीते लगभग तीन दशक में रामायण विश्व का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला कार्यक्रम बन चुका है।

इस कीर्तिमान से अलग सोशल मीडिया पर भी हर दिन रामायण के प्रसारण के समय व उसके पश्चात् भी उस दिन की कहानी चर्चा में बनी रही। ये तथ्य लोकमानस में रामकथा के प्रति उपस्थित श्रद्धा और विश्वास को ही प्रकट करते हैं। परन्तु इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि देश-दुनिया में इस स्तर पर लोकप्रिय हो रही रामायण के प्रसारण को लेकर देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी व्याकुल हो उठे। एक पत्रकार महोदय यह पूछते दिखे कि किन लोगों की मांग पर यह प्रसारण शुरू किया गया है, तो एक वरिष्ठ पत्रकार महोदया लोगों के घर में खाना न होने की बात कहते हुए इसके प्रसारण पर बेमतलब ही सवाल उठाती नजर आईं। एक वकील महोदय ने तो इसकी तुलना अफीम से ही कर डाली।
सवाल है कि आखिर देश के ये बुद्धिजीवी लोग भारतीय संस्कृति का प्राण मानी जाने वाली रामकथा के प्रति इतनी घृणा क्यों रखते हैं? देश में कोई गरीब भूखा न रहे, यह सुनिश्चित करना निःसंदेह सरकार की जिम्मेदारी है और इसके लिए वो नीतिगत स्तर पर लगातार काम कर रही है, परन्तु इसके आधार पर रामायण जैसे कार्यक्रम के प्रसारण को प्रश्नांकित करने का क्या अर्थ है? क्या रामायण का प्रसारण न होने से गरीबों के घर में खाना पहुँच जाता? वस्तुतः प्रतीत होता है कि हमारे ये बुद्धिजीवी ‘विरोध के लिए विरोध’ के अपने एजेंडे पर चलते हुए बौद्धिक दिवालियेपन की उस अवस्था में पहुँच गए हैं जहां उन्हें उचित-अनुचित का भेद तक समझ नहीं आ रहा। यदि ऐसा न होता तो वे आज के इस संकटपूर्ण और अत्यंत कठिन समय में भारतीय समाज के लिए मानसिक संबल का साधन सिद्ध होने वाले रामायण पर इस तरह के अनर्गल प्रश्न नहीं उठाते।
इसी संदर्भ में विचारणीय है कि आखिर वो क्या कारण है कि जो रामायण आज से तक़रीबन तीन दशक पूर्व बनी थी और वर्तमान समय की तुलना में तकनीकी भव्यता की दृष्टि से काफी पीछे है तथा अनेक बार लोगों द्वारा देखी भी जा चुकी है, उसका जब पुनर्प्रसारण होता है तो दर्शकों की संख्या का कीर्तिमान बना देती है और उसके सामने आज के बड़े-बड़े उत्कृष्ट तकनीकी साज-सज्जा वाले कार्यक्रम पीछे छूट जाते है।
देखा जाए तो आज जो संघर्ष हमारे समक्ष उपस्थित है, उसमें तन के साथ-साथ मन की मजबूती होना भी आवश्यक है। मन की मजबूती से मुख्य तात्पर्य धैर्य और सकारात्मकता को लेकर है। यह लड़ाई कितनी लम्बी चलेगी और कैसी-कैसी चुनौतियाँ सामने आएंगीं, इसका अभी किसीको स्पष्ट ज्ञान नहीं है, ऐसे में यही उपाय बचता है कि मन में सकारात्मकता और धैर्य धारण करके संघर्ष जारी रखा जाए। इस पृष्ठभूमि में रामायण इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि ये भारतीय संस्कृति का वो ऐतिहासिक आख्यान है जिसकी कथा हमें जीवन की किसी भी सम-विषम परिस्थिति में बिना घबड़ाए उससे जूझने का सन्देश देती है।  
इस कथा के नायक राम, जो आज भारत और उससे बाहर भी असंख्य जनों के लिए पूज्य हैं, अपने पूरे जीवन में कठिन से कठिनतर संघर्षों से दो-चार होते रहे, परन्तु कभी भी उन्होंने धैर्य और सकारात्मकता का पूरी तरह से त्याग नहीं किया और हताश होकर नहीं बैठे बल्कि अवसाद उत्पन्न करने वाली हर परिस्थिति को अवसर में परिणत कर वे आगे बढ़ते गए और मानव जीवन का एक आदर्श प्रस्तुत किया। केवल राम ही नहीं, रामकथा के अन्य बहुत से पात्र भी इसी सकारात्मकता का सन्देश देते हैं। रामकथा ही नहीं, शिव-कृष्ण जैसे हमारे और भी कई ऐतिहासिक पात्रों का जीवन-चरित्र भी इसी संदेश का प्रसारक है। यही कारण है कि दूरदर्शन पर धार्मिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अन्य चैनलों पर कृष्ण, शिव, हनुमान आदि की कथाओं का प्रसारण भी इस संकट के समय लगातार चल रहा है और अच्छी संख्या में लोगों द्वारा देखा भी जा रहा है।   
वस्तुतः भारतीय संस्कृति अपने मूल रूप में ही सकारात्मकता की पोषक रही है और संकटकाल में उसकी सकारात्मक ऊर्जा और प्रखर हो उठती है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं से त्रस्त भारतीय समाज में वो भक्ति आंदोलन फूटता है जो हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग का निर्माण कर जाता है।
अपने दैनिक जीवन में ‘सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया’ के रूप में विश्व कल्याण की कामना का भाव भारतीय संस्कृति की सकारात्मक और मंगलकामी दृष्टि का ही द्योतक है। यही कारण है कि आज के इस कठिन समय में जब लोगों के हताशा और अवसाद में जाने का खतरा लगातार बना हुआ है, ऐसे में भारतीय संस्कृति की रामायण-महाभारत जैसी महान कथाओं का प्रसारण उन्हें संबल दे रहा है। हो न हों, यही वो तत्व हैं जो हमारी संस्कृति को काल की सीमा से परे सनातन बनाते हैं।