- पीयूष द्विवेदी भारत
24
मार्च को देशव्यापी लॉक
डाउन की घोषणा होने के बाद 28 मार्च से दूरदर्शन पर नब्बे के दशक के लोकप्रिय
धारावाहिक रामायण का पुनर्प्रसारण शुरू हुआ। 18 अप्रैल को इसका अंतिम भाग
प्रसारित होने के बाद उत्तर रामायण के रूप में आगे की कथा शुरू हुई जिसका समापन दो
मई को हो चुका है। 28 मार्च
से 2
मई
के बीच की इस कालावधि में मनोरंजन कार्यक्रमों की श्रेणी में रामायण ने दर्शकों की
संख्या के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। दूरदर्शन का दावा है कि न केवल भारत अपितु विश्व का यह
सर्वाधिक देखा जाना मनोरंजन कार्यक्रम बन गया है। हालांकि एक दावा यह भी सामने आ रहा कि 1983 के एक अमेरिकी वॉर शो का अंतिम भाग अब भी
सबसे ज्यादा देखा जाने वाला कार्यक्रम है। यदि इस दावे में सत्यता है तो भी इस बात से इनकार नहीं
किया जा सकता कि बीते लगभग तीन दशक में रामायण विश्व का सबसे ज्यादा देखा जाने
वाला कार्यक्रम बन चुका है।
इस कीर्तिमान से अलग सोशल मीडिया पर भी हर दिन रामायण के
प्रसारण के समय व उसके पश्चात् भी उस दिन की कहानी चर्चा में बनी रही। ये तथ्य लोकमानस
में रामकथा के प्रति उपस्थित श्रद्धा और विश्वास को ही प्रकट करते हैं। परन्तु इसे
विडंबना ही कहा जाएगा कि देश-दुनिया में इस स्तर पर लोकप्रिय हो रही रामायण के
प्रसारण को लेकर देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी व्याकुल हो उठे। एक पत्रकार महोदय
यह पूछते दिखे कि किन लोगों की मांग पर यह प्रसारण शुरू किया गया है, तो एक वरिष्ठ
पत्रकार महोदया लोगों के घर में खाना न होने की बात कहते हुए इसके प्रसारण पर बेमतलब
ही सवाल उठाती नजर आईं। एक वकील महोदय ने तो इसकी तुलना अफीम से ही कर डाली।
सवाल है कि आखिर देश के ये बुद्धिजीवी लोग भारतीय संस्कृति
का प्राण मानी जाने वाली रामकथा के प्रति इतनी घृणा क्यों रखते हैं? देश में कोई
गरीब भूखा न रहे, यह सुनिश्चित करना निःसंदेह सरकार की जिम्मेदारी है और इसके लिए
वो नीतिगत स्तर पर लगातार काम कर रही है, परन्तु इसके आधार पर रामायण जैसे
कार्यक्रम के प्रसारण को प्रश्नांकित करने का क्या अर्थ है? क्या रामायण का
प्रसारण न होने से गरीबों के घर में खाना पहुँच जाता? वस्तुतः प्रतीत होता है कि
हमारे ये बुद्धिजीवी ‘विरोध के लिए विरोध’ के अपने एजेंडे पर चलते हुए बौद्धिक
दिवालियेपन की उस अवस्था में पहुँच गए हैं जहां उन्हें उचित-अनुचित का भेद तक समझ
नहीं आ रहा। यदि ऐसा न होता तो वे आज के इस संकटपूर्ण और अत्यंत कठिन समय में
भारतीय समाज के लिए मानसिक संबल का साधन सिद्ध होने वाले रामायण पर इस तरह के
अनर्गल प्रश्न नहीं उठाते।
इसी
संदर्भ में विचारणीय है कि आखिर वो क्या कारण है कि जो रामायण आज से तक़रीबन तीन
दशक पूर्व बनी थी और वर्तमान समय की तुलना में तकनीकी भव्यता की दृष्टि से काफी
पीछे है तथा अनेक बार लोगों द्वारा देखी भी जा चुकी है, उसका जब पुनर्प्रसारण होता
है तो दर्शकों की संख्या का कीर्तिमान बना देती है और उसके सामने आज के बड़े-बड़े
उत्कृष्ट तकनीकी साज-सज्जा वाले कार्यक्रम पीछे छूट जाते है।
देखा
जाए तो आज जो संघर्ष हमारे समक्ष उपस्थित है, उसमें तन के साथ-साथ मन की मजबूती
होना भी आवश्यक है। मन की मजबूती से मुख्य तात्पर्य धैर्य और सकारात्मकता को लेकर
है। यह लड़ाई कितनी लम्बी चलेगी और कैसी-कैसी चुनौतियाँ सामने आएंगीं, इसका अभी
किसीको स्पष्ट ज्ञान नहीं है, ऐसे में यही उपाय बचता है कि मन में सकारात्मकता और
धैर्य धारण करके संघर्ष जारी रखा जाए। इस पृष्ठभूमि में रामायण इसलिए महत्वपूर्ण
हो जाती है क्योंकि ये भारतीय संस्कृति का वो ऐतिहासिक आख्यान है जिसकी कथा हमें
जीवन की किसी भी सम-विषम परिस्थिति में बिना घबड़ाए उससे जूझने का सन्देश देती है।
इस
कथा के नायक राम, जो आज भारत और उससे बाहर भी असंख्य जनों के लिए पूज्य हैं, अपने
पूरे जीवन में कठिन से कठिनतर संघर्षों से दो-चार होते रहे, परन्तु कभी भी
उन्होंने धैर्य और सकारात्मकता का पूरी तरह से त्याग नहीं किया और हताश होकर नहीं
बैठे बल्कि अवसाद उत्पन्न करने वाली हर परिस्थिति को अवसर में परिणत कर वे आगे
बढ़ते गए और मानव जीवन का एक आदर्श प्रस्तुत किया। केवल राम ही नहीं, रामकथा के
अन्य बहुत से पात्र भी इसी सकारात्मकता का सन्देश देते हैं। रामकथा ही नहीं,
शिव-कृष्ण जैसे हमारे और भी कई ऐतिहासिक पात्रों का जीवन-चरित्र भी इसी संदेश का
प्रसारक है। यही कारण है कि दूरदर्शन पर धार्मिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अन्य
चैनलों पर कृष्ण, शिव, हनुमान आदि की कथाओं का प्रसारण भी इस संकट के समय लगातार
चल रहा है और अच्छी संख्या में लोगों द्वारा देखा भी जा रहा है।
वस्तुतः
भारतीय संस्कृति अपने मूल रूप में ही सकारात्मकता की पोषक रही है और संकटकाल में
उसकी सकारात्मक ऊर्जा और प्रखर हो उठती है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के
मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं से त्रस्त भारतीय समाज में वो भक्ति आंदोलन फूटता
है जो हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग का निर्माण कर जाता है।
अपने दैनिक जीवन में ‘सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया’ के रूप में विश्व कल्याण की
कामना का भाव भारतीय संस्कृति की सकारात्मक और मंगलकामी दृष्टि का ही द्योतक है। यही
कारण है कि आज के इस कठिन समय में जब लोगों के हताशा और अवसाद में जाने का खतरा
लगातार बना हुआ है, ऐसे में भारतीय संस्कृति की रामायण-महाभारत जैसी महान कथाओं का
प्रसारण उन्हें संबल दे रहा है। हो न हों, यही वो तत्व हैं जो हमारी संस्कृति को
काल की सीमा से परे सनातन बनाते हैं।
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