रविवार, 26 अप्रैल 2020

पुस्तक समीक्षा : मानवीय जीवटता की महागाथा [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

पुस्तक – मग्नमाटी (उपन्यास)
रचनाकार – प्रतिभा राय
प्रकाशक – राजपाल एंड सन्ज
मूल्य – 625 रुपये
वरिष्ठ लेखिका प्रतिभा राय का उपन्यास मग्नमाटी मूलतः ओड़िया में है, लेकिन इसका हिंदी रूपांतर इसी साल राजपाल प्रकाशन से आया है। यह उपन्यास 1999 में आए ओडिशा के चक्रवाती तूफ़ान पर आधारित है। बेशक तूफ़ान उपन्यास की कथा का केंद्र है, लेकिन कहानी में उसका प्रवेश लगभग आधा हिस्सा बीतने के बाद होता है। उससे पूर्व बड़े विस्तार से तटवर्ती इलाकों में रहने वाले ओडिया समाज की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थतियों सहित उनके समाज में उपस्थित संघर्षों व विसंगतियों का वर्णन करते हुए एक ऐसी भावभूमि रचने का प्रयास किया गया है, जिसके प्रभावस्वरूप तूफ़ान एक आकस्मिक प्राकृतिक आपदा भर नहीं रह जाता बल्कि ‘प्रलय’ और ‘कल्कि’ जैसे विशेषणों से युक्त होकर मानव द्वारा विविध क्षेत्रों में सृष्टि की अवमानना के प्रति सृष्टिकर्ता के संचित क्रोध के प्रकटीकरण का रूप ले लेता है। उपन्यास का यही वो बिंदु है, जो उसके कथ्य को तूफ़ान केन्द्रित होने के बावजूद उससे कहीं अधिक व्यापक बना देता है।  
विषयवस्तु की व्यापकता के बावजूद लेखिका उपन्यास में कही गयी ज्यादातर बातों और विवरणों को कथानक में पिरोकर विविध चरित्रों और प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत करने काफी हद तक सफल रही हैं। केवट उग्रसेन बेहरा द्वारा स्वयं को कैवर्त राजा कालू भूयाँ का वंशज माने जाने का प्रसंग रचते हुए बड़े सुंदर और रोचक ढंग से ओड़िया केवट समाज की उत्पत्ति के ऐतिहासिक पक्ष को सामने लाया गया है। इसी प्रकार कुंडल पंडा के चरित्र के माध्यम से ओडिया समाज में व्याप्त जाति-पांति, छुआछूत और अंधविश्वासों को उजागर हुआ है, तो नरकू राउतराय जैसे पात्र वहां की भ्रष्ट और अवसरवादी राजनीति की कथा कह जाते हैं, तो वहीं कुम्पनी साईं और टहली महांती नैतिक मूल्यों के पतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन खल-चरित्रों के बीच गांधी दास, उद्धव मंगवाल, वीर विक्रम, गोलमस्ता मियां, मंत्री मल्लिक जैसे चरित्र भी हैं, जो सभी छल-छद्म और भेदभाव से मुक्त देश की माटी और संस्कृति के प्रति उत्कट अनुराग रखते हैं। वीर विक्रम के बहाने कथा का सूत्र पहले सरहद तक पहुँचता है, जहां कारगिल का युद्ध छिड़ा हुआ है, तो वहीं जब तूफ़ान में गाँव-घर सबकुछ नष्ट हो जाता है, तो यही वीर विक्रम सरहद की लड़ाई से निवृत्त हो अपनी माटी के पुनर्निर्माण की लड़ाई में जुट जाता है। 

स्त्री पात्रों में गिरिमा का चरित्र सर्वाधिक आकर्षित करता है, जिसकी चेतना उसके समाज की लड़कियों के मुकाबले न केवल अधिक परिपक्व और प्रगतिशील है, बल्कि विद्रोहिणी भी है। शिक्षा को केवल एक औपचारिकता मानने वाले समाज से होते हुए भी वो शिक्षा के महत्व को समझती और इसपर बल देती है। इन सब चरित्रों से जुड़ी छोटी-छोटी उपकथाएँ रचकर लेखिका ने उपन्यास के व्यापक कथ्य-क्षेत्र के अलग-अलग पक्षों को बड़ी कुशलता से रोचक रूप देते हुए उभारा और आगे बढ़ाया है। तूफ़ान के शब्द-चित्र उकेरने में भी लेखिका पूरी तरह से कामयाब रही हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सब दृश्य एकदम जीवंत रूप से आँखों के आगे चल रहे हैं। 
बेशक उपन्यास में अच्छे-बुरे दोनों तरह के चरित्र हैं, लेकिन कहानी में तूफ़ान के प्रवेश के साथ ये सब भेदभाव मिट जाते हैं। तब पाठक के मन में हर पात्र के प्रति केवल सहानुभूति ही रह जाती है, और यहीं बहुत-से पात्र संकीर्णता से श्रेष्ठता की ओर भी उन्मुख होते हैं। जाति-पांति का भेदभाव और धार्मिक कर्मकांडों को मानते हुए जीने वाले कुंडल पंडा अपने प्राणों का मोह छोड़ अपनी धार्मिक आस्था में बंधे सबकी रक्षा के लिए सागर को बाँधने निकल पड़ते हैं, नर्कू राउतराय का बलात्कारी  लड़का अर्जुन राउतराय तूफ़ान में स्त्री के ही प्राण बचाते हुए जीवन गंवा देता है, बांग्लादेशी घुसपैठिया होने की लानत झेलते हुए जीवन गुजारने वाले भारत मंडल का बेटा उत्कलमणि मंडल अपने बच्चों की चिंता छोड़ अन्यों के प्राण बचाने में जुट जाता है, गोलमस्ता मियाँ इतने हिन्दुओं को मस्जिद में जगह दे देता है कि उसके अपने परिवार के लिए जगह नहीं रह जाती – तूफ़ान में घटित ऐसी तमाम घटनाएं एक ही संदेश देती हैं कि ‘धनी, दरिद्र, जाति-धर्म, जमींदार, प्रजा, नेता, वोटर, महाजन, दाता, ग्रहीता, भाषा और भौगोलिकता में भेद किए बिना मनुष्य में जितने भेद थे, जितनी विषमताएं थीं, प्रलय ने एक बिंदु पर सबको समान कर दिया था’। इस आपदा को लेकर तत्कालीन सरकारों की अकर्मण्यता और व्यवस्था की लूट-खसोट की तो उपन्यास में खबर ली ही गयी है, लेकिन साथ ही तूफ़ान गुजरने के पश्चात् उत्साहशून्य हो सरकारी ‘रिलीफ’ के भरोसे पड़े रहने की बजाय समाज को अपनी भूमि के स्व-निर्माण के लिए उद्यम करने का संदेश भी दिया गया है।       
ऐसे यथार्थपरक और क्षेत्र-विशेष पर केन्द्रित उपन्यासों में परिवेश बहुत महत्वपूर्ण होता है। परिवेश का जितना सटीक चित्रण होता है, उतना ही अधिक कथानक यथार्थ के करीब पहुँचने में सफल रहता है। इस उपन्यास का परिवेश-चित्रण उत्कृष्ट है। शुरू से अंत तक पात्रों की रहन-सहन, खान-पान, बोली-विचार, पोथी-पुराण सहित उनके आसपास के वातावरण तक के माध्यम से लेखिका ने ओडिया समाज का एक ऐसा जीवंत परिवेश खड़ा किया है, जो पाठक को उस दौर और दुनिया से जोड़ने में कामयाब रहता है।
हालांकि उपन्यास की एक बात जो खटकती है, वो है सांप्रदायिक समरसता के प्रति लेखिका के आग्रह का कहीं-कहीं अतिवादी हो जाना। द्रोण मास्टर द्वारा मस्जिद में भागवत बांचे जाने की बात कही जाने पर वीर विक्रम द्वारा साथ में कुरान पढ़ी जाने की बात कहना खटकता है। एक मुस्लिम उपासना स्थल पर हिन्दू ग्रन्थ का पाठ सांप्रदायिक समरसता का संदेश देने के लिए पर्याप्त है, यहाँ भागवत के साथ कुरआन को रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी। सब धर्मग्रंथों में समानता की बात कहने-सुनने में जितनी ठीक लगती है, यथार्थ में वैसी नहीं है। अतः एक यथार्थवादी उपन्यास में ऐसे सरलीकरण से बचा जाना चाहिए। 

बहरहाल, यह कह सकते हैं कि ये उपन्यास ओडिया समाज-संस्कृति तथा मानवीय जीवटता की एक महागाथा है, साथ ही यह हमें उपन्यास विधा की सामर्थ्य से भी परिचित करवाता है। 

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