गुरुवार, 30 नवंबर 2017

दिव्यांगों को सहानुभूति नहीं, सहयोग चाहिए [जनसत्ता में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत
आगामी दिसंबर को विश्व दिव्यांग दिवस है। इस अवसर पर यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है कि आज दिव्यांगजनों की हमारे समाज में क्या स्थिति है तथा  उनके प्रति समाज की क्या मानसिकता है ? दरअसल केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में एक समय तक दिव्यांगता को सिर्फ चिकित्सा सम्बन्धी समस्या ही समझा जाता था, लेकिन समय के साथ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंस आदि दिव्यांग व्यक्तियों द्वारा जिस तरह से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के नए सोपान गढ़े गए, उन्होंने समाज की मानसिकता को बदलने का काम किया। समाज ने समझा कि दिव्यांगता सिर्फ व्यक्ति की कुछ शक्तियों को सीमित कर सकती है, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को अवरुद्ध नहीं कर सकती। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि दिव्यांगजनों को उचित संबल, समान अवसर और समुचित सहयोग प्रदान किया जाय। कहने का अर्थ है कि दिव्यांग व्यक्तियों की सफलताओं ने समाज के दिमाग से दिव्यांगता को सिर्फ चिकित्सकीय समस्या समझने की मानसिकता को ख़त्म कर दिव्यांगता के विकासात्मक मॉडल की दिशा में सोचने पर विवश कर दिया और इसीके परिणामस्वरूप अब दिव्यांगता के इस मॉडल का समूची दुनिया द्वारा अनुसरण किया जाने लगा है। दिव्यांगता के इस विकासात्मक मॉडल के फलस्वरूप ही दिव्यांग व्यक्तियों की बहुआयामी शिक्षा से लेकर सामजिक भागेदारी आदि को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर में विभिन्न प्रकार की नीतियां और कायदे-क़ानून बनाए गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा सन २००७ में हुए अपने दिव्यांगता अधिकार सम्मेलन में दिव्यांग व्यक्तियों को भिन्न क्षमताओं या असमर्थताओं वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित करते हुए उनके हितों के संरक्षण के लिए विभिन्न कायदे-क़ानून निर्धारित किए गए। भारत की बात करें तो सन २०११ की जनगणना के अनुसार यहाँ करोड़ से अधिक दिव्यांग हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र के उक्त दिव्यांगता अधिकार सम्मेलन में दिव्यांगों के अधिकारों की रक्षा आदि के सम्बन्ध में निर्धारित कानूनों का समर्थन करने वाले देशों में शामिल है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता अधिकार सम्मेलन के कानूनों के समर्थन से काफी पूर्व सन १९९५ में ही भारत द्वारा दिव्यांगजनों के अधिकारों की रक्षा, अवसर की समानता और समाज में पूर्ण भागेदारी को सुनिश्चित करने  के लिए सामजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत क़ानून (दिव्यांग व्यक्ति अधिनियम, १९९५) बना दिया गया था। इसके अतिरिक्त सन २००६ की दिव्यांग व्यक्तियों से सम्बंधित देश की राष्ट्रीय नीति में  यह मत भी प्रकट किया गया कि दिव्यांग व्यक्ति भी देश के लिए अत्यंत मूल्यवान मानव संसाधन हैं। गौर करना होगा कि यह सिर्फ एक मत नहीं है, वरन दिव्यांग व्यक्तियों को वाकई में मूल्यवान मानव संसाधन बनाने के लिए उनके उद्यम कौशल को उन्नत करने के उद्देश्य से देश की पूर्व सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार की योजनाएं,  कार्यक्रम चलाए गए हैं और वर्तमान सरकार द्वारा भी चलाए  जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम स्किल इण्डिया में भी दिव्यांगजनों की शेष क्षमताओं के अनुरूप कौशल विकास के सम्बन्ध में विभिन्न प्रावधान किए गए हैं।
पर विडंबनात्मक स्थिति ये है कि दिव्यांगों को कौशालयुक्त कर रोजगारयोग्य बनाने के सरकार के इन तमाम प्रयासों के बावजूद देश की अधिकांश दिव्यांग आबादी आज भी रोजगारहीन होकर जीने को विवश है। एक आंकड़े पर गौर करें तो देश की कुल दिव्यांग आबादी में से लगभग .३४ करोड़ लोग १५ से ५९ वर्ष की आयु अर्थात नियोजनीय आयु वर्ग के हैं, लेकिन इनमे से तकरीबन ९९ लाख लोग अब भी बेरोजगार या सीमान्त कार्मिक हैं। इस स्थिति के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि सरकार द्वारा संचालित उपर्युक्त समस्त योजनाओं-कार्यक्रमों की पहुँच शहरों तक है जबकि २०११ की जनगणना के अनुसार यदि आंकलन करें तो देश की अधिकांश दिव्यांग आबादी के गांवों में होने की संभावना है। एक अन्य समस्या सरकार के कौशल प्रशिक्षणों में गुणवत्ता के अभाव की है। साथ ही तमाम जगह तो ये प्रशिक्षण सिर्फ कागजों में ही देकर इनकी इतिश्री कर दी जाती है। कहने का अर्थ है कि सरकार द्वारा दिव्यांगों को सामजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए विभिन्न योजनाएं कार्यक्रम चलाएं तो जा रहे हैं, पर उनके क्रियान्वयन में अभी कई समस्याएं हैं, जिनसे पार पाने की ज़रूरत है। संतोषजनक बात यह है कि सरकार की नई कौशल विकास एवं उद्यमिता नीति में इन समस्याओं को समझते हुए इनके समाधान के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं।
वैसे, दिव्यांगों के प्रति समस्त दायित्व केवल सरकार के ही नहीं हैं, वरन हमारे समाज को भी उनके प्रति अपनी मानसिकता को तनिक और संवेदनशील, सहयोगी और सजग करने की आवश्यकता है। यह सही है कि समाज में अधिकांश लोग  दिव्यांगों के प्रति सहयोगी भावना रखते हैं, किन्तु तमाम लोग इन सहयोगों में केवल दया का भाव मिला देते हैं, बल्कि उसका प्रदर्शन भी कर देते हैं, जिससे दिव्यांगों के मन में हीन ग्रंथि के विकास का संकट उत्पन्न होने लगता है।
दरअसल सहानुभूति की भावना को समाज में एक अच्छी भावना के रूप में स्थान मिला हुआ है और कुछ स्थितियों में यह अच्छी होती भी है, परन्तु जब किसी ऐसे व्यक्ति जो आत्मविश्वास अर्जित करने का प्रयत्न कर रहा हो, के प्रति इस तरह की भावना दिखाई जाती है तो ये उसके प्रयत्नों को क्षति पहुँचाने का ही कार्य करती है। दिव्यांगों के संदर्भ में सहानुभूति के भाव का यही प्रभाव होता है।
दिव्यांगों के प्रति लोगों द्वारा व्यक्त सहानुभूति कई तरह की होती है। कुछ मामलों में सहानुभूतिवश दिव्यांगों के प्रयत्नों की अतिरंजित सराहना कर दी जाती है तो कुछ मामलों में उनकी क्षमताओं का बेहद कम आकलन कर सहानुभूति जताई जाने लगती है। ये दोनों ही स्थितियां बेहद गलत हैं और दिव्यांग व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं।
इस बात को उदाहरण से समझें तो मान लीजिये कि कोई दिव्यांग बच्चा किसी सरकारी नौकरी के लिए अन्य सामान्य लोगों की तरह ही जी-तोड़ परिश्रम कर रहा है, तभी कोई व्यक्ति उसके परिश्रम की बढ़ा-चढ़ाकर सराहना भी करे और साथ में यह भी जोड़ दे कि उसे तो नौकरी मिल ही जाएगी, क्योंकि सरकार ने दिव्यांगों कई तरह की रियायतें दे रखी हैं। ये बात कही तो सहानुभूतिवश ही जाएगी, मगर इसका प्रभाव यह होगा कि उस बच्चे को अपना सारा परिश्रम व्यर्थ लगने लगेगा और उसके अंदर यह भावना घर करने लगेगी कि वो समाज के अन्य लोगों से कटा हुआ है। अतः आदर्श स्थिति यह है कि दिव्यांगों के प्रति सहानुभूति की भावना रखी ही जाए। सहानुभूतिवश तो उनके सामान्य प्रयत्नों की बढ़ा-चढ़ाकर सराहना ही की जाए और ही उनकी क्षमताओं को जाने-समझे बिना उनकी स्थिति पर चिंता ही प्रकट की जाए। सहानुभूति की समस्या से इतर बहुत से असंवेदनशील लोग तो अब भी दिव्यांगों का मजाक बनाने और उन्हें हतोत्साहित करने से नहीं चूकते। समाज को अपनी इन मानसिकताओं में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
हमें समझना होगा कि दिव्यांगजनों की कुछ क्षमताएँ सीमित भले हों, पर अगर उन्हें समाज और सरकार दोनों से संबल और सहयोग मिले तो वे केवल जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता अर्जित कर सकते हैं बल्कि अपने देश और समाज की प्रगति में सक्रिय भागीदार भी बन सकते हैं।