रविवार, 21 सितंबर 2014

हाशिए पर बुनियादी शिक्षा [जनसत्ता रविवारीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत   

जनसत्ता 
किसी भी राष्ट्र का सतत प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस राष्ट्र के नागरिक कितने सुशिक्षित हैं । इसमे कोई दोराय नही कि जिस राष्ट्र के नागरिक अधिकाधिक संख्या में सुशिक्षित होंगे, वो राष्ट्र प्रगति के नित नए कीर्तिमान गढ़ेगा । सुशिक्षित नागरिक तैयार करने के लिए आवश्यक होता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए । क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नीव होती है और अगर वो मजबूत होगी तभी आगे चलके उसपर ज्ञान की दमदार ईमारत खड़ी हो सकेगी । प्राथमिक शिक्षा की इस जरूरत को  अगर भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं । इसमे कोई दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की बेहतर प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी देश के लगभग एक तिहाई बच्चे स्कूली अनुभवों से वंचित हैं । और जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं उनमे भी सरकारी शिक्षण संस्थानों की अपेक्षा निजी शिक्षण संस्थानों की तरफ जाने वाले बच्चों की संख्या कहीं अधिक है । बच्चों के इस सरकारी शिक्षण संस्थानों से विमुख होकर निजी संस्थानों की तरफ रुख करने के लिए बड़ा कारण सरकारी शिक्षण संस्थानों की चौतरफा दुर्दशा है । सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश भर में तमाम ऐसे सरकारी शिक्षण संस्थान भी हैं जहाँ  शिक्षक आदि की तो छोड़िये ढाचागत सुविधाएँ तक ढंग की नहीं हैं । कहीं विद्यालय की ईमारत की छत टूटी हुई होती है तो कहीं विद्यालय में शौचालय ही नहीं होता तो कितनी जगहों पर तो कक्षा में बैठने योग्य स्थान न होने के कारण बच्चों को खुले मैदान में तक पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है । इन चीजों के अतिरिक्त सरकारी विद्यालयों में शिक्षा व शिक्षण का स्तर भी बेहद खराब है । एक तो सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त अध्यापक नहीं हैं और जो अध्यापक होते हैं, वे भी पढ़ाने की बजाय इधर-उधर की बातों में ही अपना समय बीता देते हैं । बस इन्ही तमाम विसंगतियों की वजह से अभिभावकों द्वारा बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों से इतर निजी संस्थानों में भेजा जा रहा है । हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकारी विद्यालयों से बच्चों के इस मोहभंग पर हमारी सरकारों द्वारा कुछ नहीं किया गया । सरकार द्वारा बच्चों को सरकारी विद्यालयों की तरफ पुनः मोड़ने के लिए कई योजनाएं व कार्यक्रम चलाए गए  हैं, लेकिन वे योजनाएं व कार्यक्रम कुछ खास कामयाब होते नहीं दिख रहे । नीचे सरकार की ऐसी ही कुछ प्रमुख योजनाओं पर एक संक्षिप्त दृष्टि डाली गई है ।

सर्वशिक्षा अभियान
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार द्वारा कई बड़े उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए  सन २००१ में इस योजना का सूत्रपात किया गया था । यह एक निश्चित समयावधि वाली योजना थी अर्थात २०१० तक इसके उद्देश्यों को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था । २००१ में शुरू हुई इस योजना का प्रमुख उद्देश्य ये था कि  अगले पाँच सालों में देश के सभी बच्चे विद्यालयों में न सिर्फ जाना शुरू कर दें, बल्कि बहुसंख्य बच्चे प्राथमिक शिक्षा प्राप्त भी कर लें । इसके लिए भारी संख्या में  नए विद्यालय खोलना, विद्यालयों में बच्चों की पठन सामग्री मुफ्त वितरण के लिए उपलब्ध करवाना, सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित करना,  आदि  तमाम कार्यक्रम चलाए गए । इस योजना के क्रियान्वयन के लिए परिव्यय राशि के रूप में   सन २००५ में तकरीबन ७००० करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया । आगे इस राशि में और भी बढ़ोत्तरी हुई । लेकिन, अटल सरकार की ये अति महत्वाकांक्षी योजना धरातल पर उतरते-उतरते पूरी तरह से खारिज हो गई ।  इस योजना का कुछ हिस्सा भ्रष्टाचार देवता की भेंट चढ़ा तो कुछ व्यवस्थाजन्य खामियों के चलते बर्बाद हो गया । परिणामतः इस योजना से बच्चों को तो कुछ खास लाभ नहीं हुआ, पर सरकारी नौकरशाही से लेकर विद्यालयों के प्रशासन व शिक्षकों तक सब ने इस योजना से अपने-अपने हित खूब साधे । बच्चों में मुफ्त वितरण के लिए सरकार द्वारा भेजी जाने वाली किताबों का हश्र कुछ ये होता कि वे अधिकांश विद्यालयों में या तो रखे-रखे सड़-गल जातीं या मन-मुताबिक मूल्यों  पर शिक्षक लोग उन्हें बेच देते ।  इसी प्रकार विद्यालयों को मिलने वाला अनुदान भी विद्यालय प्रशासन के बीच बंदरबाट का शिकार होकर ही रह जाता । इस प्रकार अटल सरकार की 'सार्वभौमिक गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा' के उद्देश्य से आरम्भ इस योजना की धज्जियाँ उड़ गईं । मोटे तौर पर देखें तो इस योजना के द्वारा भारतीय प्राथमिक शिक्षा का तो कोई बहुत बड़ा हित नहीं हुआ, लेकिन सरकारी पैसे की  बर्बादी और बंदरबाट खूब हुई ।\

मिड डे मिल
सरकार द्वारा बच्चों को सरकारी विद्यालयों से जोड़ने के लिए एक अन्य योजना जो काफी चर्चित रही वो है मिड डे मिल । इस योजना का प्रारंभ सन १९९५ में किया गया । शुरू-शुरू में इस योजना के तहत प्रदेश के सरकारी, परिषदीय विद्यालयों में ये नियम आया कि जो बच्चा विद्यालय में महीने भर में अपनी ८० फिसदी मौजूदगी दर्ज करवाएगा उसे तीन किलो गेहू या चावल दिया जाएगा । गौरतलब है कि १९९५ के दौर में सरकारी विद्यालयों से बच्चों का इतना अधिक मोहभंग नहीं हुआ था और निजी संस्थानों ने बहुत ज्यादा सिर भी नहीं उठाया था । ऐसे में ये अनाज मिलने वाली ये लुभावनी योजना आ जाने से और भी बच्चे सरकारी विद्यालयों की तरफ बढ़े । लेकिन, समय के साथ जैसे-जैसे शिक्षा में प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई और सरकारी विद्यालय इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ते गए, वैसे-वैसे बच्चों का रुख सरकारी विद्यालयों से हटता गया । स्थिति ये हो गई कि अनाज पाने के लिए बच्चे  सरकारी विद्यालय में अपना नाम तो दर्ज करवा लेते, लेकिन पढ़ने कहीं अन्य किसी निजी विद्यालय में जाते । और जब महीना पूरा होता तो वे सरकारी विद्यालय में जाकर अपना अनाज ले लेते । बच्चों के अभिभावकों और शिक्षकों की मिली-भगत से अनाज वितरण की ये योजना अपने उद्देश्य से अलग किसी और ही दिशा में बढ़ गई । इन विसंगतियों के चलते सन २००४ में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इस योजना में परिवर्तन करते हुए इसे प्रतिमाह अनाज वितरण की बजाय प्रतिदिन पका-पकाया भोजन देने के रूप में कर दिया गया । भोजन बनाने के लिए विद्यालयों को आवश्यक संसाधन, सामग्री व सहायक आदि उपलब्ध कराने का प्रावधान तो रखा गया, पर इसमें भी कई पेंच रहे और सभी विद्यालयों तक ये सभी सुविधाएं नहीं पहुँच सकीं । कुछ समय पहले ही देश के तमाम राज्यों में एक खबरिया चैनल द्वारा इस योजना के क्रियान्वयन पर गौर किया गया तो सामने आया कि किसी विद्यालय में खाद्य सामग्री है तो  बनाने वाले नहीं, कहीं बनाने वाले हैं तो सामग्री आदि नहीं । इन खामियों का परिणाम ये रहा है कि अधिकांश विद्यालयों में बनने वाले भोजन में गुणवत्ता न के बराबर होती  है । इसी कारण अब भी आए दिन इस मिड डे मिल योजना के तहत बनने वाले खाने में कहीं छिपकिली मिलने की तो कहीं ये भोजन खाने से बच्चों के बीमार पड़ने की खबरे आती रहती हैं । मोटे तौर पर इस योजना का परिणाम यही हुआ  कि इस योजना ने गरीब तबके के बच्चों को केवल अपनी भूख मिटाने के उद्देश्य से सरकारी विद्यालयों की तरफ जरूर मोड़ा, लेकिन यहाँ  बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का उद्देश्य दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखता है । 
   ये तो बात हुई बच्चों को सरकारी विद्यालयों से जोड़ने के लिए किए गए सरकारी प्रयासों की । सरकार द्वारा संचालित उपरोक्त योजनाओं को देखने पर एक बात तो एकदम स्पष्ट हो जाती है कि सरकार की ये योजनाएं सरकारी शिक्षण संस्थानों में शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए कम, बच्चों को अन्य लुभावनी चीजों के जरिए विद्यालय से जोड़ने के लिए ज्यादा प्रतिबद्ध दिखती हैं । संभवतः इसी का परिणाम है कि आज अधिकांश सरकारी विद्यालयों में शैक्षिक गुणवत्ता न के बराबर है ।  हालांकि सरकारी विद्यालयों से बच्चों को जोड़ने के अतिरिक्त सभी बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए भी सरकार द्वारा कुछ प्रयास जरूर किए गए हैं । पिछली संप्रग सरकार द्वारा सन २००९ में लाया गया  'शिक्षा का अधिकार' नामक क़ानून इन प्रयासों की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है । 
शिक्षा का अधिकार 
इस क़ानून के तहत सरकारी विद्यालयों ६ से १४  साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया । साथ ही, इस क़ानून की सबसे विशेष बात यह थी कि इसके तहत निजी विद्यालयों को भी अपने यहाँ गरीब तबके के ६ से १४ साल तक के २७ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया । हालांकि सरकार के इस फरमान से निजी विद्यालय काफी नाराज हुए; उन्होंने इसका काफी विरोध किया, लेकिन ये आदेश नहीं बदला । निजी विद्यालयों का तर्क था कि अगर वे गरीब और पिछड़ा चिन्हित करके २७ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देते हैं, तो इस खर्च की पूर्ति के लिए उन्हें बाकी बच्चों के अभिभावकों पर और अधिक आर्थिक बोझ डालना पड़ेगा जो कि बेहद गलत होगा । अगर सरकार ये नियम लाई है तो उसे निजी विद्यालयों को आर्थिक सहायता भी देनी चाहिए । लेकिन, निजी विद्यालयों की इन दलीलों का सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा । आज इस योजना को लागू  हुए लगभग ५ साल का समय हो गया है, पर इसका क्रियान्वयन अब भी दूर की कौड़ी ही नज़र आता है । इस योजना की पूर्ति में सबसे बड़ी बाधा तो यही है कि विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं हैं । अभी कुछ ही समय पहले इस क़ानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब माँगा है । दायर याचिका में कहा गया था  कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों और १२ लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण ‘शिक्षा के अधिकार’ क़ानून का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है । साफ़ है कि ये क़ानून भी  यथार्थ के धरातल से दूर सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है । लेकिन जाने क्यों सरकार इस तरफ से आँख-कान बंद किए हुए है । इस क़ानून को लाने वाली संप्रग सरकार तो जबतक सत्ता में थी, उसने इस योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी । लेकिन, अब वो सत्ता में नहीं है, अतः मौजूदा राजग सरकार से ही ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून की एकबार समीक्षा करे और देखे कि ये क़ानून अपने तय लक्ष्यों को प्राप्त कर रहा है या नहीं ? साथ ही, यह भी देखा जाय कि अगर ये क़ानून अपने तय लक्ष्यों से भटक रहा है तो किन समस्याओं के कारण और वो जो भी समस्याएं हैं, उन्हें दूर करने की दिशा म क्या किया जा सकता है । 
  उपर्युक्त बाते तो सरकार की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं, कार्यक्रमों, कानूनों और उनके क्रियान्वयन आदि की थी । अब अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं । ये रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त  है । विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं – श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं । हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता । कहने का मतलब ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है । ये समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है । अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता  है, उसे किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता । कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है । उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़े याद करने की और समझने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सिखाने वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है । परिणाम ये होता है कि बच्चे न तो गिनती पहाड़ा ठीक से सीख पाते हैं और  न ही जोड़-घटाव । कहना गलत नही होगा कि ये पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है । ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे । जाहिर है कि ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना । चूंकि, बच्चों के इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी  किताबें अभिभावकों को विद्यालय  से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे विद्यालयों  और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा । उचित होता कि केन्द्र व राज्य सरकारें  इस संबंध में गंभीर होतीं तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती ।  साथ ही, बच्चों के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाता जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी होता ।
    उपर्युक्त सभी बातों को देखने के बाद भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था के संबंध ये बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि अभी इसमे ढाचागत, शिक्षागत आदि अनेकों कमियां हैं, जिसके चलते देश के तमाम बच्चों  का भविष्य अन्धकार में जा रहा है । उचित होगा कि सरकार सरकारी विद्यालयों की शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाए । इसके लिए पहली जरूरत है कि उनमे योग्य और समर्पित अध्यापक आएं । योग्य अध्यापक तभी आएँगे जब अध्यापकों के चयन की प्रक्रिया  भ्रष्टाचार व सिफारिशी प्रक्रिया से मुक्त एवं प्रतिभा आधारित होगी । इसके अलावा सरकारी विद्यालयों को आधुनिक किए जाने की भी जरूरत है । सरकार चाहे तो ये सब चीजें हो सकती हैं । सरकार जितना पैसा मिड डे मिल आदि योजानाओं पर खर्च करती है, उनमे से कटौती करके अथवा ऐसी  योजनाओं को अस्थायी रूप से बंद करके इनके पैसे के जरिए सरकारी विद्यालयों का ये अनिवार्य कायाकल्प किया जा सकता है । क्योंकि, विद्यालय खाना खिलाने का  नहीं शिक्षा देने का स्थान होता है । अतः उसमे शिक्षाजन्य सुधार को ही पहली वरीयता मिलनी चाहिए ।  अगर सरकारी विद्यालयों का उपरोक्त प्रकार से कायाकल्प हो जाय तो फिर सरकार को विद्यालयों से बच्चों को जोड़ने के लिए किसी मिड डे मिल जैसी योजना की आवश्यकता शायद न पड़े । निजी संस्थानों द्वारा शिक्षा देने के नाम पर किए जा रहे भीषण आर्थिक शोषण से पीड़ित बच्चों के अभिभावक सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार आने पर बच्चों को सरकारी विद्यालय में डालने तनिक भी नहीं हिचकेंगे । उचित होगा कि सरकार समय रहते इन चीजों पर विचार करे और कुछ ठोस कदम उठाए जिससे कि देश के तमाम नौनिहालों का भविष्य अन्धकार से प्रकाश की तरफ उन्मुख हो सके ।

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