मंगलवार, 31 जनवरी 2017

मुफ्तखोरी की संस्कृति को प्रश्रय देते चुनावी घोषणापत्र [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो चुका है और इन राज्यों के सभी राजनीतिक दल चुनावों में अपने-अपने सियासी दाँव आजमाने में लगे हैं। इसी क्रम में राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए गए हैं, जिनमें जनता के लिए एक से बढ़कर एक लुभावने वादों की भरमार है। जनता को मुफ्त में तमाम तरह की चीजें देने का ऐलान किया जा रहा है, और भी अनेक लुभावने वादे हमारे सियासी आकाओं के घोषणापत्रों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

अब चुनाव तो देश के पांच राज्यों में है, लेकिन देश का सबसे बड़ा सूबा होने के कारण यूपी की चर्चा सर्वाधिक है। इस नाते अगर यूपी के चुनावी संग्राम में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर एक निगाह डालें तो सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में अनेक लोकलुभावने वादे दीखते हैं। सपा द्वारा अपने घोषणापत्र में पेंशन, युवाओं को मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन, गरीबों को मुफ्त कूकर, रियायती दर पर मिड डे मिल, मुफ्त में 1 किलो घी और दूध का पाउडर, गांवों में 24 घंटे बिजली, पशु-चिकित्सा के लिए एम्बुलेंस सुविधा, आदि देने का वादा किया गया है। इन वादों पर गौर करें तो इनमें कई ऐसे वादे हैं, जो सपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में भी किये थे। उदाहरण के तौर पर देखें तो मुफ्त लैपटॉप वितरण का वादा सपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में भी किया था और सपा शासन के शुरूआती एकाध वर्षों तक कमोबेश लैपटॉप वितरण हुआ भी। लेकिन, फिर यह योजना अचानक ही बंद कर दी गयी। कारण कि इस योजना की सफलता को लेकर शायद स्वयं अखिलेश सरकार को भी संदेह हो गया था। दरअसल लैपटॉप वितरण शुरू होने के अगले कुछेक दिनों में ही मीडिया में ऐसी ख़बरें दिखायी दी थीं कि तमाम बच्चे जिन्हें लैपटॉप मिले, उसके अगले दिन ही वे उसे बेचने दुकानों पर पहुँच गए। इस सम्बन्ध में ज़मीनी और वास्तविक बात यह है कि जिन क्षेत्रों में अभी ठीक ढंग से बिजली और सामान्य शिक्षा तक नहीं पहुंची है, वहाँ बच्चों के लिए लैपटॉप कितना उपयोगी होगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कंप्यूटर के ज्ञान के अभाव में वो बच्चों के लिए अनुपयोगी ही सिद्ध होना था, ऐसे में बच्चे उसे बेचने लगे तो इसमें कोई विशेष आश्चर्य नहीं। इस प्रकार तब लैपटॉप वितरण योजना बुरी तरह से फ्लॉप साबित हुई और इसी कारण अखिलेश सरकार ने इस योजना को बीच में ही बंद भी कर दिया था। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि ऐसी विफल सिद्ध हो चुकी योजना जिसे उनकी सरकार ने आधे पर ही बंद कर दिया था, को अखिलेश यादव ने अपने ताज़ा घोषणापत्र में फिर जगह क्यों दी है ? इसके अलावा वे स्मार्टफोन देने का वादा भी किये हैं। गौर करें तो पिछले घोषणापत्र में दसवीं उत्तीर्ण बच्चों को टैबलेट देने का वादा भी उन्होंने किया था, जिसका कोई क्रियान्वयन नहीं हुआ। हद तो यह है कि वे मुफ्त में लोगों की रसोई सजाने का भी वादा कर दिए हैं। दूध, घी और कूकर बांटने का वादा भी इस बार सपा के घोषणापत्र में है। समझ से परे है कि ऐसे मुफ्तखोरी की संस्कृति का विकास करने वाले वादों के जरिये अखिलेश यादव प्रदेश की जनता का कौन-सा उत्थान करने की मंशा प्रदर्शित करना चाहते हैं।
 
राज एक्सप्रेस
वैसे, यह स्थिति सिर्फ़ एक दल अथवा राज्य की नहीं है, भारतीय राजनीति के कर्णधारों के बीच इस तरह के लुभावने और अध्ययनहीन वादे करने का चलन ही हो चुका है। सपा के बाद आये भाजपा के घोषणापत्र में भी तमाम वादे इसी तरह के हैं। जैसे कि भाजपा भी साल भर के लिए फ्री एक जीबी इंटरनेट के साथ लैपटॉप देने का वादा की है। साथ ही, किसानों का पूरा क़र्ज़ माफ़ करने, बारहवीं तक मेधावी लड़कों और स्नातक तक लड़कियों को मुफ़्त शिक्षा देने, जैसे वादे भी भाजपा के घोषणापत्र में मौज़ूद हैं। हालांकि यूपी के इस घोषणापत्र में भाजपा ने घी, दूध बांटने जैसे वादों से परहेज कर घोषणापत्र को एक हद तक बुनियादी ढाँचे के विकास और आम जनों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की तरफ केन्द्रित रखने की कोशिश की है। लेकिन, यही भाजपा जब पंजाब में जाती है, तो अपने घोषणापत्र में आटा-दाल, घी और चीनी सस्ती दरों पर देने का वादा कर बैठती है। केजरीवाल ने भी पंजाब में जारी अपने घोषणापत्र में मुफ्त में अनेक प्रकार की वस्तुएं देने का ऐलान किया है। कहने का मतलब यह है कि राजनीतिक दल कोई-सा भी हो, जनता को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी की संस्कृति वाले वादे करने से कोई परहेज़ करता नहीं दीखता। कमोबेश हर दल के घोषणापत्रों में इस तरह के वादे मौज़ूद दिखायी देते है।

ऐसे घोषणापत्रों को देखते हुए कई सवाल उठते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह कि अपने घोषणापत्रों में किये जाने वाले वादों के क्रियान्वयन के विषय में क्या राजनीतिक दल कोई ठोस अध्ययन करते हैं ? शायद नहीं। क्योंकि, यदि वे इस सम्बन्ध में अध्ययन करते तो उन्हें ज्ञात होता कि मुफ्त में तमाम चीज़ें देने के जो चुनावी वादे वे कर रहे हैं, उनको उस रूप में पूरा करना संभव भी है या नहीं ? दूसरी बात यह भी गौर करने वाली है कि मुफ्त में विविध वस्तुएं उपलब्ध कराने के पीछे उनका उद्देश्य क्या है ? इस तरह की मुफ्त-संस्कृति को प्रश्रय देने और राज्य पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालने वाली योजनाओं से समाज के गरीब वर्ग का कायाकल्प हो सकता है ? निस्संदेह इन प्रश्नों का कोई ठोस उत्तर हमारे सियासी आकाओं के पास नहीं होगा। क्योंकि, मुफ्त में या सब्सिडी के साथ अतिरिक्त सस्ती दरों पर विभिन्न वस्तुएं लोगों को उपलब्ध कराने वाली योजनाओं से किसी तरह का कोई ठोस बदलाव नहीं आ सकता। ये सिर्फ लोगों को क्षणिक रूप से लुभा सकती हैं, उनका कोई स्थायी हित नहीं कर सकतीं। ऐसे में यह क्यों न कहा जाए कि राजनीतिक दलों का उद्देश्य भी सिर्फ जनता को लुभाकर उनके मत हासिल कर लेना भर है, उनके हितों को स्थायी रूप से सुनिश्चित करने की हमारे राजनेताओं की कोई मंशा नहीं है। अगर राजनीतिक दलों की ऐसी कोई मंशा होती तो उनके घोषणापत्रों में मुफ्त में वस्तुएं उपलब्ध कराने की योजनाओं बजाय ऐसी दूरदर्शी योजनाएं होतीं, जिनसे आम व गरीब लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ती और वे मुफ्त में चीज़ें लेने की बजाय उन्हें खरीदकर प्राप्त करने में सक्षम होते। यह न केवल व्यक्तिगत रूप से लोगों के लिए बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहतर होता। लेकिन, वर्तमान समय में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में मुफ्त-वितरण की संस्कृति का वर्चस्व ही दीखता है, जिसका न तो कोई औचित्य है, न कोई उद्देश्य ही प्रतीत होता है। हालांकि यह समस्या फिलहाल राज्यों के चुनावों में ही अधिक दिखाई देती है, किन्तु यही स्थिति रही तो आश्चर्य नहीं कि केंद्र के चुनावों में भी इस तरह की मुफ्त-संस्कृति से पूर्ण वादों का बोलबाला नज़र आने लगे। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद बुरी स्थिति होगी। उचित होगा कि इस सम्बन्ध में चुनाव आयोग स्वयं संज्ञान लेते हुए घोषणापत्रों के कुछ नियम निर्धारित करे, जिससे घोषणापत्रों में व्याप्त हो चुकी मुफ्त-संस्कृति पर अंकुश लगे। भारतीय लोकतंत्र की शुचिता और जनता के सार्थक हित के लिए यह बेहद ज़रूरी है।

शनिवार, 28 जनवरी 2017

पुस्तक समीक्षा : समय और समाज की सहज अभिव्यक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
अगर आप इस समय समाज की धारा में अपनी-सी लगने वाली भाषा और शैली के साथ बहना चाहते हैं, तो डॉ प्रदीप शुक्ल का नवगीत-संग्रह अम्मा रहतीं गाँव में आपके लिए पठनीय कृति है। इस संग्रह के नवगीत विषयों की व्यापक रूप से विविधता का समावेश किये हुए हैं। इसमें गाँव-शहर से लेकर देश और दुनिया तक की वर्तमान समस्याओं और चिंताओं को बड़े ही मार्मिक ढंग से उठाया गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ये नवगीत हमें आईना दिखाने का काम करते हैं; ऐसा आईना जो हमारे समय की विसंगतियों की ऐसी झाँकी प्रस्तुत करता है कि हमारी नज़रें झुक जाती हैं।
 
दैनिक जागरण
इस संग्रह का पहला और शीर्षक नवगीत अम्मा रहतीं गाँव में हम रूबरू होते हैं कि कैसे स्वार्थपरता और भौतिक सुख-सम्पन्नता के आगे संबंधों का महत्व गौण होता जा रहा है।छुटका रहता है विदेश में/ मँझला बहू के पाँव में/ बड़का रहता रजधानी में/ अम्मा रहतीं गाँव में ये पंक्तियाँ पर्याप्त हैं, यह समझने के लिए कि आज किस तरह से हमारे पारिवारिक संबंधों पर व्यक्तिगत सुख और स्वार्थ हावी होता जा रहा है। परन्तु, रचनाकार केवल पारिवारिक संबंधों की इस त्रासदी तक ही सीमित नहीं रहता, उसका ध्यान पूरे समाज पर भी है।इक्कीसवी सदी की लोरी नवगीत में एक कामकाजी महिला के उसके दुधमुंहे बच्चे के साथ वार्तालाप के माध्यम से प्रदीप ने समाज के अनेक रूपों को उकेर दिया है। इस नवगीत की ये पंक्तियाँ - ‘पूरे दिन ऑफिस में थी मैं/ चाँद नहीं ला पायी/ तुझे देखने को मैं चंदा/ दौड़ी-भागी आयी/ पीछे थे कुछ काले साये।।।’ - शहरों में कामकाजी महिलाओं द्वारा अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए किये जाने वाले संघर्ष की त्रासदी को समझने के लिए पर्याप्त हैं। भारतीय समाज में मौज़ूद स्त्री को केवल देह समझने की रूढ़िवादी मानसिकता के संकटों को झेलते हुए, घर और कार्यालय के बीच सामंजस्य स्थापित करने की ज़द्दोज़हद में उलझी शहरी स्त्रियों की करुण-कथा ये पंक्तियाँ बेहद सादे किन्तु प्रभावशाली ढंग से कह जाती हैं। पर रचनाकार की दृष्टि केवल भारतीय समाज तक भी केन्द्रित नहीं है, वो दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी भी ख़बर लेता है। दुनिया में आतंकवाद तथा महाशक्ति देशों की आपसी रंजिशों में मचे हिंसा के तांडव पर अभी बचे हैं हम नवगीत में रचनाकार ने व्यंजनात्मक शैली को अपनाते हुए गहरा कटाक्ष किया है।  ‘गोली, बम, बंदूकों से तुम/ कबतक मारोगे/ थक जाओगे बंधू तो फिर/ शायद हारोगे/ सीधे एटम बम गिरवाओ/ अभी बचे हैं हम नवगीत की ये पंक्तियाँ व्यंजनात्मक और कटाक्षपूर्ण अवश्य हैं, किन्तु परमाणु शक्ति के साम्राज्य के बीच विश्व की भयावहता की समस्या पर सहज ही ध्यान खींचती हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि प्रदीप के नवगीतों के विषय कितने व्यापक हैं।

भाषा की बात करें तो वो सीधी-सरल और बोलचाल में प्रयोग होने वाली हिंदी है, जिसमें उर्दू-फ़ारसी-अंग्रेजी विभिन्न भाषाओँ के शब्दों का बेहिचक प्रयोग हुआ है। लेकिन, आंचलिकता प्रदीप की भाषा में लगभग स्थायी तौर पर दिखायी देती है। उनके अधिकांश नवगीतों में आंचलिक शब्दों और बातचीत के आंचलिक लहज़े का दर्शन सहज ही हो जाता है। यह आंचलिकता केवल प्रदीप की भाषा की प्रमुख विशेषता है, बल्कि उनके नवगीतों को एक अलग सौन्दर्य भी प्रदान करती है।

नवगीत में छंद आदि का कोई विशेष महत्व नहीं होता, किन्तु लय का निर्वहन आवश्यक होता है। लय-निर्वहन के उद्देश्य से रचनाकारों द्वारा प्रायः पंक्तियों में एक निश्चित मात्रा-विन्यास रखने की पद्धति अपनाई जाती है। अब प्रदीप शुक्ल के नवगीतों में लय के निर्वहन का तो यथासंभव प्रयास दीखता है, किन्तु शायद रचना-प्रक्रिया की चुनौतियों को और कठिन होने से बचाने के उद्देश्य से प्रत्येक नवगीत के लिए निश्चित मात्रा-विन्यास को अपनाने से परहेज़ किया गया है। इस कारण कई एक नवगीतों में लयात्मकता का अभाव भी नज़र आता है। परन्तु, समग्र रूप से रचनाकार ने अपने नवगीतों में लयात्मकता का ठीकठाक निर्वहन किया है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आंचलिक भाषा और कहन में रचे गये ये नवगीत अपने समय और समाज की हर छोटी-बड़ी समस्या पर बेहद प्रभावी ढंग से ध्यान आकर्षित करते हैं। सही मायने में ये नवगीत-संग्रह, नवगीत विधा में निहित अभिव्यक्ति की विराट शक्ति को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रकट करता है तथा इस विधा की तरफ सहज ही ध्यान खींचता है।