- पीयूष द्विवेदी भारत
देश
के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो चुका है और इन
राज्यों के सभी राजनीतिक दल चुनावों में अपने-अपने सियासी दाँव आजमाने में लगे हैं।
इसी क्रम में राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए गए हैं, जिनमें
जनता के लिए एक से बढ़कर एक लुभावने वादों की भरमार है। जनता को मुफ्त में तमाम तरह
की चीजें देने का ऐलान किया जा रहा है, और भी अनेक लुभावने वादे हमारे सियासी
आकाओं के घोषणापत्रों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
अब चुनाव तो देश के पांच राज्यों में है, लेकिन देश का
सबसे बड़ा सूबा होने के कारण यूपी की चर्चा सर्वाधिक है। इस नाते अगर यूपी के
चुनावी संग्राम में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर एक निगाह डालें तो सत्तारूढ़
समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में
अनेक लोकलुभावने वादे दीखते हैं। सपा द्वारा अपने घोषणापत्र में पेंशन, युवाओं को
मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन, गरीबों को मुफ्त कूकर, रियायती दर पर मिड डे मिल, मुफ्त
में 1 किलो घी और दूध का पाउडर, गांवों में 24 घंटे बिजली, पशु-चिकित्सा के लिए
एम्बुलेंस सुविधा, आदि देने का वादा किया गया है। इन वादों पर गौर करें तो इनमें
कई ऐसे वादे हैं, जो सपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में भी किये थे। उदाहरण के तौर
पर देखें तो मुफ्त लैपटॉप वितरण का वादा सपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में भी किया
था और सपा शासन के शुरूआती एकाध वर्षों तक कमोबेश लैपटॉप वितरण हुआ भी। लेकिन, फिर
यह योजना अचानक ही बंद कर दी गयी। कारण कि इस योजना की सफलता
को लेकर शायद स्वयं अखिलेश सरकार को भी संदेह हो गया था। दरअसल लैपटॉप वितरण शुरू
होने के अगले कुछेक दिनों में ही मीडिया में ऐसी ख़बरें दिखायी दी थीं कि तमाम बच्चे
जिन्हें लैपटॉप मिले, उसके अगले दिन ही वे उसे बेचने दुकानों पर पहुँच गए। इस
सम्बन्ध में ज़मीनी और वास्तविक बात यह है कि जिन क्षेत्रों में अभी ठीक ढंग से
बिजली और सामान्य शिक्षा तक नहीं पहुंची है, वहाँ बच्चों के लिए लैपटॉप कितना
उपयोगी होगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कंप्यूटर के ज्ञान के अभाव में वो
बच्चों के लिए अनुपयोगी ही सिद्ध होना था, ऐसे में बच्चे उसे बेचने लगे तो इसमें
कोई विशेष आश्चर्य नहीं। इस प्रकार तब लैपटॉप वितरण योजना बुरी तरह से फ्लॉप साबित
हुई और इसी कारण अखिलेश सरकार ने इस योजना को बीच में ही बंद भी कर दिया था। लेकिन
अब सवाल यह उठता है कि ऐसी विफल सिद्ध हो चुकी योजना जिसे उनकी सरकार ने आधे पर ही
बंद कर दिया था, को अखिलेश यादव ने अपने ताज़ा घोषणापत्र में फिर जगह क्यों दी है ?
इसके अलावा वे स्मार्टफोन देने का वादा भी किये हैं। गौर करें तो पिछले घोषणापत्र
में दसवीं उत्तीर्ण बच्चों को टैबलेट देने का वादा भी उन्होंने किया था, जिसका कोई
क्रियान्वयन नहीं हुआ। हद तो यह है कि वे मुफ्त में लोगों की रसोई सजाने का भी
वादा कर दिए हैं। दूध, घी और कूकर बांटने का वादा भी इस बार सपा के घोषणापत्र में
है। समझ से परे है कि ऐसे मुफ्तखोरी की संस्कृति का विकास करने वाले वादों के
जरिये अखिलेश यादव प्रदेश की जनता का कौन-सा उत्थान करने की मंशा प्रदर्शित करना
चाहते हैं।
वैसे,
यह स्थिति सिर्फ़ एक दल अथवा राज्य की नहीं है, भारतीय राजनीति के कर्णधारों के बीच
इस तरह के लुभावने और अध्ययनहीन वादे करने का चलन ही हो चुका है। सपा के बाद आये
भाजपा के घोषणापत्र में भी तमाम वादे इसी तरह के हैं। जैसे कि भाजपा भी साल भर के
लिए फ्री एक जीबी इंटरनेट के साथ लैपटॉप देने का वादा की है। साथ ही, किसानों का
पूरा क़र्ज़ माफ़ करने, बारहवीं तक मेधावी लड़कों और स्नातक तक लड़कियों को मुफ़्त
शिक्षा देने, जैसे वादे भी भाजपा के घोषणापत्र में मौज़ूद हैं। हालांकि यूपी के इस
घोषणापत्र में भाजपा ने घी, दूध बांटने जैसे वादों से परहेज कर घोषणापत्र को एक हद
तक बुनियादी ढाँचे के विकास और आम जनों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की तरफ केन्द्रित
रखने की कोशिश की है। लेकिन, यही भाजपा जब पंजाब में जाती है, तो अपने घोषणापत्र
में आटा-दाल, घी और चीनी सस्ती दरों पर देने का वादा कर बैठती है। केजरीवाल ने भी
पंजाब में जारी अपने घोषणापत्र में मुफ्त में अनेक प्रकार की वस्तुएं देने का ऐलान
किया है। कहने का मतलब यह है कि राजनीतिक दल कोई-सा भी हो, जनता को लुभाने के लिए
मुफ्तखोरी की संस्कृति वाले वादे करने से कोई परहेज़ करता नहीं दीखता। कमोबेश हर दल
के घोषणापत्रों में इस तरह के वादे मौज़ूद दिखायी देते है।
ऐसे घोषणापत्रों को देखते हुए कई सवाल उठते हैं। सबसे
बड़ा सवाल तो यह कि अपने घोषणापत्रों में किये जाने वाले वादों के क्रियान्वयन के
विषय में क्या राजनीतिक दल कोई ठोस अध्ययन करते हैं ? शायद नहीं। क्योंकि, यदि वे
इस सम्बन्ध में अध्ययन करते तो उन्हें ज्ञात होता कि मुफ्त में तमाम चीज़ें देने के
जो चुनावी वादे वे कर रहे हैं, उनको उस रूप में पूरा करना संभव भी है या नहीं ? दूसरी
बात यह भी गौर करने वाली है कि मुफ्त में विविध वस्तुएं उपलब्ध कराने के पीछे उनका
उद्देश्य क्या है ? इस तरह की मुफ्त-संस्कृति को प्रश्रय देने और राज्य पर
अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालने वाली योजनाओं से समाज के गरीब वर्ग का कायाकल्प हो सकता
है ? निस्संदेह इन प्रश्नों का कोई ठोस उत्तर हमारे सियासी आकाओं के पास नहीं होगा।
क्योंकि, मुफ्त में या सब्सिडी के साथ अतिरिक्त सस्ती दरों पर विभिन्न वस्तुएं
लोगों को उपलब्ध कराने वाली योजनाओं से किसी तरह का कोई ठोस बदलाव नहीं आ सकता। ये
सिर्फ लोगों को क्षणिक रूप से लुभा सकती हैं, उनका कोई स्थायी हित नहीं कर सकतीं। ऐसे
में यह क्यों न कहा जाए कि राजनीतिक दलों का उद्देश्य भी सिर्फ जनता को लुभाकर
उनके मत हासिल कर लेना भर है, उनके हितों को स्थायी रूप से सुनिश्चित करने की हमारे
राजनेताओं की कोई मंशा नहीं है। अगर राजनीतिक दलों की ऐसी कोई मंशा होती तो उनके
घोषणापत्रों में मुफ्त में वस्तुएं उपलब्ध कराने की योजनाओं बजाय ऐसी दूरदर्शी योजनाएं
होतीं, जिनसे आम व गरीब लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ती और वे मुफ्त में चीज़ें लेने की
बजाय उन्हें खरीदकर प्राप्त करने में सक्षम होते। यह न केवल व्यक्तिगत रूप से
लोगों के लिए बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहतर होता। लेकिन, वर्तमान
समय में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में मुफ्त-वितरण की संस्कृति का वर्चस्व ही
दीखता है, जिसका न तो कोई औचित्य है, न कोई उद्देश्य ही प्रतीत होता है। हालांकि
यह समस्या फिलहाल राज्यों के चुनावों में ही अधिक दिखाई देती है, किन्तु यही
स्थिति रही तो आश्चर्य नहीं कि केंद्र के चुनावों में भी इस तरह की मुफ्त-संस्कृति
से पूर्ण वादों का बोलबाला नज़र आने लगे। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद बुरी
स्थिति होगी। उचित होगा कि इस सम्बन्ध में चुनाव आयोग स्वयं संज्ञान लेते हुए
घोषणापत्रों के कुछ नियम निर्धारित करे, जिससे घोषणापत्रों में व्याप्त हो चुकी
मुफ्त-संस्कृति पर अंकुश लगे। भारतीय लोकतंत्र की शुचिता और जनता के सार्थक हित के
लिए यह बेहद ज़रूरी है।