- पीयूष द्विवेदी भारत
भाजपा की
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आगामी विधानसभा चुनाव के संदर्भ में कहा गया है कि भाजपा
इन चुनावों में अवश्य जीत हासिल करेगी, लेकिन इसके लिए मेहनत की आवश्यकता है। साथ
ही, उन्होंने यह हिदायत भी दी कि पार्टी नेता अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट
न मांगें। इस बयान के गहरे और व्यापक मतलब हैं, जिन्हें समझने की आवश्यकता है।
दरअसल आज देश में परिवारवादी राजनीति अपने चरम पर दिख रही है। परिवारवादी राजनीति
की जनक कांग्रेस गांधी-नेहरु खानदान के
वारिस राहुल गांधी को अपना वारिस बनाने को बेताब नज़र आ रही है। राहुल नहीं, तो
पार्टी की नज़र में राहुल की बहन प्रियंका गाँधी ही दूसरा और अंतिम विकल्प हैं। फिलहाल पार्टी की अध्यक्षता राहुल और प्रियंका
की माँ सोनिया गांधी के पास है। दूसरी तरफ यूपी के समाजवादी कुनबे की परिवारवादी
राजनीति के विषय में तो अब कुछ कहने को शेष रह नहीं गया है। हालत यह है कि पद और
प्रभाव आदि को लेकर अभी इस कुनबे में जो उठापटक मची है, लोग समझ नहीं पा रहे कि
उसे राजनीतिक उठापटक कहें या पारिवारिक; क्योंकि जो परिवार के सदस्य हैं, वही
पार्टी के शीर्ष स्तरीय नेता भी हैं। ऐसे ही परिवारवादी राजनीति का विस्तार पंजाब,
महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों की भी कई एक पार्टियों में नज़र आता है।
हालांकि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा एक ऐसी पार्टी है जो परिवारवादी राजनीति से
मुक्त होने का दावा करती है और उसके संगठन को देखने पर उसके इस दावे में दम भी नज़र
आता है, मगर गाहे-बगाहे भाजपा पर भी यह आरोप लगते हैं कि इसमें भी पार्टी के कई बड़े
नेताओं के पारिवारिक सदस्यों को निचले स्तर पर ही सही जगह दी गयी है। एक हद तक यह
बात भी सही है। ऐसे में, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री मोदी का
पार्टी नेताओं से अपने परिवारजनों के लिए टिकट न मांगने की बात कहना दिखाता है कि
वे भाजपा पर गाहे-बगाहे लगने वाले इन आरोपों को लेकर भी बेहद गंभीर हैं और पार्टी
में परिवारवाद जैसी समस्या को छोटे स्तर पर भी पनपने नहीं देना चाहते। दरअसल
प्रधानमंत्री जिस ढंग का राजनीतिक जीवन खुद जीते आए हैं, उसमें परिवार और राजनीति
के बीचक बेहद आदर्श ढंग से अंतर रखा गया है।
गौरतलब है कि
प्रधानमंत्री मोदी खुद परिवार और राजनीति के बीच हमेशा से बेहद दूरी बनाकर चलते
रहे हैं। आज भी उनके साथ प्रधानमंत्री आवास में कोई परिवार का सदस्य नहीं रहता। वे
आज प्रधानमंत्री हैं, लेकिन उनके परिवार के सदस्य अत्यंत सामान्य ढंग से
मध्यमवर्गीय लोगों की तरह जीवनयापन कर रहे हैं। यहाँ तक कि परिवार के सदस्यों से प्रधानमंत्री कोई
सामान्य संपर्क भी नहीं करते। केवल अपने जन्मदिन तथा अन्य किसी विशेष अवसर पर वे
अपनी माँ से मिलने जाते हैं, जो कि उनके छोटे भाई पंकज मोदी के साथ गुजरात के
गांधीनगर में रहती हैं। बीते वर्ष उन्होंने सिर्फ अपनी माँ को प्रधानमंत्री आवास
में अपने पास बुलाया था, लगभग सप्ताह भर रुकने के बाद वे वापस गांधीनगर नरेंद्र
मोदी के भाई के पास वापस चली गई थीं, जो कि हाल ही में सूचना विभाग से सेवानिवृत्त
हुए हैं।
मोदी परिवार के अन्य
सदस्यों के कार्य आदि के सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि पिछले दिनों इंडिया टुडे
में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार उदय
माहुरकर के एक लेख के अनुसार, प्रधानमंत्री के सबसे बड़े भाई सोमभाई मोदी वडनगर में
वृद्धाश्रम चलाते हैं। मोदी के दूसरे बड़े भाई अमृत मोदी एक निजी क्षेत्र की कंपनी
से फिटर के पद से सेवानिवृत्त हैं और अहमदाबाद के घाटलोदिया में एक सामान्य से
मकान में रहते हैं। कहते हैं कि उस इलाके में लोग यह तो जानते हैं कि अमृत मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बड़े भाई हैं, लेकिन यह सिर्फ जानने तक ही सीमित है,
इसका कोई प्रभाव उनके जीवन पर नहीं पड़ता। ऐसे ही मोदी के छोटे भाई प्रह्लाद मोदी
गल्ले की एक दूकान चलते हैं और इसीसे सम्बंधित एक संगठन के अध्यक्ष भी हैं। इस
प्रकार स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी के परिवार के सदस्य सामान्य मध्यमवर्गीय
परिवारों की तरह अपना जीवन चला रहे हैं। उन्हें इस बात का कोई ध्यान नहीं कि उनके
परिवार का एक सदस्य आज इस देश का पूर्ण बहुमत से निर्वाचित प्रधानमंत्री है। न तो
प्रधानमंत्री मोदी उन्हें कुछ लाभ या सहयोग देते हैं और न ही उनकी मोदी से ऐसी कोई
अपेक्षा ही कभी सामने आयी है। ऐसा नहीं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद ही नरेंद्र मोदी
ने परिवार से इस प्रकार की दूरी बनायी है, गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी
उनके साथ परिवार का कोई सदस्य मुख्यमंत्री आवास में नहीं रहता था। तब भी बीच-बीच
में वैसे ही भेंट-मुलाकाते होती थीं, जैसे कि अब होती हैं।
समझना
मुश्किल नहीं है कि प्रधानमंत्री परिवार आदि से मुक्त जिस ढंग के राजनीतिक जीवन को
जी रहे हैं, उसीके नैतिक कसौटी पर अपनी पार्टी के नेताओं को कसते हुए ही उन्होंने
उनसे अपने पारिवारिक सदस्यों को के लिए टिकट न मांगने की बात कही है। साथ ही, कार्यकारिणी में उन्होंने राजनीतिक दलों
के चंदे में पारदर्शिता लाने पर भी जोर दिया। इससे पहले नोटबंदी
के पचास दिन पूरे होने के बाद गत वर्ष 31 दिसंबर को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन
में उन्होंने राजनीतिक शुचिता की दृष्टि से लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ
कराने के प्रश्न पर भी चर्चा की जरूरत बताई थी।
इन सभी उपर्युक्त बातों
के आलोक में विचार करें तो स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री की यह बातें वर्तमान
परिदृश्य में राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के प्रश्न को ही स्वर देने वाली हैं। संभव
है कि ये सब बातें किसी बड़े और भावी राजनीतिक सुधार से समबन्धित निर्णय की भूमिका
ही हों। बहरहाल, अब यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि ये बातें सिर्फ बातों तक सीमित रहेंगी।
अब तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में प्रधानमंत्री मोदी व उनकी
सरकार द्वारा राजनीतिक सुधार के सम्बन्ध में कुछ ठोस निर्णय भी लिए जाएंगे।
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