रविवार, 1 जनवरी 2017

पुस्तक समीक्षा : सच्ची भाषा में कच्ची कहानी [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
नयी हिंदी के लेखक के रूप में मशहूर सत्य व्यास का दूसरा उपन्यास ‘दिल्ली दरबार’ हाल ही में आया है। ये ऐसे युवाओं की कहानी है, जो अपने छोटे-से शहर से दिल्ली जैसे महानगर में पढ़ने के लिए आते हैं। इनमें से एक युवा है राहुल मिश्रा, जो कि उपन्यास का मुख्य पात्र है। राहुल मिश्रा की चारित्रिक विशेषताओं पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालते चलें तो ये उन युवाओं का प्रतिनिधित्व करता पात्र है, जो जीवन की वास्तविकताओं से बेपरवाह, सही-गलत को धता बताते हुए, अपने हिसाब से ज़िन्दगी को जीते हैं। राहुल मिश्रा के लिए ‘प्रेम’ का तात्पर्य आज के अधिकांश युवाओं की तरह ही देहाकर्षण तक सीमित है और कहीं भी लड़की दिखते ही उसके अंदर प्रेम कुलबुलाने लगता है। लगभग ऐसे ही लड़कों के लिए समाज में और स्वयं उनके घर-परिवार में भी आवारा, लोफर इत्यादि संज्ञा-विशेषणों का प्रयोग हम देखते रहते हैं। कहने तात्पर्य इतना है कि राहुल जैसे पात्र हमारे समाज में सहज ही उपलब्ध हैं।

दैनिक जागरण
बहरहाल, कहानी कुछ यूँ शुरू होती है कि दिल्ली पहुँचते ही स्वभावानुसार राहुल मिश्रा के दिल-दिमाग में अपने मकान-मालिक की लड़की परिधि जो लगभग-लगभग राहुल के मिजाज़ की ही है और प्रेम में धोखा खाकर एकदम बेचैन है, के प्रति प्रेम कुलबुलाने लगता है। जल्दी-ही दोनों की कुलबुलाहट बाहर भी आ जाती है और फिर इनका प्यार चार दिन में ही शोपिंग, गोलगप्पे से होते हुए बिस्तर तक पहुँच जाता है। परिधि के गुपचुप ढंग से राहुल के कमरे में आने और फिर इन दोनों के बीच प्रेम के रसिक-अध्यायों का सिलसिला चल पड़ता है। एक तरफ ये चलता है, तो दूसरी तरफ राहुल अपने कॉलेज की एक लड़की महिका के साथ भी ऐसा ही प्रेम-प्रसंग चलाने लगता है। यहाँ भी सारी प्यार-मोहब्बत घूम-फिरकर बिस्तर पर केन्द्रित नज़र आती है। दरअसल यह वर्तमान समय की वास्तविकता है कि आज अधिकांश युवाओं के बीच प्रेम के इतने ही मायने शेष रह गये हैं। खैर, इसी बीच अचानक खुलासा होता है कि परिधि प्रेग्नेंट है और यहाँ राहुल ऐसा डर जाता है कि उसे छोड़कर भागने की सोचने लगता है। यह भी आज के युवाओं के लिहाज से एकदम स्वाभाविक बात है। मगर, दोस्त की डांट-फटकार के बाद अंततः वो रुकता है और समस्या के समाधान के रूप में परिधि का गर्भपात करवा देता है। फिर बेहद नाटकीय ढंग से परिधि उससे और अधिक प्यार करने लगती है। राहुल में भी थोड़ा-बहुत बदलाव आ जाता है। इसके अलावा कहानी में अनेक नाटकीय कारनामे होते हैं, जिनमें हाईटेक तरीके से नक़ल करके राहुल के सरकारी नौकरी पाने, उसके नौकर द्वारा उसके मकान-मालिक के खाते से पैसे उड़ाने जैसे एक से बढ़कर एक विचित्र गड़बड़झाले होते हैं, जिनमें दोषी होते हुए भी राहुल सुपरहीरो की तरह बच निकलता है। इन्हीं विचित्रताओं के क्रम में अचानक ही कहानी का अंत भी आ जाता है और बेहद नाटकीय ढंग से राहुल-परिधि की शादी कराकर किस्से का निपटारा कर दिया जाता है।

अब गौर करें तो ये आज की किसी फिल्म की कहानी लगती है। कहानी के कथ्य में कुछ नया नहीं मिलता। कथानक के स्तर पर अनेक तकनिकी खामियाँ नज़र आती हैं। सवाल उठता है कि राहुल और परिधि आखिर किस सूनसान इलाके में रहते हैं कि उनके खुल्लमखुल्ला प्रेम-प्रसंग की भनक किसीको नहीं लगती ? राहुल एक से बढ़कर एक तकनिकी कारनामे करने का प्रशिक्षण कहाँ से प्राप्त किया है ? ये कहना कि यह सब वो अपने तेज़ दिमाग से कर लेता है, बेहद कमज़ोर तर्क कहलाएगा। तेज़ से तेज़ दिमाग की भी सीमा होती है। तिसपर राहुल का चरित्र तो बेहद अस्थिर मानसिकता वाला है, जबकि उसके कारनामे तकनीकी क्षेत्र के पेशेवर लोगों जैसे प्रतीत होते हैं। सवाल यह भी खड़ा होता है कि गर्भावस्था में जिस परिधि को छोड़कर राहुल पलायनवादी बनने लगता है और फिर आखिर उसका गर्भपात तक करवा देता है, वो परिधि उसे किस कारण से प्रेम करती रहती है ? बल्कि गर्भपात के बाद तो उसका प्यार और अधिक बढ़ जाता है। राहुल परिधि से लेकर उसके पिता तक को धोखा देता है और उन धोखों को छुपाने में कामयाब होते हुए अंत में उसका चरित्र विजेता की तरह सामने आता है। यह सही है कि अनैतिक रास्तों से सफलता अर्जित की जा सकती है, परन्तु उनका महिमामंडन करना कहाँ तक उचित है ? राहुल जैसे अनैतिक चरित्रों को विजेता की तरह गढ़कर लेखक क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? यह चीजें इस कमजोर कथानक को हल्का भी बना देती हैं। और उपन्यास का अंत भी बेहद अतार्किक और जल्दबाजी भरा प्रतीत होता है।

बहरहाल, कथानक की इन अनेक कमियों के बावजूद यह भी एक सच्चाई है कि वह पाठक को एक हद तक बाँधे रखने में सक्षम है और इसका मुख्य कारण उसकी प्रस्तुतिकरण की भाषा-शैली है। सत्य व्यास की भाषा भी नयी हिंदी के ज्यादातर लेखकों की तरह ताज़गी लिये हुए है। हालांकि अन्य नयी हिंदी लेखकों से इतर सत्य का झुकाव अंग्रेजी की बजाय देसज शब्दों की तरफ अधिक नज़र आता है। पात्रों के संवादों की भाषा ने दिल्ली के परिवेश को काफी हद तक जीवंत कर दिया है। राहुल का मकान मालिक जिस भाषा में बोलता है, वो दिल्ली से सटे नोएडा के ग्रामीण इलाकों में खूब प्रयोग होने वाली ‘गुर्जरी’ बोली के निकट प्रतीत होती है। ‘बेक’, ‘छड़े’, ‘घणी’ जैसे शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग इस भाषा को परिवेशानुकूल और सहज बनाता है। वहीँ दिल्ली की हाई सोसाइटी की महिका जो भाषा बोलती है, वो उस सोसाइटी के लिए सटीक और वास्तविक है। राहुल और उसके दोस्त के बीच जिस भाषा में संवाद अदायगी होती है, उसका अलग मिजाज़ है और उनके चरित्र के हिसाब से एकदम वास्तविक प्रतीत होती है। साथ ही, कहानी के वर्णन के लिए लेखक ने जो भाषा-शैली अपनाई है, वो भी पूरी ताज़गी और रवानी से भरपूर है। पढ़ते हुए कहीं से भी अटकाव जैसा कुछ महसूस नहीं होता। पाठक एक धार में बहता चला जाता है। ये भाषा उसे अपनी-सी लगती है। उदाहरण के तौर पर कहानी का ये आरंभिक अंश देखें – ‘उसरोज़ दो घटनाएं हुईं। दिन में मुहल्ले वालों ने शुक्लाजी की टीवी पर रामायण देखा था और रात में महाभारत हो गयी। दिन में सीताजी अपनी कुटिया से गायब हुईं थीं और रात में गीताजी (शुक्लाजी की बेटी) अपनी खटिया से। सीताजी जब गायब हुई थीं तो रावण के पुष्पक विमान पर नज़र आयीं। गीताजी जब गायब हुईं तो पुजारी जी के मचान पर नज़र आयीं।’ हम देख सकते हैं कि यहाँ भाषा में कैसी व्यंजनापूर्ण रवानगी और आकर्षण है। कहानी के वर्णन में भाषा का ऐसा ही व्यंजनात्मक प्रयोग लेखक ने लगभग-लगभग पूरे उपन्यास में बनाए रखा है। ये कारण है कि कमज़ोर और बासी कथानक के बावज़ूद कहानी पाठक को बाँधने में सक्षम नज़र आती है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सच्ची भाषा, अच्छी शैली, वास्तविक चरित्रों और परिवेश के बावजूद यह उपन्यास कमज़ोर कथानक के कारण अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता। दरअसल नयी हिंदी के लेखकों के लिए कथानक प्रायः एक समस्या के रूप में दृष्टिगत हो रहा  है। हाल ही में आयी दिव्य प्रकाश दुबे की मुसाफ़िर कैफे में भी कुछ हद तक ये समस्या दिखी थी। नयी हिंदी लेखकों को यह स्वीकारना होगा कि भाषा-शैली उनकी ताक़त है, तो कहीं न कहीं कथानक कमज़ोरी भी है। इसपर विचार करने की आवश्यकता है। अच्छा हो कि नयी हिंदी में भी कुछ व्यापक उद्देश्यों से परिपूर्ण रचनाएँ आएँ। इसके कथा-क्षेत्र का विस्तार हो। इससे न केवल ये ताज़गी भरी नयी हिंदी बेहतर रचनाओं से समृद्ध होगी, बल्कि इसे ठोस स्थायित्व भी मिलेगा।

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