रविवार, 25 नवंबर 2018

26/11 के बाद सुरक्षा को लेकर कितनी बदली तस्वीर [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

26 नवम्बर, 2008 की तारीख भारतीय इतिहास में एक ऐसे नासूर की तरह है, जिसकी टीस एक दशक गुजर जाने के बाद भी बदस्तूर बनी हुई है। यही वो तारीख है जब बड़े-छोटे अनेक आतंकी हमलों से दो-चार होते रहे भारत ने अपने इतिहास का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला झेला था। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आतंकियों के निशाने पर रही थी। इस हमले में 160 से ज्यादा लोग मारे गए और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। आर्थिक नुकसान अलग हुआ। हमले को अंजाम देने वाले दस आतंकियों में से नौ तो मार गिराए गए, जबकि एक हमलावर अजमल आमिर कसाब को जिन्दा पकड़ने में कामयाबी मिली। 26/11 के हमले को आज दस साल हो गए हैं, लेकिन उसकी याद  आज भी लोगों के दिलों में दहशत भर देती है।

इस आतंकी हमले ने तत्कालीन संप्रग सरकार के खिलाफ लोगों में भारी आक्रोश भर दिया। पहले ही छोटे-बड़े आतंकी हमलों से भय के साए में जी रही जनता के मन में इस भीषण हमले के बाद सवाल उठने लगे कि जब ताज और ओबेरॉय होटल जैसे वीआईपी स्थान सुरक्षित नहीं हैं, तो सड़क पर चलता एक सामान्य व्यक्ति सुरक्षित कैसे हो सकता है? जनाक्रोश को देखते हुए तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल का इस्तीफा हुआ और पी. चिदंबरम नए गृहमंत्री बने। सुरक्षा पुख्ता करने को लेकर भी बड़े-बड़े दावे किए गए। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का गठन हुआ। उम्मीद जगी कि अब देश में आतंकी हमलों पर लगाम लगेगी, लेकिन आज हम सकते हैं कि ये उम्मीद बस उम्मीद बनकर ही रह गयी है।

क्या सबक लिया हमने?
यह ठीक है कि मुबई हमले के बाद देश में फिर वैसा कोई बड़ा हमला नहीं हुआ, लेकिन सीमित प्रभाव वाली आतंकी वारदातें होती रही हैं। विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों को आतंकी निशाना बना चुके हैं। गुरदासपुर, पठानकोट और उड़ी जैसी अलग-अलग तरह की जगहों पर आतंकी हमले हो चुके हैं। पठानकोट एयरबेस और उड़ी में सेना पर हुए हमले तो निश्चित तौर पर बड़ी गंभीर चिंता पैदा करते हैं। जिन जवानों पर देश की सुरक्षा का दायित्व है, यदि उनके ठिकानों पर तक आतंकी इस तरह से हमले कर ले रहे तो इसके बाद यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध अब भी हमारी तैयारी पूरी नहीं है।

26/11 के हमलों के बाद पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई की निगरानी में सुरक्षा क्षेत्र की खामियों को दुरुस्त करने का काम हुआ था। बीबीसी पर प्रकाशित एक खबर के अनुसार नवंबर, 2014 में एक अख़बार से उन्हीं जी. के. पिल्लई ने कहा था कि  "कुछ प्रगति तो हुई है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत दूसरे 26/11 को रोकने में अभी सक्षम नहीं है। मैं कहूंगा कि हम 2008 के मुक़ाबले बस 40 फ़ीसद बेहतर तैयार हैं। सबसे बड़ी दिक़्क़त पुलिस की भारी कमी और पुलिसकर्मियों की अच्छी ट्रेनिंग होना है। इससे पुलिस तंत्र कमज़ोर होता है, जिसके कंधों पर हमले को सबसे पहले रोकने और उसका जवाब देने की ज़िम्मेदारी होती है।"

गौर करें तो मुंबई हमले ने हमारी सुरक्षा व्यवस्था की जिन खामियों को उजागर किया, उनमें दो बड़ी खामियां सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल का अभाव और पुलिस के पास अत्याधुनिक आयुधों का होना थीं। केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल होना मुंबई हमले का एक बड़ा कारण बना। 2014 में आई एक अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया था कि मुंबई हमलाख़ुफ़िया तंत्र के इतिहास में सर्वाधिक घातक चूकों में से एक है। तीन देशों अमेरिका, ब्रिटेन और भारत की खुफिया एजेंसियां अपने हाईटेक निगरानी और अन्य उपकरणों द्वारा जुटाई गयी सभी जानकारियों को एकसाथ रखने में नाकाम रहीं, जिनसे आतंकी हमले को रोका जा सकता था।

कहने की जरूरत नहीं कि यह तत्कालीन संप्रग सरकार की बड़ी नाकामी थी कि उसने विदेशी सुरक्षा एजेंसियों को भरोसे में लेकर भारतीय एजेंसियों से सूचनाएं साझा करने के लिए तैयार नहीं किया। हालांकि वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाएं हैं, जिनमें से एक प्रमुख कदम है मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) को सक्रिय और प्रभावी बनाना। मैक में 24 सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारी शामिल हैं, जो बैठकें कर एकदूसरे से सूचनाएं साझा करते हैं। कई स्रोतों से ऐसी खबरें आती रही हैं कि इस संस्थान की सक्रियता से आतंकी हमलों को रोकने में बड़ी मदद मिली है। हालांकि पठानकोट हमले में सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी सामने आना दिखाता है कि अभी इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। अब बात पुलिस बलों के आधुनिकीकरण की तो यह मांग लम्बे समय से हो रही है और जब-तक नेताओं द्वारा इसकी बात भी की जाती है, लेकिन इस दिशा में अबतक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। हालांकि मुंबई हमले के बाद महानगरों के पुलिस बलों तक कुछ हद तक आधुनिक हथियार जरूर पहुंचे हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हमारी पुलिस 26/11 जैसे किसी हमले से निपटने में सक्षम हो गयी है अभी इस दिशा में पुलिस को काफी तैयारी की जरूरत है।  

पीड़ितों को न्याय का प्रश्न
मुंबई हमले के दस हमलावरों में से एक जिन्दा पकड़ा गया था, जिसे हमले के लगभग चार साल बाद 21 नवम्बर, 2012 को मुंबई की यरवडा जेल में फांसी दे दी गयी थी। लेकिन पाकिस्तान की जमीन पर बैठे इस हमले के असली मास्टरमाइंड लखवी और हाफिज सईद जबतक आजाद हैं, तब तक इस मामले में न्याय को पूरा नहीं माना जा सकता है। इस हमले में जिन्दा पकड़ा गया आतंकी कसाब के बयान से लेकर अनगिनत सबूत इस बात की तस्दीक कर चुके हैं कि मुंबई हमले की साज़िश पाकिस्तान की जमीन पर रची गयी थी। इसके अलावा अमेरिकी हिरासत में लेकिन भारत द्वारा कई-कई बार सबूत सौंपे जाने के बावजूद पाकिस्तान ने अभी तक इन गुनाहगारों पर कोई कार्यवाही नहीं की है।

हाल ही में आई खबर के मुताबिक़ पाकिस्तान अपनी अदालत में चल रहे मुंबई हमले के मुकदमों को लेकर तरह-तरह के अड़ंगे लगा रहा है। ताजा मामला हमले से संबंधित 27 भारतीय गवाहों का है जिन्हें पाक कोर्ट अपने यहां पेश होने को कह रही है। इस्लामाबाद ने इस साल जनवरी में नई दिल्ली से इन गवाहों को भेजने को कहा था, लेकिन भारत की दलील है कि पाक इनकी गवाही के आड़ में धूल झोंक रहा है। यह बिलकुल ठीक बात है कि पाकिस्तान की मंशा किसी तरह की कार्यवाही करने की नहीं है, अन्यथा अमेरिका द्वारा गिरफ्तार आतंकी डेविड हेडली के बयान ही सम्बंधित आरोपियों पर कार्यवाही करने के लिए काफी हैं। लेकिन पाकिस्तान पिछले दशक भर से इस मामले को टरकाता रहा है। जब बहुत दबाव बनता है, तो वो कोई सांकेतिक कार्यवाही करके अपनी छवि सुधारने लगता है। जैसे कि इस साल की शुरुआत में पाकिस्तान द्वारा हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा को प्रतिबंधित किया गया था। इस प्रतिबन्ध का हाफिज सईद पर कोई प्रभाव नहीं दिखा, उल्टे वो पाकिस्तान के लोकसभा चुनाव में ताल ठोंकने उतर पड़ा। अब जो खबर रही है, उसके मुताबिक़ पाकिस्तान ने जमात-उद-दावा से प्रतिबन्ध हटा दिया है। जाहिर है, 26/11 मामले में पाकिस्तान की समूची कार्यवाही दिखावा भर है। हालांकि संतोषजनक बात यह है कि मौजूदा सरकार की कूटनीतियों के कारण आज विश्व बिरादरी में आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान का दोहरा चेहरा बेनकाब होता जा रहा है, जिसकी एक बानगी अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के सुरक्षा खर्च हो रही कटौती है। इसके अलावा उसे अलग-थलग करने में भी सरकार कामयाब नजर रही है। एशिया में इस वक्त चीन के अलावा कोई ऐसा देश नहीं दिखता जो पाकिस्तान के साथ खड़ा होने को तैयार हो। लेकिन इसके बावजूद यह सच्चाई बनी हुई है कि मुंबई हमले के असली दोषी आज भी पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहे हैं। चाहें जिस तरीके से हो, उन्हें सज़ा देने की दिशा में सरकार को गंभीर होना चाहिए।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि मुंबई हमले के दस साल पूरे होने के बाद बदलाव को लेकर स्थिति मिली-जुली है। कुछ बदला है और बहुत कुछ बदलना अभी बाकी है। आतंकवाद से मुकाबले का सबसे अचूक उपाय अपनी सुरक्षा तैयारियों को मजबूत रखना ही है।