मंगलवार, 28 जनवरी 2014

गणतंत्र के साढ़े छः दशक [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
आज हमे आजाद हुए लगभग साढ़े छः दशक बीत चुके हैं और हम अपना ६४ वा गणतंत्र मना रहे हैं ! ऐसे में एक स्वतंत्र गणराज्य के गणतंत्र दिवस के अवसर पर यह जरूरी है कि उसके आजाद एवं लोकतांत्रिक इतिहास की उपलब्धियों और विफलताओं का मूल्यांकन किया जाय ! आजादी के बाद दर्जनों पंचवर्षीय योजनाओं के साथ बढ़ते हुए अगर हमने बहुत कुछ पाया है तो कई मोर्चों पर हम बुरी तरह असफल भी रहे  है ! इसी संदर्भ में अगर हम आजादी के इन साढ़ें छः दशकों में भारत की सफलताओं-विफलताओं के इतिहास पर एक  नजर डालें तो थोड़े असंतुलन के साथ ये दोनों ही चीजें हमें कहीं ना कहीं देखने को मिलती हैं ! कुछ प्रमुख सफलताओं से बात शुरू करें तो आजादी के बाद हमारी सबसे बड़ी सफलता यही रही कि हमने अविलम्ब एक मजबूत और आदर्श लोकतंत्र की स्थापना की तथा अपने संविधान को भी बड़ी शीघ्रता से आत्मसात कर लिया ! इस विषय में कहा जा सकता है कि भारतीय जनमानस अपने संविधान से जितना शीघ्र जुड़ा, उतना गहरा और जल्दी में हुआ जुडाव  बहुत कम देशों में देखने को मिला है ! उदाहरण के तौर पर ऐसे देशों की कोई कमी नहीं है जहाँ हर वर्ष एक नया संविधान बनता और जनता द्वारा खारिज होता है ! हमारी दूसरी महत्वपूर्ण सफलता है कि आजादी के बाद चार-चार युद्धों तथा तमाम अन्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को झेलने के बावजूद हमने न सिर्फ उनसे अपनी मातृभूमि को सुरक्षित रखा, बल्कि कभी तेज तो कभी धीमी गति से ही सही निरंतर प्रगतिशील भी रहे ! इसके लिए पहला श्रेय जाता है देश की ढाल बनकर सीमा पर खड़े हमारे उन बहादुर जवानों को जिनके भरोसे देश दुश्मनों के हर षडयंत्र से निर्भय होकर प्रगति की ओर उन्मुख रहता है ! आजादी के बाद की एक और बड़ी उपलब्धि पर नजर डालें तो विश्व समुदाय में पूर्व की अपेक्षा आज हर क्षेत्र में भारत ने अपनी एक विशेष साख कायम की है ! फिर चाहें वो आर्थिक क्षेत्र हो या सामाजिक, कला हो या विज्ञान, खेल-कूद हो या शिक्षा-दीक्षा, इन सब में तथा और भी बहुत सारे क्षेत्रों में अब समूची दुनिया में भारत का झंडा लहराने लगा है ! स्थिति ये है कि जिन मुल्कों के भरोसे कभी भारत की अर्थव्यवस्था चलती थी, आज वो मुल्क भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए इच्छुक हैं ! कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि आज भारत भले ही विकसित राष्ट्र न हो, पर वो  एक सक्षम और समर्थ राष्ट्र अवश्य बन चुका है !    
  हालाकि उपलब्धियों के फेहरिश्त की गुमान में हम अपनी तमाम खामियों से मुह नहीं मोड़ सकते ! उन तमाम प्रमुख बिंदुओं जिनपर आजादी के बाद से ही भारत काफी हद तक विफल रहा है, पर भी विचार करना जरूरी है ! वर्तमान में अगर देखा जाय तो भारत भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, स्वास्थ्य सहित कई आंतरिक समस्याओं का समाधान खोज पाने में अभी तक नाकाम रहा है  ! आंकड़ों की माने तो भ्रष्टाचार के मामले में भारत धीरे-धीरे दुनिया के महाभ्रष्ट देशों की सूची में शुमार होने की तरफ बढ़ रहा है ! एक सम्मानित संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक में १८६ देशों में भारत को ९४ वे स्थान पर रखा गया है ! ये दुखद है कि इस मामले में भारत की स्थिति श्रीलंका जैसे देश जो कि भारत के सामने कहीं नही ठहरता, से भी बदतर है ! आजादी के बाद से ही भारत में भ्रष्टाचार की समस्या बहुत छोटे रूप में धीरे-धीरे पनपने लगी थी जो कि आज अपने चरम तक पहुँच चुकी है ! भारत की विफलता के कई अन्य  बिंदु भी इस भ्रष्टाचार से ही जुड़े हुए हैं  ! भ्रष्टाचार ही वो  कारण है जिससे कि आज भारतीय राजनीति का नैतिक अवमूल्यन अपने चरम पर पहुँच चुका है ! आज भ्रष्टाचार के कीचड़ में लगभग पूरा राजनीतिक महकमा आकंठ डूब चुका है ! ऐसे नेता गिने-चुने हैं जिनपर भ्रष्टाचार का कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष आरोप न हो ! अपने भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए सियासी  आकाओं द्वारा हर स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के कारण आज लोक और तंत्र के बीच अविश्वास की एक गहरी खाई सी बन गई है ! लोक और तंत्र के बीच की इस खाई ने यह भय पैदा कर दिया है कि कहीं जनता और सत्ता के बीच संघर्ष की स्थिति न आ जाय ! जनता के बीच से लगातार सत्ता-विरोधी आवाजें उठने लगी हैं ! इस संदर्भ में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि भ्रष्टाचार का ये रोग सबसे अधिक उन्हीको लगा है जिनके ऊपर इसके निदान का दायित्व है ! इसके अतिरिक्त आतंरिक सुरक्षा के मसले पर भी भारत पूरी तरह से विफल रहा है ! इस स्तर पर भारत की विफलता का सर्वश्रेष्ठ परिचायक भारतीय सुरक्षा व्यवस्था के लिए सिरदर्द बन चुके नक्सली हैं ! इससे कत्तई इंकार नही किया जा सकता कि नक्सलियों के उदय के शुरुआती दौर में भारत सरकार द्वारा उनके प्रति उदारवादी रुख अपनाने के कारण ही आज वो इतने ताकतवर हो चुके हैं कि हमारे विशेष पुलिस बलों के लिए भी उन्हें रोकना आसान नही पड़ रहा है ! इन सबके बाद जिस बिंदु पर हम सर्वाधिक विफल हुए हैं वो है सांस्कृतिक संरक्षण ! प्रगतिशीलता के अन्धोत्साह के कारण युवाओं में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति बढ़ते झुकाव तथा संप्रेषण के तमाम तकनीकी माध्यमो के द्वारा गलत तत्वों से जुड़ाव के कारण आज भारतीय संस्कृति पतन की ओर अग्रसर है ! आलम ये है कि रिश्तों की मर्यादाओं पर मानसिक विकृति हावी हो रही है जोकि निश्चित ही बड़ी चिंता का विषय है ! इस विषय में समझ न आने वाली बात ये है कि जिस भारतीय संस्कृति की समूचे विश्व में सराहना होती है, उसे अपने ही लोग कैसे और क्यों भूलते जा रहे हैं !
  बहरहाल, उपर्युक्त सभी सफलताओं-विफलताओं के बावजूद संतोष की बात ये है कि जैसे-तैसे ही सही, हमने अपनी आजादी को न सिर्फ सुरक्षित रखा है बल्कि अपने लोकतंत्र को स्थिर रखते हुए विश्व बिरादरी में ससम्मान प्रतिष्ठित भी हुए हैं ! हाँ, अब जरूरत इस बात की है कि हमारे सियासी हुक्मरान हमारी आजादी व गणतंत्र के इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए अपने चरित्र को भी उस दौर के नेताओं सा बनाने का प्रयास करें ! अगर वो उस दौर के नेताओं का आंशिक चरित्र भी अपने में ला पाते हैं, तो तय मानिए कि देश अब की तुलना में दुगनी-तिगुनी रफ़्तार से प्रगतिशीलता को प्राप्त होगा ! साथ ही, सही मायने में यही हमारे उन वीर सपूतों, जिनके कारण आज ये आजादी और लोकतंत्र है, के लिए सच्ची श्रद्धांजली भी होगी !  

रविवार, 19 जनवरी 2014

तम्बाकू के विरोधाभास [जनसत्ता रविवारी, आईनेक्स्ट इंदौर, दैनिक जागरण राष्ट्रीय, कल्पतरु एक्सप्रेस और प्रजातंत्र लाइव में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
किसी भी राष्ट्र का प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ के नागरिक शारीरिक-मानसिक रूप से कितने स्वस्थ और सुदृढ़ हैं ! ये सर्वस्वीकार्य है कि जिस राष्ट्र के लोग जितना अधिक स्वस्थ और सुदृढ़ रहेंगे, वो राष्ट्र उतनी ही तीव्रता से प्रगति को प्राप्त होगा ! लोगों के स्वस्थ  रहने के लिए मुख्य रूप से तीन चीजें आवश्यक होती हैं ! पौष्टिक व पर्याप्त आहार, समुचित चिकित्सा व्यवस्था और नुकसानदेह चीजों से दूरी ! इनमे से प्रथम दो चीजों की समुचित व्यवस्था करने का दायित्व तो मुख्यतः सरकार का होता है, पर अंतिम बात के लिए सरकार के साथ-साथ देश के नागरिकों को भी सजग और सचेत रहने की जरूरत होती है ! नागरिकों के लिए आवश्यक होता है कि वो ऐसे अवशिष्ट तत्वों के सेवन से बचें जिनका उनके शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो ! ऐसे ही अवशिष्ट तत्वों में से एक है तम्बाकू ! ये एक मादक और उत्तेजक पदार्थ है ! बात अगर इसके निर्माण की करें तो एक विशेष प्रजाति के पौधे (निकोशियाना) के पत्तों को सुखाकर तम्बाकू बनाया जाता है जिसका कि उपयोग तमाम तरह से नशा करने के लिए होता है ! भारत में तम्बाकू का पौधा सर्वप्रथम पुर्तगालियों द्वारा लाया गया था और बस तभी से इसकी खेती का चलन शुरू हो गया ! दुनिया में सर्वाधिक तम्बाकू उत्पादन के मामले में अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर भारत का ही नाम आता है ! पर यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने उत्पादन के एक बड़े हिस्से की खपत नशाखोरी के कारण देश में ही हो जाती है और निर्यात के लिए काफी कम तम्बाकू बचता है ! कोई गुटके, खैनी आदि के रूप में तम्बाकू चबाता है तो कोई इसे बीड़ी-सिगरेट के रूप में लेता है ! हर नशे की ही तरह तम्बाकू का भी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है ! यह व्यक्ति के स्वास्थ्य पर धीमे जहर की तरह असर करता है ! आंकड़े की माने तो देश में हर साल लगभग दस लाख मौतें तम्बाकूजनित बीमारियों के कारण होती हैं तथा ६.१ प्रतिशत लोग तम्बाकू के सेवन के कारण तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त अस्वस्थ जीवन जीने को मजबूर होते हैं ! पर बावजूद इन सबके अगर भारत में तम्बाकू उत्पादन पूरी तरह से वैध है तो इसके लिए कारण है कि इसके व्यापार से भारत सरकार को राजस्व का भारी लाभ होता है ! इस भारी राजस्व लाभ के कारण ही भारत सरकार द्वारा जहाँ एक तरफ तम्बाकू की खेती को वैध घोषित किया गया है, वहीँ दूसरी तरफ तम्बाकू के नशे के उन्मूलन के लिए तमाम कार्यक्रम व क़ानून भी बनाए गए हैं ! इसी संबंध में सन २००८ में सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान को वर्जित करने सम्बन्धी क़ानून बनाया गया !
दैनिक जागरण
आईनेक्स्ट इंदौर 

इसके अतिरिक्त विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा २००२ में तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र की स्थापना भी की गई जिसका उद्देश्य लोगों को तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रेरित करना व तम्बाकू छोड़ने के उपाय बताना था ! धीरे-धीरे ऐसे और भी कई केन्द्र खोले गए और इन्होने काफी अच्छे ढंग से अपना काम भी किया ! तम्बाकू नशा उन्मूलन के लिए सरकार के इन कार्यक्रमों व कानूनों आदि के कारण आज भारत में तम्बाकू का नशा करने वाले लोगों की संख्या में पहले की अपेक्षा काफी कमी आयी है, पर बावजूद इसके अब भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा तम्बाकू के नशे की चपेट में है !
कल्पतरु एक्सप्रेस
   एक आंकड़े के मुताबिक देश में १५ साल से ऊपर की आयु के लगभग ३५ प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में तम्बाकू का सेवन करते हैं ! इनमे से २१ प्रतिशत लोग गुटका आदि के रूप में तम्बाकू चबाते हैं, जबकि बाकी लोग बीड़ी-सिगरेट आदि के द्वारा तम्बाकू का सेवन करते हैं ! हालांकि बीड़ी-सिगरेट का सेवन करने वाले लोगों की संख्या में पहले की तुलना में काफी गिरावट आयी है, पर फिर भी आज देश के लगभग २६ प्रतिशत लोग बीड़ी-सिगरेट आदि का नशा  करते हैं जिनमे कि ३ प्रतिशत महिलाऐं भी हैं ! शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा तम्बाकू का अधिक सेवन  ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है ! ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ ५७ प्रतिशत पुरुष तम्बाकू का सेवन करते हैं, वहीँ १९ प्रतिशत महिलाऐं भी तम्बाकू का नशा करती हैं ! अगर विचार करें तो शहरी लोगों की अपेक्षा ग्रामीण लोगों के तम्बाकू   का अधिक सेवन करने के लिए मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य नशा सामग्रियों की अपेक्षा इसका सहजता से उपलब्ध हो जाना है ! अब चूंकि, शहरी क्षेत्रों में तो नशे के लिए लोगों को विभिन्न प्रकार की शराबों समेत कई तरह की ड्रग्स आदि बड़े आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, इसलिए वो तम्बाकू को अधिक तवज्जो नही देते हैं ! जबकि ग्रामीण इलाकों में तम्बाकू ही एकमात्र ऐसी सामग्री है जो नशे के लिए आसानी से मिल सकती है ! ग्रामीण इलाकों के बड़े बाजारों से लेकर पंसेरी की दुकान तक हर जगह तम्बाकू मौजूद होती है ! तम्बाकू की इस सहज उपलब्धता के कारण ही ग्रामीण लोगों में तम्बाकू का नशा शहरी लोगों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है ! पर इन सब बातों के ठीक उलट भारत सरकार के तम्बाकू नशा उन्मूलन सम्बन्धी कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा अधिकाधिक रूप से शहरों में चलाए जाते हैं जबकि इनकी असल जरूरत ग्रामीण क्षेत्रों में है ! साफ़ है कि सरकार द्वारा इस समस्या का ठीक ढंग से अध्ययन किए बिना ही समाधान बनाया और लागू किया गया जिससे आज स्थिति ये हो गई है कि रोग कहीं और है और निदान कहीं और हो रहा है ! ऐसे में अब सवाल ये उठता है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों पर सरकार  के इस अनदेखेपन के होते हुए इस देश का पूरी तरह से तम्बाकू के नशे से मुक्त हो पाना संभव है ?
   एक तरफ तम्बाकू उद्योग से जहाँ देश को राजस्व की भारी आमद होती है, वही इससे बड़ी तादाद में लोगों को रोजगार भी मिला है ! ऐसे में तम्बाकू नशा मुक्ति के लिए जल्दबाजी और उत्तेजना में इसकी खेती पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करना, किसी लिहाज से उचित नही है ! लेकिन सरकार को इस बात का एकबार पुनः अवश्य अध्ययन करना चाहिए कि तम्बाकू की खेती से होने वाले राजस्व लाभ और उसके नशे के रोकथाम पर होने वाले खर्च के बीच कितना अंतर है ! इसके बाद जो तथ्य सामने आएं उनके आधार पर ये तय होना चाहिए  कि तम्बाकू की खेती कितनी लाभकारी है और कितनी नुकसानदेह तथा इसपर प्रतिबन्ध लगना चाहिए या नही ! इसके अलावा सरकार को चाहिए कि वो अपने  तम्बाकू नशा मुक्ति कार्यक्रमों का गांवों तक विस्तार भी करे जिससे ग्रामीण लोगों को भी तम्बाकू से मुक्त होने में सहायता मिले ! अगर सरकार द्वारा इन सब चीजों पर सही ढंग से अमल किया जाए तो इसमे कोई दोराय नही कि आने वाले समय में हम तम्बाकू के नशे से पूरी तरह मुक्त राष्ट्र होंगे ! 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

देवयानी प्रकरण पर बेजा हंगामा [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
आख़िरकार भारतीय राजनयिक देवयानी खोब्रागड़े अपनी गिरफ़्तारी पर मचे भारी विवाद के बाद अमेरिकी न्यायालय से ढाई लाख डॉलर के बांड पर रिहा होकर भारत लौट ही आईं ! दरअसल, इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब देवयानी को वीजा धोखाधड़ी और अपनी नौकरानी सुनीता रिचर्ड का आर्थिक शोषण करने के आरोप में अमेरिकी पुलिस द्वारा न सिर्फ गिरफ्तार किया गया बल्कि उनके साथ काफी अभद्र व्यवहार भी किया गया ! भारत सरकार द्वारा अपने राजनयिक के प्रति अमेरिका के इस आचरण पर अबतक की सबसे कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए देश में अमेरिकी राजनयिकों को दी गईं तमाम विशेष सुविधाएँ वापस ले लीं गई ! भारत सरकार का कहना था कि अमेरिका देवयानी पर लगे आरोपों को वापस ले और उनके प्रति अमेरिकी अधिकारियों की अभद्रता के लिए माफ़ी मांगे ! लेकिन अमेरिका पर भारत की इन बातों का कोई असर नही पड़ा और वो कानूनी प्रक्रिया का हवाला देते हुए अपने रुख पर कायम रहा ! अब अगर इस पूरे घटनाक्रम पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि इस मामले को तिल का ताड़ बनाने के लिए जितना दोषी अमेरिका है, उससे कुछ अधिक ही दोषी भारत भी है ! अमेरिका की गलती ये है कि उसने देवयानी के साथ अमेरिकी अधिकारियों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी नही मांगी और अपनी बात पर अड़ियल रुख अपनाए रहा ! लेकिन भारत ने इससे कही बड़ी गलती ये की कि उसने इस पूरे मामले को ही मुद्दा बना दिया और आरोप वापस लेने की बेहद बचकानी मांग अमेरिका के सामने रख दी ! भारत के लिए उचित होता कि वो सिर्फ अमेरिकी अधिकारियों के दुर्व्यवहार को मुद्दा बनाकर माफ़ी के लिए अमेरिका पर दबाव बनाता, न कि इस पूरी कानूनी प्रक्रिया को ही गलत ठहराते हुए मामला वापस लेने की बात कहता ! भारत द्वारा मामला वापस लेने की मांग के कारण दुनिया में भारत के प्रति ‘क़ानून को नही मानने’ का जो संदेश गया है वो भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र की वैश्विक छवि के लिए किसी लिहाज से उचित नही है !

   उपर्युक्त बातों के बाद अब एक नज़र अगर देवयानी पर लगे आरोपों और उनसे जुड़े कुछ पहलुओं पर डालें तो यहाँ भी हमें भारत का ही पक्ष कमजोर दिखाई देता है ! पहली बात कि न्यूयार्क पुलिस द्वारा अगर देवयानी को गिरफ्तार किया गया तो जरूर किन्ही साक्ष्यों के पर ही किया गया होगा ! वैसे भी, भारत सरकार के पास इस बात का कोई आधार व प्रमाण नही कि देवयानी निर्दोष हैं या वो धांधली नही कर सकतीं ! बल्कि, देश के जाने-माने आदर्श घोटाले में देवयानी के भी खिलाफ गैरकानूनी तरीके से फ़्लैट लेने का मामला है ! ये देखते हुए इस बात को बिना किसी आधार के ये स्वीकार नही किया जा सकता कि देवयानी ने अमेरिका में भी फर्जीवाड़ा नही किया होगा ! अतः आदर्श स्थिति तो ये होती कि भारत देवयानी को बरी  करने की मांग से पहले अमेरिका से वो साक्ष्य लेकर उनकी सत्यता का अध्ययन किया होता जिनके आधार पर देवयानी पर आरोप लगे हैं ! साक्ष्यों का अध्ययन करने के बाद जो भी चीजें सामने आतीं उनके आधार पर अमेरिका के सामने भारत को अपनी बात रखनी चाहिए थी ! अगर भारत ऐसा करता तो संभवतः इस मामले में उसे दुनिया के कुछ और देशों से भी नैतिक आधार पर समर्थन मिल गया होता ! पर दुखद कि भारत ने ऐसा कुछ भी नही किया और अतिउत्साह में अमेरिका के प्रति अनावश्यक सख्ती दिखाने लगा ! इसके अलावा एक तथ्य ये भी है कि देवयानी खोब्रागडे पर जिस नौकरानी के आर्थिक शोषण का आरोप लगा है, वो भी भारतीय ही है ! लिहाजा नियम से तो भारत सरकार का उस नौकरानी की हितों की रक्षा के प्रति भी दायित्व होना चाहिए ! पर दुर्भाग्य कि इन सब बातो से इतर भारत सरकार का सारा जोर बस देवयानी खोब्रागडे को इस मामले से बचाने पर रहा और इसी अतिउत्साह में भारत द्वारा इस सहजता से सुलझ जाने वाले मामले को काफी बड़ा और उलझा हुआ बना दिया गया ! इसे भारतीय विदेश नीति की विडम्बना ही कहेंगे कि जब पाकिस्तानी सैनिक हमारे जवानों के सिर काटकर ले जाते हैं या एडवर्ड स्नोडेन द्वारा भारत समेत दुनिया के तमाम देशों की अमेरिकी जासूसी का खुलासा किया जाता है, तो जो भारत सरकार बयानी सख्ती दिखाने के सिवा कुछ नही करती, वही अपने एक राजनयिक के खिलाफ अमेरिका में लगे कुछ आरोपों को हटवाने के लिए इतनी सख्त होती है कि अमेरिका से अपने संबंधों तक की परवाह छोड़ देती है !  इन बातों को देखते हुए साफ़ तौर पर ये समझा जा सकता है कि देवयानी प्रकरण में भारत सरकार कूटनीतिक स्तर पर पूरी तरह से विफल रही है ! कुल मिलाकर इस मामले में अमेरिका के प्रति दिखाई गई भारत की इस अनावश्यक सख्ती से न सिर्फ भारत-अमेरिका  संबंधों में कड़वाहट आने की स्थिति बन गई है, बल्कि दुनिया में भी भारत के बारे में काफी गलत संदेश गया है !

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

समाजवाद का ये कैसा चेहरा [अप्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

सैफई महोत्सव २०१४ 
महान समाजवादी डा. राममनोहर लोहिया के आदर्शों के तथाकथित अनुयायिओं द्वारा यूपी में जो कर्म किया जा रहा है वो समाजवाद जैसी श्रेष्ठ और पवित्र चीज को शर्मसार करने वाला है ! यहाँ हम बात कर रहे हैं यूपी की सपा सरकार, उसके मुख्यमंत्री और नेताओं की ! गौरतलब है कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और उनके सुपुत्र  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव समेत अधिकाधिक सपाई नेता जहाँ मुख्यमंत्री के गाँव सैफई में फ़िल्मी हीरो-हिरोइनों के ठुमके देखने में मस्त थे, वहीँ मुज़फ्फरनगर के तमाम दंगा पीड़ित परिवार अब भी बदहाल राहत कैम्पों में भीषण ठण्ड और बिमारियों के साथ जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करने को बाध्य हैं ! ये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार द्वारा इन राहत कैम्पों में रहने वाले लोगों के लिए न तो बुनियादी सुविधाओं की कोई व्यवस्था की गई है और न ही उनके पुनर्स्थापन आदि के लिए ही कोई योजना बनाई गई है ! बल्कि जब इन राहत कैम्पों की बदहाली पर मीडिया द्वारा सरकार की आलोचना होने लगी तो राहत कैम्प में रहने वालों को वहाँ से जाने के आदेश दे दिए गए ! इस आदेश पर सफाई देते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव द्वारा बड़ा ही बचकाना और गैरजिम्मेदाराना बयान दिया गया कि राहत कैम्पों में पीड़ित नही, बल्कि सरकार को बदनाम करने के लिए कांग्रेस-भाजपा के लोग रुके हुए हैं ! इसके अतिरिक्त अभी कुछ ही दिन पहले इन राहत कैम्पों में ठण्ड के कारण लगभग ३० बच्चों के मरने की बात भी सामने आयी थी ! पर इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि इसपर यूपी सरकार के विशेष सचिव ने बड़ी बेशर्मी से सफाई देते हुए कहा कि ठण्ड से कोई नही मरता ! अगर ठण्ड से लोग मरते तो साइबेरिया में कोई जिन्दा ही नही रहता ! इससे भी बढ़कर ये कि उन विशेष सचिव पर कोई कार्रवाई करने की बजाय मुख्यमंत्री द्वारा उन्हें सम्हल कर बोलने की नसीहत भर दी गई ! अब सवाल ये है कि क्या लोहिया के आदर्शों पर चलने का दम भरने वाली समाजवादी पार्टी के लिए  समाजवाद की परिभाषा यही है ? क्या एक सरकार का यही कर्तव्य है कि जनता दुर्गति में जीए और वो उत्सव मनाए ? और क्या लोहिया के यही आदर्श हैं ? इन सवालों पर यूपी के सियासी हुक्मरानों के पास सिवाय कुतर्कों के कोई तर्कसंगत और जायज जवाब नही है ! अगर आज डा. लोहिया होते तो निश्चित ही अपने इन तथाकथित अनुयायियों के इस आचरण को देख शर्म से पानी-पानी हो जाते !
सैफई की रंगीनियत और मुज़फ्फरनगर की त्रासदी 
   अब अगर एक नज़र सैफई महोत्सव पर डालें तो बेशक ये एक पारम्परिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम है और ठीक है कि ऐसे कार्यक्रम होते रहने चाहिए ! लेकिन इस कार्यक्रम पर सवाल तब उठे जब एक तरफ मुज़फ्फरनगर के राहत कैम्पों में विस्थापित लोग ठण्ड से बेहाल दिखे और दूसरी तरफ प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत प्रदेश के तमाम बड़े नेता इस सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर नाच-नौटंकी का आनंद लेने में मस्त पाए गए ! साथ ही, सपा के तमाम बड़े नेता आज़म खां के नेतृत्व में विदेश भ्रमण पर भी निकले हैं ! ये किसी लिहाज से उचित नही कहा जा सकता कि जिस प्रदेश में हजारों की तादाद में लोग बेघर और बेसहारा होकर जीने को मजबूर हों, वहाँ उनलोगों के पुनर्स्थापन आदि के बजाय सैफई महोत्सव और विदेश भ्रमण जैसे कार्यक्रमों के नाम पर करोड़ो-अरबों रूपयों की फिजूलखर्ची की जाए ! एक आंकड़े के मुताबिक सैफई महोत्सव पर लगभग २ से ३ अरब रूपये खर्च हुए हैं जो कि मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ित परिवारों को पुनर्स्थापन के लिए दिए गए मुआवजे के तीन गुने से भी ज्यादा है ! तिसपर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी सब चिंता-फिकर छोड़ के पूरी तरह से उस महोत्सव में मौजूद रहें ! जब इन बातों की मीडिया द्वारा सामने लाया गया और प्रदेश सरकार की आलोचना होने लगी तो अखिलेश सरकार ने बेहद तानाशाह रवैया अख्तियार करते हुए सैफई महोत्सव के मीडिया कवरेज पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया !

  अब से लगभग दो साल पहले जब यूपी में चुनाव हुए थे तो जनता ने समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मुलायम सिंह का नही, अखिलेश यादव का चेहरा देखकर दिया था ! चूंकि, मुलायम के शासन के गुंडाराज का कड़वा अनुभव लोग पहले से ही महसूस कर चुके थे ! पर फिर भी अखिलेश जैसे युवा मुख्यमंत्री से बदलाव की प्रत्याशा में उन्होंने सपा को बहुमत दिया ! लोगों को आशा थी कि ये युवा नेता अगर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना तो न सिर्फ लोगों की समस्याओं को समझेगा बल्कि भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था को भी बदलेगा और प्रदेश की राजनीति को जाति-धर्म आदि से आगे विकास के पथ पर ले जाएगा ! पर सपा सरकार के इन दो वर्षों के शासन में जनता की ये सभी आकांक्षाएं और उम्मीदें एक-एक करके टूटती और खत्म होती ही दिखी ! इस दौरान जहाँ प्रदेश में अपराध और अपराधियों का बोलबाला बढ़ा वहीँ मुज़फ्फरनगर समेत बहुतों छोटे बड़े दंगों की आग में प्रदेश को जलना पड़ा ! साथ ही, सपा में तमाम दागी नेताओं को जगह भी दिया गया ! तिसपर इन सबमे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की निष्क्रिय सी भूमिका ने ये भी साफ़ कर दिया कि सिर्फ कहने भर के लिए यूपी में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हैं, वर्ना सत्ता तो अब भी मुलायम सिंह ही संचालित कर रहे हैं ! धीरे-धीरे जनता के सामने सपा सरकार के ढोंग की सारी कलई खुल गई ! डा. राममनोहर लोहिया और उनके समाजवाद के आदर्शों पर अपना एकाधिकार जताने वाली समाजवादी पार्टी का वर्तमान आचरण देखकर तो यही लगता है कि अब उसके लिए लोहिया का समाजवाद सिर्फ प्रतीकात्मकता तक सीमित रह गया है और वो लोहिया के समाजवाद से दूर भोग-विलासिता में कहीं खो गई है ! 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

भाजपा के लिए दिल्ली अभी दूर की कौड़ी [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
अभी हाल ही में संपन्न हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र एक बात तो पक्के तौर पर स्पष्ट कर दी कि अभी देश में कांग्रेस विरोधी लहर अपने पूरे उफान पर है ! पाँच में से चार राज्यों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया ! मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तो कांग्रेस को मिले नही, उल्टे दिल्ली और राजस्थान भी हाथ से चले गए ! यहाँ तक कि लगातार तीन बार से दिल्ली की कुर्सी पर जमी कांग्रेस की शीला सरकार ४३ से सीधे ८ सीटों पर आ गई ! जाहिर है कि ये सारी बातें आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा का पलड़ा भारी रहने के संकेत देती हैं ! पर अगर आगामी लोकसभा चुनाव के भावी समीकरणों पर थोड़ा विचार करें तो स्पष्ट होता है कि देश में लाख कांग्रेसी विरोधी और मोदी पक्षीय लहर होने के बावजूद भी भाजपा के लिए केन्द्र तक पहुँचने की राह आसान नही रहने वाली ! इसमे तो कोई संदेह नही कि भाजपा ये लोकसभा चुनाव मुख्यतः मोदी की लोकप्रियता और कुछ-कुछ कांग्रेस विरोधी लहर के भरोसे लड़ रही है ! पर इन चीजों के बावजूद ये भी लगभग तय मानिए कि लोकसभा चुनाव में मोदी की लोकप्रियता के दम पर भाजपा नम्बर एक पार्टी भले बन जाए, पर पूर्ण बहुमत उसे भी नही मिलेगा ! यानि कि चाहें जिसकी बने, सरकार तो गठबंधन वाली ही बनेगी ! अब बात जहाँ तक गठबंधन सरकार की है तो इतिहास गवाह है कि इस मोर्चे पर कांग्रेस हमेशा भाजपा पर बीस ही रही है ! कांग्रेस का यूपीए गठबंधन भाजपा के एनडीए से कहीं ज्यादा विस्तृत और विश्वसनीय है ! अभी कांग्रेस के पास अपने अंदरूनी घटक दलों के साथ बाहर से यूपी की राजनीति के धुर विरोधी सपा-बसपा का भी समर्थन है ! जबकि भाजपा का पहले से ही कमजोर एनडीए गठबंधन बिहार में नीतीश के अलग हो जाने के कारण और भी कमजोर हो गया है ! साथ ही, मोदी की जिस पीएम उम्मीदवारी को भाजपा के अंदरखाने में ही पूरा समर्थन नही है, उसे चुनाव बाद किन्ही अन्य बाहरी दलों से समर्थन मिलेगा, ये कहना कठिन है ! लिहाजा ये कहना गलत नही होगा कि कांग्रेस के खिलाफ देशव्यापी लहर होने के बावजूद  आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र राजनीतिक दृष्टिकोण से कांग्रेस, भाजपा से अधिक सुरक्षित दिख रही है !
   उपर्युक्त बातें तो लोकसभा चुनाव के संदर्भ में कांग्रेस-भाजपा की हुईं, पर इन्ही सबके बीच दिल्ली की राजनीति में अपने पैर जमा चुकी एक साल कुछ महीने पुरानी आम आदमी पार्टी (आआपा) भी लोकसभा चुनाव में उतरने का ऐलान कर चुकी है, वो भी लगभग बीस राज्यों में ! दिल्ली में जिस चमत्कारिक ढंग से आआपा ने राजनीतिक दृष्टिकोण से एक साल के बेहद कम समय में अपनी ऐसी पैठ बना ली कि शून्य से वो सीधे २८ सीटों के बड़े आंकड़े तक पहुँच गई, वो इस बात की काफी उम्मीद जगाता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी ये नई नवेली पार्टी कोई बड़ा उलटफेर करेगी और कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी ! अब सबसे बड़ा सवाल  ये है कि लोकसभा चुनाव में आआपा के आ जाने से कांग्रेस-भाजपा में से ज्यादा नुकसान किसे होगा ? इस सवाल का काफी हद तक जवाब हमें दिल्ली चुनाव के परिणामों को देखने पर मिल जाता है जहाँ आआपा ने वोट और सीट हर तरह से कांग्रेस का सर्वाधिक नुकसान किया ! जाहिर है कि लोकसभा में भी आआपा कांग्रेस की परेशानी जरूर बढ़ाएगी ! पर इसे कांग्रेस की राजनीतिक दूरदर्शिता ही कहेंगे कि उसने दिल्ली में आआपा को समर्थन देकर लोकसभा में आआपा से होने वाली समस्या के समाधान के लिए अभी से व्यवस्था कर ली है !  ये समाधान ऐसा है जो न सिर्फ कांग्रेस को आआपा से बचा सकता है, बल्कि भाजपा को सत्ता से दूर भी रख सकता है ! इन बातों को जरा खुलकर समझने का प्रयास करें तो जैसा कि आआपा की तरफ से कहा जा रहा है कि वो बीस राज्यों की लगभग ३०० लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी ! अब अगर इन ३०० में से ४०-५० सीटें भी वो जीत लेती है तो ये किसी भी गठबंधन सरकार के बनने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ! अब यहाँ समझने वाली बात ये है कि दिल्ली में भाजपा आआपा सरकार के विपक्ष और पूरी तरह से विरोध में है जबकि कांग्रेस विरोध में होने के बावजूद आआपा को समर्थन दे रही है ! ऐसे में अगर लोकसभा चुनाव में आआपा को गठबंधन की सरकार में जाना होगा तो उसके सामने कांग्रेसनीत यूपीए ही विकल्प होगा ! ये तय मानिए कि इस समर्थन के बदले अगर कांग्रेस को केजरीवाल को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा तो भी भाजपा को केन्द्र में आने से रोकने के लिए वो पीछे नही हटेगी ! हालांकि अगर समय रहते भाजपा ने चाहा होता तो आज ये स्थिति, अब से कहीं बेहतर रूप में,  उसके पक्ष में होती ! दिल्ली में अगर भाजपा ने आआपा से मिलकर सरकार बना ली होती तो आज दिल्ली में तो वो सत्ता में होती ही, आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भी उसे एक महत्वपूर्ण व मजबूत सहयोगी मिल गया होता ! पर ये भाजपा की राजनीतिक अदूरदर्शिता या अतिआत्मविश्वास ही है कि वो इन पहलुओं पर गौर किए बिना बस मोदी की लोकप्रियता और कांग्रेस विरोधी लहर के सहारे केन्द्र की सत्ता तक पहुँचने का सपना देख रही है ! भाजपा के इस अतिआत्मविश्वास की परिणति कही ये न हो कि लोकसभा में नम्बर एक की पार्टी होने के बावजूद बहुमत के अभाव में वो सरकार बनाने से वंचित रह जाए और केन्द्र में जनादेश के विरुद्ध यूपीए की सरकार फिर एकबार स्थापित हो जाए ! अगर ऐसा हुआ तो ये न सिर्फ मोदी की लोकप्रियता के साथ अन्याय होगा बल्कि हमारे लोकतंत्र के साथ भी बड़ा मजाक होगा !

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

राजनीति में युग परिवर्तन लाती 'आप' [डीएनए और आईनेक्स्ट इंदौर में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए में प्रकाशित  
वाकई में ये अत्यंत आश्चर्यजनक है कि राजनीति के अखाड़े में महज एक वर्ष पहले प्रवेश करने वाली अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) आज दिल्ली की सल्तनत पर काबिज हो चुकी है ! राजनीति में प्रवेश के बाद से ही अरविन्द केजरीवाल द्वारा लगातार ये कहा जाता रहा है कि कांग्रेस-भाजपा आदि राजनीतिक दलों को हम राजनीति करना सिखाएंगे ! आज उनकी ये बात काफी हद तक सही होती दिख रही है ! हालत ये है कि दिल्ली चुनाव से पहले जिस पार्टी का कांग्रेस-भाजपा द्वारा मजाक उड़ाया जा रहा था, आज उसी आम आदमी पार्टी से कांग्रेस-भाजपा दोनों ही दल सैद्धांतिक से लिए व्यावहारिक तौर पर तक सीख लेते हुए दिख रहे हैं ! कांग्रेस की तरफ से तो खुद राहुल गाँधी द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली भीषण हार के बाद प्रत्यक्ष रूप से ये स्वीकारा जा चुका है कि कांग्रेस को ‘आप’ से सीखना चाहिए ! इसके अलावा दिल्ली में केजरीवाल सरकार के सस्ती बिजली दिए जाने के निर्णय से प्रभावित महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार द्वारा भी बिजली के दामों में कटौती की बात की जाने लगी है ! अब रही बात भाजपा की तो अरविन्द केजरीवाल की देखादेखी राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे द्वारा भी सरकारी बंगला लेने से मना कर दिया गया तथा अपनी सुरक्षा भी आधी कर दी गई ! इतने के बाद भी अब भले ही कांग्रेस-भाजपा में से कोई भी खुद में आ रहे इन परिवर्तनों के लिए ‘आप’ का असर मानने को तैयार नही है ! पर इसमे कोई संदेह नही है कि देश के नम्बर एक और दो के इन दलों में अचानक ये जो परिवर्तन आ रहे हैं वो हो न हो ‘आप’ के डर का असर है !
आईनेक्स्ट 
   ये सर्वविदित है कि ‘आप’ का जन्म अन्ना आंदोलन की कोख से हुआ है ! अगर ‘आप’ के बनने से लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने और फिर सत्ता की दहलीज पर पहुँचने तक के सफर पर एक नज़र डालें तो साफ़-साफ़ समझा जा  सकता है कि ‘आप’ पूरी तरह से राजनीतिक दलों द्वारा मचाए गए भ्रष्टाचार की खिलाफत और अपने जनसरोकारी वादों की बुनियाद पर खड़ी हुई पार्टी है ! आप  की इस आकस्मिक सफलता का मुख्य कारण ये है कि इसने सियासी हुक्मरानों के सत्ताजन्य अहंकार और विलासिता के कारण जन और तंत्र के बीच उपजी खाई को न सिर्फ पाटा बल्कि खुद को सीधे तौर पर जनता से जोड़ा भी ! यहाँ समझना होगा कि दिल्ली में आप की ये सफलता आकस्मिक अवश्य है, पर अनायास नही है ! इसके पीछे जमीनी तौर पर आप द्वारा किया गया भारी संघर्ष है जिसमे उसे दिल्ली के सत्ता विरोधी रुझान का भी कुछ लाभ मिल गया ! व्यापक जनसंपर्क और जनहितैषी मुद्दों के प्रति सजगता वो प्रमुख कारण हैं जिन्होंने राजनीतिक दृष्टिकोण से एक वर्ष के बेहद कम समय में दिल्ली की जनता में आप के प्रति इतना भरोसा जगा दिया कि वो दिल्ली में नम्बर दो की पार्टी बन गई ! इन सब बातो के अलावा अरविन्द केजरीवाल जैसा ईमानदार, बेदाग़ और निडर छवि वाला नेतृत्व भी आप के लिए सोने पर सुहागा का ही काम कर रहा है ! आप दिल्ली में अपने पाँव लगभग जमा चुकी है और धीरे-धीरे देश के अन्य हिस्सों में भी उसका विस्तार हो रहा है ! हालिया हालातों को देखते हुए ये कह सकते हैं कि अगर आप इसी गति से बढ़ती रही तो आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा के बाद निश्चित ही वो नम्बर तीन की पार्टी बनकर सामने आएगी !
  ऐसा कत्तई नही है कि अपने उद्भव से लेकर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने तक आप की राह में मुश्किलें नही आईं ! अगर नज़र डालें तो हम देखते हैं कि इस पूरे सफर में कांग्रेस-भाजपा आदि पारम्परिक दलों द्वारा आप के सामने तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश की गई ! पर यहाँ अरविन्द केजरीवाल को दाद देनी पड़ेगी कि सभी मुश्किलों के बावजूद उन्होंने न सिर्फ ‘आप’ को सम्हाला बल्कि हर मुश्किल का समयानुसार माकूल जवाब भी दिया ! चुनाव से पहले तक विपक्षियों द्वारा आप के विषय में ‘बरसाती मेढ़क’ जैसी तरह-तरह की फब्तियां कसी गईं ! उसके बाद जब वो २८ सीटों के साथ नम्बर दो की पार्टी बन गई तो विपक्षी दलों द्वारा उसके वादों को अव्यावहारिक बताया गया ! कांग्रेस-भाजपा की तरफ से कहा गया कि आप ने बिजली-पानी से सम्बंधित जिन वादों के दम पर २८ सीटें जीती हैं, उन्हें पूरा करना संभव नही है ! खैर ! जनता की राय से कांग्रेस से अपनी शर्तों पर समर्थन के साथ आप ने सरकार बनाई और सरकार बनते ही सबसे पहले उसके द्वारा मुफ्त पानी और सस्ती बिजली देने का फैसला भी ले लिया गया ! इन बातो को देखते हुए साफ़ है कि हमारे पारम्परिक दलों द्वारा आप को रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने नेक इरादों के कारण वो सभी मुश्किलों और चुनौतियों को पार करते हुए दिल्ली की सियासत पर काबिज हो गई ! 

  सीधे शब्दों में कहें तो आप का अबतक का ये पूरा राजनीतिक सफर जितना छोटा है, उतना ही विलक्षण भी है ! अब अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की व्यवस्था में कितना बदलाव ला पाएंगे व जनता से किए अपने वादों पर कितना खरा उतरेंगे, ये तो आने वाले महीनों में धीरे-धीरे साफ़ हो ही जाएगा ! पर फ़िलहाल तो यही कह सकते हैं कि नेताओं के भ्रष्टाचार व उनके दोहरे चरित्रों के सामने आने के कारण आज जब जनता में नेता व सरकार के प्रति गहरा अविश्वास घर करता जा रहा है ! ऐसे में आप की ये जनसरोकारी राजनीति व्यवस्था और सरकार के प्रति जनविश्वास बहाली की तरफ एक बड़ा कदम तो है ही, भारतीय राजनीति में एक नए युग का सुसंकेत भी है !