रविवार, 21 सितंबर 2014

हाशिए पर बुनियादी शिक्षा [जनसत्ता रविवारीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत   

जनसत्ता 
किसी भी राष्ट्र का सतत प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस राष्ट्र के नागरिक कितने सुशिक्षित हैं । इसमे कोई दोराय नही कि जिस राष्ट्र के नागरिक अधिकाधिक संख्या में सुशिक्षित होंगे, वो राष्ट्र प्रगति के नित नए कीर्तिमान गढ़ेगा । सुशिक्षित नागरिक तैयार करने के लिए आवश्यक होता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए । क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नीव होती है और अगर वो मजबूत होगी तभी आगे चलके उसपर ज्ञान की दमदार ईमारत खड़ी हो सकेगी । प्राथमिक शिक्षा की इस जरूरत को  अगर भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं । इसमे कोई दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की बेहतर प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी देश के लगभग एक तिहाई बच्चे स्कूली अनुभवों से वंचित हैं । और जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं उनमे भी सरकारी शिक्षण संस्थानों की अपेक्षा निजी शिक्षण संस्थानों की तरफ जाने वाले बच्चों की संख्या कहीं अधिक है । बच्चों के इस सरकारी शिक्षण संस्थानों से विमुख होकर निजी संस्थानों की तरफ रुख करने के लिए बड़ा कारण सरकारी शिक्षण संस्थानों की चौतरफा दुर्दशा है । सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश भर में तमाम ऐसे सरकारी शिक्षण संस्थान भी हैं जहाँ  शिक्षक आदि की तो छोड़िये ढाचागत सुविधाएँ तक ढंग की नहीं हैं । कहीं विद्यालय की ईमारत की छत टूटी हुई होती है तो कहीं विद्यालय में शौचालय ही नहीं होता तो कितनी जगहों पर तो कक्षा में बैठने योग्य स्थान न होने के कारण बच्चों को खुले मैदान में तक पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है । इन चीजों के अतिरिक्त सरकारी विद्यालयों में शिक्षा व शिक्षण का स्तर भी बेहद खराब है । एक तो सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त अध्यापक नहीं हैं और जो अध्यापक होते हैं, वे भी पढ़ाने की बजाय इधर-उधर की बातों में ही अपना समय बीता देते हैं । बस इन्ही तमाम विसंगतियों की वजह से अभिभावकों द्वारा बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों से इतर निजी संस्थानों में भेजा जा रहा है । हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकारी विद्यालयों से बच्चों के इस मोहभंग पर हमारी सरकारों द्वारा कुछ नहीं किया गया । सरकार द्वारा बच्चों को सरकारी विद्यालयों की तरफ पुनः मोड़ने के लिए कई योजनाएं व कार्यक्रम चलाए गए  हैं, लेकिन वे योजनाएं व कार्यक्रम कुछ खास कामयाब होते नहीं दिख रहे । नीचे सरकार की ऐसी ही कुछ प्रमुख योजनाओं पर एक संक्षिप्त दृष्टि डाली गई है ।

सर्वशिक्षा अभियान
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार द्वारा कई बड़े उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए  सन २००१ में इस योजना का सूत्रपात किया गया था । यह एक निश्चित समयावधि वाली योजना थी अर्थात २०१० तक इसके उद्देश्यों को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था । २००१ में शुरू हुई इस योजना का प्रमुख उद्देश्य ये था कि  अगले पाँच सालों में देश के सभी बच्चे विद्यालयों में न सिर्फ जाना शुरू कर दें, बल्कि बहुसंख्य बच्चे प्राथमिक शिक्षा प्राप्त भी कर लें । इसके लिए भारी संख्या में  नए विद्यालय खोलना, विद्यालयों में बच्चों की पठन सामग्री मुफ्त वितरण के लिए उपलब्ध करवाना, सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित करना,  आदि  तमाम कार्यक्रम चलाए गए । इस योजना के क्रियान्वयन के लिए परिव्यय राशि के रूप में   सन २००५ में तकरीबन ७००० करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया । आगे इस राशि में और भी बढ़ोत्तरी हुई । लेकिन, अटल सरकार की ये अति महत्वाकांक्षी योजना धरातल पर उतरते-उतरते पूरी तरह से खारिज हो गई ।  इस योजना का कुछ हिस्सा भ्रष्टाचार देवता की भेंट चढ़ा तो कुछ व्यवस्थाजन्य खामियों के चलते बर्बाद हो गया । परिणामतः इस योजना से बच्चों को तो कुछ खास लाभ नहीं हुआ, पर सरकारी नौकरशाही से लेकर विद्यालयों के प्रशासन व शिक्षकों तक सब ने इस योजना से अपने-अपने हित खूब साधे । बच्चों में मुफ्त वितरण के लिए सरकार द्वारा भेजी जाने वाली किताबों का हश्र कुछ ये होता कि वे अधिकांश विद्यालयों में या तो रखे-रखे सड़-गल जातीं या मन-मुताबिक मूल्यों  पर शिक्षक लोग उन्हें बेच देते ।  इसी प्रकार विद्यालयों को मिलने वाला अनुदान भी विद्यालय प्रशासन के बीच बंदरबाट का शिकार होकर ही रह जाता । इस प्रकार अटल सरकार की 'सार्वभौमिक गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा' के उद्देश्य से आरम्भ इस योजना की धज्जियाँ उड़ गईं । मोटे तौर पर देखें तो इस योजना के द्वारा भारतीय प्राथमिक शिक्षा का तो कोई बहुत बड़ा हित नहीं हुआ, लेकिन सरकारी पैसे की  बर्बादी और बंदरबाट खूब हुई ।\

मिड डे मिल
सरकार द्वारा बच्चों को सरकारी विद्यालयों से जोड़ने के लिए एक अन्य योजना जो काफी चर्चित रही वो है मिड डे मिल । इस योजना का प्रारंभ सन १९९५ में किया गया । शुरू-शुरू में इस योजना के तहत प्रदेश के सरकारी, परिषदीय विद्यालयों में ये नियम आया कि जो बच्चा विद्यालय में महीने भर में अपनी ८० फिसदी मौजूदगी दर्ज करवाएगा उसे तीन किलो गेहू या चावल दिया जाएगा । गौरतलब है कि १९९५ के दौर में सरकारी विद्यालयों से बच्चों का इतना अधिक मोहभंग नहीं हुआ था और निजी संस्थानों ने बहुत ज्यादा सिर भी नहीं उठाया था । ऐसे में ये अनाज मिलने वाली ये लुभावनी योजना आ जाने से और भी बच्चे सरकारी विद्यालयों की तरफ बढ़े । लेकिन, समय के साथ जैसे-जैसे शिक्षा में प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई और सरकारी विद्यालय इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ते गए, वैसे-वैसे बच्चों का रुख सरकारी विद्यालयों से हटता गया । स्थिति ये हो गई कि अनाज पाने के लिए बच्चे  सरकारी विद्यालय में अपना नाम तो दर्ज करवा लेते, लेकिन पढ़ने कहीं अन्य किसी निजी विद्यालय में जाते । और जब महीना पूरा होता तो वे सरकारी विद्यालय में जाकर अपना अनाज ले लेते । बच्चों के अभिभावकों और शिक्षकों की मिली-भगत से अनाज वितरण की ये योजना अपने उद्देश्य से अलग किसी और ही दिशा में बढ़ गई । इन विसंगतियों के चलते सन २००४ में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इस योजना में परिवर्तन करते हुए इसे प्रतिमाह अनाज वितरण की बजाय प्रतिदिन पका-पकाया भोजन देने के रूप में कर दिया गया । भोजन बनाने के लिए विद्यालयों को आवश्यक संसाधन, सामग्री व सहायक आदि उपलब्ध कराने का प्रावधान तो रखा गया, पर इसमें भी कई पेंच रहे और सभी विद्यालयों तक ये सभी सुविधाएं नहीं पहुँच सकीं । कुछ समय पहले ही देश के तमाम राज्यों में एक खबरिया चैनल द्वारा इस योजना के क्रियान्वयन पर गौर किया गया तो सामने आया कि किसी विद्यालय में खाद्य सामग्री है तो  बनाने वाले नहीं, कहीं बनाने वाले हैं तो सामग्री आदि नहीं । इन खामियों का परिणाम ये रहा है कि अधिकांश विद्यालयों में बनने वाले भोजन में गुणवत्ता न के बराबर होती  है । इसी कारण अब भी आए दिन इस मिड डे मिल योजना के तहत बनने वाले खाने में कहीं छिपकिली मिलने की तो कहीं ये भोजन खाने से बच्चों के बीमार पड़ने की खबरे आती रहती हैं । मोटे तौर पर इस योजना का परिणाम यही हुआ  कि इस योजना ने गरीब तबके के बच्चों को केवल अपनी भूख मिटाने के उद्देश्य से सरकारी विद्यालयों की तरफ जरूर मोड़ा, लेकिन यहाँ  बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का उद्देश्य दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखता है । 
   ये तो बात हुई बच्चों को सरकारी विद्यालयों से जोड़ने के लिए किए गए सरकारी प्रयासों की । सरकार द्वारा संचालित उपरोक्त योजनाओं को देखने पर एक बात तो एकदम स्पष्ट हो जाती है कि सरकार की ये योजनाएं सरकारी शिक्षण संस्थानों में शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए कम, बच्चों को अन्य लुभावनी चीजों के जरिए विद्यालय से जोड़ने के लिए ज्यादा प्रतिबद्ध दिखती हैं । संभवतः इसी का परिणाम है कि आज अधिकांश सरकारी विद्यालयों में शैक्षिक गुणवत्ता न के बराबर है ।  हालांकि सरकारी विद्यालयों से बच्चों को जोड़ने के अतिरिक्त सभी बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए भी सरकार द्वारा कुछ प्रयास जरूर किए गए हैं । पिछली संप्रग सरकार द्वारा सन २००९ में लाया गया  'शिक्षा का अधिकार' नामक क़ानून इन प्रयासों की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है । 
शिक्षा का अधिकार 
इस क़ानून के तहत सरकारी विद्यालयों ६ से १४  साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया । साथ ही, इस क़ानून की सबसे विशेष बात यह थी कि इसके तहत निजी विद्यालयों को भी अपने यहाँ गरीब तबके के ६ से १४ साल तक के २७ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया । हालांकि सरकार के इस फरमान से निजी विद्यालय काफी नाराज हुए; उन्होंने इसका काफी विरोध किया, लेकिन ये आदेश नहीं बदला । निजी विद्यालयों का तर्क था कि अगर वे गरीब और पिछड़ा चिन्हित करके २७ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देते हैं, तो इस खर्च की पूर्ति के लिए उन्हें बाकी बच्चों के अभिभावकों पर और अधिक आर्थिक बोझ डालना पड़ेगा जो कि बेहद गलत होगा । अगर सरकार ये नियम लाई है तो उसे निजी विद्यालयों को आर्थिक सहायता भी देनी चाहिए । लेकिन, निजी विद्यालयों की इन दलीलों का सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा । आज इस योजना को लागू  हुए लगभग ५ साल का समय हो गया है, पर इसका क्रियान्वयन अब भी दूर की कौड़ी ही नज़र आता है । इस योजना की पूर्ति में सबसे बड़ी बाधा तो यही है कि विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं हैं । अभी कुछ ही समय पहले इस क़ानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब माँगा है । दायर याचिका में कहा गया था  कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों और १२ लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण ‘शिक्षा के अधिकार’ क़ानून का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है । साफ़ है कि ये क़ानून भी  यथार्थ के धरातल से दूर सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है । लेकिन जाने क्यों सरकार इस तरफ से आँख-कान बंद किए हुए है । इस क़ानून को लाने वाली संप्रग सरकार तो जबतक सत्ता में थी, उसने इस योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी । लेकिन, अब वो सत्ता में नहीं है, अतः मौजूदा राजग सरकार से ही ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून की एकबार समीक्षा करे और देखे कि ये क़ानून अपने तय लक्ष्यों को प्राप्त कर रहा है या नहीं ? साथ ही, यह भी देखा जाय कि अगर ये क़ानून अपने तय लक्ष्यों से भटक रहा है तो किन समस्याओं के कारण और वो जो भी समस्याएं हैं, उन्हें दूर करने की दिशा म क्या किया जा सकता है । 
  उपर्युक्त बाते तो सरकार की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं, कार्यक्रमों, कानूनों और उनके क्रियान्वयन आदि की थी । अब अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं । ये रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त  है । विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं – श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं । हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता । कहने का मतलब ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है । ये समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है । अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता  है, उसे किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता । कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है । उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़े याद करने की और समझने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सिखाने वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है । परिणाम ये होता है कि बच्चे न तो गिनती पहाड़ा ठीक से सीख पाते हैं और  न ही जोड़-घटाव । कहना गलत नही होगा कि ये पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है । ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे । जाहिर है कि ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना । चूंकि, बच्चों के इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी  किताबें अभिभावकों को विद्यालय  से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे विद्यालयों  और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा । उचित होता कि केन्द्र व राज्य सरकारें  इस संबंध में गंभीर होतीं तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती ।  साथ ही, बच्चों के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाता जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी होता ।
    उपर्युक्त सभी बातों को देखने के बाद भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था के संबंध ये बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि अभी इसमे ढाचागत, शिक्षागत आदि अनेकों कमियां हैं, जिसके चलते देश के तमाम बच्चों  का भविष्य अन्धकार में जा रहा है । उचित होगा कि सरकार सरकारी विद्यालयों की शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाए । इसके लिए पहली जरूरत है कि उनमे योग्य और समर्पित अध्यापक आएं । योग्य अध्यापक तभी आएँगे जब अध्यापकों के चयन की प्रक्रिया  भ्रष्टाचार व सिफारिशी प्रक्रिया से मुक्त एवं प्रतिभा आधारित होगी । इसके अलावा सरकारी विद्यालयों को आधुनिक किए जाने की भी जरूरत है । सरकार चाहे तो ये सब चीजें हो सकती हैं । सरकार जितना पैसा मिड डे मिल आदि योजानाओं पर खर्च करती है, उनमे से कटौती करके अथवा ऐसी  योजनाओं को अस्थायी रूप से बंद करके इनके पैसे के जरिए सरकारी विद्यालयों का ये अनिवार्य कायाकल्प किया जा सकता है । क्योंकि, विद्यालय खाना खिलाने का  नहीं शिक्षा देने का स्थान होता है । अतः उसमे शिक्षाजन्य सुधार को ही पहली वरीयता मिलनी चाहिए ।  अगर सरकारी विद्यालयों का उपरोक्त प्रकार से कायाकल्प हो जाय तो फिर सरकार को विद्यालयों से बच्चों को जोड़ने के लिए किसी मिड डे मिल जैसी योजना की आवश्यकता शायद न पड़े । निजी संस्थानों द्वारा शिक्षा देने के नाम पर किए जा रहे भीषण आर्थिक शोषण से पीड़ित बच्चों के अभिभावक सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार आने पर बच्चों को सरकारी विद्यालय में डालने तनिक भी नहीं हिचकेंगे । उचित होगा कि सरकार समय रहते इन चीजों पर विचार करे और कुछ ठोस कदम उठाए जिससे कि देश के तमाम नौनिहालों का भविष्य अन्धकार से प्रकाश की तरफ उन्मुख हो सके ।

शनिवार, 20 सितंबर 2014

बेटियों को भी दें जीने का अधिकार [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
आज जब हम विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नई-नई बुलंदियां छू रहे हैं और प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम गढ़ रहे हैं, ऐसे समय में कन्या भ्रूण परिक्षण जैसी विसंगति का हमारे समाज में मौजूद होना कहीं ना कहीं हमारा सर शर्म से झुका देता है. विद्रूप तो यह है कि कन्या भ्रूण परिक्षण की ये विसंगति समाज के सिर्फ अशिक्षित वर्ग तक ही नहीं है, बल्कि बहुधा शहरी  व शिक्षित समाज भी इसकी चपेट में है. हालांकि कन्या भ्रूण परिक्षण अंकुश लगाने के लिए सन १९९४ में 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनिन अधिनियम' नामक क़ानून बनाया गया जिसके तहत प्रसव पूर्व लिंग परिक्षण को अपराध की श्रेणी में रखते हुए सजा का प्रावधान भी किया गया. इस क़ानून के तहत लिंग परिक्षण व गर्भपात आदि में सहयोग करने को भी अपराध की श्रेणी में रखा  गया है तथा ऐसा करने पर ३ से ५ साल तक कारावास व अधिकतम १ लाख रुपये जुर्माने की सजा का भी प्रावधान किया गया है. लेकिन इस क़ानून के लागूं होने के तकरीबन २० वर्ष बाद कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर कोई विशेष अंकुश लग पाया हो, ऐसा नहीं कह सकते. आंकड़ों पर गौर करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार देश में छः साल तक की आबादी में १००० लड़कों पर महज ९१४ लड़कियां ही पाई गईं. यहाँ गौर करने योग्य बात ये है कि ये आंकड़े सिर्फ छः साल तक के बच्चों के हैं. अतः यह बच्चों में ये लैंगिक असमानता कहीं ना कहीं  दिखाती है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या किस तरह से चल रही है. कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या आदि के ही संबंध में अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के सभी राज्यों की सरकारों से यह पूछा गया है कि कन्या भ्रूण परिक्षण रोकने की दिशा में अबतक की सरकारों द्वारा क्या और किस दिशा में प्रयास किए गए हैं. दरअसल, न्यायालय के सम्मुख कन्या भ्रूण परिक्षण सम्बन्धी तमाम याचिकाएं थीं, उन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायालय की तरफ से ये कहा गया. न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की पीठ ने इस मसले पर देश की सभी राज्य सरकारों से निश्चित समय में हलफनामा दाखिल करने को कहा है. जम्मू व काश्मीर की आपदा के मद्देनज़र वहाँ की सरकार को छः सप्ताह तो देश के बाकी राज्यों की सरकारों को हलफनामा दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया है. न्यायालय की तरफ से सख्ती के साथ यह भी कहा गया है कि पेश हलफनामा आधा-अधूरा या महज कोरम पूरा करने वाला नहीं, तथ्य व जानकारी से पूर्ण होना चाहिए. अब यह तो देखने वाली बात होगी कि राज्य सरकारों की तरफ से इस संबंध में क्या और कैसे तथ्य पेश किई जाते हैं. एक सवाल तो ये भी प्रासंगिक हो ही जाता  है कि राज्य सरकारों के पास इस संबंध में कोई ठोस आंकड़े व जानकारियां होंगी भी या नहीं ?  अब सरकारों की तरफ से जो भी तथ्य रखे जाएँ, पर इतना तो तय है कि कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की रोकथाम को लेकर देश में सरकारी स्तर सिवाय एक क़ानून बनाने के कोई खास प्रयास नहीं हुआ है. फिर चाहें बात केन्द्र सरकारों की करें या राज्य सरकारों की, इस संबंध में सबके आँख-कान लगभग बंद ही रहे हैं. केन्द्र सरकार ने तो इस इस संबंध में १९९४ में  एक क़ानून बनाकर ही अपने दायित्वों की इतिश्री समझ ली. उसे इस बात की आवश्यकता कभी महसूस नहीं हुई कि एक निश्चित अवधी के उपरांत उस क़ानून की समीक्षा  भी होनी चाहिए कि वो कितने प्रभावी ढंग से कार्य कर रहा है व उसमे सुधार की कोई गुंजाइश तो नहीं है. रही बात राज्य सरकारों की तो उन्हें भी ऐसे मसलों पर ध्यान देने के लिए फुरसत कहाँ है. निष्कर्ष ये है कि कन्या भ्रूण परिक्षण के मसले पर केन्द्र से लेकर राज्य तक सभी सरकारों का रुख अपेक्षाकृत काफी उदासीन रहा है और इस मसले को लेकर कभी कोई विशेष गंभीरता कहीं नहीं दिखी है.
     अगर विचार करें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की इस विसंगति के मूल में हमारी तमाम सामाजिक रूढियां व परम्पराएं ही हैं. आज के इस आधुनिक व प्रगतिशील दौर में भले ही लड़कियां लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हों, बल्कि कई मायनों में लड़कों से आगे भी हों. इसमे भी संदेह नहीं कि लड़कियों के इस उत्थान से समाज में उनके प्रति व्याप्त सोच में में काफी बदलाव भी आया है. लेकिन बावजूद इन सबके आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति अपनी सोच  को पूरी तरह से बदल नहीं पाया है. यह सही है कि इसमें अधिकांश ग्रामीण व अशिक्षित लोग ही होते हैं, लेकिन तमाम शहरी व शिक्षित लोग भी इससे अछूते नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो कम से कम दहेज जैसी रूढ़ीवादी प्रथा की चपेट में तो भारतीय समाज के शिक्षित-अशिक्षित दोनों तबके ही हैं. कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या के लिए दहेज की ये रूढ़िवादी प्रथा एक बहुत बड़ी कारण है. इसी प्रकार और भी तमाम ऐसी सामाजिक प्रथाएँ, कायदे और बंदिशे हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराई को उपजाने में खाद-पानी का काम कर रही हैं. इन बातों को देखने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या आपराधिक प्रवृत्ति से अधिक कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के सह से उत्पन्न हुई एक बुराई है. अतः यह भी स्पष्ट है कि इसका समाधान भी सिर्फ क़ानून के जरिए नहीं किया जा सकता. इस बुराई के समूल खात्मे के लिए आवश्यक है कि इसको लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास किया जाए. केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वो इस संबंध में शहर से गाँव तक सब जगह जागरूकता कार्यक्रम चलाएँ जिनके जरिए लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि दुनिया में आने से पहले ही एक जान को नष्ट करके वो न सिर्फ अपराध कर रहे हैं, बल्कि पाप के भागी भी रहे हैं. उन्हें लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं जैसी बातों से भी अवगत कराना चाहिए. इन सबके अलावा दहेज आदि सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में भी कानूनी स्तर से लेकर जागरूकता लाने के स्तर तक ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है. अगर सरकारें  चाहें तो वे ये सब  कर सकती है. उसके पास शक्ति है, संसाधन हैं, जरूरत है तो बस मजबूत इच्छाशक्ति की. और इस देश की लड़कियों के लिए सरकार को उस मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देना चाहिए.

बुधवार, 17 सितंबर 2014

पारदर्शिता से क्यों भाग रहे राजनीतिक दल [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) क़ानून के अंतर्गत लाने के संबंध में केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा देश के छः राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को एकबार फिर नोटिस भेजकर जवाब माँगा गया है. दरअसल, यह पूरा मामला कुछ यों है कि पिछले साल आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल की एक याचिका पर केंद्रीय सूचना आयोग की तरफ से देश के छः राजनीतिक दलों कांग्रेस, भाजपा, बसपा, राकांपा, भाकपा और माकपा को परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार से वित्तपोषण प्राप्त करने वाली  सार्वजनिक इकाई बताते हुए सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने को कहा  था. साथ ही, तत्कालीन दौर में इन सभी दलों को यह निर्देश भी दिया गया था कि वे अपने-अपने यहाँ लोक सूचना अधिकारी व अपीलीय प्राधिकारी की नियुक्त करें, जिससे कि आम लोग उनसे जुड़ी जानकारियां प्राप्त कर सकें. लेकिन, केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश को लेकर हमारे समूचे राजनीतिक महकमे में बेहद असंतोष और विरोध दिखा. किसी जनहित के मुद्दे पर जल्दी  एकसाथ खड़े न होने वाले ये राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश के खिलाफ हाथ से हाथ मिलाए खड़े दिखे. बड़े कुतार्किक ढंग से उनका कहना था कि वे कोई सार्वजनिक इकाई नहीं, स्वैच्छिक संघ हैं. अतः उन्हें सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता. ऐसा करना उनकी निजता के विरुद्ध है. तमाम राजनीतिक दाव-पेंच और बयानबाजियां हुईं और आखिर भाकपा को छोड़  किसी भी दल ने तय समयावधि में केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देश का पालन नहीं किया. और बड़ी विडम्बना तो ये रही कि राजनीतिक दलों के ऐसे रुख पर सूचना आयोग भी कोई कार्रवाई करने की बजाय सन्नाटा मार गया. ये मामला पुनः चर्चा में तब आया जब अभी कुछ समय पहले आरटीआई कार्यकर्ता आर के जैन ने याचिका डालकर कांग्रेस से यह जानकारी मांगी कि उसने (कांग्रेस ने) अपने यहाँ सूचना का अधिकार क़ानून लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं ? लेकिन, उनकी इस याचिका का कांग्रेस द्वारा कोई जवाब नहीं दिया गया, बल्कि उनकी अर्जी लौटा दी गई. इसके बाद आर के जैन ने इस संबंध में  दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की. इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग को यह आदेश दिया गया कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने के केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को न मानने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी पर छः महीने में कार्रवाई की जाए. न्यायालय के इस आदेश के बाद ही  आयोग ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत छहों राजनीतिक दलों के प्रमुखों को नोटिस भेजकर यह पूछा है कि राजनीतिक दलों के आरटीआई के दायरे में आने के आयोग के आदेश को न मानने के कारण आप  लोगों पर जांच क्यों न शुरू की जाय ? यह तो तय है कि हर राजनीतिक दल की तरफ से इस नोटिस पर तमाम कुतर्कपूर्ण जवाब दिए जाएंगे. क्योंकि, इस संबंध में कोई तार्किक जवाब किसी राजनीतिक दल के पास है ही नहीं. इस संबंध में केवल एक तर्क है कि राजनीतिक दलों को तुरंत सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आ जाना चाहिए  जो कि कोई राजनीतिक दल सहजता से स्वीकार नहीं सकता.
      यहाँ बड़ा सवाल यह है कि नैतिकता और शुचिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे राजनीतिक दल सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आने से इतना हिचक क्यों रहे हैं ? आखिर क्या वजह है कि वे इस पारदर्शितापूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनने से कतरा रहे हैं ? उनका ये रुख कहीं ना कहीं उनकी नीयत और चरित्र को संदेह के घेरे में लाता है साथ ही उनकी नैतिकता की भाषणबाजी के पाखण्ड को भी उजागर करता है. क्योंकि, अगर वे पूरी तरह से पाक साफ़ होते तो उन्हें सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आकर इस पारदर्शी व्यवस्था का हिस्सा बनने  में समस्या क्यों होती ?  अगर विचार करें तो सूचना का अधिकार के अंतर्गत न आने के पीछे इन  सभी राजनीतिक दलों की मुख्य समस्या यही प्रतीत होती है कि आर्थिक शुचिता के मामले में इन सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है. यूँ तो सभी दल अपने चंदे आदि के विषय में जानकारियां देते रहते हैं, लेकिन वे जानकारियां पूरी नहीं, आधी-अधूरी होती हैं. असल जानकारियां तो लगभग हर दल द्वारा छुपा ली जाती हैं. जिस काले धन को लेकर आज इतना हो-हल्ला मचा हुआ है, वैसे बहुतेरे काले धन का इस्तेमाल इन राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में किया जाता है, यह बात भी अब काफी हद सार्वजनिक है. ऐसे में, सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आ जाने के बाद संभव है कि इन राजनीतिक दलों की ये तथा ऐसी ही और भी कुछ बेहद गुप्त जानकारियां सामने आने लगें. ऐसे में ऊपर से सफेदपोश बन रह इन राजनीतिक दलों की अंदरूनी कालिख जनता के सामने उजागर होने का खतरा भी पैदा हो जाएगा. ऐसे में उनके बचने का इतना ही उपाय होगा कि चुनावों में काले धन का इस्तेमाल ना करें जो कि इन राजनीतिक दलों के लिए संभव नहीं है. क्योंकि, चुनाव में किया जाने वाला इनका असीमित खर्च बिना काले धन के पूरा ही नहीं हो सकता. मुख्यतः इन्हीं बातों के कारण इन राजनीतिक दलों द्वारा सूचना का अधिकार के अंतर्गत आने से बचने की कवायद की जाती रही है. 
    उपर्युक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि पारदर्शिता से भागते ये राजनीतिक दल चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं.  ऐसे करके वे न सिर्फ जनता के मन में अपने प्रति शंकाओं के बीज बो रहे हैं, बल्कि खुद को अलोकतांत्रिक भी सिद्ध कर रहे हैं. उचित होगा कि ये  राजनीतिक दल सूचना का अधिकार से बचने की कवायद करने की बजाय स्वयं के चरित्र में सुधार लाएं और सिर्फ उच्च सिद्धांतों की भाषणबाजी न करें बल्कि उन्हें व्यवहार में भी उतारें.

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

दिल्ली में चुनाव से क्यों भाग रही भाजपा [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
दिल्ली में एक सरकार को लेकर उलझने लगातार बढ़ती ही जा रही हैं. पिछले कई महीनों से दिल्ली बिना सरकार के राष्ट्रपति शासन सहारे चल रही है, पर राष्ट्रपति शासन की भी एक सीमा होती है. न तो दिल्ली की मौजूदा विधानसभा में से कोई दल सरकार बना रहा है और न ही नए सिरे चुनाव कराने की ही कोई कवायद फ़िलहाल नज़र आ रही है. दरअसल, दिल्ली की मौजूदा विधानसभा में अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में कोई नहीं है. अतः उचित विकल्प यही दिखता है कि दिल्ली में नए सिरे से चुनाव हों और फिर जो परिणाम आएं उनके आधार पर सरकार बने. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर दिल्ली के उपराज्यपाल महोदय दिल्ली विधानसभा को भंग कर  चुनाव के आदेश क्यों नहीं दे रहे ? दरअसल. दिल्ली के दो दलों कांग्रेस और आप ने तो अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है कि वे दिल्ली में चुनाव होने के पक्ष में हैं. लेकिन, भाजपा ने इस विषय में अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं. उसकी तरफ से इस विषय में लगातार गोल-मोल बातें ही की जा रही हैं. वो न तो खुलकर यही कह रही है कि वो दिल्ली की मौजूदा विधानसभा में सरकार बनाएगी और न ही चुनाव को लेकर ही अपना कोई पक्ष स्पष्ट कर रही है. पर इतना जरूर है कि भाजपा के अंदरखाने में दिल्ली की मौजूदा विधानसभा में ही सरकार बनाने के विषय में ही कोई राय बनी है, क्योंकि, नए सिरे से चुनाव करानी की बजाय सरकार बनाने की तरफ भाजपा का अपेक्षाकृत अधिक झुकाव देखा जा सकता है. लेकिन गंभीर सवाल ये है कि आखिर भाजपा दिल्ली सरकार बना कैसे सकती है ? उसके पास सरकार बनाने के लिए आवश्यक संख्याबल कहाँ से आएगा ? एक बात और कि जब भाजपा के पास ३२ सीटें थीं, तब तो  उसने दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर दिया था तो अब जब उसके पास तीस से भी कम सीटें हो गई हैं, वो किस आधार पर सरकार बनाने की बात कर रही है ? वास्तविक बात तो ये है कि भाजपा के पास दिल्ली में सरकार बनाने का न तो संवैधानिक अधिकार है और न ही नैतिक. बावजूद इसके अगर वो दिल्ली में नए सिरे से चुनाव की बजाय मौजूदा परिस्थितियों में सरकार बनाने की तरफ अपना झुकाव प्रदर्शित कर रही है तो ये पूरी तरह से जोड़-तोड़ की राजनीति से प्रेरित रुख है और इसके भावी परिणाम भाजपा के लिए कत्तई सुखद नही रहने वाले 
   यह विचारणीय है कि आखिर वो क्या वजह है कि भाजपा दिल्ली में चुनाव से बचते हुए सरकार बनाने को विकल दिख रही है ?  इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें लोकसभा चुनाव के बाद  कई राज्यों की रिक्त हुई सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणामों पर एक नज़र डालनी होगी. उत्तराखंड से शुरू करते हुए एमपी, बिहार, कर्नाटक, पंजाब आदि तमाम राज्यों के उपचुनावों के परिणामों का कुल निष्कर्ष देखें तो भाजपा का प्रदर्शन स्तर अपेक्षाकृत कोई खास अच्छा नही रहा है. बिहार की दस में से चार, कर्नाटक की तीन में से एक और यहाँ तक कि एमपी जैसे सुरक्षित राज्य में भी उसे कांग्रेस के हाथों एक सीट गंवानी पड़ी. कुल मिलाकर हर जगह उसे अन्य दलों से बराबर की टक्कर मिली है और कई जगहों पर तो उसे मात भी खानी पड़ी है. कहने का अर्थ ये है कि लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित प्रदर्शन के बाद इन उपचुनावों में प्रदर्शन स्तर में गिरावट आना भाजपा के लिए चिंताजनक रहा होगा. संभव है कि इन उपचुनाव परिणामों को देखते हुए ही  भाजपा अभी हाल-फ़िलहाल  दिल्ली में चुनाव से बचना चाह रही हो. भाजपा को भय हो कि कहीं दिल्ली में भी उपचुनावों जैसी स्थिति न हो जाय. और  इसीलिए वो बिना चुनाव मौजूदा परिस्थितियों में ही सरकार बनाने की कवायदें कर रही हो. बेशक भाजपा का यह भय जायज है, लेकिन उसे एक सत्य यह भी समझना चाहिए कि अगर वो जोड़-तोड़ के जरिए मौजूदा परिस्थितियों में दिल्ली में सरकार बना लेती है तो भी उस सरकार का कोई भरोसा न होगा. वो सरकार दो-चार, छः महीने में कभी भी गिर सकती है. और अगर वो जोड़-तोड़ की सरकार गिर जाती है तो फिर भाजपा के पास चुनाव में जाने के सिवा कोई विकल्प न होगा.  और तब अगर  भाजपा चुनाव में जाएगी, तो ये लगभग तय है कि उसे अपनी जोड़-तोड़ वाली राजनीति के कारण भारी हानि उठानी पड़ेगी. मोटे तौर पर कहने का अर्थ ये है कि अगर अभी भाजपा चुनाव में जाती है तो उसको हानि होने की कुछ संभावना मात्र है, लेकिन अगर अभी वो जोड़-तोड़ की सरकार बना लेती है और फिर कुछ दिन बाद उस सरकार के गिरने पर चुनाव में जाती है तो उसको भारी हानि होना लगभग निश्चित है. एक यह बात भाजपा को संतोष दे सकती है कि अब आप का दिल्ली में पूर्ववत प्रभाव नहीं दिख रहा. यह बात लोकसभा चुनावों में स्पष्ट रूप से सामने भी आ गई कि आप को दिल्ली में एक सीट तक नसीब नहीं हुई. ऐसे में उचित होगा कि भाजपा जोड़-तोड़ के जरिए दिल्ली में सरकार बनाने की बजाय दिल्ली में चुनाव का सामना करे. और फिर जो परिणाम आएं उनके आधार पर सरकार बनाने या न बनाने की बात की जाय. ऐसा करना भाजपा के लिए न सिर्फ राजनीतिक तौर पर अच्छा रहेगा, बल्कि जनता के बीच उसे नैतिक रूप से भी मजबूत करेगा.

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

अपनी साख खो रही सीबीआई [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
अक्सर सत्ता के हाथ का खिलौना बनने के आरोप झेलने वाली देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई अपने निदेशक  रंजीत सिन्हा के कारण एकबार फिर सवालों के घेरे में आ गई है. और सबसे बड़ी बात तो ये है कि इसबार ये सवाल  किसी विपक्षी दल या नेता द्वारा नहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए हैं. दरअसल, ये पूरा मामला कुछ यों है कि अभी हाल ही में २जी घोटाले जिसके जांच की निगरानी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है, से जुड़े कुछ लोगों से सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा द्वारा अपने घर पर मुलाकात की गई. अब इसी बात को आधार बनाकर संस्था सिपीआइएल ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिक दायर कर दी कि सीबीआई निदेशक २जी घोटाले के आरोपियों से मिले हुए है, अतः उन्हें इस जांच से अलग किया जाए. संस्था ने साक्ष्य के तौर पर रंजीत सिन्हा के घर के गेस्ट रजिस्टर की कॉपी भी सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखी जिसमे कि २ जी घोटाले के आरोपियों के नाम भी शामिल हैं. इन सभी बातों पर गौर करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में सीबीआई निदेशक से जवाब तलब करते हुए कहा गया कि अगर सीबीआई निदेशक इन आरोपों का खंडन करना चाहते हैं तो लिखित बयान दें. अन्यथा अगर हमें उनके खिलाफ आरोपों में दम दिखा तो उनके द्वारा लिए गए सभी निर्णयों को रद्द कर देंगे. सर्वोच्च न्यायालय की इस तल्ख़ टिप्पणी के बाद न सिर्फ सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा की मुश्किलें बढ़ती नज़र आ रही हैं, बल्कि देश की सबसे बड़ी और बेहतर जांच एजेंसी अपनी विश्वसनीयता के संकट से जूझती हुई भी दिख रही है. सवाल तो यह वाजिब ही है कि एक घोटाले के आरोपी उस घोटाले की जांच कर रही संस्था के सर्वोच्च व्यक्ति से उसके घर पर क्यों और कैसे मिलने पहुँच जाते हैं ? यह सवाल इस नाते और भी गंभीर हो जाता है कि वे आरोपी सीबीआई निदेशक के दफ्तर की बजाय उनके घर पर मिलने गए. अगर आरोपियों को जांच से जुड़ा अपना कोई पक्ष सीबीआई निदेशक के समक्ष रखना था, तो वे इसे प्रक्रियात्मक रूप से सीबीआई के कार्यालय में जाकर रख सकते थे. एक और बात कि सीबीआई निदेशक ऐसा कोई सामान्य व्यक्ति तो होता नहीं है कि जिससे बिना पूर्व अनुमति के कोई भी, कभी भी जाकर मिल ले. लिहाजा, स्पष्ट है कि सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा ने उन आरोपियों को मिलने के लिए समय और अनुमति दी होगी, तभी वे उनसे मिले.  ऐसे में, अब उचित होगा कि सीबीआई निदेशक साहब मौन तोडें तथा जल्द से जल्द इस मामले में अपना स्पष्टीकरण सर्वोच्च  न्यायालय के सामने रखें और न्यायालय तथा देश के मन उपजी शंकाओं का निर्मूलन  करें. वो न्यायालय को बताएं कि आखिर ऐसी क्या बात थी कि उन्हें आरोपियों से अपने घर पर मिलना पड़ा. अगर संभव हो तो वो अपने स्पष्टीकरण की पुष्टि के लिए कुछ साक्ष्य भी  प्रस्तुत करें.  क्योंकि, जो आरोप उनपर लग रहे हैं, वो सिर्फ उनकी नहीं, वरन देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी की विश्वसनीयता को कमजोर करने वाले हैं.
      दरअसल, ये कोई पहली बार नहीं है जब सीबीआई निदेशक इस तरह के किसी विवाद में पड़े हों. इससे पहले भी कई बार सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा अपने उटपटांग बयानों के कारण जब-तब तमाम विवादों में पड़ते रहे हैं, जिनके कारण न केवल उनकी बल्कि पूरी सीबीआई की किरकिरी हुई है. अभी हाल ही में 'बलात्कार का मजा लेने' जैसा  बयान देने के कारण भी सीबीआई निदेशक की भरपूर किरकिरी हुई थी. सवाल यह उठा था कि क्या इस तरह की कुत्सित सोच के व्यक्ति का इतने महत्वपूर्ण पद पर रहना सही है ? अब चूंकि, ये सिर्फ एक बयान का मामला था इसलिए माफ़ी आदि मांगने के बाद समय के साथ दब गया. लेकिन, फिलहाल  जो विवाद सामने आया है, वो पिछले सभी विवादों से कहीं अलग और गंभीर है. क्योंकि, ये किसी विवादित बयान का मामला नहीं है जिसमे कि माफ़ी मांगकर जान छुड़ाई जा सके.  यह एक संस्था की विश्वसनीयता और नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगने का मामला है, जो कि यूँ ही नहीं टल सकता.
    सीबीआई समेत तमाम लोगों द्वारा लंबे समय से ये माग की जाती रही है कि सीबीआई को सरकारी चंगुल से मुक्त करते हुए स्वायत्तता प्रदान की जाय. ये कहा जाता रहा है कि सत्तापक्ष द्वारा अपने राजनीतिक हितों के लिए जब-तब इस जांच संस्था का राजनीतिक दुरुपयोग किया जाता रहा है. हालांकि सत्तापक्ष (चाहें कोई भी दल सत्ता में हो) की तरफ से हमेशा से इस मांग का यह करके विरोध किया जाता रहा है कि सीबीआई से सरकारी नियंत्रण हटने की स्थिति में उसके निरंकुश होने का खतरा बन जाएगा. अब अगर सीबीआई निदेशक पर लगे मौजूदा आरोपों में कुछ भी सच्चाई सिद्ध होती है तो संदेह नहीं  कि सीबीआई स्वायत्तता की मांग तो कमजोर पड़ेगी ही; इसके विरोधियों को इस मांग का विरोध करने के लिए एक ठोस आधार भी मिल जाएगा. वे यह कहने की स्थिति में होंगे कि जब सरकारी नियंत्रण में होने की स्थिति में सीबीआई निदेशक इस तरह का आचरण प्रस्तुत कर रहे हैं; घोटाले के आरोपियों से मिल रहे हैं तो जब ये संस्था स्वायत्त हो जाएगी, तब वे क्या करेंगे.  ऐसे में, यह देखने वाली बात होगी कि सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपने बचाव में क्या और कितने ठोस तथ्य रखते हैं. क्योंकि, रंजीत सिन्हा द्वारा रखे जाने वाले तथ्यों पर न सिर्फ उनकी छवि, उनके पद की गरिमा बल्कि सीबीआई की विश्वसनीयता तथा स्वायत्तता की संभावना भी निर्भर करेगी.

शनिवार, 6 सितंबर 2014

संदिग्ध है अलकायदा की ये धमकी [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आतंकी संगठन अलकायदा प्रमुख अल जवाहिरी के सामने आए ताजा वीडियो टेप में भारत में  अलकायदा की शाखा स्थापित करने की घोषणा के बाद से ही देश के समूचे सुरक्षा तंत्र में खलबली सी मची हुई है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल तथा ख़ुफ़िया एजेंसियों के प्रमुखों तक सबकी बैठकें हो रही हैं. अगर विचार करें तो ये खलबली जायज भी है. क्योंकि ये पहली दफे है जब इस तरह की धमकी का कोई वीडियो अलकायदा की तरफ से आया है. भारत में आतंकी हमले आदि की धमकी के वीडियो तो अब से पहले भी अलकायदा समेत तमाम आतंकी संगठनों की तरफ से जारी किए जाते रहे हैं, लेकिन  ये पहली बार है जब किसी आतंकी संगठन द्वारा देश में अपनी शाखा खोलने की धमकी दी गई है. वो भी बाकायदा जगहों का नाम बताते हुए. वीडियो में कहा गया है कि कायदात-अल-जिहाद नाम का ये अलकायदा का संगठन भारतीय उपमहाद्वीप में भारत, बांग्लादेश, म्यामार आदि जगहों पर इस्लाम और उसके लोगों की हिफाजत करेगा.  गौरतलब है कि अभी अलकायदा का अस्तित्व पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक ही सीमित है. लेकिन, इस वीडियो के आने के बाद यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है  कि क्या वाकई में भारत में भी अलकायदा दबे-छुपे तरह से अपने पैर ज़माने की कवायद करने लगा है ? हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा देश की सभी सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहने व ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस कायदात-अल-जेहाद की प्रमाणिकता के बारे में जानकारी हासिल  करने का निर्देश दिया गया है. साथ ही, इस बात की भी जांच चल रही है कि प्राप्त वीडियो क्या वाकई में अलकायदा प्रमुख अल जवाहिरी का है या किसी बहरूपिये का. और अगर ये अल जवाहिरी का ही है तो भी इसमें कही गई बातें कितनी प्रामाणिक हैं. दरअसल, इस वीडियो और इसमें कही गई  बातों को लेकर संशय की स्थिति होने के लिए कई कारण हैं. पहला कारण तो ये है कि अब अलकायदा में वो पहले जैसी ताकत नहीं है कि वो इस तरह का कोई काम करने से पूर्व  खुली धमकी दे सके. तिसपर अगर देश में उसकी कोई शाखा चल भी रही है तो उसे आराम से चलने देने की बजाय उसका इस तरह से खुला ऐलान करके वो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम क्यों कर रहा है ? ये वो कुछ बातें हैं जो इस वीडियो और इसमें कही गई बातों को संदिग्ध बनाती हैं और इस बात को बल देती हैं कि इस वीडियो में अल जवाहिरी द्वारा कही गईं  कायदात-अल-जिहाद जैसे   संगठन की बातें बस हवा-हवाई भर हैं. ऐसे में, एक सवाल यह भी उठता है कि अगर  इस विडियों की धमकी असत्य व अप्रमाणिक हैं, तो ऐसी धमकी का वीडियो अलकायदा द्वारा जारी  ही क्यों किया गया ?  संभव है कि इस वीडियो के जरिये अलकायदा देश की सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान भटकाकर अपने किसी दुसरे और बड़े मकसद को अंजाम देना चाहता हो. अगर याद करें तो अभी हाल ही में राजस्थान की सीमा से कुछ आतंकियों के देश में घुसने की कवायद की आशंका गृह मंत्रालय द्वारा व्यक्त की गई थी, जिसको लेकर  देश की सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहने को भी कहा गया था. हो सकता है कि कहीं वे आतंकवादी  अलकायदा द्वारा प्रेरित हों और उन्ही की  तरफ से भारतीय सुरक्षा एजेंसियों आदि का ध्यान हटाने के मकसद से अलकायदा द्वारा ये हालिया वीडियो जारी किया गया हो. या यह भी हो सकता है कि अब जब अलकायदा अपने पहले जैसी ताकत, रुतबा व वैश्विक प्रभाव  सबकुछ खो चुका है और उसकी बजाय  आईएसआईएस व हमास जैसे आतंकी संगठनों के चर्चे हैं, तो वह पुनः चर्चा में आने के लिए यह तथ्यहीन वीडियो जारी किया हो. उसकी सोच रही हो कि भारत के लिए यह धमकी भरा वीडियो जारी करने के बाद वो एकबार फिर दुनिया की नज़र में आ जाएगा. अगर ऐसा है तो वो अपने इस उद्देश्य में फ़िलहाल तो काफी हद सफल नज़र आ रहा है. अब वास्तविकता क्या है, ये तो वीडियो के तथ्यों की पूरी जांच के बाद ही पता चलेगा. लेकिन, फिलहाल इतना तो कहा जा सकता है कि अलकायदा के इस वीडियो ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक सनसनी जरूर पैदा कर दी है.
डीएनए 
    उपर्युक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि अलकायदा प्रमुख अल जवाहिरी का ताजा वीडियो  काफी संदिग्ध है. साथ ही, उस वीडियो को लेकर जबतक कुछ साफ़ नहीं हो जाता तबतक सुरक्षा एजेंसियों की हालत 'न उगलने, न निगलने' जैसी ही रहने वाली है. वे न तो इस वीडियो को फर्जी मानकर अनदेखा ही कर सकते हैं और  न ही उसे पूरी तरह से वास्तविक मानकर अपना पूरा ध्यान उसपर लगा ही सकते हैं. ऐसे में, जरूरत होगी कि एक संतुलन के साथ कार्य किया जाय और जब तक कि इस वीडियो के तथ्यों के बारे में कुछ ठोस पता नहीं चल जाता, तब तक देश की आतंरिक व वाह्य सुरक्षा को लेकर बेहद से बेहद सतर्क रहा जाय. क्योंकि, कोई आश्चर्य नहीं कि इस वीडियो की आड़ में आतंक के किसी दूसरे ही खेल का आयोजन अलकायदा द्वारा किया जा रहा हो. 

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बेहतर साबित हो सकती है जन-धन योजना [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
आख़िरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बीते गुरुवार को अपनी बेहद महत्वाकांक्षी 'प्रधानमंत्री जन-धन योजना' का शुभारंभ कर दिया गया. इस योजना के तहत आगामी २६ जनवरी तक तकरीबन ७.५  करोड़ लोगों के बैंक खाते खुलवाकर उन्हें अर्थव्यवस्था में भागीदार बनाने का वर्तमान लक्ष्य प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित किया गया है. इसके अलावा इस योजना की प्रगति के अनुसार इसके लक्ष्यों का और विस्तार भी आगे किया जा सकता है.  इसके आरम्भ में बीस राज्यों के मुख्यमंत्रियों समेत केन्द्र सरकार का समूचा तंत्र भी अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ लगा था. इसीसे पता चलता है कि प्रधानमंत्री द्वारा इस योजना के आरम्भ को लेकर अपने मंत्रियों आदि के साथ कितना चिंतन-मनन   किया गया होगा. इन सब कोशिशों का ही परिणाम ये रहा कि प्रधानमंत्री द्वारा इस योजना के आरम्भ के पहले दिन ही डेढ़ करोड़ खाते खुलवाने का प्रथम लक्ष्य पूरा हो सका. देश के ६०० जिलों में खाता खोलने के लिए कैम्प लगाए गए थे, जिनमे कि डेढ़ करोड़ खाते खोले गए. बहरहाल, यह प्रथम लक्ष्य तो पूरा हो गया, लेकिन इस योजना के वास्तविक लक्ष्य, आर्थिक विषमता की समाप्ती व आम जन की आर्थिक भागेदारी, को प्राप्त करना सरकार के लिए कत्तई सरल नहीं रहने वाला है. हालांकि इस योजना से लोगों को जोड़ने के लिए इसमें कई लुभावने और कारगर प्रावधान भी रखे गए हैं, जिनसे कि प्रथम द्रष्टया लोग इसके प्रति अवश्य आकृष्ट होंगे. कुछ मुख्य प्रावधानों की बात करें तो इस योजना के तहत व्यक्ति को खाते के साथ डेबिट कार्ड तथा १ लाख का दुर्घटना बीमा व ३०००० का जीवन बीमा भी दिया जाएगा. हाँ, बीमा देने की ये व्यवस्था केवल आगामी २६ जनवरी तक खाता खुलवाने वालों के लिए ही है. लेकिन, इन सब चीजों के बावजूद भी यह योजना तब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में नहीं बढ़ सकेगी जबतक कि बैंकों का विस्तार न होगा.  यहाँ समझना होगा कि इस योजना का लक्ष्य सिर्फ लोगों खाते खुलवाना नहीं, बल्कि लोगों को बैंकों से जोड़ना है. खाता खुल जाने भर से कोई गरीब व्यक्ति बैंक से जुड़ जाएगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता.  इसके लिए आवश्यक है कि गाँव-गाँव तक बैंकों का विस्तार हो जिससे वे हर  व्यक्ति की पहुँच के दायरे में आएं. तभी सही मायने में लोगों का बैंकों से जुड़ना हो सकेगा और वे अपने बैंक खाते का उपयोग कर सकेंगे. बिना बैंकों के विस्तार के गाँव के लोग तो अपने खातों का कोई विशेष उपयोग कर्र नहीं पाएंगे, साथ ही एक समस्या यह भी होगी कि इस योजना के तहत खुलने वाले बैंक खातों के साथ बीमा आदि की जो व्यवस्था दी जा रही है, उसका प्रबंधन भी अभी मौजूदा बैंक शाखाओं से होना सहज नहीं होगा. उसके लिए अतिरिक्त बैंक शाखाओं की आवश्यकता पड़ेगी. यह चिन्ता बैंक कर्मचारियों द्वारा भी लगातार जताई जा रही है. अतः उचित होगा कि सरकार इस योजना के सामानांतर बैंकों के विस्तारीकरण की दिशा में बैंकों के साथ चिंतन-मनन करे तथा कुछ ठोस कदम उठाए. क्योंकि, बिना बैंकों के विस्तार के यह योजना भी केवल शहरी व संपन्न लोगों की योजना बनकर रह जाएगी और मुख्यतः जिन गरीब एवं ग्रामीण लोगों की आर्थिक भागेदारी बढ़ाने  के लिए प्रधानमंत्री ने इस योजना का खांका खिंचा है, वे ही इस योजना से अलग-थलग रह जाएंगे.  साफ़ है कि इस प्रकार ये योजना अपने निर्धारित लक्ष्य से भटक जाएगी. 
      इस योजना पर थोड़ा और विचार करें तो आम जनमानस को अर्थव्यवस्था में भागीदार बनाना तो इस योजना का मुख्य लक्ष्य है ही, पर इसके अलावा इसका एक और अत्यंत महत्वपूर्ण लक्ष्य देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देना भी है. इस योजना के तहत जितने भी नए बैंक खाते खुलेंगे अगर खाताधारकों द्वारा उनका उपयोग होता है, तो निश्चित ही बैंकों के पास काफी अधिक नया धन भी आएगा, जिससे कि बैंक पूँजी की समस्या से काफी हद तक राहत पा सकेंगे. पर्याप्त पूँजी होने पर बैंक उद्योग जगत समेत अन्य तमाम क्षेत्रों में निवेश के लिए नया कर्ज देने की स्थिति में भी होंगे, जिससे कि अर्थव्यवस्था को मजबूती व गति मिलना स्वाभाविक है. अतः समझना आसान है कि अगर यह योजना अपने निर्धारित लक्ष्य की तरफ समुचित क्रियान्वयन के साथ बढ़ती जाती है तो ये न सिर्फ भारत के आम आदमी को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में सहायक होगी, बल्कि बेहद धीमी हो चुकी  भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी को गति देने में भी ईंधन का काम करेगी. 
  इसमें तो कोई संदेह नहीं कि 'प्रधानमंत्री जन-धन योजना' एक बेहतरीन योजना है, बशर्ते कि सरकार इसको लेकर सदैव सजग व सचेत रहे जिससे कि ये भी पिछली सरकार की तमाम बेहतरीन योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार व व्यवस्थाजन्य खामियों का शिकार न हो जाए. सरकार चाहे तो इस योजना की निगरानी  के लिए कोई कमिटी बना सकती है, जो कि प्रत्येक तीन या छः महीने पर सरकार को इस योजना की प्रगति की जानकारी दे. या और भी कई तरीके अपनाए जा सकते हैं. अगर ये चीजें की जाती हैं और ये योजना सही ढंग से क्रियान्वित होती है तो संदेह नहीं कि इसके कई दूरगामी परिणाम सिद्ध हो सकते हैं.