मंगलवार, 3 मार्च 2020

ऑस्कर सम्मान और भारतीय सिनेमा [दैनिक जागरण ले राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत 31 जनवरी को भारतीय थिएटरों में लगभग सौ स्क्रीन पर दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ प्रदर्शित हुई थी। तब इस फिल्म पर भारत में बहुत अधिक कोई चर्चा नहीं हुई। स्क्रीन कम होने के कारण न तो दर्शकों के बीच इसे लेकर कोई रुझान दिखा और न ही फिल्म समीक्षकों का ही इसपर ध्यान गया। लेकिन दस फरवरी को जब यह घोषणा हुई कि इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म और सर्वश्रेष्ठ मौलिक पटकथा का ऑस्कर दिया गया है, तो फिर भारत सहित दुनिया भर में इसे लेकर लोगों की जिज्ञासा बढ़ गयी। बांग जून हो निर्देशित ‘पैरासाइट’ पहली गैर-अंग्रेजी एशियाई फिल्म है, जिसे ऑस्कर प्राप्त हुआ है। इसके साथ ही संभव है कि ऑस्कर निर्णायकों पर लगने वाले इस आरोप पर कुछ विराम लगे कि यह पुरस्कार देने में गैर-अंग्रेजी फिल्मों के साथ भेदभाव किया जाता है।
पैरासाइट दो परिवारों की कहानी है। एक परिवार अमीर है और दूसरा गरीब। फिर कुछ नाटकीय घटनाक्रमों के साथ गरीब परिवार के सदस्य अपने सम्बन्ध को अप्रकट रखते हुए अमीर परिवार में अलग-अलग भूमिकाओं में नौकरी करने लगते हैं। इस नौकरी के साथ उनका जीवन बेहतर चलने लगता है, लेकिन जीवन-स्तर में आया ये बदलाव उनके व्यवहार और सोच में भी बदलाव लाता है। हम देखते हैं कि वे जरा-सी बेहतर स्थिति में पहुँचते ही अपने जैसे गरीबों के प्रति कटु व्यवहार करने लगते हैं। इसके बाद हम धीमे-धीमे गरीबी-अमीरी के द्वंद्व की आंतरिक जटिलताओं से भी परिचित होते हैं।

झूठ बोलकर नौकरी पाने वाले तरीके पर बॉलीवुड में भी फ़िल्में बनी हैं, लेकिन उनकी सीमा का विस्तार हास्य तक ही रहा है और अंत आदर्शवादी ढंग से हो गया है, जबकि पैरासाइट इस बिंदु पर ही बड़ी फिल्म बन जाती है। इसमें थोपा गया कोई आदर्शवाद नहीं है और न ही बनावटी यथार्थ। इसके गरीब पात्रों के प्रति न तो कभी सहानुभूति होती है, न ही अमीरों के प्रति घृणा पैदा करने की कोशिश ही फिल्म में की गयी है। इसके सभी रंग स्वाभाविक होते हुए भी समग्र कैनवस पर आर्थिक असमानता और पूँजी की समस्या को लेकर एक अनूठा चित्र खींचने में कामयाब रहते हैं। फिल्म की पृष्ठभूमि कोरियाई है, लेकिन गरीबी-अमीरी पर इसका कथ्य समूचे विश्व का निदर्शन करने में कामयाब नजर आता है।
बहरहाल, भारत की तरफ से अबकी ऑस्कर में गली बॉय को भेजा गया था। ज़ोया अख्तर द्वारा निर्देशित यह फिल्म गत वर्ष आई थी। दर्शकों और समीक्षकों दोनों की कसौटी पर यह फिल्म खरी उतरी और कई भारतीय अवार्ड भी इसने जीते हैं। यह फिल्म मुंबई की गरीबी में पले-बढ़े एक लड़के के रैपर बनने के सपने के पूरे होने की कहानी है। इस सफ़र में उसे कैसे संघर्षों से जूझना पड़ता है, फिल्म इसको दिखाती है। लेकिन मूलतः इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नया या अलग नहीं है, जो इसे ऑस्कर में भेजने लायक ख़ास बनाता हो। अगर संघर्ष से सपने पूरे होने की कहानी के कारण यह फिल्म महत्वपूर्ण मानी गयी है, तो इस मायने में आनंद कुमार के जीवन पर आधारित सुपर-30 इससे अधिक बेहतर फिल्म लगती है। मगर ‘गली बॉय’ के प्रति हमारे फिल्म क्षेत्र से जुड़े निर्णायकों में इतनी उदारता क्यों है, यह एक तरह से रहस्य का ही विषय लगता है।
ऑस्कर में भारतीय फिल्मों के प्रवेश की शुरुआत 1957 महबूब खान की मदर इंडिया से होती है जो ऑस्कर की ‘सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म’ की श्रेणी में नामित होने में कामयाब भी रही थी, लेकिन पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सकी। इसके तीन दशक बाद 1988 में दूसरा मौका आया जब मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ को ऑस्कर में नामित किया गया लेकिन पुरस्कार इसे भी नहीं मिला। फिर 2001 में आमिर खान की लगान के साथ भी यही हुआ। इसके अलावा, विधु विनोद चोपड़ा की ‘एन एनकाउंटर विद फेसेस’, आश्विन कुमार की ‘लिटिल टेररिस्ट’, रायका जेहताबची की ‘पीरियड एंड ऑफ़ सेंटेंस’ भारत की कुछ डाक्यूमेंट्री लघु फ़िल्में भी ऑस्कर में जा चुकी हैं। इनमें ‘पीरियड एंड ऑफ़ सेंटेंस’ को ऑस्कर मिला भी था। लेकिन भारतीय भाषाओं की फीचर फ़िल्में आज भी ऑस्कर की प्रतीक्षा में हैं। 
गांधी और स्लमडॉग मिलिनेयर ये भारतीय पृष्ठभूमि और कहानी पर आधारित विदेशी निर्देशकों की वो दो फ़िल्में हैं, जिन्होंने ऑस्कर में झंडा गाड़ा था। इन दोनों फिल्मों ने विभिन्न श्रेणियों में आठ-आठ ऑस्कर जीते थे और इनके लिए दो भारतीयों भानु अथैया और ए. आर. रहमान को भी ऑस्कर मिला था। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है कि भारतीय नायक या भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी पर विदेशी निर्देशक ऑस्कर विजेता फ़िल्में बना लेते हैं, जबकि बॉलीवुड नहीं बना पाता। क्या इस सवाल का बॉलीवुड फिल्म निर्माता-निर्देशकों के पास कोई जवाब है कि बॉलीवुड में गांधी पर अबतक कोई अच्छी फिल्म क्यों नहीं बन पाई? क्यों अब भी गांधी पर फिल्म के विषय में सोचते ही रिचर्ड एटनबरो की गांधी का ही ख्याल आता है? कितनी विचित्र बात है कि अपने राष्ट्रपिता पर यह देश एक ढंग की फिल्म तक नहीं बना पाया। ऐसे ही स्लमडॉग मिलिनेयर की कहानी उस मुंबई की गरीबी पर है, जिस मुंबई में पूरा बॉलीवुड बसता है। लेकिन इसपर फिल्म बनाने के लिए डैनी बॉयल को आना पड़ता है। वो फिल्म बनाते हैं और सम्मान भी बटोरते हैं, बॉलीवुड देखता रह जाता है।
देश में एक राय यह मिलती है कि हमें ऑस्कर के प्रमाणपत्र की जरूरत क्या है। बात किसी प्रमाणपत्र की नहीं है, लेकिन फिल्म पुरस्कारों में ऑस्कर की वैश्विक प्रतिष्ठा से इनकार नहीं किया जा सकता। अब अगर हम अपने फिल्म सम्मानों को भी वैश्विक स्तर प्रतिष्ठित करने में कामयाब होते तो जरूर हमें ऑस्कर की परवाह करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों को छोड़ दें तो हमारा कोई फिल्म पुरस्कार विश्व में तो दूर की बात है, देश में भी विश्वसनीय और सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता। अभी हाल ही में घोषित फिल्मफेयर पुरस्कारों को लेकर मचा बवाल इसीका उदाहरण है। सो कुल मिलाकर बात ये है कि हमारे भारतीय फिल्मकारों को भारतीय समाज में मौजूद नए विषयों को चिन्हित करते हुए न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य दृष्टि के साथ उनपर नए तरीकों से फिल्म बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। ऐसे प्रयास ही भारतीय सिनेमा को वैश्विक प्रतिष्ठा प्रदान करेंगे। अंततः बात यह भी है कि साहसिक प्रयास ही सम्मान का संधान करते हैं।