शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

भारत-न्यूजीलैंड संबंधों में नई ताज़गी की उम्मीद [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
विगत दिनों न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की भारत दौरे पर आए थे। रूस, चीन, अमेरिका आदि तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्षों की तुलना में उनका यह भारत दौरा मीडिया कवरेज के लिहाज से काफी शांत रहा, लेकिन इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इसका महत्व कम है। न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री के इस दौरे में दोनों देशों के बीच बातचीत के लिए दो बिंदु सबसे महत्वपूर्ण माने जा रहे थे। पहला तो ये कि भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता के लिए न्यूजीलैंड का समर्थन प्राप्त करने की दिशा में पहल करेगा और दूसरा ये कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में दोनों देशों के बीच आम सहमति बनेगी। जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जॉन की ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया तो स्पष्ट हो गया कि इन बिन्दुओं पर न केवल बातचीत हुई है, बल्कि भारत न्यूजीलैंड को अपने पक्ष में करने में संभवतः सफल भी रहा है। न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की ने इस संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के शामिल होने को लेकर बातचीत हुई है और एनएसजी में भारत के शामिल होने की महत्ता को वे स्वीकार करते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भारत की सदस्यता को लेकर वर्तमान में एनएसजी में जारी प्रक्रिया में न्यूजीलैंड रचनात्मक रूप से योगदान करना जारी रखेगा तथा एनएसजी सदस्यों के साथ मिलकर इस सम्बन्ध में जल्द से जल्द किसी नतीजे पर पहुंचा जाएगा। इसके अलावा उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि न्यूजीलैंड संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने के सम्बन्ध में भी भारत का समर्थन करेगा। इसके अलावा आतंकवाद के मसले पर भी दोनों देशों के बीच सहमति बनी है। इस सम्बन्ध में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट किया कि आतंकवाद और कट्टरपंथ समेत साइबर हमलों के खतरे के विरुद्ध दोनों देश एक-दुसरे का सहयोग करने पर सहमति बनी है। ये बातें सुनने में तो काफी अच्छी लगती हैं और आशा जगाती हैं, मगर व्यावहारिकता में ये न्यूजीलैंड अपनी इन बातों पर कितना खरा उतरता है, ये तो समय ही बताएगा। 
 
राज एक्सप्रेस
अब जो भी, मगर वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में न्यूजीलैंड का भारत के लिए बेहद महत्व है। अब चूंकि, ऐतिहासिक रूप से न्यूजीलैंड से भारत के सम्बन्ध अगर बहुत विद्वेषपूर्ण नहीं रहे तो बहुत अच्छे भी नहीं रहे हैं। न्यूजीलैंड भारत से कहीं अधिक भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी चीन के निकट है। चीन और न्यूजीलैंड के बीच सम्बन्ध बेहद गर्मजोशी वाले हैं। इसी नाते जब चीन ने भारत की एनएसजी सदस्यता की राह में रोड़ा लगाया था, तो उसके रुख का समर्थन करने वाले नौ देशों में न्यूजीलैंड भी था। न्यूजीलैंड ने भी चीन के इस रुख का समर्थन किया था कि भारत की सदस्यता पर और विचार किया जाना चाहिए। तबसे भारत चीन का साथ देने वाले उन नौ देशों को अपनी तरफ करने को प्रयासरत है।  अब न्यूजीलैंड समेत चीन का समर्थन करने वाले देशों में से जितने अधिक देश भारत के समर्थन में उतरेंगे चीन का विरोध उतना ही कमजोर पड़ेगा और वो बेहद अकेला पड़ जाएगा। ऐसे में, स्पष्ट है कि एनएसजी सदस्यता की दृष्टि से भारत के लिए न्यूजीलैंड का समर्थन बेहद महत्व रखता है।
 
वैसे यहाँ आवश्यकता सिर्फ भारत की ही नहीं है, दुनिया के अधिकांश देशों की ही तरह न्यूजीलैंड के लिए भी व्यापार की दृष्टि में  भारत एक बेहतर बाजार के रूप में दिख रहा है। प्रधानमंत्री मोदी इस बात बाखूबी जानते हैं और भारतीय बाजार की इस शक्ति के समुचित प्रयोग के ही जरिये दुनिया के तमाम विरोधी देशों को भी एक साथ साधकर चल भी रहे हैं। गौर करें तो रूस और अमेरिका जैसे दो विकट प्रतिद्वंद्वी देशों से इसवक़्त भारत के सम्बन्ध लगभग समान रूप से मधुर और गतिशील हैं तथा इससे इनमें किसी भी देश को कोई समस्या नहीं है। उदाहरण के तौर पर उल्लेखनीय होगा कि एक तरफ भारत रूस से एयर डिफेन्स सिस्टम का सौदा किया, तो दूसरी तरफ अमेरिका से अत्याधुनिक होव्तिजर तोपों के खरीद पर सहमति कायम की। इस तरह दोनों देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो गए  और इन व्यापारिक संबंधों के जरिये अन्य सम्बन्ध भी दुरुस्त ही रहने हैं। यही भारतीय बाजार की शक्ति है। अब न्यूजीलैंड को भी भारत अपने इसी बाजार के जरिये चीन की तुलना में खुद के अधिक करीब लाने की कवायदें करने की दिशा में प्रयास करेगा। चीन और न्यूजीलैंड के बीच व्यापारिक सम्बन्ध ही तो उनके संबंधों को मजबूत किए हुए हैं। भारत और न्यूजीलैंड के बीच बिलकुल भी व्यापार नहीं हो, ऐसा नहीं है। लेकिन, वो चीन की अपेक्षा बेहद कम है, जिसे बढ़ाने की दिशा में अब भारत जोर दे रहा है। इसीलिए न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की की इस ताज़ा यात्रा में दोनों देशों के बीच व्यापक मुक्त व्यापार समझौते को लेकर भी प्रतिबद्धता जताई गई।
 
वैसे, चीन से न्यूजीलैंड के सिर्फ व्यापारिक सम्बन्ध हैं, जबकि भारत से उसका सांस्कृतिक जुड़ाव भी है। भारत के लगभग बीस हजार से ऊपर छात्र न्यूजीलैंड में पढ़ते हैं। इस तरह भारतीय संस्कृति अपनी मौजूदगी वहाँ जमाए हुए है। अब बस एकबार न्यूजीलैंड को भारतीय बाजार का स्वाद मिल जाय, फिर उसके लिए स्वतः ही भारत का महत्व चीन से कहीं अधिक हो जाएगा।

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

पुस्तक समीक्षा : कुछ सच्ची-कुछ झूठी सी मुसाफ़िर कैफे [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
‘मसाला चाय’ और ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स अप्लाई’ के बाद ‘मुसाफिर कैफे’ युवा पाठकों के बीच ‘नई वाली हिंदी’ के लेखक के रूप में मशहूर दिव्य प्रकाश दुबे की तीसरी किताब है। पिछली दोनों किताबें कहानी-संग्रह थीं, ये उपन्यास है। जिन्होंने दिव्य की पिछली दोनों किताबें पढ़ी हैं, उन्हें मुसाफिर कैफे पढ़ने पर ये बात स्पष्ट रूप से समझ आएगी कि इसमें दिव्य अपने लेखन के उस सुरक्षित घेरे जिसमें रहते हुए उन्होंने पिछली दोनों किताबें लिखी हैं, से बाहर आने की कोशिश किए हैं। वो सुरक्षित घेरा है – कथ्य और कथानक का। ‘मसाला चाय’ और ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स अप्लाई’ की कहानियों में सामान्य और हमारे दैनिक जीवन से जुड़े किन्तु जानबूझकर नज़रअंदाज किए जाने वाले विषयों को कथानक का आधार बनाया गया हैं। साथ ही, उन विषयों पर बेहद हल्के-फुल्के अंदाज़ में अपनी बात कही गई है। जबकि मुसाफिर कैफे में दिव्य ने हल्के-फुल्के विषयों को छोड़ जीवन, जीवन के महत्व व उद्देश्य जैसे अत्यंत गंभीर और दार्शनिक प्रश्नों को कहानी का आधार बनाया है। कहानी की शुरुआत में जरूर सामान्य जीवन से सम्बद्ध शादी, सेक्स, घर-परिवार इत्यादि बातें आई हैं, लेकिन यह सब बातें कथानक के मूल विषय जो कि जीवन के दार्शनिक विवेचन से सम्बद्ध है, को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका भर निभाती नज़र आती हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि इतने गंभीर विषय के बावजूद भी कहानी की भाषा वही ‘नई वाली हिंदी’ है, जिसके लिए दिव्य प्रकाश दुबे जाने जाते हैं। ऐसे गंभीर विषय पर आधारित कथानक को अपनी जवान और ताज़गी भरी हिंदी में पिरो लेना इस उपन्यास के सम्बन्ध में लेखक की बड़ी सफलता कही जा सकती है। साथ ही इसके लिए भी लेखक की प्रशंसा होनो चाहिए कि उन्होंने सेक्स दृश्यों का वर्णन करते हुए साहित्य और मस्तराम के बीच के बारीक भाषाई अंतर का ख्याल रखा है। पूरी तरह से सेक्स दृश्यों का वर्णन करने पर भी कहीं से ये नहीं लगता कि यहाँ लेखक पोर्नग्राफिकल हो रहे हैं। जिस साहित्यिक तरीके से सेक्स दृश्यों का वर्णन किया गया है, वो उन तमाम रचनाकारों के लिए सीख की तरह है, जो बोल्डनेस के नाम पर कहानी में सेक्स का ऐसे खुल्लमखुल्ला वर्णन कर देते हैं, जैसे कि मस्तराम की कहानी लिख रहे हों।   

मुसाफिर कैफे में दिव्य ने हल्के-फुल्के विषयों को छोड़ जीवन, जीवन के महत्व व उद्देश्य जैसे अत्यंत गंभीर और दार्शनिक प्रश्नों को कहानी का आधार बनाया है। कहानी की शुरुआत में जरूर सामान्य जीवन से सम्बद्ध शादी, सेक्स, घर-परिवार इत्यादि बातें आई हैं, लेकिन यह सब बातें कथानक के मूल विषय जो कि जीवन के दार्शनिक विवेचन से सम्बद्ध है, को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका भर निभाती नज़र आती हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि इतने गंभीर विषय के बावजूद भी कहानी की भाषा वही ‘नई वाली हिंदी’ है, जिसके लिए दिव्य प्रकाश दुबे जाने जाते हैं। ऐसे गंभीर विषय पर आधारित कथानक को अपनी जवान और ताज़गी भरी हिंदी में पिरो लेना इस उपन्यास के सम्बन्ध में लेखक की बड़ी सफलता कही जा सकती है।
अगर एक नज़र मुसाफिर कैफे के कथानक पर डालें तो इसके दो मुख्य पात्र हैं - सुधा और चंदर। चंदर जो अच्छी-भली नौकरी में है और दुनिया के मानकों के हिसाब से सेटल्ड है, मगर वो इस जिंदगी से संतुष्ट नहीं है। दूसरी तरफ सुधा एक फैमिली लॉयर है। कोर्ट में टूटतीं शादियाँ देख शादी से इतना डर चुकी है कि शादी नहीं करना चाहती। ये दोनों मिलते हैं, करीब आते है और एक ही घर में रहने भी लगते हैं। एक-दूसरे की चीजों का ध्यान रखने लगते हैं। हनीमून भी मना लेते हैं। कुल मिलाकर वो सबकुछ करते हैं, जो शादीशुदा लोगों के लिए सामाजिक रूप से निर्धारित है, लेकिन सुधा शादी नहीं करना चाहती और चंदर शादी चाहता है। इसी बिंदु पर दोनों में मतभेद बढ़ जाते हैं और यहीं से कहानी में नाटकीयता का प्रवेश होता है। चंदर बड़े ही नाटकीय ढंग से प्रेग्नेंट सुधा और नौकरी-घर सबकुछ छोड़कर एक अनिश्चित सफ़र पर निकल जाता है। बस इसके बाद से कहानी का लगभग पूरा हिस्सा जीवन के उक्त दार्शनिक प्रश्नों का हल खोजने में बीता है, जिस दौरान हमें कहानी में अनेक अति-नाटकीय मोड़ देखने को मिलते हैं।  
दैनिक जागरण

यह सही है कि दिव्य ने एक गंभीर विषय को नई हिंदी यानी सहज भाषा में प्रस्तुत करने का काफी हद तक सफल प्रयास किया है, लेकिन कहीं-कहीं लम्बे-लम्बे और अनावश्यक ही खींचे गए से संवाद कहानी को उबाऊ भी बना दिए हैं। जहां-तहां कहानी भी खिंची हुई सी प्रतीत होने लगती है। खासकर उपन्यास के उत्तरार्ध में ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक को भी उपन्यास के पात्र चंदर की ही तरह अपनी मंजिल का कुछ पता नहीं है। एक अजीब-सा भटकाव नज़र आता है। चंदर के इधर-उधर भटकने के क्रम में बहुत से अनावश्यक और कहानी को फिजूल में लम्बा करने वाले हिस्से गढ़े गए हैं। कहीं-कहीं ये भटकाव इतना अधिक हो जाता हैं कि लगता है कि ये उपन्यास नहीं, लेखक की आत्मकथा हो। यह सब चीजें मिल-जुलकर कहानी को उबाऊ बनाती हैं और कथानक अक्सर पाठक को बाँधे रख पाने में नाकाम नज़र आता है। 
मुसाफ़िर कैफ़े आवरण

इन सबके अलावा इस उपन्यास के कथानक में कई एक जगहों पर तार्किकता का भी अभाव नज़र आता है। पहली चीज कि चंदर जो एक पढ़ा-लिखा, सेटल्ड युवा है और एकदम प्रैक्टिकल भी है, उसमें अचानक ये वैराग्य कहाँ से और क्योंकर जगता है कि वो सबकुछ छोड़कर ‘जीवन का रहस्य’ खोजने निकल पड़ने का अव्यावहारिक निर्णय ले लेता है ? दूसरी तरफ सुधा शादी के प्रति अपने एक अतार्किक भय के कारण चंदर को सबकुछ छोड़कर एक अनिश्चित सफ़र पर जाने कैसे देती है ? ये सही है कि शादी को लेकर लोगों के मन में डर होता है, पर सुधा का जो डर प्रस्तुत किया गया है, वो उसके चरित्र से कत्तई मेल नहीं खाता और एक हद तक अति-नाटकीय प्रतीत होता है। इसके बाद, सुधा का चंदर से एबॉर्शन का झूठ बोलना, चंदर का सच जानते हुए भी उस झूठ को मान लेना, फिर अपरिचित पम्मी को होटल खरीदने के लिए पैसे से मदद करना इत्यादि तमाम घटनाएं किसी पुरानी हिंदी फिल्म की तरह ही हैं। अंत भी फ़िल्मी टाइप ही है। इनमें कहीं कोई तार्किकता और व्यावहारिकता नहीं दिखती। कह सकते हैं कि यह कहानी है और कहानी में इतनी छूट चलती है, लेकिन आज के युवाओं जो बेहद प्रैक्टिकल और तार्किकता में विश्वास करने वाले हैं, को ध्यान में रखके अगर आप लिख रहे हों, तब ऐसी छूट नहीं ले सकते। ये उनके साथ अन्याय होगा। ये कोई छायावादी साहित्य का युग थोड़े है कि लेखक अपने कल्पनालोकों का सृजन कर व्यावहारिकताओं से मुंह मोड़ लेंगे।

खैर, कहानी के प्रस्तुतिकरण की शैली काफी नई और प्रयोगपूर्ण है। इस तरह की शैली दिव्य अपनी कुछेक कहानियों में भी प्रयोग कर चुके हैं। ‘क से कहानी’, ‘ब से बेटा शादी कर लो’ आदि छोटे-छोटे और दिलचस्प से उपशीर्षक देकर कहानी को आगे बढ़ाना एक सफल और अच्छा प्रयोग कहा जा सकता है। इसी ढंग से मुसाफिर कैफे की कहानी प्रस्तुत की गई है।

उपर्युक्त सभी बातों का निष्कर्ष यह है कि ‘मुसाफिर कैफे’ का विषय तो बेहद गंभीर और जरूरी है, लेकिन कमजोर कथानक के कारण उसके साथ समुचित न्याय नहीं हो पाया है। सीधे शब्दों में कहें तो ये कहानी कुछ सच्ची लगती है तो कुछ झूठी भी प्रतीत होती है। कहीं अचानक जीवन का कोई महत्वपूर्ण सच हमें चौंका देता है, तो कहीं कुछ ऐसा नकली और झूठ-सा दीखता है जो हमें निराश कर देता है। दरअसल इस विषय को सही ढंग से संप्रेषित करने में सक्षम कथानक को गढ़ने में लेखक को ठीक ढंग से सफलता नहीं मिली है और कथानक उलझता हुआ अचानक ही समाप्त हो गया है। अगर इस उपन्यास के विषय को और बेहतर  कहानी का साथ मिलता तो पूरी संभावना है कि ये आज के महानगरीय जीवन में मशीन की तरह चल रहे आदमी की नज़रंदाज़ की जा रही अंतर्व्यथा की परतें खोलने तथा समाज को जीवन का वास्तविक अर्थ समझाने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण कृति सिद्ध होती।

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

भुखमरी से कब मिलेगी मुक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  •  पीयूष द्विवेदी भारत
मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो प्रमुखतः रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है। इनमे भी रोटी अर्थात भोजन सर्वोपरि है। भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है। अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो अभी विगत वर्ष ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित भारत में हैं। अभी देश में लगभग १९. करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं। इसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहाँ भी हमसे कम मात्रा में भुखमरी की स्थिति है। गत दिनों ग्लोबल हंगर इंडेक्स द्वारा दुनिया भर के देशों में भुखमरी की स्थिति को लेकर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट में भुखमरी को लेकर भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक नज़र आती है। ११८ देशों की इस सूची भारत का स्थान ९७वां हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं जबकी आबादी का 15.2 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार हैं इस सूचकांक में भारत का स्कोर २८.५ है, जो विकासशील देशों की तुलना में तो काफी अधिक है, क्योंकि सूचकांक में विकासशील देशों का औसत स्कोर २१.3 है  लेकिन, भारत के दूसरे पड़ोसियों की स्थिति बेहतर है, जो इस इंडेक्स में ऊपर हैं मिसाल के तौर पर नेपाल ७२वें नंबर है, जबकि म्यांमार ७५वें, श्रीलंका ८४वें और बांग्लादेश ९०वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में गत वर्ष भी भारत को श्रीलंका नेपाल से नीचे रखा गया था। अभी ये हालत तब थी, जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया था। इस रिपोर्ट को देखते हुए तमाम सवाल उठते हैं, जो भुखमरी को लेकर भारत वर्तमान और पिछली सभी सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं।  गत वर्ष की जी एच आई की रिपोर्ट में कहा गया था कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहाँ भुखमरी की समस्या गंभीर रूप से है जिससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है। ये स्थिति अब भी बनी हुई है। सवाल है कि गत वर्ष से अबतक इस समस्या से निपटने की दिशा में क्या कदम उठाए गए ?
उल्लेखनीय होगा कि नेपाल और श्रीलंका भारत से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की श्रेणी में आते हैं, ऐसे में ये सवाल  गंभीर हो उठता है कि जो श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम  के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है ? इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलु पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि  भारत की  आबादी  श्रीलंका, नेपाल से जितनी अधिक हैभारत के पास क्षमता संसाधन भी उतने ही अधिक हैं।  अतः यह नहीं कह सकते कि अधिक आबादी के कारण भारत भुखमरी पर नियंत्रण करने के मामले में श्रीलंका आदि से पीछे रह रहा है। इसका असल कारण तो यही है कि हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी भी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए। यहाँ सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया, कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया।
दैनिक जागरण
 
दुनिया में खाद्यान उत्पादन के मामले में भारत दूसरे नंबर पर आता है फिर भी भारत के कई राज्य के लोग भूख से पीड़ित हैं। जिनकी संख्या अफ्रीकी देश इथियोपिया या सूडान से भी अधिक हैं। भारतीय बच्चों में से 60% कुपोषण के शिकार हैं। यह तब है, जब भारत में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। देश में खाद्यान्नों के कुल उत्पादन में साल दर साल बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। 1951-52 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था। जो 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन, 2013 में 25.9 करोड़ टन पहुँच गया। प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी खासा सुधार हुआ है। 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-2009 के बाद 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया। ऐसे में, महत्वपूर्ण सवाल ये उठता है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है ? यहाँ मामला ये है कि  हमारे यहाँ प्रायः हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है, पर उस अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग २० फिसद अनाज, भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा  समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है। खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है। संयुक्त राष्ट्र के ही  मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष . अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग ८५ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं सकता ? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा। खाद्य वितरण प्रणाली दोषपूर्ण है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सम्बन्ध में ये सर्वविदित वास्तविकता है कि लगभग 51% प्रदत्त खाद्य भ्रष्टाचार के कारण उपलब्ध नहीं हो पाता और जिसे खुले बाजार में ऊँची कीमतों पर बेचा जाता है। सूखा या बाढ़ के अवसर पर खाद्य उत्पादन और सब्सिडी बिल में निहित मूल्य वृद्धि जो कई जरुरतमंद लोगों को सब्सिडी के लिये पात्रता के दायरे से बाहर करता है आदि के सन्दर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है। हमें वितरण प्रणाली से लीकेज को कम करने और इसे पारदर्शी बनाने की जरूरत है।
उल्लेखनीय होगा कि पिछली संप्रग- सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित खाद्य सुरक्षा क़ानून बड़े जोर-शोर से लाया गया था। संप्रग नेताओं का  कहना था कि ये क़ानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा। गौर करें तो इसके तहत कमजोर गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी। लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुँच सके। अर्थात कि मूल समस्या यहाँ भी नज़रन्दाज ही की गई। बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है, अब केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार है, लेकिन खाद्य सुरक्षा क़ानून अब भी है।  और मौजूदा सरकार इस कानून को चलाने की इच्छा भी जता चुकी है। ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली आदि की व्यवस्था पर ध्यान देगी।  जरूरत यही  है कि एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकें। साथ ही, अनाज की रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बर्बाद होने से बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर भी नियंत्रण की  जरूरत है। ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का ईलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए।