बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

पुस्तक समीक्षा : कुछ सच्ची-कुछ झूठी सी मुसाफ़िर कैफे [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
‘मसाला चाय’ और ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स अप्लाई’ के बाद ‘मुसाफिर कैफे’ युवा पाठकों के बीच ‘नई वाली हिंदी’ के लेखक के रूप में मशहूर दिव्य प्रकाश दुबे की तीसरी किताब है। पिछली दोनों किताबें कहानी-संग्रह थीं, ये उपन्यास है। जिन्होंने दिव्य की पिछली दोनों किताबें पढ़ी हैं, उन्हें मुसाफिर कैफे पढ़ने पर ये बात स्पष्ट रूप से समझ आएगी कि इसमें दिव्य अपने लेखन के उस सुरक्षित घेरे जिसमें रहते हुए उन्होंने पिछली दोनों किताबें लिखी हैं, से बाहर आने की कोशिश किए हैं। वो सुरक्षित घेरा है – कथ्य और कथानक का। ‘मसाला चाय’ और ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स अप्लाई’ की कहानियों में सामान्य और हमारे दैनिक जीवन से जुड़े किन्तु जानबूझकर नज़रअंदाज किए जाने वाले विषयों को कथानक का आधार बनाया गया हैं। साथ ही, उन विषयों पर बेहद हल्के-फुल्के अंदाज़ में अपनी बात कही गई है। जबकि मुसाफिर कैफे में दिव्य ने हल्के-फुल्के विषयों को छोड़ जीवन, जीवन के महत्व व उद्देश्य जैसे अत्यंत गंभीर और दार्शनिक प्रश्नों को कहानी का आधार बनाया है। कहानी की शुरुआत में जरूर सामान्य जीवन से सम्बद्ध शादी, सेक्स, घर-परिवार इत्यादि बातें आई हैं, लेकिन यह सब बातें कथानक के मूल विषय जो कि जीवन के दार्शनिक विवेचन से सम्बद्ध है, को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका भर निभाती नज़र आती हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि इतने गंभीर विषय के बावजूद भी कहानी की भाषा वही ‘नई वाली हिंदी’ है, जिसके लिए दिव्य प्रकाश दुबे जाने जाते हैं। ऐसे गंभीर विषय पर आधारित कथानक को अपनी जवान और ताज़गी भरी हिंदी में पिरो लेना इस उपन्यास के सम्बन्ध में लेखक की बड़ी सफलता कही जा सकती है। साथ ही इसके लिए भी लेखक की प्रशंसा होनो चाहिए कि उन्होंने सेक्स दृश्यों का वर्णन करते हुए साहित्य और मस्तराम के बीच के बारीक भाषाई अंतर का ख्याल रखा है। पूरी तरह से सेक्स दृश्यों का वर्णन करने पर भी कहीं से ये नहीं लगता कि यहाँ लेखक पोर्नग्राफिकल हो रहे हैं। जिस साहित्यिक तरीके से सेक्स दृश्यों का वर्णन किया गया है, वो उन तमाम रचनाकारों के लिए सीख की तरह है, जो बोल्डनेस के नाम पर कहानी में सेक्स का ऐसे खुल्लमखुल्ला वर्णन कर देते हैं, जैसे कि मस्तराम की कहानी लिख रहे हों।   

मुसाफिर कैफे में दिव्य ने हल्के-फुल्के विषयों को छोड़ जीवन, जीवन के महत्व व उद्देश्य जैसे अत्यंत गंभीर और दार्शनिक प्रश्नों को कहानी का आधार बनाया है। कहानी की शुरुआत में जरूर सामान्य जीवन से सम्बद्ध शादी, सेक्स, घर-परिवार इत्यादि बातें आई हैं, लेकिन यह सब बातें कथानक के मूल विषय जो कि जीवन के दार्शनिक विवेचन से सम्बद्ध है, को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका भर निभाती नज़र आती हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि इतने गंभीर विषय के बावजूद भी कहानी की भाषा वही ‘नई वाली हिंदी’ है, जिसके लिए दिव्य प्रकाश दुबे जाने जाते हैं। ऐसे गंभीर विषय पर आधारित कथानक को अपनी जवान और ताज़गी भरी हिंदी में पिरो लेना इस उपन्यास के सम्बन्ध में लेखक की बड़ी सफलता कही जा सकती है।
अगर एक नज़र मुसाफिर कैफे के कथानक पर डालें तो इसके दो मुख्य पात्र हैं - सुधा और चंदर। चंदर जो अच्छी-भली नौकरी में है और दुनिया के मानकों के हिसाब से सेटल्ड है, मगर वो इस जिंदगी से संतुष्ट नहीं है। दूसरी तरफ सुधा एक फैमिली लॉयर है। कोर्ट में टूटतीं शादियाँ देख शादी से इतना डर चुकी है कि शादी नहीं करना चाहती। ये दोनों मिलते हैं, करीब आते है और एक ही घर में रहने भी लगते हैं। एक-दूसरे की चीजों का ध्यान रखने लगते हैं। हनीमून भी मना लेते हैं। कुल मिलाकर वो सबकुछ करते हैं, जो शादीशुदा लोगों के लिए सामाजिक रूप से निर्धारित है, लेकिन सुधा शादी नहीं करना चाहती और चंदर शादी चाहता है। इसी बिंदु पर दोनों में मतभेद बढ़ जाते हैं और यहीं से कहानी में नाटकीयता का प्रवेश होता है। चंदर बड़े ही नाटकीय ढंग से प्रेग्नेंट सुधा और नौकरी-घर सबकुछ छोड़कर एक अनिश्चित सफ़र पर निकल जाता है। बस इसके बाद से कहानी का लगभग पूरा हिस्सा जीवन के उक्त दार्शनिक प्रश्नों का हल खोजने में बीता है, जिस दौरान हमें कहानी में अनेक अति-नाटकीय मोड़ देखने को मिलते हैं।  
दैनिक जागरण

यह सही है कि दिव्य ने एक गंभीर विषय को नई हिंदी यानी सहज भाषा में प्रस्तुत करने का काफी हद तक सफल प्रयास किया है, लेकिन कहीं-कहीं लम्बे-लम्बे और अनावश्यक ही खींचे गए से संवाद कहानी को उबाऊ भी बना दिए हैं। जहां-तहां कहानी भी खिंची हुई सी प्रतीत होने लगती है। खासकर उपन्यास के उत्तरार्ध में ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक को भी उपन्यास के पात्र चंदर की ही तरह अपनी मंजिल का कुछ पता नहीं है। एक अजीब-सा भटकाव नज़र आता है। चंदर के इधर-उधर भटकने के क्रम में बहुत से अनावश्यक और कहानी को फिजूल में लम्बा करने वाले हिस्से गढ़े गए हैं। कहीं-कहीं ये भटकाव इतना अधिक हो जाता हैं कि लगता है कि ये उपन्यास नहीं, लेखक की आत्मकथा हो। यह सब चीजें मिल-जुलकर कहानी को उबाऊ बनाती हैं और कथानक अक्सर पाठक को बाँधे रख पाने में नाकाम नज़र आता है। 
मुसाफ़िर कैफ़े आवरण

इन सबके अलावा इस उपन्यास के कथानक में कई एक जगहों पर तार्किकता का भी अभाव नज़र आता है। पहली चीज कि चंदर जो एक पढ़ा-लिखा, सेटल्ड युवा है और एकदम प्रैक्टिकल भी है, उसमें अचानक ये वैराग्य कहाँ से और क्योंकर जगता है कि वो सबकुछ छोड़कर ‘जीवन का रहस्य’ खोजने निकल पड़ने का अव्यावहारिक निर्णय ले लेता है ? दूसरी तरफ सुधा शादी के प्रति अपने एक अतार्किक भय के कारण चंदर को सबकुछ छोड़कर एक अनिश्चित सफ़र पर जाने कैसे देती है ? ये सही है कि शादी को लेकर लोगों के मन में डर होता है, पर सुधा का जो डर प्रस्तुत किया गया है, वो उसके चरित्र से कत्तई मेल नहीं खाता और एक हद तक अति-नाटकीय प्रतीत होता है। इसके बाद, सुधा का चंदर से एबॉर्शन का झूठ बोलना, चंदर का सच जानते हुए भी उस झूठ को मान लेना, फिर अपरिचित पम्मी को होटल खरीदने के लिए पैसे से मदद करना इत्यादि तमाम घटनाएं किसी पुरानी हिंदी फिल्म की तरह ही हैं। अंत भी फ़िल्मी टाइप ही है। इनमें कहीं कोई तार्किकता और व्यावहारिकता नहीं दिखती। कह सकते हैं कि यह कहानी है और कहानी में इतनी छूट चलती है, लेकिन आज के युवाओं जो बेहद प्रैक्टिकल और तार्किकता में विश्वास करने वाले हैं, को ध्यान में रखके अगर आप लिख रहे हों, तब ऐसी छूट नहीं ले सकते। ये उनके साथ अन्याय होगा। ये कोई छायावादी साहित्य का युग थोड़े है कि लेखक अपने कल्पनालोकों का सृजन कर व्यावहारिकताओं से मुंह मोड़ लेंगे।

खैर, कहानी के प्रस्तुतिकरण की शैली काफी नई और प्रयोगपूर्ण है। इस तरह की शैली दिव्य अपनी कुछेक कहानियों में भी प्रयोग कर चुके हैं। ‘क से कहानी’, ‘ब से बेटा शादी कर लो’ आदि छोटे-छोटे और दिलचस्प से उपशीर्षक देकर कहानी को आगे बढ़ाना एक सफल और अच्छा प्रयोग कहा जा सकता है। इसी ढंग से मुसाफिर कैफे की कहानी प्रस्तुत की गई है।

उपर्युक्त सभी बातों का निष्कर्ष यह है कि ‘मुसाफिर कैफे’ का विषय तो बेहद गंभीर और जरूरी है, लेकिन कमजोर कथानक के कारण उसके साथ समुचित न्याय नहीं हो पाया है। सीधे शब्दों में कहें तो ये कहानी कुछ सच्ची लगती है तो कुछ झूठी भी प्रतीत होती है। कहीं अचानक जीवन का कोई महत्वपूर्ण सच हमें चौंका देता है, तो कहीं कुछ ऐसा नकली और झूठ-सा दीखता है जो हमें निराश कर देता है। दरअसल इस विषय को सही ढंग से संप्रेषित करने में सक्षम कथानक को गढ़ने में लेखक को ठीक ढंग से सफलता नहीं मिली है और कथानक उलझता हुआ अचानक ही समाप्त हो गया है। अगर इस उपन्यास के विषय को और बेहतर  कहानी का साथ मिलता तो पूरी संभावना है कि ये आज के महानगरीय जीवन में मशीन की तरह चल रहे आदमी की नज़रंदाज़ की जा रही अंतर्व्यथा की परतें खोलने तथा समाज को जीवन का वास्तविक अर्थ समझाने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण कृति सिद्ध होती।

1 टिप्पणी:

  1. पीयूष जी, आपके बारे में जानकार अच्छा लगा. आपकी समीक्षा बहुत अच्छी है.

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