मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

भुखमरी से कब मिलेगी मुक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  •  पीयूष द्विवेदी भारत
मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो प्रमुखतः रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है। इनमे भी रोटी अर्थात भोजन सर्वोपरि है। भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है। अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो अभी विगत वर्ष ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित भारत में हैं। अभी देश में लगभग १९. करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं। इसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहाँ भी हमसे कम मात्रा में भुखमरी की स्थिति है। गत दिनों ग्लोबल हंगर इंडेक्स द्वारा दुनिया भर के देशों में भुखमरी की स्थिति को लेकर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट में भुखमरी को लेकर भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक नज़र आती है। ११८ देशों की इस सूची भारत का स्थान ९७वां हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं जबकी आबादी का 15.2 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार हैं इस सूचकांक में भारत का स्कोर २८.५ है, जो विकासशील देशों की तुलना में तो काफी अधिक है, क्योंकि सूचकांक में विकासशील देशों का औसत स्कोर २१.3 है  लेकिन, भारत के दूसरे पड़ोसियों की स्थिति बेहतर है, जो इस इंडेक्स में ऊपर हैं मिसाल के तौर पर नेपाल ७२वें नंबर है, जबकि म्यांमार ७५वें, श्रीलंका ८४वें और बांग्लादेश ९०वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में गत वर्ष भी भारत को श्रीलंका नेपाल से नीचे रखा गया था। अभी ये हालत तब थी, जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया था। इस रिपोर्ट को देखते हुए तमाम सवाल उठते हैं, जो भुखमरी को लेकर भारत वर्तमान और पिछली सभी सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं।  गत वर्ष की जी एच आई की रिपोर्ट में कहा गया था कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहाँ भुखमरी की समस्या गंभीर रूप से है जिससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है। ये स्थिति अब भी बनी हुई है। सवाल है कि गत वर्ष से अबतक इस समस्या से निपटने की दिशा में क्या कदम उठाए गए ?
उल्लेखनीय होगा कि नेपाल और श्रीलंका भारत से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की श्रेणी में आते हैं, ऐसे में ये सवाल  गंभीर हो उठता है कि जो श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम  के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है ? इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलु पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि  भारत की  आबादी  श्रीलंका, नेपाल से जितनी अधिक हैभारत के पास क्षमता संसाधन भी उतने ही अधिक हैं।  अतः यह नहीं कह सकते कि अधिक आबादी के कारण भारत भुखमरी पर नियंत्रण करने के मामले में श्रीलंका आदि से पीछे रह रहा है। इसका असल कारण तो यही है कि हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी भी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए। यहाँ सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया, कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया।
दैनिक जागरण
 
दुनिया में खाद्यान उत्पादन के मामले में भारत दूसरे नंबर पर आता है फिर भी भारत के कई राज्य के लोग भूख से पीड़ित हैं। जिनकी संख्या अफ्रीकी देश इथियोपिया या सूडान से भी अधिक हैं। भारतीय बच्चों में से 60% कुपोषण के शिकार हैं। यह तब है, जब भारत में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। देश में खाद्यान्नों के कुल उत्पादन में साल दर साल बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। 1951-52 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था। जो 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन, 2013 में 25.9 करोड़ टन पहुँच गया। प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी खासा सुधार हुआ है। 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-2009 के बाद 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया। ऐसे में, महत्वपूर्ण सवाल ये उठता है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है ? यहाँ मामला ये है कि  हमारे यहाँ प्रायः हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है, पर उस अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग २० फिसद अनाज, भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा  समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है। खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है। संयुक्त राष्ट्र के ही  मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष . अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग ८५ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं सकता ? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा। खाद्य वितरण प्रणाली दोषपूर्ण है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सम्बन्ध में ये सर्वविदित वास्तविकता है कि लगभग 51% प्रदत्त खाद्य भ्रष्टाचार के कारण उपलब्ध नहीं हो पाता और जिसे खुले बाजार में ऊँची कीमतों पर बेचा जाता है। सूखा या बाढ़ के अवसर पर खाद्य उत्पादन और सब्सिडी बिल में निहित मूल्य वृद्धि जो कई जरुरतमंद लोगों को सब्सिडी के लिये पात्रता के दायरे से बाहर करता है आदि के सन्दर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है। हमें वितरण प्रणाली से लीकेज को कम करने और इसे पारदर्शी बनाने की जरूरत है।
उल्लेखनीय होगा कि पिछली संप्रग- सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित खाद्य सुरक्षा क़ानून बड़े जोर-शोर से लाया गया था। संप्रग नेताओं का  कहना था कि ये क़ानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा। गौर करें तो इसके तहत कमजोर गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी। लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुँच सके। अर्थात कि मूल समस्या यहाँ भी नज़रन्दाज ही की गई। बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है, अब केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार है, लेकिन खाद्य सुरक्षा क़ानून अब भी है।  और मौजूदा सरकार इस कानून को चलाने की इच्छा भी जता चुकी है। ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली आदि की व्यवस्था पर ध्यान देगी।  जरूरत यही  है कि एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकें। साथ ही, अनाज की रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बर्बाद होने से बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर भी नियंत्रण की  जरूरत है। ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का ईलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए।

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