मंगलवार, 25 जुलाई 2017

हार कर भी जीत गयीं बेटियाँ [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
बीती २३ जुलाई को इंग्लैंड में चल रहे महिला क्रिकेट विश्वकप का फाइनल भारत-इग्लैंड के बीच खेला गया, जिसमें भारतीय टीम जीतते-जीतते मात्र नौ रन से मैच गँवा बैठी। ये दूसरी बार था, जब इस इस विश्वकप के फाइनल में भारतीय टीम पहुँची थी। इससे पहले २००५ में भारत महिला विश्वकप के फाइनल में पहुँचा था, मगर फाइनल में आस्ट्रेलिया से पार नहीं पा सका। लिहाजा इसबार उम्मीदें थीं कि महिला क्रिकेट में विश्वकप का सूखा समाप्त होगा, मगर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। क्रिकेट ने एकबार फिर सिद्ध कर दिया कि उसे महान अनिश्चित्तताओं का खेल क्यों कहा जाता है। २२९ रन का लक्ष्य जो कि भारतीय बल्लेबाजी के ४१वें ओवर तक भारत के १८२ रन पर तीन विकेट देखते हुए काफी आसान लग रहा था, उसके बाद इतना मुश्किल होता चला गया कि २१८ रन पर ही पूरी भारतीय टीम पवेलियन लौट गयी। यदि ऐसी हार पुरुष टीम की हुई होती तो ये निश्चित था कि देश में उनके खिलाफ भयंकर आक्रोश पैदा हो उठता, मगर अबकी ऐसा नहीं हुआ। सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया तक इस हार के बावजूद महिला क्रिकेटरों के लिए बधाई और प्रशंसा के ही शब्द सुनाई पड़े। ऐसा कह सकते हैं कि देशवासियों को हार का दुःख था, मगर वे निराश नहीं थे। ऐसे में सवाल उठता है कि पुरुस क्रिकेट टीम की हार पर क्रिकेटरों के घरों पर तोड़-फोड़ करने से लेकर उनका पुतला-दहन तक कर देने वाले देश में ऐसी खराब हार के बावजूद भी महिला क्रिकेटरों के प्रति लोगों में आक्रोश की बजाय प्रशंसा के भाव क्यों थे ? इस सवाल के जवाब में कई बातें हैं, जिन्हें समझना होगा।

दैनिक जागरण
यह सही है कि अगर भारत ने ये क्रिकेट विश्वकप जीता होता तो यह बहुत अधिक ख़ुशी की बात होती, मगर हार के बावजूद भी अगर महिला टीम को बधाई का हकदार समझा जा रहा है, तो इसके पीछे यह कारण है कि इसबार इस टीम ने अपने बेहतरीन प्रदर्शन से लोगों को महिला क्रिकेट को महत्व देने पर मजबूर कर दिया। महिला टीम ने इस पूरे विश्व कप टूर्नामेंट के दौरान ऐसे दमखम के साथ खेला कि भारत जैसे देश जहां क्रिकेट का मतलब पुरुषों के क्रिकेट तक ही समझा जाता रहा है, को उतनी ही तवज्जो इस महिला विश्वकप को भी देनी पड़ी। यह भी गौर करने लायक है कि ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें भारतीय महिला क्रिकेट टीम के ग्यारह खिलाड़ियों के नाम मालुम हों, लेकिन फाइनल वाले दिन मुकाबले से पहले जब खुद प्रधानमंत्री ने एक-एक कर टीम की सभी ग्यारह खिलाड़ियों के नाम शुभकामना सन्देश ट्विटर पर साझा किया तो ये सबके लिए चौंकाने  वाला था। पुरुष क्रिकेट में भी कितना भी बड़ा मुकाबला हो कभी प्रत्येक खिलाड़ी का अलग-अलग ज़िक्र करते हुए शुभकामना सन्देश प्रधानमंत्री की तरफ से नहीं दिए गए थे। इस तरह का शुभकामना सन्देश पहली बार था। हमें प्रधामंत्री के इस शुभकामना सन्देश के निहितार्थों को समझना होगा। दरअसल राजनीति प्रायः जनभावनाओं का ही अनुसरण करती है। देश में इस पूरे विश्वकप टूर्नामेंट के दौरान महिला टीम के प्रति जो सम्मान की भावना उपजी थी, प्रधानमंत्री ने प्रत्येक खिलाड़ी के लिए व्यक्तिगत शुभकामना सन्देश वाले ट्विट करके कहीं कहीं देश की उसी भावना से जुड़ने का प्रयास किया। इसके अलावा महिला क्रिकेट टीम इस नाते भी बधाई की हकदार है क्योंकि पुरुष टीम की तुलना उन्हें हर तरह से बेहद कम सुविधा और संसाधन प्राप्त होते हैं, मगर बावजूद इसके उन्होंने अपने श्रम और कौशल से विदेशी धरती पर जाकर भी बेहतरीन खेल दिखाया और फाइनल तक सफ़र तय किया। ये सब वो बातें हैं, जिनके कारण हार के बाद भी महिला क्रिकेट टीम को आलोचना की बजाय बधाई मिल रही है।

ये अच्छी बात है कि देश में महिला क्रिकेट को लेकर मानिसकता में बदलाव रहा है, लेकिन इतने के बावजूद भी लगता नहीं कि बीसीसीआई के कानों पर जू भी रेंगी है। पुरुष और महिला क्रिकेट के बीच बीसीसीआई की भेदभाव की भावना में जरा सा भी बदलाव आने का कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहा। मैच फीस, बड़े-बड़े टूर्नामेंट्स पर मिलने वाले विशेष इनामों समेत अन्य सुविधाओं के मामले में पुरुष और महिला क्रिकेट टीम के बीच काफी भेदभाव किया जाता है। अधिक विस्तार में जाते हुए यहाँ सिर्फ इतना समझ लेना पर्याप्त होगा कि पुरुष क्रिकेट टीम के ग्रेड-सी के खिलाड़ी की फीस महिला टीम की ग्रेड- के खिलाड़ी से अधिक है। खैर, उम्मीद करते हैं कि जैसे देश में महिला क्रिकेट को लेकर लोगों के दृष्टिकोण में इस विश्वकप के दौरान बदलाव नज़र आया है, बीसीसीआई भी उस बदलाव का हिस्सा बनते हुए महिला क्रिकेटरों से भेदभाव करना बंद करेगी।