शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

राष्ट्रपतियों के लिए मिसाल बनेंगे प्रणब दा [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
आगामी २५ जुलाई को देश के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पद की शपथ लेंगे।   इससे पहले २४ जुलाई को देश के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति भवन में अंतिम दिन होगा। लेकिन, बतौर राष्ट्रपति उनका कार्यकाल याद किए जाने लायक है। उनकी सक्रियता, देश के समसामयिक मुद्दों पर सरकारों के लिए मार्गदर्शक टिप्पणियाँ और कई मसलों पर उनके अप्रत्याशित निर्णय, यह सब लोगों के ज़ेहन में हमेशा बरक़रार रहेंगे। भारत में राष्ट्रपतियों का कार्यकाल प्रायः इत-उत के व्याख्यानों, गणतंत्र दिवस समारोह समेत कुछेक सांकेतिक चीजों तक ही केन्द्रित रहता है, लेकिन प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल इन चीजों के अलावा भी काफी ताजगी से भरा और यादगार रहा है।

२५ जुलाई, २०१२ को प्रणब मुखर्जी ने भारत के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। प्रणब दा का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना एकदम अचानक हुआ था। संभव है कि कांग्रेस आलाकमान के दिमाग में इस सम्बन्ध में कोई पूर्वयोजना रही हो, मगर जनसामान्य के लिए यह बेहद चौंकाने वाला निर्णय था। कारण कि तब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री के रूप में राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय थे और कांग्रेस के अंदरखाने में ऐसी चर्चा हिलोरें मारने लगी थी कि उन्हें २०१४ के आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए। यह मांग तार्किक भी थी, क्योंकि तब प्रणब मुखर्जी केवल कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं में लगभग सबसे वरिष्ठ और स्वच्छ छवि के नेता थे, बल्कि हर संकट में पार्टी के संकटमोचक भी सिद्ध होते रहे थे। मगर यहाँ तो कहानी ही दूसरी हो गयी और प्रधानमंत्री पद की संभावित उम्मीदवारी के बीच प्रणब मुखर्जी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित कर दिया गया। उनके जवाब में पी संगमा उतरे, जिन्हें बड़े अंतर से हराते हुए प्रणब दा ने शानदार विजय प्राप्त की।

राज एक्सप्रेस
सैद्धांतिक पक्ष जो भी हो, मगर व्यावहारिक रूप से सत्य यही है कि कोई भी दल अपने व्यक्ति को राष्ट्रपति बनवाता है, तो मुख्य उद्देश्य यही होता है कि राष्ट्रपति उसके प्रति तनिक अधिक उदार रहेंगे। राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों का उसे अपेक्षाकृत अधिक लाभ मिल सकेगा। इंदिरा सरकार के आपातकाल के निर्णय को आँख मूंदकर स्वीकारने वाले फखरुद्दीन अली अहमद हों या अपने पूरे कार्यकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के प्रति अत्यंत उदार और समर्पित रहने वाली प्रतिभा पाटिल हों, ऐसे सत्ता-समर्पित राष्ट्रपति भी देश ने देखे हैं। मगर, प्रणब मुखर्जी इस तरह के राष्ट्रपतियों में अपवाद रहे। दागी अध्यादेश का मामला यहाँ उल्लेखनीय होगा।  

सन २०१३ में दोषी सिद्ध सांसदों-विधायकों को पदच्युत करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए कांग्रेस सरकार अध्यादेश लाई थी जो मंज़ूरी के लिए राष्ट्रपति के पास गया। मगर, प्रणब मुखर्जी को इसपर कई शंकाएं थीं, सो उन्होंने विपक्षी दल के नेताओं से भेंट के बाद इसे रोके रखा। आखिरकार राहुल गांधी के बकवास विधेयक वाले पूरे सार्वजनिक ड्रामे के बाद तब यह  अध्यादेश वापस हो गया था। उसवक्त वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने इस दागी अध्यादेश की वापसी के लिए प्रणब मुखर्जी को सारा श्रेय दिया था। २०१४ में जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई तो उसके प्रति भी प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस सरकार के समान ही भाव  रखा। कह सकते हैं कि राष्ट्रपति बनने के साथ ही उन्होंने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को छोड़ पदानुरूप संवैधानिक प्रतिबद्धता को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था।

इस देश में राष्ट्रपति दया याचिकाओं को लेकर भी काफी याद किए जाते हैं। यह देखा जाता है कि किस राष्ट्रपति ने कितनी दया याचिकाएं खारिज कीं और कितनी स्वीकार प्रणब मुखर्जी अपराधियों की दया याचिकाओं के प्रति सख्त रहे हैं। उन्होंने दोषियों पर काफी कम दया दिखाई है। पूरे कार्यकाल में उनके पास कुल ३७ दया याचिकाएं आईं, जिनमें ज्यादातर में उन्होंने अदालत की सजा को बरक़रार रखा। केवल चार दया याचिकाओं को फांसी से आजीवन कारावास में बदलकर जीवनदान दिया। यहाँ विशेष तौर पर उल्लेखनीय होगा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में तीन खूंखार आतंकियों की दया याचिकाओं को खारिज कर उन्हें फांसी के फंदे तक पहुँचाया। २६/११ हमले के दोषी अजमल कसाब की दया याचिका जो राष्ट्रपति को १६ अक्टूबर, २०१२ को भेजी गयी, उसे बिना देरी किए नवम्बर, २०१२ को प्रणब मुखर्जी ने खारिज कर दिया। इस तरह २१ नवम्बर को कसाब को फाँसी पर लटका दिया गया। २०१३ में संसद हमले के दोषी अफजल गुरु जिसकी दया याचिका दशकों से राष्ट्रपति भवन में पड़ी धूल फांक रही थी, को बिना देरी किए प्रणब मुखर्जी ने खारिज कर उस खूंखार आतंकी को भी फांसी के फंदे तक पहुँचाया। तीसरी दया याचिका जो राष्ट्रपति ने २०१५ में खारिज की, वो सन १९९३ के मुंबई धमाके के दोषी याकूब मेनन की थी।

दरअसल प्रणब मुखर्जी अगर इस त्वरित गति से दया याचिकाएं खारिज कर सके तो इसके लिए कारण यह माना जा सकता है कि वे सत्ताधारी दल के राजनीतिक प्रभावों से मुक्त थे। अफजल गुरु की फांसी विशुद्ध राजनीतिक कारणों से ही तो दशकों तक रुकी रही थी, मगर प्रणब मुखर्जी ने उन कारणों की परवाह करते हुए उस दया याचिका को खारिज कर दिया। अगर वे सत्ताधारी दल के प्रभाव में रहे होते तो शायद २०१३ में जब कांग्रेस की सरकार थी, अफज़ल की दया याचिका खारिज नहीं करते।

इन सबके अलावा प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल सरकार के कार्यों और देश की समसामयिक समस्याओं पर जब-तब की गयी उनकी टिप्पणियों तथा वैश्विक दौरों के संदर्भ में भी यादगार है। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार रही हो या वर्तमान की भाजपा सरकार, प्रणब मुखर्जी ने दोनों को समय दर समय समस्याओं के प्रति सचेत करने और मार्गदर्शन देने वाले वक्तव्य दिए। ऐसे में अगर आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये कहते हैं, ‘राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मुझे पिता की तरह रास्ता दिखाया। मेरे जीवन का बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दादा की उंगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में स्वयं को सेट करने की सुविधा मिली।तो उनकी इस बात को बहुत अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए। 

बहरहाल, आखिर में कह सकते हैं कि प्रणब मुखर्जी बतौर राजनेता कार्यपालिका में वित्त, रक्षा और विदेश जैसे दायित्वों का जितना कुशल ढंग से निर्वहन किए, उतने ही बेहतर ढंग से उन्होंने महामहिम के रूप में भी अपने दायित्वों से न्याय किया। निश्चित तौर पर नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के लिए वे एक उच्चतर मानदंड स्थापित करके जा रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें