बुधवार, 19 जुलाई 2017

अप्रासंगिक होता जा रहा सेंसर बोर्ड [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), राज एक्सप्रेस और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
भारतीय राजनीति के काले अध्याय आपातकाल पर आधारित मधुर भंडारकर की फिल्म इंदु सरकार की मुश्किलें थमने का नाम नहीं ले रहीं। कांग्रेस द्वारा शुरू से ही इसका विरोध किया जा रहा है। अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाली कांग्रेस देश में अभिव्यक्ति के सबसे बड़े हनन यानी आपातकाल पर बनी इस फिल्म के विरोध में लाव-लश्कर सहित उतर पड़ी है। यहाँ तक कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं के आक्रामक विरोध के चलते मधुर भंडारकर को फिल्म का प्रचार टालना पड़ गया। लेकिन जब-तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर शोर मचाने वाले किसी पैरोकार की आवाज इस प्रकरण पर नहीं सुनाई दे रही।

दूसरी तरफ अब सेंसर बोर्ड ने भी इस फिल्म पर अपनी कैंची चलाने का संकेत दे दिया है। सेंसर बोर्ड द्वारा मधुर भंडारकर को फिल्म से १४ दृश्य हटाने को कहा गया है। इनमें फिल्म के कुछ संवाद तथा एक अखबार की प्रति शामिल है। इसपर मधुर भंडारकर का कहना है कि वे इसके खिलाफ समीक्षा समिति के पास जाएंग और उन्हें उम्मीद है कि वहाँ इन दृश्यों सहित फिल्म को मंज़ूरी मिल जाएगी। मधुर भंडारकर ने यह सवाल भी उठाया है कि जिन संवादों को ट्रेलर में रखने की अनुमति बोर्ड ने दे दी, अब उन्हें किस आधार पर फिल्म से हटाने को कह रहा है ? बेशक यह एक जायज सवाल है, जिसका जवाब बोर्ड को देना चाहिए।

अभी हाल ही में प्रकाश झा की लिपस्टिक अंडर माय बुरका नामक एक फिल्म को लेकर भी सेंसर बोर्ड ऐसे ही विवादों में आया था। इसमें अश्लील दृश्यों और संवादों को लेकर सेंसर बोर्ड को आपत्ति थी। इस फिल्म पर बोर्ड ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। मगर, फिल्म से जुड़े लोगों ने अदालतों में दौड़-भाग करके फिल्म पर से प्रतिबन्ध हटवाया और तब जाके इसकी रिलीज का रास्ता खुला। ऐसी ही अनेक फ़िल्में मिलेंगी जिनपर पहले सेंसर बोर्ड ने रोक-टोक की, विवाद मचा और अंततः निर्माता-निर्देशकों द्वारा उन्हें किन्ही अन्य माध्यमों से मंजूरी दिलवा ली गयी।  इस तरह अब धीरे-धीरे सेंसर बोर्ड और विवादों का साथ एकदम आम हो गया है। अब इसमें कुछ भी नया नहीं लगता।

दैनिक जागरण
गौर करें तो बोर्ड के निर्देशों का अनुपालन तो खैर फिल्म निर्माताओं द्वारा कम ही होता है, मगर उनपर मचे विवादों से फिल्मों को अनायास ही भरपूर प्रचार ज़रूर मिल जाता है। यानी कि सेंसर बोर्ड अब सिर्फ कहने भर के लिए एक फिल्म नियामक संस्था रह गया है, व्यावहारिक रूप से इसकी प्रासंगिकता दिन-प्रतिदिन समाप्त होती जा रही है। 

अतः ये स्पष्ट है कि सेंसर बोर्ड भले ही फिल्मों में कांट-छाट के निर्देशादेश देता रहे, मगर उसका फिल्मों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। बोर्ड द्वारा काट-छांट की शिकार फ़िल्में प्रायः अन्य माध्यमों से अनुमति प्राप्त कर बोर्ड को धता बताते हुए अपने मूल रूप में प्रसारित हो जा रही हैं। समझा जा सकता है कि सेंसर बोर्ड फिल्मों की सामग्री के नियमन को लेकर कितना लाचार हो चुका है। मगर बोर्ड की लाचारी इतनी भर ही नहीं है।

राज एक्सप्रेस
यहाँ उल्लेखनीय होगा कि ऐसी अनगिनत छोटी-बड़ी फ़िल्में हैं जो सीधे यूट्यूब और वहाँ से फेसबुक, ट्विटर आदि  सोशल माध्यमों पर जाती हैं, जिनकी सामग्री पर सेंसर बोर्ड का दूर-दूर तक कोई जोर नहीं है। जबकि वास्तव में जिस प्रकार के आअपत्तिजनक दृश्यों और संवादों की काट-छांट सेंसर बोर्ड मुख्यधारा की फिल्मों में करता है, उससे कहीं अधिक आपत्तिजनक सामग्री इन फिल्मों में होती है। यूट्यूब पर ऐसी लघु से लेकर बड़ी फिल्मों तक  की भरमार है, जो प्रमाणन के लिए किसी सेंसर बोर्ड या प्रसारण के लिए किसी सिनेमा घर में नहीं पहुँचती, मगर सोशल माध्यमों के ज़रिये लाखों-लाख दर्शकों तक कुछ ही समय में पहुँच जाती हैं। दिक्कत यह है कि ये फ़िल्में ऐसे माध्यम पर सवार हैं, जिसपर पूर्णतः नियंत्रण के लिए सेंसर बोर्ड के पास फिलहाल कोई पुख्ता तंत्र नहीं है। अब ऐसी स्थिति में सेंसर बोर्ड जैसी किसी संस्था की कितनी ज़रूरत रह गयी है, ये विचारणीय है।
अमर उजाला कॉम्पैक्ट

दूसरी चीज कि बोर्ड के प्रमाणपत्र भी सिवाय प्रतीकात्मकता के कुछ अधिक नहीं होते। क्या बोर्ड जिन फिल्मों को 'ए' प्रमाणपत्र देता है, उन्हें १८ वर्ष कम उम्र के बच्चे नहीं देखते ? माता-पिता भले से बच्चों को वे फ़िल्में दिखाने अपने साथ ले जाएं, मगर इन्टरनेट आदि माध्यमों से वे उन फिल्मों को देखने में सक्षम हैं। ऐसे में, सेंसर बोर्ड के प्रमाणपत्र का क्या मतलब रह गया ?

उपर्युक्त बातों के आलोक में यह कहना गलत नहीं होगा कि सेंसर बोर्ड अब धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है। कुछ अपने बेसिर-पैर की काट-छाँट के रवैये तो कुछ वर्तमान समय में सोशल मीडिया के बढ़ चुके प्रभाव के कारण सेंसर बोर्ड की कैंची की धार लगभग ख़त्म हो चुकी है। हालांकि बावजूद इस स्थिति के सेंसर बोर्ड को ख़त्म करने की बात नहीं की जा सकती, लेकिन ये समय की आवश्यकता है कि इसका पूरी तरह से कायाकल्प किया जाए। इसके स्वरूप और शक्तियों को समय की आवश्यकतानुरूप विस्तार दिया जाए, जिससे ये केवल मुख्यधारा की फिल्मों बल्कि सोशल माध्यमों पर आने वाली फिल्मों की निगरानी भी कर सके।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें