शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

क्या असर डालेगा तीसरा मोर्चा [जनसंदेश में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसंदेश 
आगामी लोकसभा चुनाव में अब बेहद कम समय शेष रह गया है, ऐसे में देश के सियासी गलियारे में  तमाम तरह के हंगामे होना स्वाभाविक ही है ! इन्ही हंगामों की एक कड़ी तीसरा मोर्चा भी है ! हालांकि अभी तक तीसरे मोर्चे के विषय में इससे सम्बंधित दलों द्वारा भले ही कोई आधिकारिक घोषणा नही की गई हो, लेकिन जिस तरह से गैरकांग्रेस-गैरभाजपा दलों के नाम पर आए दिन वाम और अन्य क्षेत्रीय दलों के सम्मेलन हो रहे हैं तथा उन सम्मेलनों में एक मजबूत विकल्प देने की बात की जा रही है, वो तो यही संकेत देता है कि कहीं न कहीं तीसरा मोर्चा एकबार फिर शक्ल लेने की कोशिश कर रहा है ! इस संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि अभी हाल ही में हुए तथाकथित गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों के एक सम्मेलन में जिस तरह से सपा, जदयू, माकपा, भाकपा, अन्नाद्रमुक, समेत छोटे-बड़े ११ क्षेत्रीय दलों ने शिरकत करते हुए कांग्रेस और भाजपा से इतर एक ‘मजबूत विकल्प’ देने की बात कही, उसने संभावित तीसरे मोर्चे की रूपरेखा काफी हद तक स्पष्ट कर दी है ! इस सम्मेलन में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, माकपा अध्यक्ष प्रकाश करात, जदयू नेता नीतीश कुमार समेत और भी कई दलों के नेता मौजूद रहे ! इस दौरान कांग्रेस-भाजपा दोनों को एक ही जैसा बताते हुए कहा गया कि ११ दलों का ये मोर्चा कांग्रेस-भाजपा का बेहतर विकल्प है और देश को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था उपलब्ध करवाने में भी सक्षम है ! हालांकि अभी न तो इस मोर्चे का कोई नामकरण ही हुआ है और न ही इस मोर्चे की तरफ से पीएम उम्मीदवार के विषय में ही कोई घोषणा की गई है ! इस विषय में इस मोर्चे के दलों का कहना है कि तीसरे मोर्चे में पीएम का फैसला हमेशा से चुनाव के बाद होता रहा है और इसबार भी होगा ! अब यहाँ समझने वाली बात ये है कि देश में जब भी तीसरे मोर्चे की सरकार बनी है उसमें हमेशा ही पीएम पद को लेकर महत्वाकांक्षाएं टकराती  रही हैं और कहना गलत नही होगा कि  महत्वाकांक्षाओं के इस टकराव के कारण ही तीसरे मोर्चे की कोई भी सरकार अपना निश्चित कार्यकाल पूरा नही कर सकी !  इसबार भी धीरे-धीरे शक्ल ले रहे इस तीसरे मोर्चे के पीएम उम्मीदवार का ऐलान न होने का यही कारण है कि अबतक तीसरे मोर्चे के दलों के बीच पीएम को लेकर कोई आम सहमति नही बन पाई होगी और बस इसीलिए इस बात को चुनाव बाद के लिए छोड़ा जा रहा है ! एक बात ये भी है कि तीसरे मोर्चे के दल ये अच्छे से जानते हैं कि उन्हें इतनी सीटें तो कभी नहीं मिलने वाली जिससे कि वो केन्द्र की सत्ता तक पहुँच सकें ! मगर संदेह नही कि इन दलों के लिए ये एक संभावना जरूर खुली है कि अगर कांग्रेसनीत यूपीए नम्बर दो की पार्टी बनती है जिसकी पूरी संभावना है, तो उससे सहयोग ले-देकर केन्द्र की सत्ता तक पहुंचा जा सकता है ! अब इस तीसरे मोर्चे की तरफ से चाहे जितना कहा जाए कि चुनाव बाद कांग्रेस-भाजपा किसीसे किसी भी तरह के समर्थन का लेन-देन नही होगा, पर इतीहास गवाह है कि तीसरा मोर्चा हमेशा से कांग्रेस के करीब रहा है ! इसी कारण इसबार भी ये तीसरा मोर्चा कांग्रेसनीत यूपीए की अपेक्षा भाजपानीत राजग को लेकर अधिक सख्त है ! गौर करें तो इस तीसरे मोर्चे के तमाम दल कांग्रेस के साथ गठबंधन में रह चुके हैं तो सपा अब भी कांग्रेस की यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है !

  इतिहास गवाह है कि प्रायः आम चुनावों के समय जितनी तीव्रता और ऊर्जा के साथ तीसरा मोर्चा सक्रिय हो उठता है, चुनाव बाद उतनी ही तीव्रता के साथ विफल होकर शांत भी हो जाता है ! इसी क्रम में भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे के सर्वप्रथम उद्भव पर एक  सरसरी निगाह डालें तो क्षेत्रीय स्तर पर तो तीसरा मोर्चा सत्तर के दशक में ही सक्रिय हो गया था जिसने कि बंगाल में सन ६७ से ७१ तक शासन चलाया ! पर राष्ट्रीय राजनीति में तीसरे मोर्चे के उद्भव का मुख्य बिंदु नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में है जब राष्ट्रीय मोर्चा के तहत देश में बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ और जनता पार्टी की सरकार बनी ! हालाकि ये सरकार अपने घटक दलों की दलीय महत्वाकांक्षा के कारण अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी ! बहरहाल, आज जब एकबार फिर लोकसभा चुनाव करीब है और लड़ाई एकदम सीधी मोदी बनाम राहुल हो रही है ! ऐसे में इस संभावित तीसरे मोर्चे से आम चुनाव में क्या प्रभाव पड़ेगा, ये विचारणीय है ! वैसे एक बात तो पूरी तरह से साफ़ है कि ये तीसरा मोर्चा कांग्रेस से कहीं अधिक भाजपा के लिए संकटकारी सिद्ध होगा ! ये संभावना प्रबल है कि अगर भाजपा या कांग्रेस दोनों ही सरकार बनाने लायक सीटों से वंचित रह जाते हैं जिसकी पूरी संभावना है, तो इस संभावित तीसरे मोर्चे के इन सभी दलों द्वारा साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर या तो कांग्रेस को सहयोग दिया जाएगा या फिर उससे सहयोग लिया जाएगा ! ऐसी स्थिति में भले ही भाजपा नम्बर एक की पार्टी बन कर उभरे, पर उसके लिए केन्द्र की सत्ता तक पहुंचना कत्तई आसान नही होगा ! बहरहाल, राजनीति मे क्षण-क्षण में समीकरण बदलते हैं, अतः चुनाव के परिणाम से पहले पूर्णतः कुछ भी कहना जल्दबाजी ही होगी !

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

आरोप-प्रत्यारोप के बीच गौण होते मुद्दे [डीएनए, जनवाणी, आईनेक्स्ट इंदौर और दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
बीता रविवार पूरी तरह से रैलियों के नाम रहा ! ये रैलियां इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि इनमे देश की तीन बड़ी पार्टियों के सर्वोच्च नेता जनता को संबोधित किए ! भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी
दैनिक छत्तीसगढ़ 
से लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी समेत नई नवेली आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल तक सभी इस रविवार को देश के अलग-अलग हिस्सों में रैलियां करके आम जनता से मुखातिब हुए ! नरेंद्र मोदी पगड़ी का प्रतीकवाद लेकर पंजाब के किसानों का दुख-दर्द बांटने लुधियाना पहुंचे तो राहुल गाँधी देहरादून में जनता के सामने अपनी बात रखे, तो वहीँ अरविन्द केजरीवाल भी हरियाणा के रोहतक में जाकर इस लोकसभा चुनाव में अपनी मौजूदगी जाहिर करने की कोशिश किए ! अब अगर रविवार की इन तीनों रैलियों में देश की तीन बड़ी पार्टियों के तीन सर्वोच्च नेताओं द्वारा कही गई बातों पर एक सरसरी निगाह डालते हुए निष्कर्ष पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि इन रैलियों में जनता के लिए आवश्यक मुद्दों पर न के बराबर बात हुई, जबकि एक दुसरे पर आरोप-प्रत्यारोप ज्यादा लगाए गए ! हालांकि इसमें कुछ नया नही है, क्योंकि इससे पहले भी नरेंद्र मोदी या राहुल गाँधी द्वारा अपनी रैलियों में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ही अधिक की जाती रही है ! हाँ, ये बात चौंकाने वाली जरूर रही कि प्रायः ठोस मुद्दों के साथ जनता के बीच पहुँचने वाले आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल भी रोहतक की रैली में हवा-हवाई बातें करते ही नज़र आए !
जनवाणी 
   गौर करें तो लुधियाना में नरेंद्र मोदी का पूरा वक्तव्य हमेशा की तरह कांग्रेस सरकार की बुराइयों के वर्णन को ही समर्पित रहा ! शब्दों पर ध्यान दें तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस अबतक लोगों की आँखों में धूल झोंकती थी, अब मिर्च झोंकने लगी है ! उनका ये भी कहना था कि वो पगड़ी की इज्जत बचाएंगे और पंजाब के किसानों की समस्याओं को खत्म करेंगे ! हालांकि हमेशा की ही तरह यहाँ भी वो ये नही बताए कि अपने वादों को पूरा करने के लिए उनके पास क्या योजना है ? बस ये कहके बचना कि हमने गुजरात में ये किया है, सों देश में भी करेंगे, कत्तई तर्कसंगत नही है ! कारण कि आपने अबतक जो किया वो गुजरात में किया जो कि बस एक राज्य है, पर यहाँ बात पूरे देश की हो रही है ! इसी क्रम में मोदी के बाद अब अगर कुछ बात राहुल गाँधी की देहरादून रैली की करें तो इस रैली में भी राहुल हरबार की तरह कुछ अलग बोलने की कोशिश करते नज़र आए ! पर इस दौरान मोदी पर निशाना साधने से भी वो नही चूके ! उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मोदी को सत्ता का भूखा बताते हुए कहा कि भाजपा को सिर्फ केन्द्र का भ्रष्टाचार दिखता है, अपने राज्यों का नही ! इसी क्रम में उन्होंने युवाओं को रोजगार देने का भरोसा दिलाया तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने का समर्थन भी किया ! हालांकि इसपर वो कुछ भी नही बोले कि उनकी ही पार्टी की यूपीए सरकार के शासनकाल में देश में रोजगार का स्तर काफी कम क्यों हुआ है तथा महिला प्रतिनिधित्व की पैरवी करते वक्त भी इसपर उनका ध्यान नही गया कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए अत्यंत आवश्यक महिला आरक्षण विधेयक अबतक उनकी सरकार पारित क्यों नही करवा पाई ? जाहिर है कि राहुल गाँधी का अधिकाधिक उद्देश्य सिर्फ भाजपा पर आरोप लगाना था, न कि अपने कार्यों पर कुछ बोलना ! इन्ही सबके बीच अरविन्द केजरीवाल की रोहतक की रैली का जिक्र करना भी आवश्यक है ! रोहतक पहुंचे अरविन्द केजरीवाल के तेवर तो हमेशा की तरह ही तल्ख़ थे और हमेशा की ही तरह उन्होंने एकबार फिर कांग्रेस-भाजपा को बिना किसी तथ्य व प्रमाण के एक बताते हुए खूब निशाने पर लिया ! ‘अम्बानी की गोदी, कांग्रेस और मोदी’ जैसा नारा देते हुए उन्होंने कहा कि इस देश को मुकेश अम्बानी चला रहे हैं ! कुल मिलाकर हमेशा की तरह उन्होंने तथ्यों से परे तमाम आरोप कांग्रेस-भाजपा पर लगाए ! पर इन सबके दौरान वो इसपर खामोश रहे कि जब कांग्रेस इतनी अधिक बुरी है तो फिर उन्होंने उसके  समर्थन से दिल्ली में सरकार क्यों बनाई थी और फिर बिना अपने वादे पूरे किए जनता को अधर में छोड़ कर क्यों चले गए ? इन तीनों रैलियों में तीनों नेताओं के इन वक्तव्यों से कुल मिलाकर स्पष्ट ये तो स्पष्ट है कि ये आम चुनाव मुद्दों से भटकते हुए पक्ष-विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप के बीच उलझ कर रह गया है !
आईनेक्स्ट 
   ये राजनीति का स्वाभाविक चरित्र है कि इसमे आरोप-प्रत्यारोप का क्रम चलता है ! मगर इसकी भी एक सीमा होती है, एक सलीका होता है ! पर दुर्भाग्य कि आज हमारे नेता आरोप-प्रत्यारोप लगाने के अन्धोत्साह में ऐसे डूबे हैं कि उन्हें  भाषाई सभ्यता तक का भान नही रहा ! इसके अलावा आरोप-प्रत्यारोप की इस राजनीति के बीच जनता से जुड़े भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे गौण होते जा रहे हैं ! इन मुद्दों पर हर दल दुसरे दल को घेरने की कोशिश तो कर रहा है, पर ये बताने की जहमत कोई नही उठा रहा कि अगर उसे सत्ता मिल जाए तो वो इन समस्याओं को कैसे मिटाएगा ! कुल मिलाकर आज की राजनीति का स्वरूप हो गया है कि हर दल सिर्फ अपने सामने वाले दल को नीचा दिखाने में अपनी श्रेष्ठता समझ रहा है ! उसे इससे मतलब नही कि वो कैसा है ! इन सबके बीच जनता की रहनुमाई कौन करे और जनता किससे अपनी समस्याओं का हिसाब व समाधान मांगे, इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर हमारे राजनीतिक आकाओं को देना चाहिए !


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

प्रतीकवादी राजनीति में उलझता चुनाव [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

डीएनए 
आम चुनावों में अब बेहद कम समय शेष रह गया है ! ऐसे में हर राजनीतिक दल द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी और आम जनता के बीच का साबित करने की होड़-सी मची हुई है ! इसके लिए राजनीतिक दलों का एक बड़ा कारगर औजार प्रतीकवादी राजनीति है ! अब बात चाहें सत्तारूढ़ दल कांग्रेस की करें या मुख्य विपक्षी दल भाजपा की या फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव से उभरी नई नवेली आम आदमी पार्टी की, इन सभी दलों द्वारा अलग-अलग प्रतीकों के जरिए स्वयं को जनता से जोड़ने की कोशिश की जा रही है ! इनमे से कोई सा भी दल इस प्रतीकात्मक राजनीति पर खर्च करने में भी अपनी क्षमतानुसार कोई कंजूसी नही कर रहा ! शायद, इन दलों को लगता है कि प्रतीकों की इस राजनीति के जरिए वो देश की जनता से एक सीधा और भावुक सा जुड़ाव बड़ी सहजता से कायम कर सकते हैं ! अब यूँ तो इस प्रतीकवादी राजनीति के हवनकुंड में सभी दल कमोबेश हविष्य डाल ही रहे हैं, पर इनमे भाजपा और कांग्रेस सबसे आगे हैं ! इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने  एक रैली में ये क्या कह दिया कि वो बचपन में चाय बेचते थे, भाजपा द्वारा चाय वालों से भावुक जुड़ाव स्थापित करने के लिए चाय को ही प्रतीक बनाकर राजनीति शुरू कर दी गई ! फिर चाहें वो जगह-जगह ‘नमो टी स्टॉल’ लगाना हो या स्वयं मोदी द्वारा चाय पर चर्चा कराना, इन सब चीजों के जरिए भाजपा ने मोदी के बचपन की चाय वाली छवि को भुनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है ! इसके अलावा मोदी द्वारा गुजरात में सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ बनाने के लिए देश भर से लोहा लेने की जो कवायद की जा रही है, वो भी इस प्रतीकवादी राजनीति का ही एक हिस्सा है ! देश भर से लोहा लेकर जो मूर्ति बनेगी उससे सहज ही देश के हर नागरिक का जुड़ाव होगा और जाहिर है कि मूर्ति बनवाने के कारण वो जुड़ाव मोदी से भी होगा ! ये तो बात हुई भाजपा की, अब अगर एक नज़र देश की सबसे पुरानी और सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस पर डालें तो इतिहास गवाह है कि प्रतीकवादी राजनीति के मामले में वो सभी दलों से कहीं आगे रही है ! पिछले चुनावों में हम देख चुके हैं कि चुनाव प्रचार की सभाओं में कैसे प्रियंका गाँधी द्वारा इंदिरा गाँधी जैसी साड़ी पहनकर जाया जाता रहा है और दादी से जुड़ी दो-एक बातें बोलकर जनता से भावुक जुड़ाव स्थापित करने की सफल कोशिश की जाती रही है ! इस आम चुनाव जनता से भावुक जुड़ाव के कुछ ऐसे ही हथकण्डे अप्रत्यक्षतः कांग्रेस के पीएम उम्मीदवार राहुल गाँधी द्वारा अपने वक्तव्यों में इस्तेमाल किए गए हैं ! फिर चाहें वो दादी और पापा की हत्या की कहानी हो या माँ द्वारा सत्ता को जहर बताने की बात, राहुल गाँधी द्वारा अपने वक्तव्यों में इन  बातों का जिक्र करने के पीछे और कुछ नही सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की प्रतीकवादी राजनीति ही कारण है ! हालांकि इन सभी चीजों के बावजूद इसबार के आम चुनाव में अभी तक प्रतीकवादी राजनीति के मामले में भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस काफी पीछे है ! कांग्रेस-भाजपा के बीच ही नई नवेली आम आदमी पार्टी (आप) भी है जिसके प्रतीकात्मक राजनीति का केन्द्र खुद आम आदमी ही है ! इसके अलावा अपने चुनाव चिन्ह झाड़ू का भी प्रतीकात्मक इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश आप द्वारा की जा रही है ! ये पार्टी खुद को आम आदमी की पार्टी बताते हुए झाड़ू से व्यवस्था की गन्दगी को साफ़ करने का नारा बुलंद किए हुए है ! खुद को आम आदमी सिद्ध करने के लिए इसके नेता सरकारी बंगला समेत लाल बत्ती गाड़ी व सुरक्षा तक नही लिए हैं ! अब इन सभी दलों में  से किसकी राजनीति कितनी कारगर होती है, ये तो आम चुनावों के बाद ही पता चलेगा ! पर इतना तो तय है कि ये आम चुनाव प्रतीकवादी राजनीति में इस कदर उलझ गया है कि भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंरिक व बाह्य सुरक्षा जैसे तमाम जरूरी मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं जिसका अंदाज़ा शायद ही किसी राजनीतिक दल को हो !

  प्रतीकवादी राजनीति न तो नई है और न ही बुरी ! बेशक राजनीतिक दलों को अपने प्रतीकों के जरिए जनता से जुड़ाव स्थापित करने का अधिकार है और उन्हें ये करना भी चाहिए ! पर साथ ही ये ध्यान रखने की भी जरूरत है कि इस प्रतीकवादी राजनीति की भी एक सीमा है ! जबतक ये अपनी सीमा में रहती है, तबतक तो बहुत अच्छी है ! पर सीमा से बाहर होते ही ये नौटंकी का रूप ले लेती है जो कि लोकतंत्र और राजनीति के लिए किसी लिहाज से ठीक नही कहा जा सकता ! दुर्भाग्य से आज भारतीय राजनीति की हकीकत ये है कि प्रतीकवादी राजनीति अपनी सभी सीमाएं पार कर चुकी है ! आलम ये है कि इस प्रतीकवादी राजनीति की आभा में बाकी सभी जरूरी मुद्दे काफी हद तक गौण हो गए हैं ! न तो सत्तापक्ष अपने शासन के दौरान की विफलताओं का जवाब दे रहा है और न ही विपक्ष ये बताने की जहमत उठा रहा है कि अगर वो सत्ता में आते हैं तो क्या और कैसे करेंगे ? आलम ये है कि जनता से जुड़े होने की और जनता की बात तो सभी दल कर रहे हैं, पर जनता के मुद्दों और सवालों की बात कोई नही कर रहा ! प्रतीकवादी राजनीति के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ये कहना गलत नही होगा कि धीरे-धीरे जनता ही एक प्रतीक बनती जा रही है जिसकी बात तो सभी दल कर रहे हैं, पर उसकी सुन कोई नही रहा ! 

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

केजरीवाल के इस्तीफे का मतलब [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट
आखिरकार दिल्ली की बहुचर्चित व बहुविवादित आआपा सरकार का अध्याय मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे के साथ ही फ़िलहाल के लिए तो समाप्त हो गया ! अब अगर अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे को समझने का प्रयास करें तो ऐसी कई बातें सामने आती हैं जो कि इस इस्तीफे की हकीकत को साफ़ कर देती हैं ! केजरीवाल भले ही कहें कि उन्होंने ये इस्तीफा जनलोकपाल विधेयक पारित कराने के अपने वादे को पूरा न कर पाने के कारण नैतिक आधार पर दिया है ! पर हकीकत तो ये है कि इस इस्तीफे के लिए जनलोकपाल बस एक बहाना है, असल मामला तो कुछ और ही है ! यहाँ समझना होगा कि शासन के दौरान जिस तरह से जनलोकपाल को पारित करवाने को लेकर केजरीवाल की आआपा सरकार ने संवैधानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी की वो उसे पारित करवाने वाला कम अटकाने वाला ज्यादा था ! अब चूंकि, दिल्ली एक पूर्ण राज्य नही है ! ऐसे में यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए अन्य राज्यों की अपेक्षा थोड़ी अलग प्रक्रिया है ! दिल्ली में कोई भी क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक प्रक्रिया कुछ यों है कि राज्य सरकार द्वारा विधेयक का मसौदा तैयार करके उसे केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजा जाता है ! वहाँ से स्वीकृत होकर आने के बाद उस विधेयक को विधानसभा में पेश किया जाता है और इसके बाद विधानसभा में उसपर चर्चा आदि के बाद विधायकों के समर्थन के आधार पर उसके पारित होने न होने का निर्णय किया जाता है ! अब इस पूरी प्रक्रिया में केजरीवाल की आआपा सरकार को सर्वाधिक समस्या विधेयक को केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजने से थी ! आआपा का तर्क था कि अगर विधेयक गृहमंत्रालय को भेजा गया तो वहाँ ये अटक जाएगा ! लिहाजा आआपा सरकार ने जनलोकपाल विधेयक को गृहमंत्रालय और उपराज्यपाल की मंजूरी के बगैर ही विधानसभा  में प्रस्तुत कर दिया ! परिणाम ये हुआ कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत आआपा सरकार की बाह्य सहयोगी काग्रेस भी जनलोकपाल को पेश करने के इस असंवैधानिक तरीके के विरोध में उतर पड़ी और आख़िरकार विधेयक पारित होना तो दूर, पेश भी नही हो पाया ! इस पूरे घटनाक्रम को देखने पर सवाल ये उठता है कि क्या केजरीवाल वाकई में जनलोकपाल पारित करवाना चाहते थे या फिर उसको पारित न करवा पाने की ओट में अपनी जिम्मेदारियों से आजाद होना चाहते थे जो कि वो हो भी गए ? सवाल ये भी है कि अगर वाकई में केजरीवाल का उद्देश्य जनलोकपाल विधेयक को पारित करवाकर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाना ही था तो वो इतनी जल्दबाजी में क्यों आ गए ? ऐसे में केजरीवाल का ये कहना भी शायद ही किसीके गले उतरे कि जनलोकपाल विधेयक के पारित न होने के लिए कांग्रेस-भाजपा जिम्मेदार हैं ! क्योंकि, जनलोकपाल विधेयक के इस पूरे प्रकरण के दौरान भाजपा और कांग्रेस ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर रखी थी कि वो पूरी तरह से इस विधेयक के साथ हैं, बशर्ते कि इसे संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार पेश किया जाए ! पर जाने किस मंशा से केजरीवाल सरकार इस विधेयक को पेश करने में बार-बार संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताती रही ! तिसपर ये तो और भी अद्भुत रहा कि जनलोकपाल को संवैधानिक प्रक्रियाओं से पुष्ट करके पुनः पेश करने की बजाय अरविन्द केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया ! अगर जनलोकपाल पेश होकर समर्थन के अभाव में पारित नही हुआ होता, तब तो केजरीवाल के पास इस्तीफा देने की एक जायज वजह होती कि उनकी सरकार अल्पमत में है, और इस्तीफे के बाद उनकी शहीद की छवि भी बन जाती ! पर यहाँ तो विधेयक पेश ही नही हो पाया ! ऐसे में केजरीवाल का इस्तीफा देना  जनता के बीच अधिकाधिक तौर पर उन्हें अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने वाले नेता के रूप में ही स्थापित करेगा !
   अब अगर विचार करें कि आखिर केजरीवाल अपनी जिम्मेदारियों से क्यों पीछे हट गए तो स्पष्ट होता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी जोर आजमाइश के लिए उतर रही है ! ऐसे में कहीं ना कहीं केजरीवाल खुद को सिर्फ दिल्ली में उलझाए नही रखना चाहते होंगे और शायद  इसीलिए उन्होंने जनलोकपाल के बहाने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को दिल्ली की जिम्मेदारी से अलग कर लिया ! अब वो पूरी तरह से लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र अपनी पार्टी के लिए प्रचार-प्रसार कर सकेंगे और संदेह नही कि दिल्ली की सरकार से आजाद केजरीवाल के पूरी तरह से लोकसभा चुनाव में अपने पार्टी की कमान संभालने से कांग्रेस-भाजपा आदि दलों की चिंताएं जरूर बढ़ गई होंगी ! समझा जा सकता है कि केजरीवाल का ये इस्तीफा किसी नैतिकता के कारण नही, सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण है ! हालांकि अब ये कहना कठिन है कि केजरीवाल के इस इस्तीफे के बाद जनता से उन्हें पहले जैसा ही समर्थन प्राप्त होगा ! कारण कि केजरीवाल के इस बेतुके इस्तीफे समेत उनके ४९ दिनों के शासन में भी तमाम ऐसी बाते रही हैं जो कि उनकी नीयत और काम करने के तरीके पर कई गंभीर सवाल खड़े करती हैं ! इनमे जनता दरबार के हंगामे से लेकर अपने मत्रियों के बचाव में पूरी आआपा सरकार का धरने पर उतर आना तक शामिल है ! लिहाजा पूरी संभावना है कि इस इस्तीफे के बाद जनता का उनसे भरोसा कम हुआ हो और लोग एक स्थिर सरकार के लिए मोदी लहर में भाजपा का रुख कर लें ! कुल मिलाकर एक बात तो समझी जा सकती है कि इस इस्तीफे के जरिए केजरीवाल ने अपने समूचे राजनीतिक वजूद को दाव पर रखते हुए सियासत का एक बड़ा दाव खेला है जिसमे कि अगर बाजी हाथ लगी तो उन्हें बड़ा लाभ होगा, पर अगर वो हारे तो संदेह नही कि उनका राजनीतिक अस्तित्व ही इतिहास की बात हो जाएगा !  

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

आर्थिक आधार पर आरक्षण [दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक छत्तीसगढ़ 
आरक्षण तो इस देश में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है ! पर फ़िलहाल कुछ समय से ये विषय ठण्डा पड़ा था जिसे कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने अपने एक बयान के जरिये फिर से चर्चा के केन्द्र में ला दिया है ! जनार्दन द्विवेदी ने आरक्षण पर कांग्रेस की पारम्परिक विचारधारा से अलग हटते हुए ये कह दिया कि गरीब की कोई जाति नही होती, इसलिए आरक्षण का आधार जातीय नही, आर्थिक होना चाहिए ! अब जनार्दन द्विवेदी का ये कहना था कि अपने-अपने तरह से सभी राजनीतिक दल उनपर बरस पड़े ! यहाँ तक कि कांग्रेस ने भी उनके बयान से खुद को अलग कर लिया और सोनिया गाँधी द्वारा अनुसूचित जातियों-जनजातियों के हितों के संरक्षण के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता दोहराई गई ! अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते ही हमारे राजनीतिक दलों में खलबली मच जाती है ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले हमें ये समझना होगा कि आजादी के बाद संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का उद्देश्य क्या था ? दरअसल संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज से असमानता को समाप्त करना तथा निम्न व पिछड़े वर्गों को जीवन के हर क्षेत्र में मौके की समानता देना था ! आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक  परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था ! पर समय के साथ हमारी सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव हुए हैं और वर्तमान समय में ऐसा कोई ठोस कारण नही दिखता जिसके आधार पर जाति आधारित आरक्षण को ठीक  कहा जा सके ! लिहाजा कहना गलत नही होगा कि समय की मांग को देखते हुए जाति आधारित आरक्षण में भी परिवर्तन के लिए भी विचार होना चाहिए ! यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी ! इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा ! पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिग्य है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि ! साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है ! आरक्षण की समीक्षा न होने व उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही है कि आज आरक्षण शासक वर्ग के लिए तुष्टिकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है ! ऐसे कई दल हैं जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण के भरोसे है ! आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा  अनुसूचित जातियों-जनजातियों को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है ! इन सब बातों को देखते हुए अब ये समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टिकरण की राजनीति के ही कारण सभी राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और आर्थिक आधार पर आरक्षण का विरोध किया जाता है ! अन्यथा जाति आधारित व आर्थिक आधार पर आरक्षण के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये स्पष्ट है कि आर्थिक आधार पर अगर आरक्षण दिया जाए तो वो न सिर्फ समानता के साथ अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाएगा, बल्कि वर्तमान आरक्षण की तरह तुष्टिकरण की राजनीति के तहत  इस्तेमाल होने से भी बचेगा !
   ये सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के काफी लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं ! लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नही है जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर रूप से सशक्त हो चुके हैं ! ये वो लोग हैं जिन्हें आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला है और वो सक्षम और संपन्न हो चुके हैं ! पर बावजूद इस सम्पन्नता के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है ! ऐसे ही लोगों के लिए सन १९९२ में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर शब्द का इस्तेमाल किया था ! इस क्रीमी लेयर के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार व बच्चों को आरक्षण का लाभ नही मिलना चाहिए ! लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के इस क्रीमी लेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता  रहा ? हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय कोई सवाल न उठाए इसके लिए हमारे सियासी आकाओं ने क्रीमी लेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया ! यानि कि पहले डेढ़ लाख की वार्षिक आय वाले पिछड़े वर्ग के लोग क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते थे, पर सरकार ने उस आय को बढ़ाकर साढ़े चार लाख कर दिया !    

  आज भले ही जनार्दन द्विवेदी के आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात पर उनका विरोध हो रहा हो, पर उनके इस बयान ने आज आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बहस को एकबार फिर प्रासंगिक कर दिया है ! उचित होगा कि हमारे सियासी हुक्मरान इस विषय में गोल-मोल जवाब देकर पीछे हटने की बजाय इसपर खुलकर बहस करें ! साथ ही, सरकार को भी चाहिए कि वो सिर्फ आरक्षण देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री न समझे बल्कि इस बात का भी अध्ययन करे कि आरक्षण का लाभ सही मायने में जिन्हें मिलना चाहिए उन्हें मिल भी रहा है या नही ! अगर इन बातों पर सरकार सही ढंग से ध्यान देती है तो ही हम आरक्षण के उस उद्देश्य को पाने की तरफ अग्रसर हो सकेंगे जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी ! अन्यथा तो आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया की तरह जारी रहेगा जिसका कोई उद्देश्य नही होगा !

'आप' की नीयत में खोट [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
दिल्ली की आआपा सरकार अपने सबसे महत्वपूर्ण वादे यानि दिल्ली जनलोकपाल को लेकर जो रुख अपना रही है, वो जनलोकपाल पारित करवाने को लेकर उसकी नीयत पर कई सवाल खड़े कर रहा है ! नीयत पर सवाल इसलिए कि केजरीवाल सरकार द्वारा जनलोकपाल पारित करवाने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है वो पूरी तरह से असंवैधानिक है ! अब चूंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नही है, ऐसे में यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए अन्य राज्यों की अपेक्षा थोड़ी अलग प्रक्रिया है ! यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक प्रक्रिया कुछ यों है कि राज्य सरकार विधेयक का मसौदा तैयार करके उसे केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजे ! वहाँ से स्वीकृत होकर आने के बाद उस विधेयक को विधानसभा में रखा जाए और इसके बाद विधानसभा में उसपर चर्चा आदि के बाद विधायकों के समर्थन के आधार पर उसके पारित होने न होने का निर्णय किया जाए ! पर दिल्ली की आआपा सरकार को इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा समस्या विधेयक को केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजने से है ! दिल्ली सरकार का कहना है कि अगर जनलोकपाल विधेयक गृहमंत्रालय को भेजा गया तो ये अटक जाएगा ! इसीलिए इस विधेयक को बिना गृहमंत्रालय को भेजे सीधे दिल्ली विधानसभा में पेश किया जाएगा ! पर आआपा सरकार को अब ये कौन समझाए कि इस तरह से संवैधानिक प्रक्रिया के विपरीत कार्य करके अगर वो इस विधेयक को बिना गृहमंत्रालय की स्वीकृति के पारित करवा भी लेती है तो पारित होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे असंवैधानिक कहकर खारिज किया जा सकता है ! इसके अलावा आआपा सरकार के पास शायद इस बात का भी कोई ठोस उत्तर न हो कि इस विधेयक को विधानसभा में वो पारित कैसे करवाएगी ? अब जब मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत सरकार में आआपा की बाह्य सहयोगी कांग्रेस भी इस जनलोकपाल विधेयक का विरोध कर रही है, तो आआपा सरकार के पास विधेयक को पारित करवाने के लिए आवश्यक ३६ विधायकों का समर्थन कहाँ से आएगा ? उचित तो ये होता कि आआपा सरकार अपने जनलोकपाल विधेयक का मसौदा अन्य दलों के विधायकों के सामने रखती और उसपर चर्चा करके एक आम सहमति बनाने का प्रयास करती ! पर दुर्भाग्य कि आआपा सरकार ने अपने जनलोकपाल पर ऐसी कोई चर्चा करवाना तो दूर, उस विधेयक को सार्वजनिक तक नही किया है ! ऐसे में सवाल ये उठता है कि जो आम आदमी पार्टी चुनाव से पहले व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए आवाज उठाने में सबसे आगे थी, वो अपने जनलोकपाल विधेयक पर इतनी निष्पारदर्शी क्यों हो रही है ? गौरतलब है कि आआपा सरकार के जिस जनलोकपाल के पारित होने न होने को लेकर इतना विवाद मचा हुआ है, उस विधेयक के विषय में अभी तक किसीको कुछ नही पता है ! फ़िलहाल ये कोई नही जानता कि इस जनलोकपाल के प्रावधान क्या हैं ? ये कैसा और कितना सख्त है ?

   कुल मिलाकर जनलोकपाल को लेकर आआपा जिस तरह से हड़बड़ी में संवैधानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर रही है, उससे तो यही जाहिर होता है कि आआपा की नीयत में खोट है ! मतलब कि नीयत जनलोकपाल लाने की नही बस जस-तस अपने चुनावी वादे को निपटा देने की है ! विचार करें तो जनलोकपाल के इस चुनावी वादे पर भी इस आआपा सरकार द्वारा कुछ वैसे ही आधे-अधूरे तरीके से अमल करने की कोशिश की जा रही है जैसे बाकी अन्य वादों पर किया गया है ! फिर चाहें वो ७०० लीटर मुफ्त पानी का वादा हो या सस्ती बिजली का, सबमे इस सरकार द्वारा क्षणिक लोकप्रियता के लिए बिना किसी ठोस अध्ययन के जल्दबाजी में निर्णय लिए गए जिसका परिणाम ये हुआ कि इनमे से कोई सा भी वादा सही ढंग पूरा नही हो पा रहा है और सभी वादों पर इस सरकार की भारी किरकिरी हो रही है ! फ़िलहाल कुछ ऐसी ही स्थिति जनलोकपाल के मामले में भी बनती दिख रही है ! साफ़-साफ़ लग रहा है कि आआपा सरकार जनलोकपाल के अपने वादे को लेकर बेहद जल्दी में है और इसी कारण जल्दबाजी में संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए निर्णय लेती जा रही है ! शक नही कि ये जल्दबाजी आगामी लोकसभा चुनाव की है ! पर इस सरकार को ये समझना चाहिए कि वो खुद भी एक संवैधानिक प्रक्रिया के तहत ही चुनकर सत्ता में आई है, इसलिए उसे संवैधानिक प्रक्रियाओं का आदर करना होगा ! साथ ही, जिस तरह से आआपा के वर्तमान २७ विधायक जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं, वैसे ही भाजपा-कांग्रेस के विधायक भी जनता द्वारा चुन के ही आए हैं ! ऐसे में दिल्ली की जनता के लिए बनने वाले किसी भी क़ानून पर कांग्रेस-भाजपा के विधायकों की सहमति-असहमति का उतना ही महत्व है जितना कि सत्तारूढ़ आआपा के विधायकों का ! लिहाजा उचित होगा कि आआपा सरकार सबसे पहले अपने जनलोकपाल विधेयक को गोपनीयता से बाहर लाए और उसपर सभी दलों के साथ खुलकर चर्चा कर आम सहमति कायम करने का प्रयास करें ! फिर उसे संवैधानिक प्रक्रियाओं से गुजरने दें ! इसके बाद  उसके पारित होने में अगर कोई दल अड़ंगा डालता है तो उसका हिसाब जनता करेगी ! पर अगर विधेयक को पारित करवाने के अन्धोत्साह में आआपा इसी तरह से संवैधानिक प्रक्रियाओं से खिलवाड़ करती रही तो संदेह नही कि आगामी चुनाव में उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है ! 

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

नए भू-अधिग्रहण क़ानून का सार्थक असर [दैनिक छत्तीसगढ़ और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक छत्तीसगढ़ 
बीती एक जनवरी से लागू नए भू-अधिग्रहण क़ानून का असर दिखना शुरू हो गया है ! ज्ञात हो कि पिछले साल पुराने भू-अधिग्रहण क़ानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन कर उसे पुनः पारित किया गया था ! इस नए क़ानून का पहला झटका कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार को लगा है ! गौरतलब है कि अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा किए गए एक भूमि-अधिग्रहण को रद्द कर भूस्वामियों के हक में फैसला सुनाया है ! दरअसल ये पूरा मामला कुछ यों है कि पुणे नगर निगम ने फारेस्ट गार्डन विकसित करने के लिए जनवरी २००८ में ४३.९४ एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था, पर इसके एवज में न तो भूस्वामियों को मुआवजे की रकम दी ही गई और न ही न्यायालय में जमा कराई गई ! जिसके बाद उस जमींन के स्वामियों ने इस अधिग्रहण को न्यायालय में चुनौती दी थी ! बस इसी मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने नए क़ानून के मुताबिक अधिग्रहण के पाँच वर्ष हो जाने पर भी भू-स्वामियों को मुआवजा न मिलने को आधार मानते हुए ये भू-अधिग्रहण रद्द करने का फैसला सुनाया है ! हालांकि इस विषय में अपना पक्ष रखते हुए पुणे नगर निगम का कहना था कि मुआवजे की रकम के लिए बार-बार बुलाने पर भी कोई नही आया जिस कारण उसे सरकारी खजाने में जमा करवा दिया गया ! लेकिन, पुणे नगर निगम की इन दलीलों को निराधार मानते हुए न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि मुआवजे की रकम सरकारी खजाने में जमा करवाने को मुआवजा देना नही कहा जा सकता ! क्योंकि, ऐसी स्थिती में भू-स्वामी उस मुआवजे का लाभ नही ले सकते ! अब चूंकि ये मामला तब का है जब पुराना भू-अधिग्रहण क़ानून था जिसके तहत कंपनियों व सरकार द्वारा मनमाने ढंग से भू-अधिग्रहण किया जाता था ! अब चूंकि, इस नए क़ानून के प्रावधानों के मुताबिक पाँच साल पहले तक के मामले भी इस नए क़ानून से प्रभावित होंगे जिस कारण इस मामले भी में नए क़ानून के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है ! नए क़ानून में ये भी प्रावधान है कि बिना भू-स्वामियों की इच्छा के केवल ‘आपात स्थिति’ में ही भू-अधिग्रहण किया जा  सकता है तथा ‘आपात स्थिति’ की परिभाषा के अंतर्गत भी सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और प्राकृतिक आपदा को ही शामिल किया गया है जबकि पुराने क़ानून में ये परिभाषा ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के रूप में थी ! ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थान, आवासीय योजनाएं आदि शामिल थीं ! यानि कि ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के नाम पर सरकार जब, जिस जमीन को चाहे बाजार भाव से परे मनमाना मुआवजा देकर अधिग्रहित कर सकती थी ! और इसके लिए मात्र एक अधिसूचना जारी करनी होती थी ! पर नए क़ानून के बाद स्थिति ये है कि अब बिना भू-स्वामियों की इच्छा के भू-अधिग्रहण करना और मनमुताबिक मुआवजा देकर बच निकलना औद्योगिक संस्थानों से लेकर सरकार तक किसी के लिए भी संभव नही रह गया है !
डीएनए 
   पिछले साल जब ये नया भू-अधिग्रहण क़ानून पारित हुआ था, तब इसके कुछ प्रावधानों को लेकर उद्योग जगत द्वारा ख़ासा विरोध जताया गया था ! साथ ही, ऐसे भी कयास लगाए जा रहे थे कि इस नए क़ानून के कई प्रावधान न्यायालय द्वारा अस्वीकार दिए जाएंगे ! पर आज इस नए भू-अधिग्रहण क़ानून के प्रावधानों के आधार पर आए सर्वोच्च न्यायालय के  फैसले ने उन सभी कयासों को सिरे से खारिज कर दिया ! अब ये साफ़ हो गया कि नया भू-अधिग्रहण क़ानून पूरी तरह से संविधान सम्मत और जनहितैषी है ! सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इस क़ानून के प्रावधानों के संबंध में जो बातें एकदम स्पष्ट कर दीं उनमे सबसे पहले तो ये कि अब जो भी पाँच साल तक के पुराने मामले हैं उनमे भी लोगों को न्याय मिलने की आस पुख्ता हो जाएगी ! दूसरी बात कि भू-स्वामियों को अधिग्रहण के समय मुआवजा न मिलने पर होने वाली देरी के लिए मुआवजे पर ब्याज मिलने सबंधी प्रावधान पर भी न्यायालय के इस निर्णय के बाद अब कोई संदेह नही रह गया ! इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो गया कि नया भू-अधिग्रहण क़ानून बिना किसी प्रावधानिक समस्या के ठीक ढंग से क्रियान्वित हो रहा है ! जाहिर है कि ये सारी बातें पूरे तौर पर किसानों से लेकर अन्य भू-स्वामियों जिनका कि अबतक मनमाने ढंग से भू-अधिग्रहण के द्वारा आर्थिक शोषण किया जाता था, तक के लिए अत्यंत राहत व प्रसन्नता देने वाली हैं !

   इस नए भू-अधिग्रहण क़ानून से पूर्व देश में १८९४ में बना अंग्रेजों के समय का भू-अधिग्रहण क़ानून था जिसके अधिकाधिक प्रावधान तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के शोषण की नीतियों से स्पष्टतः प्रभावित थे ! पर दुर्भाग्य कि आजाद होने के बाद भी भारत सरकार द्वारा अंग्रेजों के समय के अन्य तमाम नियमों-कानूनों-संस्थाओं आदि की तरह इस क़ानून को भी बिना किसी बदलाव के जारी रखा गया ! लिहाजा आजादी के बाद भी लंबे समय तक इसका शासक और औद्योगिक वर्ग द्वारा लगातार दुरुपयोग किया जाता रहा ! बहुत समय बाद आखिर सन २००७ में नए भू-अधिग्रहण क़ानून के लिए संसद में विधेयक पेश किया गया और फिर तमाम चर्चाओं, परिवर्तनों आदि से गुजरता हुआ ये विधेयक आख़िरकार पिछले वर्ष पारित हो गया ! और अब इस क़ानून के आधार पर लिए गए सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से निश्चित तौर पर आम जनों में इस क़ानून के प्रति विश्वास और जागरूकता आएगी ! साथ ही, राज्य सरकारें व औद्योगिक संगठन भी अब पहले की तरह अन्यायपूर्ण अधिग्रहण करने से बाज आएंगे ! 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

शालिनी माथुर के लेख पर प्रतिक्रिया : कुछ बताता, कुछ छुपाता लेख [अप्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

तहलका जनवरी, २०१४ अंक में “मर्दों के खेला में औरत का नाच” शीर्षक से छपे शालिनी माथुर के एक लेख पर बतौर पाठक प्रतिक्रियास्वरूप ये लेख लिखा हूँ ! शालिनी माथुर के लेख में  उल्लेख किए गए कथा-अंशों का सम्यक प्रकार से अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकले हैं, ये लेख उन्ही निष्कर्षों पर आधारित है !
   
तहलका के जनवरी अंक में शालिनी माथुर ने ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ शीर्षक से एक अत्यंत गंभीर लेख लिखा है जो कि समकालीन स्त्री-लेखन पर कई सवाल खड़े कर रहा है ! फेसबुक के मुखपृष्ठ पर भटकते हुए किसीके द्वारा साझा की गई इस लेख की लिंक दिखी ! क्लिक करके जब पढ़ना शुरू किया तो ऐसा डूबा कि एकबार का लगा खत्म करके ही उठा ! लेख तो खत्म हो गया, पर प्रथम द्रष्टया मन में अनेक सवाल छोड़ गया कि क्या वर्तमान स्त्री-लेखन का यही स्वरूप रह गया है ? क्या प्रेमचंद, महादेवी वर्मा जैसे महान स्त्री-साहित्यकारों की परम्परा को हम यही दिशा दे रहे हैं ? और सबस बड़ा सवाल कि इस तरह के लेखन का उद्देश्य क्या है, इसके द्वारा किस तरह की स्त्री-मुक्ति की अपेक्षा की जा रही है या की जा सकती है ? इन सभी सवालों को लेकर मन-मष्तिष्क में आंदोलन जारी था ! आखिर मन के इस आंदोलन को नियंत्रित करने व इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश में मैंने सबसे पहले उन सभी कहानियों/उपन्यासों का अध्ययन करने की सोची जिनके कथा-अंशों का इस लेख में उदाहरणार्थ उल्लेख किया गया है ! अपनी इस कोशिश के दौरान मुझे काफी हद तक सफलता मिली ! हालांकि ये भी सच है कि अनुपलब्धता के कारण मै सभी उद्धृत रचनाएँ नही पढ़ पाया, पर जितना भी पढ़ा उसने काफी चीजें साफ़ कर दी ! उन रचनाओं के अध्ययन के बाद जो तथ्य सामने आएं उन्हीके आधार पर हम शालिनी माथुर के लेख को समझने का प्रयास करेंगे !
    बात की शुरुआत हम वामपंथी लेखिका रमणिका गुप्ता के स्त्री-लेखन से करेंगे ! शालिनी माथुर ने इनके निजी जीवन से जुड़ी कुछ बातों को भी अपनी बात की प्रमाणिकता के लिए आधार बनाया है जिसको कि कत्तई उचित नही कहा जा सकता ! लिहाजा हम यहाँ व्यक्तिगत नही, सिर्फ लेखन की बात करेंगे ! रमणिका गुप्ता के लेखन पर पोर्नोग्राफी का आरोप लगाते हुए उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आँखें’ का उल्लेख करते हुए शालिनी माथुर लिखती हैं कि इस कहानी में “एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है, साथ वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है क्योंकि उसे  नीली आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है.” इस वर्णन में ‘सहवास करती है’ पद के प्रयोग से तो यही समझ आता है कि कहानी में पोर्न का भरपूर चित्रण होगा जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नही है ! इस कहानी में ट्रेन में यात्रा कर रही स्त्री, अपने सहयात्री की नीली आँखों के प्रति आकर्षित अवश्य है, पर उसके मन में इस बात के लिए अंतरद्वंद है कि वो उसके साथ सहवास करे या नही ! सहवास के लिए मानसिक स्वीकृति के  निष्कर्ष के साथ ये अंतर्द्वंद्व समाप्त होता है और कहानी भी ! अब इन सब में शालिनी माथुर को कहाँ पोर्नोग्राफी या घटियापन नज़र आया, ये समझ से परे है ! हालांकि इस कहानी की ये बात थोड़ी असंगत अवश्य लगती है कि सन ५७ के समय की किसी औरत में एक अपरिचित सहयात्री के साथ सहवास जैसे अत्याधुनिक विचार कैसे पनप सकते हैं ? और वो भी क्या ट्रेन में ?

   रमणिका गुप्ता के बाद अब हम आते हैं जयश्री रॉय के स्त्री-लेखन पर ! जयश्री रॉय का उपन्यास ‘औरत जो एक नदी है’ के विषय में शालिनी माथुर का मत है कि यह “पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर, बकार्डी, बिस्तर और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है.” ये उपन्यास पढ़ने पर इस मत से असहमत होने का कोई कारण भी नही दिखता ! इस उपन्यास का मुख्य पात्र एक पुरुष है जो कि पत्नी के साथ एकदूजे की गैरजानकारी में दो-दो प्रेमिकाओं को भी रखे है और सबके साथ हमबिस्तरी करता है या कि हमबिस्तरी ही उसके संबंधों का मूल है ! अब ऐसे भावहीन, कामातुर पुरुष को मूख्य भूमिका में रखकर ये उपन्यास लिखने के पीछे जयश्री रॉय का क्या स्त्री-सरोकार था, ये समझ से बाहर है ! आखिर में, इस उपन्यास के विषय में शालिनी माथुर का ये कहना बिलकुल सही है कि इसमे “स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली में रखे हुए व्यंजन हैं, स्वयं को परोसती.”
   शालिनी माथुर ने अपने लेख में जयश्री रॉय की कुछेक कहानियों का भी जिक्र किया है ! अब हम उनपर आते हैं ! जयश्री राय की एक कहानी ‘देह के पार’ पर शालिनी माथुर ने लिखा है कि इस कहानी में “प्रौढ़ स्त्री नव्या अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष छोटे बेरोजगार युवक को खरीद लाती है.” बिना कहानी पढ़े ये वाक्य देखने पर तो यही लगता है कि जैसे नव्या एक चरित्रहीन, कामातुर और किसी संपन्न परिवार की बिगड़ैल औरत है ! पर जब हम इस कहानी को पढ़ते हैं तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है ! दरअसल, नव्या एक संपन्न परिवार से है, पर एकदिन जब उसे अपने पति का किसी और के साथ संबंध होने की बात पता चलती है तो वो टूट जाती है ! इसी टूटन में वो अपने एक मित्र अभिनव का सहारा लेती है जो कि फ़िलहाल बेरोजगार है, और उनदोनों में काफी नजदीकियां बढ़ जाती हैं ! निश्चित ही, अभिनव अय्याश सेठों की कामातुर सेठानियों को अपना शरीर बेचता है और यहाँ नव्या के पर्स से पैसे भी निकाल लेता है और वो उसे रोक भी नही पाती है, पर इसका ये अर्थ लगाना कि नव्या उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए खरीदती है, कत्तई सही नही होगा ! यहाँ नव्या की मनोस्थिति को लेकर थोड़ा उदारवादी होकर सोचने की जरूरत तो है कि जिस औरत का पति किसी और के साथ हो, वो शायद इस तरह की गतिविधियों का शिकार हो सकती है, लेकिन सवाल ये भी है कि ऐसी स्थिति में नव्या अपने पति से अलग होकर नए सिरे से जीवन शुरू करने की बजाय अभिनव जैसे नशेड़ी और अस्थिर व्यक्ति में क्यों उलझी है ? इन बातों के अलावा भी इस कहानी में कुछ ऐसी बातें हैं जो कि बिलकुल गैरजरूरी, असंगत और अव्यवहारिक लगती हैं ! जैसे, “देहगंध नव्या के नाशपुटों को छू रही थी- शराब, कोलोन और सिगरेट की मिली-जुली गंध” इस देहगंध और शराब-सिगरेट की गंध का कहानी में अनगिनत बार जिक्र हुआ है जिसका न तो कोई अर्थ है और न ही औचित्य ! साथ ही, नव्या और अभिनव जिस भाषा में बातें करते हैं वो भी पूरी तरह से देश-काल और पात्रों के विपरीत है ! लगभग यही बात सूचित करते हुए शालिनी माथुर भी लिखती हैं कि क्या नव्या और अभिनव जैसे आज के पात्र “परस्पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात करते होंगे ? आखिर में इस कहानी के विषय में यही कहेंगे कि इसमे पॉर्न जैसी कोई बात तो नही है, पर इस कहानी के लिखे जाने का कोई  जायज मतलब भी समझ नही आता है ! ऐसी कहानियों से न तो स्त्री-उत्थान को ही कोई बल मिलने वाला है और न ही हमारे साहित्य को ऐसी निरुद्देश्य कहानियों की कोई आवश्यकता ही है !
  जयश्री रॉय की ही एक अन्य कहानी ‘छुट्टी का दिन’ की बात करें तो इस कहानी में भी उनके उपन्यास ‘औरत जो एक नदी है’ के तरह ही स्त्री को एक ‘देह’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है ! कहने को तो इस कहानी में लेखिका ने एक व्यक्ति के छुट्टी वाले दिन की दिनचर्या का वर्णन करने की कोशिश की है, पर इस कहानी में छुट्टी की जिस दिनचर्या का वर्णन है, उसे देखते हुए सवाल ये उठता है कि क्या छः दिन काम करने वाला एक पुरुष अपनी एकलौती छुट्टी ऐसे ही बिताता है- छिपकर पड़ोसी की बीवी को नहाते हुए देखकर और अपनी नौकरानी के नितंब निहारकर ? इस तरह से छुट्टी बिताने वाले पुरुष कहाँ होते हैं, ये भी समझ से बाहर है ! अगर हम ये मानें कि इन वर्णनों के जरिए लेखिका समाज में औरत के प्रति व्याप्त पुरुष-मानसिकता को दिखाना चाहती हैं तो भी सवाल ये है कि पुरुष-मानसिकता को दिखाने के लिए औरत को ही अनावरण कर देना कहाँ तक उचित है ? जुगुप्सा और कौतूहल जगाने के मामले में इन्ही लेखिका की एक और कहानी ‘समन्दर, बारिश और एक रात’ तो सब सीमाएं तोड़ देती है – पूरी कहानी सिर्फ और सिर्फ शराब, ड्रग्स, हवस जैसी चीजों से भरी पड़ी है और अंत करते-करते लेखिका द्वारा सामूहिक बलात्कार का भी विशद वर्णन कर दिया गया है ! समझना आसान है कि इन कहानियों में ऐसी चीजों के जरिए लेखिका का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि पाठकों में अधिकाधिक जुगुप्सा जगाई जाए और अनावश्यक कौतूहल पैदा करके कहानी को चर्चित किया जा सके जिसमे कि उन्हें अपेक्षित सफलता भी मिली है !
  अब हम नज़र डालते हैं गीताश्री की कहानियों पर ! शालिनी माथुर के लेख में गीताश्री की तीन कहानियों का जिक्र हुआ है – गोरिल्ला प्यार, ताप और इन्द्रधनुष के उस पार – हम एक-एक करके इन कहानियों और इनपर शालिनी माथुर की राय को समझने का प्रयास करेंगे ! ‘गोरिल्ला प्यार’ कहानी से शुरू करें तो ये एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने साथी के साथ बिना विवाह, यहाँ तक की सहजीवन संबंध से भी मुक्त होकर रह रही है ! एक रात उसका वो साथी उससे बेकार में नाराज़ होकर उसे अतृप्त छोड़कर चला जाता है तो वो फेसबुक के माध्यम से एक लड़के को बुलाती है और उसके साथ रात गुजारती है ! पर इस पूरे प्रकरण के दौरान न तो ऐसा कोई विशेष संवाद है और न ही ऐसा कोई दृश्य-चित्रण जिस आधार पर इस कहानी को पॉर्न कहा जा सके ! इस पूरी कहानी में काम-क्रीड़ा को दर्शाने के लिए सिर्फ एक वाक्य लिखा गया है, ‘देह देर तक एक दूसरे को मथती रही’ – शालिनी माथुर ने अपने लेख में बस इसी एक वाक्य को डालकर इसके आगे ‘आदि इत्यादि’ ऐसे लगाया है जैसे कि कहानी में इस तरह का लंबा-चौड़ा वर्णन हो ! गीताश्री की एक कहानी ‘ताप’ के विषय में शालिनी माथुर लिखती हैं कि इसमे ‘एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की शारीरिक भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई अन्य विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है. ये कहानी पढ़ने के बाद हमें शालिनी माथुर की इस बात से असहमत होने का कोई विशेष कारण भी नही प्रतीत होता ! खैर ! शालिनी माथुर की बात से अलग इस कहानी की सबसे बड़ी खामी इसकी संवाद-शैली है ! पहली बात की कोई माँ किसी बेटी के सामने अपनी ऐसी व्यथा नही बताएगी और अगर बताएगी तो भी क्या इस लहजे में ? – ‘मैं तुम्हारे पापा को शारीरिक सुख नहीं दे सकती। मेरी देह में ना वो आग बची है ना मन में वो चाह..तुम्हारे पापा को आग चाहिए.’ अब सभ्य परिवारों की माँ-बेटी के बीच इस लहजे में बातचीत भारत के किस कोने में होती है, ये शायद लेखिका ही बता सकें ? ये कहानी वहाँ तक सही दिशा में है जब लड़की अपने पर बचपन में हुए यौन हमले को याद करती है ! अगर लेखिका चाहतीं तो यहाँ से कहानी को एक सही दिशा में ले जा सकती थीं ! पर जाने किस मोह के कारण वो कहानी को ऐसा बनाईं कि इसके लेखन का उद्देश्य ही निरर्थक हो गया है ! जैसे इस कहानी में माँ-बेटी के बीच ‘देह की आग’ जैसे संवाद चौकाते हैं, ठीक वैसे ही गीताश्री की ही एक अन्य कहानी ‘इन्द्रधनुष के उस पार’ की न्यूड पार्टी भी चौकाती है ! अब ‘न्यूड पार्टी’ जैसी चीज हमारे समाज में भी कहीं होती है क्या ? अब चूंकि, लेखिका एक पत्रकार भी हैं इसलिए यह भी हो सकता है कि ये न्यूड पार्टी उनकी खोजी पत्रकारिता की खोज हो और इसके बारे में सार्वजनिक स्तर पर कभी कुछ सामने न आया हो ! पर ऐसे में सवाल ये उठता है कि अगर ये न्यूड पार्टी लेखिका की खोजी पत्रकारिता का एक हिस्सा है तो इसे अभिव्यक्त करने के लिए संस्मरण, रिपोर्ताज जैसी और भी कई विधाएँ साहित्य में मौजूद हैं ! कहानी के जरिए ऐसी अभिव्यक्ति तो असंगत और निराधार ही लगेगी, अब भले से वो सही हो ! हालांकि अगर इस कहानी से ‘न्यूड पार्टी’ को हटा दें तो इसे एक अच्छी कहानी की श्रेणी में रखा जा सकता है !    
     इसी क्रम में हम मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक पर भी एक संक्षिप्त दृष्टि डालेंगे ! इस उपन्यास के विषय में अधिक कुछ नहीं कहते हुए सिर्फ इतना बता दें कि इसमे जयश्री रॉय के उपन्यास “औरत एक नदी है” से एक कदम आगे बढ़ते हुए बड़े ही प्रत्यक्ष ढंग से स्त्री-शरीर को भोग के रूप में और पुरुष को भोग लगाने वाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है ! यथा, इस उपन्यास के विषय में शालिनी माथुर उल्लेख करती हैं कि इसकी नायिका सारंग, जो रंजीत की  पत्नी है, श्रीधर से कहती है, “श्रीधर, अगर तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी.” यही नायिका एक अन्य स्थान पर फिर कहती है, “मेरे पास था ही क्या – हरी-भरी देह.” लगभग ये पूरा उपन्यास कुछ ऐसे ही उत्तेजक और वाहियात संवादों से भरा पड़ा है जिनमे कि स्त्री को भावना और सोच-विचार से हीन सिर्फ और सिर्फ एक देहरुपी भोग के रूप में प्रस्तुत किया गया है और पुरुष को भोग लगाने वाला ! अब ये बात तो लेखिका ही बताएंगी कि इस उपन्यास के जरिए उनका उद्देश्य स्त्री-सशक्तिकरण है या सस्ती लोकप्रियता पाना जो कि उन्हें मिली भी ?
   इन सभी वरिष्ठ लेखिकाओं के बीच एक नाम युवा ज्योति कुमारी का भी है जो कि अभी हाल ही में पंचतत्वविलीन राजेन्द्र यादव के साथ एक विवाद के कारण काफी चर्चा में रही हैं ! इन्ही ज्योति कुमारी की एक चर्चित कहानी ‘शरीफ लड़की’ जिसके लिए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने ‘इसे अनदेखा करना मुमकिन नही’ जैसे शीर्षक से लेख लिखा, का उल्लेख करते हुए शालिनी माथुर ने अपने लेख में लिखा है कि इस “कहानी में पाठकों को चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष की हो जाने का विस्तृत विवरण है. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है- लड़की वीर्य से लिथड़ी हैऊपर से नीचे तकआगे से पीछे तकअंदर से बाहर तक उसका रोम रोम लिथड़ा है.” पर जब हम इस कहानी को पढ़ते हैं तो तस्वीर शालिनी माथुर के बताए से थोड़ी भिन्न अवश्य लगती है ! सीधे शब्दों में ‘शरीफ लड़की’ एक लड़की के बचपन से लेकर युवा होने तक के बदलावों के वर्णन की कहानी है जिसके तहत कहानी के अंत में लेखिका द्वारा समाज की इस रूढ़िवादी मानसिकता कि गैरवैवाहिक शारीरिक संबंध से व्यक्ति का चरित्र दूषित होता है, को चुनौती देने का प्रयास किया गया है ! इस कहानी की मुख्य पात्र लड़की के रूप में लेखिका का मत है कि शारीरिक संबंधों से व्यक्ति के चरित्र पर कोई प्रभाव नही पड़ता – वो पूर्ववत ही रहता है ! कहने में ये बातें बहुत सीधी हैं, पर ज्योति कुमारी इसके लिए बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने इस सीधी-सी बात को बड़े ही अलग अंदाज में प्रस्तुत किया ! इस कहानी के कथ्य और शिल्प में निश्चित ही काफी नयापन  है ! हालांकि इन चीजों के अलावा इस कहानी में एकाध चीजें ऐसी भी हैं जो काफी बेतुकी प्रतीत होती हैं ! जैसे कि एक  ऐसी लड़की, जो पिता के भय से एक लड़के से फोन पर बतियाने में भी डरती है, में ये बदलाव कैसे आ जाता है कि परिवार की गैरमौजूदगी में वो उसी लड़के के साथ हमबिस्तरी करती है ? अगर हम ये मानें कि इन बातों के जरिए लेखिका नए सामाजिक मूल्य गढ़ने का प्रयास कर रही है तो सवाल ये उठता है कि परिवार की गैरमौजूदगी में (यानि अपराध-बोध से ग्रस्त होकर) शारीरिक संबंध बनाने से कौन से नए मूल्यों का स्थापन होगा ? इसके अलावा ‘वीर्य से लिथड़ी’ जैसे संवाद भी अनावश्यक ही लगते हैं ! पर इसका ये कत्तई अर्थ नही कि ये एक पॉर्न-साहित्य है ! ये बात दावे से कही जा सकती है कि ‘शरीफ लड़की’ कथ्य से लेकर शिल्प तक हर स्तर पर एक जानदार कहानी है !
   उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि शालिनी माथुर ने अपने लेख अगर काफी बातें सही लिखी हैं तो कुछ बातें गलत भी ! शालिनी माथुर के लेख में  उद्धृत कुछ कहानियों में अगर वाकई में अश्लीलता है तो कुछ में नही भी है ! जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि शालिनी माथुर ने कई कहानियों में से कोई निश्चित वाक्यांश निकालकर बिना उनके संदर्भ का उल्लेख किए, उन्हें अपने तरह से प्रस्तुत किया है ! पर तमाम कहानियां ऐसी भी हैं जिनके विषय में शालिनी माथुर का कहना बिलकुल सही भी है ! कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि शालिनी माथुर ने अपने लेख में अगर कुछ बताया है तो कुछ छिपाया भी है ! इसके अलावा शालिनी माथुर ने अपने इस आलोचनात्मक लेख में जिस तरह से लेखक/लेखिकाओं पर निजी हमले किए हैं, वो निंदनीय तो है ही, उसके लिए साहित्य में भी कोई स्थान नही है ! कहना गलत नही होगा कि इन निजी आरोपों के कारण शालिनी माथुर का ये लेख आलोचना की बजाय भर्त्सना बन गया है ! इन सबके बाद एक सवाल जो ऊपर वर्णित सभी अच्छी-बुरी कहानियों की लेखिकाओं से भी अवश्य पूछा जाना चाहिए कि क्या आज स्त्री की सबसे बड़ी समस्या उसकी ‘देह’ ही है जो उसकी देह को ही केन्द्र में रखकर आज का अधिकाधिक स्त्री-लेखन हो रहा है - क्या ‘देह’ से इतर स्त्री के जीवन में और कोई समस्या नही है...?