तहलका जनवरी, २०१४ अंक में “मर्दों के खेला में औरत का नाच” शीर्षक से छपे शालिनी माथुर के एक लेख पर बतौर पाठक प्रतिक्रियास्वरूप
ये लेख लिखा हूँ ! शालिनी माथुर के लेख में उल्लेख
किए गए कथा-अंशों का सम्यक प्रकार से अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकले हैं,
ये लेख उन्ही निष्कर्षों पर आधारित है !
तहलका के जनवरी अंक में शालिनी माथुर ने ‘मर्दों के खेला में औरत
का नाच’ शीर्षक से एक अत्यंत गंभीर लेख लिखा है जो कि समकालीन स्त्री-लेखन पर
कई सवाल खड़े कर रहा है ! फेसबुक के मुखपृष्ठ पर भटकते हुए किसीके द्वारा साझा की
गई इस लेख की लिंक दिखी ! क्लिक करके जब पढ़ना शुरू किया तो ऐसा डूबा कि एकबार का
लगा खत्म करके ही उठा ! लेख तो खत्म हो गया, पर प्रथम द्रष्टया मन में अनेक सवाल
छोड़ गया कि क्या वर्तमान स्त्री-लेखन का यही स्वरूप रह गया है ? क्या प्रेमचंद,
महादेवी वर्मा जैसे महान स्त्री-साहित्यकारों की परम्परा को हम यही दिशा दे रहे
हैं ? और सबस बड़ा सवाल कि इस तरह के लेखन का उद्देश्य क्या है, इसके द्वारा किस
तरह की स्त्री-मुक्ति की अपेक्षा की जा रही है या की जा सकती है ? इन सभी सवालों
को लेकर मन-मष्तिष्क में आंदोलन जारी था ! आखिर मन के इस आंदोलन को नियंत्रित करने
व इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश में मैंने सबसे पहले उन सभी
कहानियों/उपन्यासों का अध्ययन करने की सोची जिनके कथा-अंशों का इस लेख में
उदाहरणार्थ उल्लेख किया गया है ! अपनी इस कोशिश के दौरान मुझे काफी हद तक सफलता
मिली ! हालांकि ये भी सच है कि अनुपलब्धता के कारण मै सभी उद्धृत रचनाएँ नही पढ़
पाया, पर जितना भी पढ़ा उसने काफी चीजें साफ़ कर दी ! उन रचनाओं के अध्ययन के बाद जो
तथ्य सामने आएं उन्हीके आधार पर हम शालिनी माथुर के लेख को समझने का प्रयास करेंगे
!
बात की शुरुआत हम वामपंथी लेखिका रमणिका गुप्ता
के स्त्री-लेखन से करेंगे ! शालिनी माथुर ने इनके निजी जीवन से जुड़ी कुछ बातों को
भी अपनी बात की प्रमाणिकता के लिए आधार बनाया है जिसको कि कत्तई उचित नही कहा जा
सकता ! लिहाजा हम यहाँ व्यक्तिगत नही, सिर्फ लेखन की बात करेंगे ! रमणिका गुप्ता
के लेखन पर पोर्नोग्राफी का आरोप लगाते हुए उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आँखें’
का उल्लेख करते हुए शालिनी माथुर लिखती हैं कि इस कहानी में “एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है, साथ
वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है
क्योंकि उसे नीली
आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है.” इस वर्णन में ‘सहवास करती है’ पद के प्रयोग से तो यही समझ आता
है कि कहानी में पोर्न का भरपूर चित्रण होगा जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नही है ! इस
कहानी में ट्रेन में यात्रा कर रही स्त्री, अपने सहयात्री की नीली आँखों के प्रति
आकर्षित अवश्य है, पर उसके मन में इस बात के लिए अंतरद्वंद है कि वो उसके साथ
सहवास करे या नही ! सहवास के लिए मानसिक स्वीकृति के निष्कर्ष के साथ ये अंतर्द्वंद्व समाप्त होता है
और कहानी भी ! अब इन सब में शालिनी माथुर को कहाँ पोर्नोग्राफी या घटियापन नज़र
आया, ये समझ से परे है ! हालांकि इस कहानी की ये बात थोड़ी असंगत अवश्य लगती है कि सन
५७ के समय की किसी औरत में एक अपरिचित सहयात्री के साथ सहवास जैसे अत्याधुनिक
विचार कैसे पनप सकते हैं ? और वो भी क्या ट्रेन में ?
रमणिका गुप्ता के बाद अब हम आते हैं जयश्री रॉय
के स्त्री-लेखन पर ! जयश्री रॉय का उपन्यास ‘औरत जो एक नदी है’ के विषय में शालिनी
माथुर का मत है कि यह “पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर, बकार्डी, बिस्तर
और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है.” ये उपन्यास पढ़ने पर इस मत से असहमत होने का कोई कारण भी नही
दिखता ! इस उपन्यास का मुख्य पात्र एक पुरुष है जो कि पत्नी के साथ एकदूजे की
गैरजानकारी में दो-दो प्रेमिकाओं को भी रखे है और सबके साथ हमबिस्तरी करता है या
कि हमबिस्तरी ही उसके संबंधों का मूल है ! अब ऐसे भावहीन, कामातुर पुरुष को मूख्य
भूमिका में रखकर ये उपन्यास लिखने के पीछे जयश्री रॉय का क्या स्त्री-सरोकार था,
ये समझ से बाहर है ! आखिर में, इस उपन्यास के विषय में शालिनी माथुर का ये कहना
बिलकुल सही है कि इसमे “स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली
में रखे हुए व्यंजन हैं,
स्वयं को परोसती.”
शालिनी माथुर ने अपने लेख में जयश्री रॉय की
कुछेक कहानियों का भी जिक्र किया है ! अब हम उनपर आते हैं ! जयश्री राय की एक
कहानी ‘देह के पार’ पर शालिनी माथुर ने लिखा है कि इस कहानी में “प्रौढ़ स्त्री
नव्या अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष
छोटे बेरोजगार युवक को खरीद
लाती है.” बिना कहानी पढ़े ये वाक्य देखने पर तो यही लगता है कि जैसे
नव्या एक चरित्रहीन, कामातुर और किसी संपन्न परिवार की बिगड़ैल औरत है ! पर जब हम
इस कहानी को पढ़ते हैं तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है ! दरअसल, नव्या एक संपन्न
परिवार से है, पर एकदिन जब उसे अपने पति का किसी और के साथ संबंध होने की बात पता
चलती है तो वो टूट जाती है ! इसी टूटन में वो अपने एक मित्र अभिनव का सहारा लेती
है जो कि फ़िलहाल बेरोजगार है, और उनदोनों में काफी नजदीकियां बढ़ जाती हैं !
निश्चित ही, अभिनव अय्याश सेठों की कामातुर सेठानियों को अपना शरीर बेचता है और
यहाँ नव्या के पर्स से पैसे भी निकाल लेता है और वो उसे रोक भी नही पाती है, पर
इसका ये अर्थ लगाना कि नव्या उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए खरीदती है, कत्तई
सही नही होगा ! यहाँ नव्या की मनोस्थिति को लेकर थोड़ा उदारवादी होकर सोचने की
जरूरत तो है कि जिस औरत का पति किसी और के साथ हो, वो शायद इस तरह की गतिविधियों
का शिकार हो सकती है, लेकिन सवाल ये भी है कि ऐसी स्थिति में नव्या अपने पति से
अलग होकर नए सिरे से जीवन शुरू करने की बजाय अभिनव जैसे नशेड़ी और अस्थिर व्यक्ति
में क्यों उलझी है ? इन बातों के अलावा भी इस कहानी में कुछ ऐसी बातें हैं जो कि
बिलकुल गैरजरूरी, असंगत और अव्यवहारिक लगती हैं ! जैसे, “देहगंध नव्या के
नाशपुटों को छू रही थी-
शराब, कोलोन
और सिगरेट की मिली-जुली गंध” इस
देहगंध और शराब-सिगरेट की गंध का कहानी में अनगिनत बार जिक्र हुआ है जिसका न तो
कोई अर्थ है और न ही औचित्य ! साथ ही, नव्या और अभिनव जिस भाषा में बातें करते हैं
वो भी पूरी तरह से देश-काल और पात्रों के विपरीत है ! लगभग यही बात सूचित करते हुए
शालिनी माथुर भी लिखती हैं कि क्या नव्या और अभिनव जैसे आज के पात्र “परस्पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात
करते होंगे ?” आखिर में इस कहानी के विषय में यही कहेंगे
कि इसमे पॉर्न जैसी कोई बात तो नही है, पर इस कहानी के लिखे जाने का कोई जायज मतलब भी समझ नही आता है ! ऐसी कहानियों से
न तो स्त्री-उत्थान को ही कोई बल मिलने वाला है और न ही हमारे साहित्य को ऐसी
निरुद्देश्य कहानियों की कोई आवश्यकता ही है !
जयश्री
रॉय की ही एक अन्य कहानी ‘छुट्टी का दिन’ की बात करें तो इस कहानी में भी
उनके उपन्यास ‘औरत जो एक नदी है’ के तरह ही स्त्री को एक ‘देह’ के रूप में
प्रस्तुत किया गया है ! कहने को तो इस कहानी में लेखिका ने एक व्यक्ति के छुट्टी
वाले दिन की दिनचर्या का वर्णन करने की कोशिश की है, पर इस कहानी में छुट्टी की
जिस दिनचर्या का वर्णन है, उसे देखते हुए सवाल ये उठता है कि क्या छः दिन काम करने
वाला एक पुरुष अपनी एकलौती छुट्टी ऐसे ही बिताता है- छिपकर पड़ोसी की बीवी को नहाते
हुए देखकर और अपनी नौकरानी के नितंब निहारकर ? इस तरह से छुट्टी बिताने वाले पुरुष
कहाँ होते हैं, ये भी समझ से बाहर है ! अगर हम ये मानें कि इन वर्णनों के जरिए
लेखिका समाज में औरत के प्रति व्याप्त पुरुष-मानसिकता को दिखाना चाहती हैं तो भी सवाल
ये है कि पुरुष-मानसिकता को दिखाने के लिए औरत को ही अनावरण कर देना कहाँ तक उचित
है ? जुगुप्सा और कौतूहल जगाने के मामले में इन्ही लेखिका की एक और कहानी ‘समन्दर,
बारिश और एक रात’ तो सब सीमाएं तोड़ देती है – पूरी कहानी सिर्फ और सिर्फ शराब,
ड्रग्स, हवस जैसी चीजों से भरी पड़ी है और अंत करते-करते लेखिका द्वारा सामूहिक
बलात्कार का भी विशद वर्णन कर दिया गया है ! समझना आसान है कि इन कहानियों में ऐसी
चीजों के जरिए लेखिका का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि पाठकों में अधिकाधिक जुगुप्सा
जगाई जाए और अनावश्यक कौतूहल पैदा करके कहानी को चर्चित किया जा सके जिसमे कि
उन्हें अपेक्षित सफलता भी मिली है !
अब हम नज़र डालते हैं गीताश्री की कहानियों पर ! शालिनी
माथुर के लेख में गीताश्री की तीन कहानियों का जिक्र हुआ है – गोरिल्ला प्यार, ताप
और इन्द्रधनुष के उस पार – हम एक-एक करके इन कहानियों और इनपर शालिनी माथुर की राय
को समझने का प्रयास करेंगे ! ‘गोरिल्ला प्यार’ कहानी से शुरू करें तो ये एक
ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने साथी के साथ बिना विवाह, यहाँ तक की सहजीवन संबंध से
भी मुक्त होकर रह रही है ! एक रात उसका वो साथी उससे बेकार में नाराज़ होकर उसे
अतृप्त छोड़कर चला जाता है तो वो फेसबुक के माध्यम से एक लड़के को बुलाती है और उसके
साथ रात गुजारती है ! पर इस पूरे प्रकरण के दौरान न तो ऐसा कोई विशेष संवाद है और
न ही ऐसा कोई दृश्य-चित्रण जिस आधार पर इस कहानी को पॉर्न कहा जा सके ! इस पूरी
कहानी में काम-क्रीड़ा को दर्शाने के लिए सिर्फ एक वाक्य लिखा गया है, ‘देह देर
तक एक दूसरे को मथती रही’ – शालिनी माथुर ने अपने लेख में बस इसी एक वाक्य को
डालकर इसके आगे ‘आदि इत्यादि’ ऐसे लगाया है जैसे कि कहानी में इस तरह का लंबा-चौड़ा
वर्णन हो ! गीताश्री की एक कहानी ‘ताप’ के विषय में शालिनी माथुर लिखती हैं कि
इसमे ‘एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की शारीरिक
भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी
सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई अन्य
विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है.’ ये
कहानी पढ़ने के बाद हमें शालिनी माथुर की इस बात से असहमत होने का कोई विशेष कारण
भी नही प्रतीत होता ! खैर ! शालिनी माथुर की बात से अलग इस कहानी की सबसे बड़ी खामी
इसकी संवाद-शैली है ! पहली बात की कोई माँ किसी बेटी के सामने अपनी ऐसी व्यथा नही
बताएगी और अगर बताएगी तो भी क्या इस लहजे में ? – ‘मैं तुम्हारे पापा को शारीरिक सुख नहीं दे
सकती। मेरी देह में ना वो आग बची है ना मन में वो चाह..तुम्हारे पापा को आग चाहिए.’
अब सभ्य परिवारों की माँ-बेटी के बीच
इस लहजे में बातचीत भारत के किस कोने में होती है, ये शायद लेखिका ही बता सकें ?
ये कहानी वहाँ तक सही दिशा में है जब लड़की अपने पर बचपन में हुए यौन हमले को याद
करती है ! अगर लेखिका चाहतीं तो यहाँ से कहानी को एक सही दिशा में ले जा सकती थीं
! पर जाने किस मोह के कारण वो कहानी को ऐसा बनाईं कि इसके लेखन का उद्देश्य ही
निरर्थक हो गया है ! जैसे इस कहानी में माँ-बेटी के बीच ‘देह की आग’ जैसे संवाद
चौकाते हैं, ठीक वैसे ही गीताश्री की ही एक अन्य कहानी ‘इन्द्रधनुष के उस पार’ की न्यूड
पार्टी भी चौकाती है ! अब ‘न्यूड पार्टी’ जैसी चीज हमारे समाज में भी कहीं होती है
क्या ? अब चूंकि, लेखिका एक पत्रकार भी हैं इसलिए यह भी हो सकता है कि ये न्यूड पार्टी उनकी खोजी पत्रकारिता की खोज हो और इसके
बारे में सार्वजनिक स्तर पर कभी कुछ सामने न आया हो ! पर ऐसे में सवाल ये उठता है कि अगर ये न्यूड पार्टी लेखिका की खोजी पत्रकारिता का एक हिस्सा है तो इसे अभिव्यक्त करने के लिए संस्मरण, रिपोर्ताज जैसी और भी कई विधाएँ साहित्य में मौजूद हैं ! कहानी के जरिए ऐसी अभिव्यक्ति तो असंगत और निराधार ही लगेगी, अब भले से वो सही हो ! हालांकि अगर इस कहानी से
‘न्यूड पार्टी’ को हटा दें तो इसे एक अच्छी कहानी की श्रेणी में रखा जा सकता है !
इसी
क्रम में हम मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक पर भी एक संक्षिप्त दृष्टि डालेंगे !
इस उपन्यास के विषय में अधिक कुछ नहीं कहते हुए सिर्फ इतना बता दें कि इसमे जयश्री
रॉय के उपन्यास “औरत एक नदी है” से एक कदम आगे बढ़ते हुए बड़े ही प्रत्यक्ष ढंग से स्त्री-शरीर
को भोग के रूप में और पुरुष को भोग लगाने वाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है ! यथा,
इस उपन्यास के विषय में शालिनी माथुर उल्लेख करती हैं कि इसकी नायिका सारंग, जो
रंजीत की पत्नी है, श्रीधर से कहती है, “श्रीधर, अगर
तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे.
मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात
बाकी है अभी.” यही
नायिका एक अन्य स्थान पर फिर कहती है, “मेरे पास था ही क्या – हरी-भरी देह.” लगभग ये पूरा उपन्यास कुछ ऐसे ही उत्तेजक और वाहियात संवादों
से भरा पड़ा है जिनमे कि स्त्री को भावना और सोच-विचार से हीन सिर्फ और सिर्फ एक
देहरुपी भोग के रूप में प्रस्तुत किया गया है और पुरुष को भोग लगाने वाला ! अब ये
बात तो लेखिका ही बताएंगी कि इस उपन्यास के जरिए उनका उद्देश्य स्त्री-सशक्तिकरण
है या सस्ती लोकप्रियता पाना जो कि उन्हें मिली भी ?
इन सभी वरिष्ठ
लेखिकाओं के बीच एक नाम युवा ज्योति कुमारी का भी है जो कि अभी हाल ही में
पंचतत्वविलीन राजेन्द्र यादव के साथ एक विवाद के कारण काफी चर्चा में रही हैं ! इन्ही
ज्योति कुमारी की एक चर्चित कहानी ‘शरीफ लड़की’ जिसके लिए प्रख्यात आलोचक नामवर
सिंह ने ‘इसे अनदेखा करना मुमकिन नही’ जैसे शीर्षक से लेख लिखा, का उल्लेख करते
हुए शालिनी माथुर ने अपने लेख में लिखा है कि इस “कहानी में पाठकों को चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष
की हो जाने का विस्तृत विवरण है. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है-
लड़की वीर्य से लिथड़ी है…ऊपर से नीचे तक…आगे से पीछे तक…अंदर से बाहर तक उसका रोम
रोम लिथड़ा है.” पर जब हम इस कहानी को
पढ़ते हैं तो तस्वीर शालिनी माथुर के बताए से थोड़ी भिन्न अवश्य लगती है ! सीधे
शब्दों में ‘शरीफ लड़की’ एक लड़की के बचपन से लेकर युवा होने तक के बदलावों के वर्णन
की कहानी है जिसके तहत कहानी के अंत में लेखिका द्वारा समाज की इस रूढ़िवादी
मानसिकता कि गैरवैवाहिक शारीरिक संबंध से व्यक्ति का चरित्र दूषित होता है, को
चुनौती देने का प्रयास किया गया है ! इस कहानी की मुख्य पात्र लड़की के रूप में
लेखिका का मत है कि शारीरिक संबंधों से व्यक्ति के चरित्र पर कोई प्रभाव नही पड़ता –
वो पूर्ववत ही रहता है ! कहने में ये बातें बहुत सीधी हैं, पर ज्योति कुमारी इसके
लिए बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने इस सीधी-सी बात को बड़े ही अलग अंदाज में
प्रस्तुत किया ! इस कहानी के कथ्य और शिल्प में निश्चित ही काफी नयापन है ! हालांकि इन चीजों के अलावा इस कहानी में एकाध
चीजें ऐसी भी हैं जो काफी बेतुकी प्रतीत होती हैं ! जैसे कि एक ऐसी लड़की, जो पिता के भय से एक लड़के से फोन पर
बतियाने में भी डरती है, में ये बदलाव कैसे आ जाता है कि परिवार की गैरमौजूदगी में
वो उसी लड़के के साथ हमबिस्तरी करती है ? अगर हम ये मानें कि इन बातों के जरिए
लेखिका नए सामाजिक मूल्य गढ़ने का प्रयास कर रही है तो सवाल ये उठता है कि परिवार
की गैरमौजूदगी में (यानि अपराध-बोध से ग्रस्त होकर) शारीरिक संबंध बनाने से कौन से
नए मूल्यों का स्थापन होगा ? इसके अलावा ‘वीर्य से लिथड़ी’ जैसे संवाद भी अनावश्यक
ही लगते हैं ! पर इसका ये कत्तई अर्थ नही कि ये एक पॉर्न-साहित्य है ! ये बात दावे
से कही जा सकती है कि ‘शरीफ लड़की’ कथ्य से लेकर शिल्प तक हर स्तर पर एक जानदार
कहानी है !
उपर्युक्त सभी बातों
को देखते हुए स्पष्ट है कि शालिनी माथुर ने अपने लेख अगर काफी बातें सही लिखी हैं
तो कुछ बातें गलत भी ! शालिनी माथुर के लेख में
उद्धृत कुछ कहानियों में अगर वाकई में अश्लीलता है तो कुछ में नही भी है !
जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि शालिनी माथुर ने कई कहानियों में से कोई
निश्चित वाक्यांश निकालकर बिना उनके संदर्भ का उल्लेख किए, उन्हें अपने तरह से
प्रस्तुत किया है ! पर तमाम कहानियां ऐसी भी हैं जिनके विषय में शालिनी माथुर
का कहना बिलकुल सही भी है ! कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि शालिनी माथुर ने अपने
लेख में अगर कुछ बताया है तो कुछ छिपाया भी है ! इसके अलावा शालिनी माथुर ने अपने इस आलोचनात्मक लेख में जिस तरह से लेखक/लेखिकाओं पर निजी हमले किए हैं, वो निंदनीय तो है ही, उसके लिए साहित्य में भी कोई स्थान नही है ! कहना गलत नही होगा कि इन निजी आरोपों के कारण शालिनी माथुर का ये लेख आलोचना की बजाय भर्त्सना बन गया है ! इन सबके बाद एक सवाल जो ऊपर
वर्णित सभी अच्छी-बुरी कहानियों की लेखिकाओं से भी अवश्य पूछा जाना चाहिए कि क्या आज स्त्री की सबसे बड़ी समस्या उसकी ‘देह’ ही है जो उसकी देह को ही केन्द्र में रखकर
आज का अधिकाधिक स्त्री-लेखन हो रहा है - क्या ‘देह’ से इतर स्त्री के जीवन में और
कोई समस्या नही है...?