गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

प्रतीकवादी राजनीति में उलझता चुनाव [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

डीएनए 
आम चुनावों में अब बेहद कम समय शेष रह गया है ! ऐसे में हर राजनीतिक दल द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी और आम जनता के बीच का साबित करने की होड़-सी मची हुई है ! इसके लिए राजनीतिक दलों का एक बड़ा कारगर औजार प्रतीकवादी राजनीति है ! अब बात चाहें सत्तारूढ़ दल कांग्रेस की करें या मुख्य विपक्षी दल भाजपा की या फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव से उभरी नई नवेली आम आदमी पार्टी की, इन सभी दलों द्वारा अलग-अलग प्रतीकों के जरिए स्वयं को जनता से जोड़ने की कोशिश की जा रही है ! इनमे से कोई सा भी दल इस प्रतीकात्मक राजनीति पर खर्च करने में भी अपनी क्षमतानुसार कोई कंजूसी नही कर रहा ! शायद, इन दलों को लगता है कि प्रतीकों की इस राजनीति के जरिए वो देश की जनता से एक सीधा और भावुक सा जुड़ाव बड़ी सहजता से कायम कर सकते हैं ! अब यूँ तो इस प्रतीकवादी राजनीति के हवनकुंड में सभी दल कमोबेश हविष्य डाल ही रहे हैं, पर इनमे भाजपा और कांग्रेस सबसे आगे हैं ! इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने  एक रैली में ये क्या कह दिया कि वो बचपन में चाय बेचते थे, भाजपा द्वारा चाय वालों से भावुक जुड़ाव स्थापित करने के लिए चाय को ही प्रतीक बनाकर राजनीति शुरू कर दी गई ! फिर चाहें वो जगह-जगह ‘नमो टी स्टॉल’ लगाना हो या स्वयं मोदी द्वारा चाय पर चर्चा कराना, इन सब चीजों के जरिए भाजपा ने मोदी के बचपन की चाय वाली छवि को भुनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है ! इसके अलावा मोदी द्वारा गुजरात में सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ बनाने के लिए देश भर से लोहा लेने की जो कवायद की जा रही है, वो भी इस प्रतीकवादी राजनीति का ही एक हिस्सा है ! देश भर से लोहा लेकर जो मूर्ति बनेगी उससे सहज ही देश के हर नागरिक का जुड़ाव होगा और जाहिर है कि मूर्ति बनवाने के कारण वो जुड़ाव मोदी से भी होगा ! ये तो बात हुई भाजपा की, अब अगर एक नज़र देश की सबसे पुरानी और सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस पर डालें तो इतिहास गवाह है कि प्रतीकवादी राजनीति के मामले में वो सभी दलों से कहीं आगे रही है ! पिछले चुनावों में हम देख चुके हैं कि चुनाव प्रचार की सभाओं में कैसे प्रियंका गाँधी द्वारा इंदिरा गाँधी जैसी साड़ी पहनकर जाया जाता रहा है और दादी से जुड़ी दो-एक बातें बोलकर जनता से भावुक जुड़ाव स्थापित करने की सफल कोशिश की जाती रही है ! इस आम चुनाव जनता से भावुक जुड़ाव के कुछ ऐसे ही हथकण्डे अप्रत्यक्षतः कांग्रेस के पीएम उम्मीदवार राहुल गाँधी द्वारा अपने वक्तव्यों में इस्तेमाल किए गए हैं ! फिर चाहें वो दादी और पापा की हत्या की कहानी हो या माँ द्वारा सत्ता को जहर बताने की बात, राहुल गाँधी द्वारा अपने वक्तव्यों में इन  बातों का जिक्र करने के पीछे और कुछ नही सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की प्रतीकवादी राजनीति ही कारण है ! हालांकि इन सभी चीजों के बावजूद इसबार के आम चुनाव में अभी तक प्रतीकवादी राजनीति के मामले में भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस काफी पीछे है ! कांग्रेस-भाजपा के बीच ही नई नवेली आम आदमी पार्टी (आप) भी है जिसके प्रतीकात्मक राजनीति का केन्द्र खुद आम आदमी ही है ! इसके अलावा अपने चुनाव चिन्ह झाड़ू का भी प्रतीकात्मक इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश आप द्वारा की जा रही है ! ये पार्टी खुद को आम आदमी की पार्टी बताते हुए झाड़ू से व्यवस्था की गन्दगी को साफ़ करने का नारा बुलंद किए हुए है ! खुद को आम आदमी सिद्ध करने के लिए इसके नेता सरकारी बंगला समेत लाल बत्ती गाड़ी व सुरक्षा तक नही लिए हैं ! अब इन सभी दलों में  से किसकी राजनीति कितनी कारगर होती है, ये तो आम चुनावों के बाद ही पता चलेगा ! पर इतना तो तय है कि ये आम चुनाव प्रतीकवादी राजनीति में इस कदर उलझ गया है कि भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंरिक व बाह्य सुरक्षा जैसे तमाम जरूरी मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं जिसका अंदाज़ा शायद ही किसी राजनीतिक दल को हो !

  प्रतीकवादी राजनीति न तो नई है और न ही बुरी ! बेशक राजनीतिक दलों को अपने प्रतीकों के जरिए जनता से जुड़ाव स्थापित करने का अधिकार है और उन्हें ये करना भी चाहिए ! पर साथ ही ये ध्यान रखने की भी जरूरत है कि इस प्रतीकवादी राजनीति की भी एक सीमा है ! जबतक ये अपनी सीमा में रहती है, तबतक तो बहुत अच्छी है ! पर सीमा से बाहर होते ही ये नौटंकी का रूप ले लेती है जो कि लोकतंत्र और राजनीति के लिए किसी लिहाज से ठीक नही कहा जा सकता ! दुर्भाग्य से आज भारतीय राजनीति की हकीकत ये है कि प्रतीकवादी राजनीति अपनी सभी सीमाएं पार कर चुकी है ! आलम ये है कि इस प्रतीकवादी राजनीति की आभा में बाकी सभी जरूरी मुद्दे काफी हद तक गौण हो गए हैं ! न तो सत्तापक्ष अपने शासन के दौरान की विफलताओं का जवाब दे रहा है और न ही विपक्ष ये बताने की जहमत उठा रहा है कि अगर वो सत्ता में आते हैं तो क्या और कैसे करेंगे ? आलम ये है कि जनता से जुड़े होने की और जनता की बात तो सभी दल कर रहे हैं, पर जनता के मुद्दों और सवालों की बात कोई नही कर रहा ! प्रतीकवादी राजनीति के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ये कहना गलत नही होगा कि धीरे-धीरे जनता ही एक प्रतीक बनती जा रही है जिसकी बात तो सभी दल कर रहे हैं, पर उसकी सुन कोई नही रहा ! 

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