मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

आर्थिक आधार पर आरक्षण [दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक छत्तीसगढ़ 
आरक्षण तो इस देश में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है ! पर फ़िलहाल कुछ समय से ये विषय ठण्डा पड़ा था जिसे कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने अपने एक बयान के जरिये फिर से चर्चा के केन्द्र में ला दिया है ! जनार्दन द्विवेदी ने आरक्षण पर कांग्रेस की पारम्परिक विचारधारा से अलग हटते हुए ये कह दिया कि गरीब की कोई जाति नही होती, इसलिए आरक्षण का आधार जातीय नही, आर्थिक होना चाहिए ! अब जनार्दन द्विवेदी का ये कहना था कि अपने-अपने तरह से सभी राजनीतिक दल उनपर बरस पड़े ! यहाँ तक कि कांग्रेस ने भी उनके बयान से खुद को अलग कर लिया और सोनिया गाँधी द्वारा अनुसूचित जातियों-जनजातियों के हितों के संरक्षण के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता दोहराई गई ! अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते ही हमारे राजनीतिक दलों में खलबली मच जाती है ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले हमें ये समझना होगा कि आजादी के बाद संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का उद्देश्य क्या था ? दरअसल संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज से असमानता को समाप्त करना तथा निम्न व पिछड़े वर्गों को जीवन के हर क्षेत्र में मौके की समानता देना था ! आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक  परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था ! पर समय के साथ हमारी सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव हुए हैं और वर्तमान समय में ऐसा कोई ठोस कारण नही दिखता जिसके आधार पर जाति आधारित आरक्षण को ठीक  कहा जा सके ! लिहाजा कहना गलत नही होगा कि समय की मांग को देखते हुए जाति आधारित आरक्षण में भी परिवर्तन के लिए भी विचार होना चाहिए ! यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी ! इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा ! पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिग्य है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि ! साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है ! आरक्षण की समीक्षा न होने व उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही है कि आज आरक्षण शासक वर्ग के लिए तुष्टिकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है ! ऐसे कई दल हैं जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण के भरोसे है ! आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा  अनुसूचित जातियों-जनजातियों को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है ! इन सब बातों को देखते हुए अब ये समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टिकरण की राजनीति के ही कारण सभी राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और आर्थिक आधार पर आरक्षण का विरोध किया जाता है ! अन्यथा जाति आधारित व आर्थिक आधार पर आरक्षण के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये स्पष्ट है कि आर्थिक आधार पर अगर आरक्षण दिया जाए तो वो न सिर्फ समानता के साथ अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाएगा, बल्कि वर्तमान आरक्षण की तरह तुष्टिकरण की राजनीति के तहत  इस्तेमाल होने से भी बचेगा !
   ये सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के काफी लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं ! लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नही है जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर रूप से सशक्त हो चुके हैं ! ये वो लोग हैं जिन्हें आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला है और वो सक्षम और संपन्न हो चुके हैं ! पर बावजूद इस सम्पन्नता के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है ! ऐसे ही लोगों के लिए सन १९९२ में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर शब्द का इस्तेमाल किया था ! इस क्रीमी लेयर के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार व बच्चों को आरक्षण का लाभ नही मिलना चाहिए ! लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के इस क्रीमी लेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता  रहा ? हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय कोई सवाल न उठाए इसके लिए हमारे सियासी आकाओं ने क्रीमी लेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया ! यानि कि पहले डेढ़ लाख की वार्षिक आय वाले पिछड़े वर्ग के लोग क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते थे, पर सरकार ने उस आय को बढ़ाकर साढ़े चार लाख कर दिया !    

  आज भले ही जनार्दन द्विवेदी के आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात पर उनका विरोध हो रहा हो, पर उनके इस बयान ने आज आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बहस को एकबार फिर प्रासंगिक कर दिया है ! उचित होगा कि हमारे सियासी हुक्मरान इस विषय में गोल-मोल जवाब देकर पीछे हटने की बजाय इसपर खुलकर बहस करें ! साथ ही, सरकार को भी चाहिए कि वो सिर्फ आरक्षण देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री न समझे बल्कि इस बात का भी अध्ययन करे कि आरक्षण का लाभ सही मायने में जिन्हें मिलना चाहिए उन्हें मिल भी रहा है या नही ! अगर इन बातों पर सरकार सही ढंग से ध्यान देती है तो ही हम आरक्षण के उस उद्देश्य को पाने की तरफ अग्रसर हो सकेंगे जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी ! अन्यथा तो आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया की तरह जारी रहेगा जिसका कोई उद्देश्य नही होगा !

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