- पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक छत्तीसगढ़ |
बीती एक जनवरी से लागू नए भू-अधिग्रहण क़ानून का असर
दिखना शुरू हो गया है ! ज्ञात हो कि पिछले साल पुराने भू-अधिग्रहण क़ानून के कुछ
प्रावधानों में संशोधन कर उसे पुनः पारित किया गया था ! इस नए क़ानून का पहला झटका
कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार को लगा है ! गौरतलब है कि अभी हाल ही में सर्वोच्च
न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा किए गए एक भूमि-अधिग्रहण को रद्द कर
भूस्वामियों के हक में फैसला सुनाया है ! दरअसल ये पूरा मामला कुछ यों है कि पुणे
नगर निगम ने फारेस्ट गार्डन विकसित करने के लिए जनवरी २००८ में ४३.९४ एकड़ जमीन का
अधिग्रहण किया गया था, पर इसके एवज में न तो भूस्वामियों को मुआवजे की रकम दी ही गई
और न ही न्यायालय में जमा कराई गई ! जिसके बाद उस जमींन के स्वामियों ने इस
अधिग्रहण को न्यायालय में चुनौती दी थी ! बस इसी मामले में फैसला सुनाते हुए
सर्वोच्च न्यायालय ने नए क़ानून के मुताबिक अधिग्रहण के पाँच वर्ष हो जाने पर भी भू-स्वामियों
को मुआवजा न मिलने को आधार मानते हुए ये भू-अधिग्रहण रद्द करने का फैसला सुनाया है
! हालांकि इस विषय में अपना पक्ष रखते हुए पुणे नगर निगम का कहना था कि मुआवजे की
रकम के लिए बार-बार बुलाने पर भी कोई नही आया जिस कारण उसे सरकारी खजाने में जमा
करवा दिया गया ! लेकिन, पुणे नगर निगम की इन दलीलों को निराधार मानते हुए न्यायालय
ने अपने फैसले में कहा है कि मुआवजे की रकम सरकारी खजाने में जमा करवाने को मुआवजा
देना नही कहा जा सकता ! क्योंकि, ऐसी स्थिती में भू-स्वामी उस मुआवजे का लाभ नही
ले सकते ! अब चूंकि ये मामला तब का है जब पुराना भू-अधिग्रहण क़ानून था जिसके तहत
कंपनियों व सरकार द्वारा मनमाने ढंग से भू-अधिग्रहण किया जाता था ! अब चूंकि, इस
नए क़ानून के प्रावधानों के मुताबिक पाँच साल पहले तक के मामले भी इस नए क़ानून से
प्रभावित होंगे जिस कारण इस मामले भी में नए क़ानून के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय
ने फैसला सुनाया है ! नए क़ानून में ये भी प्रावधान है कि बिना भू-स्वामियों की
इच्छा के केवल ‘आपात स्थिति’ में ही भू-अधिग्रहण किया जा सकता है तथा ‘आपात स्थिति’ की परिभाषा के
अंतर्गत भी सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और प्राकृतिक आपदा को ही शामिल किया गया है जबकि
पुराने क़ानून में ये परिभाषा ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के रूप में थी ! ‘सार्वजनिक
उद्देश्य’ के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थान, आवासीय योजनाएं आदि शामिल थीं ! यानि कि
‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के नाम पर सरकार जब, जिस जमीन को चाहे बाजार भाव से परे मनमाना
मुआवजा देकर अधिग्रहित कर सकती थी ! और इसके लिए मात्र एक अधिसूचना जारी करनी होती
थी ! पर नए क़ानून के बाद स्थिति ये है कि अब बिना भू-स्वामियों की इच्छा के
भू-अधिग्रहण करना और मनमुताबिक मुआवजा देकर बच निकलना औद्योगिक संस्थानों से लेकर
सरकार तक किसी के लिए भी संभव नही रह गया है !
डीएनए |
इस नए भू-अधिग्रहण क़ानून से पूर्व देश में १८९४
में बना अंग्रेजों के समय का भू-अधिग्रहण क़ानून था जिसके अधिकाधिक प्रावधान
तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के शोषण की नीतियों से स्पष्टतः प्रभावित थे ! पर
दुर्भाग्य कि आजाद होने के बाद भी भारत सरकार द्वारा अंग्रेजों के समय के अन्य
तमाम नियमों-कानूनों-संस्थाओं आदि की तरह इस क़ानून को भी बिना किसी बदलाव के जारी
रखा गया ! लिहाजा आजादी के बाद भी लंबे समय तक इसका शासक और औद्योगिक वर्ग द्वारा
लगातार दुरुपयोग किया जाता रहा ! बहुत समय बाद आखिर सन २००७ में नए भू-अधिग्रहण
क़ानून के लिए संसद में विधेयक पेश किया गया और फिर तमाम चर्चाओं, परिवर्तनों आदि
से गुजरता हुआ ये विधेयक आख़िरकार पिछले वर्ष पारित हो गया ! और अब इस क़ानून के
आधार पर लिए गए सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से निश्चित तौर पर आम जनों में इस
क़ानून के प्रति विश्वास और जागरूकता आएगी ! साथ ही, राज्य सरकारें व औद्योगिक
संगठन भी अब पहले की तरह अन्यायपूर्ण अधिग्रहण करने से बाज आएंगे !
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