मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

'आप' की नीयत में खोट [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
दिल्ली की आआपा सरकार अपने सबसे महत्वपूर्ण वादे यानि दिल्ली जनलोकपाल को लेकर जो रुख अपना रही है, वो जनलोकपाल पारित करवाने को लेकर उसकी नीयत पर कई सवाल खड़े कर रहा है ! नीयत पर सवाल इसलिए कि केजरीवाल सरकार द्वारा जनलोकपाल पारित करवाने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है वो पूरी तरह से असंवैधानिक है ! अब चूंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नही है, ऐसे में यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए अन्य राज्यों की अपेक्षा थोड़ी अलग प्रक्रिया है ! यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक प्रक्रिया कुछ यों है कि राज्य सरकार विधेयक का मसौदा तैयार करके उसे केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजे ! वहाँ से स्वीकृत होकर आने के बाद उस विधेयक को विधानसभा में रखा जाए और इसके बाद विधानसभा में उसपर चर्चा आदि के बाद विधायकों के समर्थन के आधार पर उसके पारित होने न होने का निर्णय किया जाए ! पर दिल्ली की आआपा सरकार को इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा समस्या विधेयक को केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजने से है ! दिल्ली सरकार का कहना है कि अगर जनलोकपाल विधेयक गृहमंत्रालय को भेजा गया तो ये अटक जाएगा ! इसीलिए इस विधेयक को बिना गृहमंत्रालय को भेजे सीधे दिल्ली विधानसभा में पेश किया जाएगा ! पर आआपा सरकार को अब ये कौन समझाए कि इस तरह से संवैधानिक प्रक्रिया के विपरीत कार्य करके अगर वो इस विधेयक को बिना गृहमंत्रालय की स्वीकृति के पारित करवा भी लेती है तो पारित होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे असंवैधानिक कहकर खारिज किया जा सकता है ! इसके अलावा आआपा सरकार के पास शायद इस बात का भी कोई ठोस उत्तर न हो कि इस विधेयक को विधानसभा में वो पारित कैसे करवाएगी ? अब जब मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत सरकार में आआपा की बाह्य सहयोगी कांग्रेस भी इस जनलोकपाल विधेयक का विरोध कर रही है, तो आआपा सरकार के पास विधेयक को पारित करवाने के लिए आवश्यक ३६ विधायकों का समर्थन कहाँ से आएगा ? उचित तो ये होता कि आआपा सरकार अपने जनलोकपाल विधेयक का मसौदा अन्य दलों के विधायकों के सामने रखती और उसपर चर्चा करके एक आम सहमति बनाने का प्रयास करती ! पर दुर्भाग्य कि आआपा सरकार ने अपने जनलोकपाल पर ऐसी कोई चर्चा करवाना तो दूर, उस विधेयक को सार्वजनिक तक नही किया है ! ऐसे में सवाल ये उठता है कि जो आम आदमी पार्टी चुनाव से पहले व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए आवाज उठाने में सबसे आगे थी, वो अपने जनलोकपाल विधेयक पर इतनी निष्पारदर्शी क्यों हो रही है ? गौरतलब है कि आआपा सरकार के जिस जनलोकपाल के पारित होने न होने को लेकर इतना विवाद मचा हुआ है, उस विधेयक के विषय में अभी तक किसीको कुछ नही पता है ! फ़िलहाल ये कोई नही जानता कि इस जनलोकपाल के प्रावधान क्या हैं ? ये कैसा और कितना सख्त है ?

   कुल मिलाकर जनलोकपाल को लेकर आआपा जिस तरह से हड़बड़ी में संवैधानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर रही है, उससे तो यही जाहिर होता है कि आआपा की नीयत में खोट है ! मतलब कि नीयत जनलोकपाल लाने की नही बस जस-तस अपने चुनावी वादे को निपटा देने की है ! विचार करें तो जनलोकपाल के इस चुनावी वादे पर भी इस आआपा सरकार द्वारा कुछ वैसे ही आधे-अधूरे तरीके से अमल करने की कोशिश की जा रही है जैसे बाकी अन्य वादों पर किया गया है ! फिर चाहें वो ७०० लीटर मुफ्त पानी का वादा हो या सस्ती बिजली का, सबमे इस सरकार द्वारा क्षणिक लोकप्रियता के लिए बिना किसी ठोस अध्ययन के जल्दबाजी में निर्णय लिए गए जिसका परिणाम ये हुआ कि इनमे से कोई सा भी वादा सही ढंग पूरा नही हो पा रहा है और सभी वादों पर इस सरकार की भारी किरकिरी हो रही है ! फ़िलहाल कुछ ऐसी ही स्थिति जनलोकपाल के मामले में भी बनती दिख रही है ! साफ़-साफ़ लग रहा है कि आआपा सरकार जनलोकपाल के अपने वादे को लेकर बेहद जल्दी में है और इसी कारण जल्दबाजी में संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए निर्णय लेती जा रही है ! शक नही कि ये जल्दबाजी आगामी लोकसभा चुनाव की है ! पर इस सरकार को ये समझना चाहिए कि वो खुद भी एक संवैधानिक प्रक्रिया के तहत ही चुनकर सत्ता में आई है, इसलिए उसे संवैधानिक प्रक्रियाओं का आदर करना होगा ! साथ ही, जिस तरह से आआपा के वर्तमान २७ विधायक जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं, वैसे ही भाजपा-कांग्रेस के विधायक भी जनता द्वारा चुन के ही आए हैं ! ऐसे में दिल्ली की जनता के लिए बनने वाले किसी भी क़ानून पर कांग्रेस-भाजपा के विधायकों की सहमति-असहमति का उतना ही महत्व है जितना कि सत्तारूढ़ आआपा के विधायकों का ! लिहाजा उचित होगा कि आआपा सरकार सबसे पहले अपने जनलोकपाल विधेयक को गोपनीयता से बाहर लाए और उसपर सभी दलों के साथ खुलकर चर्चा कर आम सहमति कायम करने का प्रयास करें ! फिर उसे संवैधानिक प्रक्रियाओं से गुजरने दें ! इसके बाद  उसके पारित होने में अगर कोई दल अड़ंगा डालता है तो उसका हिसाब जनता करेगी ! पर अगर विधेयक को पारित करवाने के अन्धोत्साह में आआपा इसी तरह से संवैधानिक प्रक्रियाओं से खिलवाड़ करती रही तो संदेह नही कि आगामी चुनाव में उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है ! 

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