मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

केजरीवाल के इस्तीफे का मतलब [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट
आखिरकार दिल्ली की बहुचर्चित व बहुविवादित आआपा सरकार का अध्याय मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे के साथ ही फ़िलहाल के लिए तो समाप्त हो गया ! अब अगर अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे को समझने का प्रयास करें तो ऐसी कई बातें सामने आती हैं जो कि इस इस्तीफे की हकीकत को साफ़ कर देती हैं ! केजरीवाल भले ही कहें कि उन्होंने ये इस्तीफा जनलोकपाल विधेयक पारित कराने के अपने वादे को पूरा न कर पाने के कारण नैतिक आधार पर दिया है ! पर हकीकत तो ये है कि इस इस्तीफे के लिए जनलोकपाल बस एक बहाना है, असल मामला तो कुछ और ही है ! यहाँ समझना होगा कि शासन के दौरान जिस तरह से जनलोकपाल को पारित करवाने को लेकर केजरीवाल की आआपा सरकार ने संवैधानिक प्रक्रियाओं की अनदेखी की वो उसे पारित करवाने वाला कम अटकाने वाला ज्यादा था ! अब चूंकि, दिल्ली एक पूर्ण राज्य नही है ! ऐसे में यहाँ कोई भी क़ानून बनाने के लिए अन्य राज्यों की अपेक्षा थोड़ी अलग प्रक्रिया है ! दिल्ली में कोई भी क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक प्रक्रिया कुछ यों है कि राज्य सरकार द्वारा विधेयक का मसौदा तैयार करके उसे केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजा जाता है ! वहाँ से स्वीकृत होकर आने के बाद उस विधेयक को विधानसभा में पेश किया जाता है और इसके बाद विधानसभा में उसपर चर्चा आदि के बाद विधायकों के समर्थन के आधार पर उसके पारित होने न होने का निर्णय किया जाता है ! अब इस पूरी प्रक्रिया में केजरीवाल की आआपा सरकार को सर्वाधिक समस्या विधेयक को केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास भेजने से थी ! आआपा का तर्क था कि अगर विधेयक गृहमंत्रालय को भेजा गया तो वहाँ ये अटक जाएगा ! लिहाजा आआपा सरकार ने जनलोकपाल विधेयक को गृहमंत्रालय और उपराज्यपाल की मंजूरी के बगैर ही विधानसभा  में प्रस्तुत कर दिया ! परिणाम ये हुआ कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत आआपा सरकार की बाह्य सहयोगी काग्रेस भी जनलोकपाल को पेश करने के इस असंवैधानिक तरीके के विरोध में उतर पड़ी और आख़िरकार विधेयक पारित होना तो दूर, पेश भी नही हो पाया ! इस पूरे घटनाक्रम को देखने पर सवाल ये उठता है कि क्या केजरीवाल वाकई में जनलोकपाल पारित करवाना चाहते थे या फिर उसको पारित न करवा पाने की ओट में अपनी जिम्मेदारियों से आजाद होना चाहते थे जो कि वो हो भी गए ? सवाल ये भी है कि अगर वाकई में केजरीवाल का उद्देश्य जनलोकपाल विधेयक को पारित करवाकर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाना ही था तो वो इतनी जल्दबाजी में क्यों आ गए ? ऐसे में केजरीवाल का ये कहना भी शायद ही किसीके गले उतरे कि जनलोकपाल विधेयक के पारित न होने के लिए कांग्रेस-भाजपा जिम्मेदार हैं ! क्योंकि, जनलोकपाल विधेयक के इस पूरे प्रकरण के दौरान भाजपा और कांग्रेस ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर रखी थी कि वो पूरी तरह से इस विधेयक के साथ हैं, बशर्ते कि इसे संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार पेश किया जाए ! पर जाने किस मंशा से केजरीवाल सरकार इस विधेयक को पेश करने में बार-बार संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताती रही ! तिसपर ये तो और भी अद्भुत रहा कि जनलोकपाल को संवैधानिक प्रक्रियाओं से पुष्ट करके पुनः पेश करने की बजाय अरविन्द केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया ! अगर जनलोकपाल पेश होकर समर्थन के अभाव में पारित नही हुआ होता, तब तो केजरीवाल के पास इस्तीफा देने की एक जायज वजह होती कि उनकी सरकार अल्पमत में है, और इस्तीफे के बाद उनकी शहीद की छवि भी बन जाती ! पर यहाँ तो विधेयक पेश ही नही हो पाया ! ऐसे में केजरीवाल का इस्तीफा देना  जनता के बीच अधिकाधिक तौर पर उन्हें अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने वाले नेता के रूप में ही स्थापित करेगा !
   अब अगर विचार करें कि आखिर केजरीवाल अपनी जिम्मेदारियों से क्यों पीछे हट गए तो स्पष्ट होता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी जोर आजमाइश के लिए उतर रही है ! ऐसे में कहीं ना कहीं केजरीवाल खुद को सिर्फ दिल्ली में उलझाए नही रखना चाहते होंगे और शायद  इसीलिए उन्होंने जनलोकपाल के बहाने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को दिल्ली की जिम्मेदारी से अलग कर लिया ! अब वो पूरी तरह से लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र अपनी पार्टी के लिए प्रचार-प्रसार कर सकेंगे और संदेह नही कि दिल्ली की सरकार से आजाद केजरीवाल के पूरी तरह से लोकसभा चुनाव में अपने पार्टी की कमान संभालने से कांग्रेस-भाजपा आदि दलों की चिंताएं जरूर बढ़ गई होंगी ! समझा जा सकता है कि केजरीवाल का ये इस्तीफा किसी नैतिकता के कारण नही, सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण है ! हालांकि अब ये कहना कठिन है कि केजरीवाल के इस इस्तीफे के बाद जनता से उन्हें पहले जैसा ही समर्थन प्राप्त होगा ! कारण कि केजरीवाल के इस बेतुके इस्तीफे समेत उनके ४९ दिनों के शासन में भी तमाम ऐसी बाते रही हैं जो कि उनकी नीयत और काम करने के तरीके पर कई गंभीर सवाल खड़े करती हैं ! इनमे जनता दरबार के हंगामे से लेकर अपने मत्रियों के बचाव में पूरी आआपा सरकार का धरने पर उतर आना तक शामिल है ! लिहाजा पूरी संभावना है कि इस इस्तीफे के बाद जनता का उनसे भरोसा कम हुआ हो और लोग एक स्थिर सरकार के लिए मोदी लहर में भाजपा का रुख कर लें ! कुल मिलाकर एक बात तो समझी जा सकती है कि इस इस्तीफे के जरिए केजरीवाल ने अपने समूचे राजनीतिक वजूद को दाव पर रखते हुए सियासत का एक बड़ा दाव खेला है जिसमे कि अगर बाजी हाथ लगी तो उन्हें बड़ा लाभ होगा, पर अगर वो हारे तो संदेह नही कि उनका राजनीतिक अस्तित्व ही इतिहास की बात हो जाएगा !  

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