गुरुवार, 3 सितंबर 2015

नवहा-नवहा हमरा घर में मलिकाइन आईल बाड़ी [भोजपुरी पत्रिका आखर में प्रकाशित]




  •  पीयूष द्विवेदी भारत
दिन  भर महभारत  बांचेली !
हमरी  कपार   पर  नांचेली !
अपनी मांगन पर अड़ जाली !
जे मना करी हम लड़ जाली !
कहें हमसे कि जीन्स ले आव, हम नाही पहिनेलीं साड़ी !
नवहा  नवहा  हमरा  घर  में, मलिकाईन आईल बाड़ी !

घरवाके   होटल   जानेली !
हमराके   वेटर    मानेली !
पेप्सी  कोला  बीयर  पीएं !
पॉपकोर्न आ चिप्स प जीएं !
रोटी  तरकारी  रुचे  ना,  हमरासे मांगे बिरयानी !
नवहा नवहा हमरा घर में, मलिकाईन आईल बाड़ी !

आखर

पचहत्तर गो क्रीम  मंगावें !
सब पईसा में आगि लगावें !
हमरो के कुछ बाति  बतावें !
टेढ़ आँखि कइके  समझावें !
कहें हमके, “क्लीन हो जाओ, क्यों रखते ये घटिया दाढ़ी !
नवहा  नवहा  हमरा  घर  में, मलिकाईन आईल  बाड़ी !


एकदिन काम से अइनी जब !
खूब    सेवा  कईली  तब !
लगनी  सोचे    का  होता !
कउवा  कईसे  बनल  तोता !
सोचत रहनी तवले कहली, “राजा, हमको चहिए गाड़ी !
नवहा नवहा हमरा घर में,  मलिकाईन  आईल  बाड़ी !

नखरा कि उनकर एतना बा !
गीनि  ना  पाईं  केतना बा !
जेतने होखो  सब ठीक  बा !
जईसन होखो सब नीक  बा !
काहें कि हमरी मनवा में त, बस  ऊहे  समाईल बाड़ी !
नवहा नवहा हमरा घर में,  मलिकाईन  आईल  बाड़ी !




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