गुरुवार, 3 सितंबर 2015

आखिर कब चेतेगी कांग्रेस [कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

कल्पतरु एक्सप्रेस 
अभी हाल ही में राजस्थान के नगर निकाय चुनावों के परिणाम सामने आए हैं। ललितगेट प्रकरण के सामने आने के बाद से इन चुनावों पर देश की नज़र थी। माना जा रहा था कि ललितगेट के बाद वसुंधरा राजे के प्रति जनाक्रोश होगा जो इन क्चुनावों में सामने आएगा। पर परिणाम सब अटकलों से अलग और विचित्र रहे। ११३ सीटों में से ६२ पर जहाँ भाजपा ने बाजी मारी तो वहीं कांग्रेस के हाथ महज २५ सीटें ही आईं। हलांकि वसुंधरा राजे और उनके बेटे दुष्यंत के क्षेत्रों में कांग्रेस ने जीत हासिल की। इससे पहले एमपी में हुए निकाय चुनावों के मद्देनज़र भी यह उम्मीद जताई जा रही थी कि व्यापमं घोटाले और हत्याओं के शिवराज सिंह चौहान सरकार की साख गिरी है, लिहाजा निकाय चुनावों में भाजपा को नुकसान होगा। मगर चुनाव परिणामों ने सबको चौंका दिया। भाजपा ने कांग्रेस से आठ सीटें छींटे हुए ऐतिहासिक रूप से १६ सीटों पर जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस के हाथ महज एक सीट ही रह गई। इन दोनों ही राज्यों के निकाय चुनावों के परिणामों ने यही संकेत दिया कि आरोपों के जरिये किसीकी छवि को धूमिल करने से जनता का मिजाज नहीं बदला जा सकता। आज की जनता अत्यंत जागरूक और समझदार है। वो सब देख और समझ रही है। आज आप दूसरों को बुरा बताकर जनता की नज़रों में खुद को स्थापित नहीं कर सकते। दूसरे कितने बुरे हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं कितने अच्छे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संकेत देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के लिए थे। 
दरअसल, लोकतंत्र में जितना महत्व एक सशक्त सत्तापक्ष का होता है, उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका एक मजबूत और रचनात्मक विपक्ष की भी होती है। मजबूत विपक्ष के होने से यह आश्वस्ति रहती है कि सत्तापक्ष निरंकुश और अनियंत्रित नहीं होगा। मगर विडम्बना देखिए कि दुनिया के इस सबसे बड़े और अत्यंत सम्मानित लोकतंत्र में फिलवक्त सत्तापक्ष तो अत्यंत मजबूत है, मगर आधिकारिक तौर पर कोई विपक्ष नहीं है। इस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जिसने कि आज़ादी के बाद से ढाई-तीन दशकों तक देश पर बिना किसी विपक्षी अंकुश के शासन किया और उसके बाद भी सर्वाधिक समय सत्ता में रही, की वर्तमान दशा ये है कि उसके पास मुख्य विपक्षी दल होने इतनी सीटें भी नहीं हैं। विगत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में उसे जनता ने पूरी तरह से खारिज कर दिया। उसवक्त लगा कि देश की यह सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अपने संगठन, सोच और कार्य संस्कृति में व्यापक बदलाव लाएगी, मगर ऐसा कुछ न हुआ। परिणाम यह रहा कि लोकसभा चुनावों के बाद एमपी, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि तमाम राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया। फिर लगा कि अब तो कांग्रेस चेतेगी और स्वयं में बदलाव लाएगी, पर तब भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। पार्टी के शीर्ष नेता हार की जिम्मेदारी लेने से भागते रहे और पार्टी आत्ममंथन करने की बजाय दूसरों को कोसती रही। अभी कुछ ही समय पूर्व संपन्न संसद के मानसून सत्र में तो कांग्रेस ने वो तमाशा किया जिसने न केवल देश के लोकतंत्र का पूरी दुनिया में भारी मजाक बनाया वरन जनता के पैसे की भारी बर्बादी भी हुई। संसद के पहले ही दिन ललितगेट प्रकरण पर कांग्रेस ने चर्चा की मांग की जिसे सरकार ने तुरंत मान लिया लेकिन फिर कांग्रेस खुद चर्चा से भाग गई और बिना वजह उलुल-जुलूल मुद्दों के आधार पर संसद में हंगामा मचाकर काम-काज बाधित करने की कुनीति पर चलने लगी। लगभग पूरा मानसून सत्र कांग्रेस के बेवजह के हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी हंगामे की इस कुनीति पर चल चुकी है, लेकिन तब सौ से ऊपर सीटों और आधिकारिक रूप से मुख्य विपक्षी दल के बावजूद भाजपा जितना हंगमा नहीं करती थी, उससे कहीं ज्यादा हंगामा महज ४३ सीटों वाली कांग्रेस ने मचा के रख दिया। ललितगेट प्रकरण पर जवाब देते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जब क्वात्रोची और एंडरसन को लेकर सवाल पूछे तो उसपर कांग्रेस कुछ जवाब नहीं दे पाई। बस बेवजह का हंगामा और नारेबाजी करती रही। इस बेवजह के हंगामे और संसद सत्र की बर्बादी को देश ने देखा और इसीका आक्रोश कहीं न कहीं एमपी और राजस्थान के निकाय चुनावों में सामने आया जहाँ लोगों ने कांग्रेस को एकदम खारिज कर दिया। 
दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी यह है कि वो हमेशा से नेहरू-गांधी परिवार का पर्याय बनकर रहती आई है और आज वो कमी अपने चरमोत्कर्ष पर है। और ये एक प्रमुख कारण  है कि आज कांग्रेस अपने सम्पूर्ण राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर में है। दौर इतना अधिक बुरा है कि देश की सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस को बिहार में गठबंधन के तहत महज ४० सीटें ही लड़ने को दी गईं हैं। ये सही है कि कांग्रेस को जब-तब उसके बुरे दिनों से उबारने में नेहरू-गांधी परिवार का बड़ा योगदान रहा है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कांग्रेस को जब-तब बुरे दिन भी इसी परिवार की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण देखने पड़े हैं। विगत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की जो भीषण दुर्गति हुए उसके लिए महंगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार आदि मुद्दों के बाद सर्वाधिक जिम्मेदार नेहरु-गांधी परिवार की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएं ही रहीं । सोनिया गाँधी की राहुल गाँधी को सत्ता के शिखर पर देखने की अतार्किक महत्वाकांक्षा ने इस चुनाव कांग्रेस को डूबाने में बड़ी भूमिका निभाई। अतार्किक  महत्वाकांक्षा इसलिए कि राहुल गाँधी में अब भी राजनीतिक समझ व परिपक्वता का भारी अभाव है। अभी वे मजबूत नेतृत्व क्षमता से कोसो दूर हैं। राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता ये है कि वे चुनाव आने पर लोगों के बीच आम नागरिक बनकर तो ऐसे प्रकट होते हैं जैसे उनसे बड़ा जनहितैषी कोई है ही नहीं लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसे गायब होते हैं कि उनका समर्थक ठगा सा रह जाता है। अगर चुनाव में जीत मिली तो श्रेय लेने राहुल गाँधी सबसे आगे दिखते हैं और अगर हार हुई तो तो बेचारे कार्यकर्ताओं को आगे कर दिया जाता है। राहुल गाँधी की इन सभी कमियों से लोग बिहार और यूपी के विधानसभा चुनावों जहाँ राहुल गाँधी ने पूरी तरह से स्वयं कमान सम्हाली थी, में ही वाकिफ हो गाए थे। जनता ने राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता की नाकामियों को देखते हुए विगत वर्ष के आम चुनाव में उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया। यहाँ तक कि वो अपनी खुद की अमेठी सीट जो नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ कही जाती है, को बमुश्किल बचा पाए।
 कहने का अर्थ यह है कि कांग्रेस को यदि अपनी इस राजनीतिक बदहाली से उबरना है तो उसे अपने संगठन में शीर्ष स्तर पर बदलाव करने होंगे। समय आ गया है कि ये पार्टी खुद को नेहरू-गांधी परिवार के चंगुल से मुक्त करे। कांग्रेस जितनी जल्दी ये कर ले उतना ही अच्छा है, क्योंकि जबतक  पार्टी के शीर्ष पर राहुल गांधी जैसे राजनीतिक रूप से अपरिपक्व लोग बैठे रहेंगे, पार्टी का बंटाधार होता रहेगा।


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