मंगलवार, 15 सितंबर 2015

मच्छर से परेशान भावी महाशक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
पिछले कुछ सालों से यह एक परम्परा सी बन गई है कि लगभग हर साल सितम्बर-अक्टूबर के मौसमी बदलाव वाले महीने में देश में डेंगू बुखार का प्रकोप फ़ैल जाता है। यह प्रकोप सितम्बर से अक्तूबर के बीच लगभग एक-डेढ़ महीने तक रहता है और इस दौरान बड़े-बूढ़े-बच्चे आदि सैकड़ों-हजारों जानों को लील लेता है। फिलवक्त देश में यही डेंगू का दौर चल रहा है। हर तरफ सिर्फ इसीके चर्चे हैं। यूँ तो इसका प्रकोप देश के तमाम क्षेत्रों में होता  है, मगर राजधानी दिल्ली इससे विशेष रूप से त्रस्त होती है। कह सकते हैं कि दिल्ली इसके प्रकोप के केंद्र में होती है। इस बात को आंकड़ों के जरिये समझें तो विगत वर्ष दिल्ली में डेंगू से ७४ लोगों की मौत हुई थी और इस साल भी अबतक दिल्ली में डेंगू के १५८ मामले सामने आ चुके हैं जिनमे कि १५ लोगों की जान भी जा चुकी है। इन १५ लोगों में से ४ लोग तो देश के अत्यंत प्रतिष्ठित  चिकित्सा संस्थान  एम्स में इलाज के दौरान अपनी जान गँवा चुके हैं। अभी यह सिर्फ शुरुआत है, विगत वर्षों के हिसाब से देखें तो आगे ये आंकड़ा और बढ़ने की संभावना है। दिल्ली का एक मामला तो ऐसा सामने आया है जिसमे कि एक दंपत्ति ने अपने बच्चे की डेंगू से हुई मौत के बाद दुःख और हताशा में आकर आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि देश की राजधानी को एक मच्छर ने पूरी तरह से डर के साए में ला दिया है। पिछले साल के आंकड़ों पर गौर करें तो तमिलनाडु में सर्वाधिक साढ़े आठ हजार डेंगू बुखार से पीड़ित लोगों की संख्या रही। ५७०० डेंगू पीड़ितों के साथ बंगाल दूसरे नंबर पर रहा। इसके अतिरिक्त एमपी, यूपी आदि राज्यों में भी डेंगू का कमोबेश प्रकोप फैला हुआ है। स्पष्ट है कि डेंगू का प्रकोप सिर्फ राजधानी दिल्ली तक नहीं, लगभग पूरे देश में ही भीषण रूप में है।
  डेंगू सभी मच्छरों के काटने से नहीं फैलता; इसकी दो प्रजातियों एडीज एजिपटाई और एडीज एल्वोपेक्टस के मच्छरों के काटने से फैलता है। इन्हीं प्रजातियों के मच्छरों को डेंगू मच्छर भी कहा जाता है। मच्छरों की ये प्रजातियाँ  ऐसी हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अन्य मच्छरों से काफी अधिक होती है, लिहाजा इनपर सामान्य मच्छर छाप टिकिया, कॉइल्स आदि का बहुत असर नहीं होता। साथ ही इनका जहर भी अत्यंत तीव्र और प्रतिरोधक क्षमता वाला होता है जिस कारण उससे भयानक बुखार हो जाता है और दवा आदि का भी शीघ्र असर नहीं होता। डेंगू मच्छर विशेष रूप से उस जगह पर पैदा होते हैं जहाँ अधिक मात्रा में पानी जमा हो। डेंगू होने की स्थिति में व्यक्ति को सर्दी-जुकाम, बुखार, सरदर्द आदि परेशानियाँ रहती हैं जो कि सामान्य दवा से नहीं ठीक होती। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि ये व्यक्ति की प्लेटलेट्स को कम कर देता है जिससे व्यक्ति में अत्यधिक कमजोरी आ जाती है। यदि समय रहते प्लेटलेट्स को नियंत्रित कर लिया गया तब तो ठीक, अन्यथा व्यक्ति के जीवन पर भी संकट की स्थिति बन जाती है। निवारण के रूप में पपीते के पत्ते का रस, नारियल पानी आदि प्रयुक्त होते हैं, इन चीजों से प्लेटलेट्स में तेजी से बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन इन सब चीजों के बावजूद अब भी डेंगू के उपचार को लेकर देश में व्यवस्था कैसी है, इसे इसीसे समझा जा सकता है कि देश की राजधानी में ही हर वर्ष डेंगू से तमाम लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। हर साल सितम्बर-अक्तूबर के महीने में डेंगू का हल्ला उठता है तो दिल्ली समेत देश भर में ऐसी अफरा-तफरी मच जाती है जैसे कि कोई महामारी आ गई हो। विगत कई वर्षों से यह सिलसिला जारी है और देश अबतक इस दिशा में कुछ भी ठोस व्यवस्था नहीं कर सका है। यहाँ तक कि देश की राजधानी के कुछेक अस्पतालों में ही डेंगू के इलाज की व्यवस्था है। ऐसे में  प्रश्न यह है कि जो देश दुनिया की भावी महाशक्ति होने का स्वप्न संजोए बैठा है, वो एक मच्छर के प्रकोप से देश को सुरक्षित रखने की दिशा में कुछ ठोस क्यों नहीं कर पा रहा कि हर साल उससे देश के सैकड़ों लोग अपनी जान गँवा रहे हैं ?
दरअसल यहाँ समस्या यह है कि डेंगू को लेकर देश की सरकारें कभी बहुत गंभीर ही नहीं रहीं। देश में डेंगू सिर्फ तब चर्चा का विषय बनता है, जब सितम्बर-अक्टूबर के महीने में बरसात होने पर इसका प्रकोप तेज होता है। इस दौरान इस विषय में हो-हल्ला उठता है और केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा अस्पतालों को निर्देश देने, कीटनाशक का छिडकाव कराने जैसे कुछ फौरी कदम उठाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है। फिर मौसम बदलता  है और इसका प्रकोप कम होता है तथा इसकी चर्चा भी गायब हो जाती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि साठ के दशक में देश में प्रतिवर्ष लगभग सात करोड़ के आसपास लोग मलेरिया से ग्रस्त होते थे जिसकी तरफ सरकार का ध्यान अस्सी के दशक में गया। और सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए सन १९७७ में मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया, मगर इस कार्यक्रम की पोल तब खुली जब सन १९९४ में मलेरिया ने महामारी का रूप ले लिया। इसके बाद सरकार को वास्तव में कुछ होश आया और उसने पुरानी मलेरिया उन्मूलन नीति में बदलाव कर इसे पुनः लागू किया और इसके क्रियान्वयन को लेकर गंभीरता भी दिखाई गई। परिणामतः मलेरिया पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा चुका है और इसका इलाज भी अब मुश्किल नहीं रहा। शुरूआती समय में मलेरिया को लेकर तत्कालीन सरकारों ने जो उदासीनता दिखाई थी, डेंगू के प्रति आज की सरकारों का भी लगभग वही रुख है। प्रश्न यह है कि क्या मौजूदा सरकारें इस बात का इंतजार कर रही हैं कि डेंगू भी मलेरिया की तरह महामारी का रूप ले ले फिर उसकी रोकथाम के लिए कदम उठाए जाएं ? अगर नहीं तो फिर डेंगू की रोकथाम को लेकर कोई ठोस नीति या कार्यक्रम क्यों नहीं शुरू किया जाता ?

  डेंगू की रोकथाम के सम्बन्ध में सबसे बड़ी जरूरत यह है कि लोग जागरूक हों; और यह जागरूकता केवल टीवी और विज्ञापनों आदि से नहीं फैलेगी, इसके लिए जमीनी स्तर पर प्रयास करने की भी आवश्यकता है। साथ ही अधिकाधिक अस्पतालों में इसके इलाज की व्यवस्था की तरफ भी केंद्र व राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए। डेंगू उन्मूलन के लिए एक समग्र नीति भी बनाई जा सकती है। कुल मिलाकर उपाय अनेक हैं, जरूरत है तो बस सरकार द्वारा मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देने की।

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