शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सामाजिक ढाँचे के लिए घातक हैं ये विज्ञापन [कल्पतरु एक्सप्रेस और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

कल्पतरु एक्सप्रेस 
पिछले कुछ दिनों से टीवी पर कंडोंम का एक विज्ञापन दिख रहा है जिसमे पूर्व पोर्न कलाकार और वर्तमान में हिंदी सिनेमा की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सनी लियोनी ने अभिनय किया है। बिना किसी शोर-गुल के यह विज्ञापन चल रहा था, इसपर हंगामा तब मचा जब अभी हाल ही में वरिष्ठ वामपंथी नेता अतुल अंजान ने बिहार की अपनी एक रैली में इसपर कथित रूप से विवादित बयान दे दिया। अतुल अंजान ने कहा कि सनी लियोनी के ऐसे अभद्र और अश्लील विज्ञापन यदि दूरदर्शन और रेडियो पर चलेंगे तो इससे देश में बलात्कार जैसी घटनाएं बढेंगी। अंजान का ये कहना भर था कि देश भर से इसपर प्रतिक्रियाएं आने लगीं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, नारीवादियों से लेकर सोशल साइट्स पर सनी के प्रशंसकों तक अतुल अंजान का भारी विरोध होने लगा। हालांकि कुछ लोग उनके समर्थन में भी आए, मगर विरोध समर्थन से कहीं अधिक था। विरोध की प्रबलता का अंदाज़ा इसीसे लगाया जा सकता है कि विरोध से विवश होकर आखिर अंजान को अपने बयान के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी। इसी संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि आखिर अतुल अंजान के बयान में कितनी सच्चाई है और इसका विरोध कितना जायज है ? अतुल अंजान ने सनी लियोनी अभिनीत कंडोम के जिस विज्ञापन का विरोध किया है, उसे देखने के बाद कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि अतुल का बयान एकदम सही और सटीक है साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इसका विरोध सिर्फ विरोध के लिए किया जा रहा है, जो कि पूर्णतः निराधार है। कहने को तो यह एक कंडोम का विज्ञापन है, मगर इसमे कंडोम का जिक्र एकदम अंत में कुछ सेकेण्ड के लिए आता है। यदि इसका उद्देश्य कंडोम का प्रचार करना है तो इसमें कंडोम के बारे में जानकारी होनी चाहिए। कंडोम के बगैर सेक्स करने की स्थिति में उपजने वाले खतरों और कंडोम से होने वाली सुरक्षा के विषय में बताया जाना चाहिए। मगर यह पूरा विज्ञापन तो सिर्फ अश्लील, कामुक और उत्तेजक दृश्यों व संवादों से भरा पड़ा है। स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य किसी भी प्रकार कंडोम का प्रचार करना या उसके विषय में जागरूकता लाना नहीं, केवल सनी की पोर्न अभिनेत्री की पूर्व छवि और अश्लील चलचित्रमय विज्ञापन के जरिये अधिक से अधिक कमाई करना है। सीधे शब्दों में कहें तो ये स्त्री-शरीर का आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने जैसा है। दरअसल यह तो सिर्फ एक विज्ञापन है, जिसकी चर्चा इसलिए उठ गयी कि अतुल अंजान जैसे नेता ने इसपर बयान दे दिया। वरना तो ऐसे तमाम और भी विज्ञापन हैं जिनमे स्त्री-शरीर का आर्थिक लाभ के लिए उत्तेजक ढंग से इस्तेमाल किया गया है। अभी टीवी पर आने वाले एक शैम्पू के ताज़ा  विज्ञापन पर ही नज़र डालें तो इसमें एक पुरुष अर्धनग्न बैठा है और एक अर्धनग्न स्त्री बेहद कामुक अंदाज़ में उसके बालों में शैम्पू लगाती है। इस दौरान उनके चेहरे के हाव-भाव बेहद कामुक और उत्तेजक रहते हैं साथ ही कैमरा भी स्त्री-पुरुष शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। ऐसे ही एक टाइल्स कंपनी को अपने विज्ञापन के लिए लड़का-लड़की के बीच सेक्स क्रिया का सहारा लेने की जरूरत क्यों पड़ जाती है, यह भी समझ से परे है। दरअसल कुल मिलाकर मामला यह है कि विगत कुछ वर्षों से विज्ञापन की आड़ में मिनी पोर्न का प्रस्तुतीकरण कर विज्ञापन को सफल व लाभकारी बनाने की एक कुसंस्कृति का विकास हमारे विज्ञापन जगत में हुआ है। और ऐसे विज्ञापनों पर जब अतुल अंजान जैसा कोई व्यक्ति  बेबाकी से अपना विरोध जता देता है तो उसे अभिव्यक्ति विरोधी से लेकर स्त्री-विरोधी तक जाने कितने कु-विशेषणों से हमारे तथाकथित प्रगतिशील और सभ्य समाज द्वारा नवाज दिया जाता है। यहाँ समझ न आने वाली बात यह है कि ऐसे विज्ञापनों का विरोध स्त्री-विरोध कैसे हो जाता है ? जबकि स्त्री का अत्यंत अपमान तो ऐसे विज्ञापनों में उसे मनुष्य नहीं, सिर्फ एक देह के रूप में प्रस्तुत कर के किया जाता है अर्थात सबसे बड़े स्त्री-विरोधी ये विज्ञापन खुद हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे विज्ञापनों के लिए सर्वाधिक दोषी कौन है ? क्या सिर्फ इन्हें बनाने वालों या इनमे काम करने वालों को ही दोषी माना जाय ? वास्तविकता तो यह है कि ऐसे विज्ञापनों के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हमारा यह समाज है जो ऐसे विज्ञापनों को देख-देखकर सफल बनाता है और तमाम कुतर्कों के साथ इनके बचाव में भी खड़ा हो जाता है।
नेशनल दुनिया 
अतुल अंजान ने ऐसे विज्ञापनों से समाज में बलात्कार बढ़ने की बात कही है, यह बात कितनी सही है इसपर तो कुछ भी कहना कठिन है। मगर इससे कत्तई इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे विज्ञापन हमारे सामजिक ढाँचे को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं। कल्पना कीजिए कि किसी परिवार में माँ-बाप-बेटा-बेटी आदि साथ में टीवी देख रहे हों तभी ऐसा कोई विज्ञापन आ जाय तो कितनी असहजतापूर्ण स्थिति बन जाती है। यह हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों पर चोट करने वाले तो हैं ही, संविधान के भी विरुद्ध हैं। भारतीय संविधान के अनुसार समाज में अनावश्यक उत्तेजना का विकास करने वाले किसी भी कृत्य की अनुमति नहीं है जबकि यह विज्ञापन किसी न किसी प्रकार यही कर रहे हैं। इन सब स्थितियों को देखते हुए अब जरूरत यह है कि भारत सरकार यथाशीघ्र इस सम्बन्ध में सजग हो और ऐसे विज्ञापनों पर रोकथाम के लिए कोई ठोस कानूनी पहल करे। फिलवक्त सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि वो विज्ञापन निर्माता कंपनियों के लिए कुछ दिशानिर्देश तय करें तथा कंडोम आदि सेक्स सम्बन्धी चीजों के विज्ञापनों के लिए एक मानक तय करे कि इनमे कौन लोग काम करें तथा इनमे प्रयुक्त संवाद का स्तर कैसा हो आदि इत्यादि। साथ ही अन्य विज्ञापनों में भी स्त्री-पुरुष किसीके भी शरीर के अनावश्यक उत्तेजक प्रदर्शन के सम्बन्ध में भी कुछ दिशानिर्देश तय किए जाएं। यह सब करने पर लगभग तय है कि सरकार का वैसे ही विरोध होगा जैसे पोर्न साइट्स प्रतिबंधित करने पर हुआ था, पर सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए यह कदम उठाने ही होंगे। क्योंकि कुछ मानसिक कुवृतियों से ग्रस्त लोगों के विरोध के कारण देश के समग्र सामाजिक ढाँचे को विज्ञापनों की आड़ में चल रहे इस मिनी-पोर्न के धीमे जहर से बर्बाद होने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।
              

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें