शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

वैज्ञानिक प्रगति की बाधा [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राष्ट्रीय सहारा 
अभी हाल ही में भारत सरकार द्वारा वैज्ञानिक सीएनआर राव को भारत रत्न देने की घोषणा की गई ! इस घोषणा के बाद वैज्ञानिक क्षेत्र में कम निवेश से नाराज वैज्ञानिक राव ने कहा था, “हमारे नेता मूर्ख हैं उन्होंने हमें बहुत कम दिया, फिर भी हमने उससे बहुत अधिक करके दिखाया !” अगर विचार करें तो वैज्ञानिक राव की ये बात काफी हद तक सही ही प्रतीत होती है ! क्योंकि इसमें कोई संदेह नही कि अन्य मुल्कों की अपेक्षा वैज्ञानिक क्षेत्र में भारत का निवेश बेहद कम है ! एक आंकड़े के मुताबिक शोध और विकास पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का  खर्च करने वाले शीर्ष दस देशों की सूची में भारत का स्थान आठवा है ! अपने सकल घरेलू उत्पाद का २.७० फिसदी शोध और विकास पर खर्च करने के साथ अमेरिका इस सूची में पहले, तो वहीँ १.९७ फिसदी खर्च के साथ चीन दूसरे पायदान पर मौजूद है ! जबकि अपने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र ०.९० फिसदी वैज्ञानिक शोध आदि पर खर्च करने के कारण भारत को इस सूची में आठवा स्थान दिया गया है ! यहाँ ये भी गौर करना होगा कि वैज्ञानिक क्षेत्र में निजी कंपनियों का निवेश सरकार से कहीं ज्यादा है ! एक आंकड़े की माने तो सन २००९-१० के वित्तीय वर्ष में वैज्ञानिक क्षेत्र में जहाँ निजी निवेश ६६९४ करोड़ रूपये था, वहीँ सरकारी निवेश मात्र १८०९ करोड़ रूपये था ! सन २०११-१२ में ये निजी निवेश बढ़कर ९६५२ करोड़ हो गया, जबकि सरकारी निवेश बहुत थोड़ी बढोत्तरी के साथ २४५३ करोड़ रहा ! इन आंकड़ों को देखते हुए सवाल ये उठता है कि आज जब वैज्ञानिक उन्नति किसी भी राष्ट्र की समूची उन्नति का आधार बन चुकी है, तब आखिर किस कारण इस क्षेत्र में हमारा निवेश इतना कम है ? इस सवाल का हमारे सियासी हुक्मरानों के पास जो प्रमुख उत्तर होता है वो ये कि देश की आर्थिक दशा को देखते हुए विज्ञान के क्षेत्र में निवेश के लिए इतना ही धन दिया जा सकता है ! बेशक ये बात सही है कि अमेरिका, चीन आदि की अपेक्षा अभी भारत की आर्थिक दशा काफी मजबूत नही है ! पर ये इतनी भी कमजोर  नही है कि कुछ गैरजरूरी योजनाओं व खर्चों में कटौती के द्वारा वैज्ञानिक क्षेत्र में निवेश के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक से डेढ़ फिसदी भी नही दिया जा सके ! अगर गौर करें तो अभी सरकार द्वारा संचालित मनरेगा, मिड डे मिल आदि  भारी-भरकम खर्च वाली तमाम ऐसी योजनाएं हैं जो व्यवस्थाजन्य खामियों के कारण जनहित करने की बजाय सम्बंधित अधिकारियों के लिए धन उगाही का माध्यम बन चुकी हैं ! पर बावजूद इसके उन्हें बदस्तूर चलाया जा रहा है ! अतः अगर सरकार चाहे तो इन योजनाओं पर स्थायी अथवा अस्थायी विराम लगाकर इनके पैसे को वैज्ञानिक क्षेत्र में निवेश कर सकती है ! इसके अतिरिक्त विज्ञान में निवेश बढ़ाने के और भी कई उपाय हो सकते हैं ! पर असल जरूरत है तो निवेश बढ़ाने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की, जिसका कि हमारे राजनीतिक महकमे में काफी हद तक अभाव ही दिखता है ! अगर विचार करें तो वैज्ञानिक क्षेत्र में निवेश को लेकर हमारे राजनीतिक महकमे की उदासीनता का मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में निवेश से हमारे सियासी हुक्मरानों को तत्काल कोई बड़ा सियासी लाभ नही होता है ! कारण कि वैज्ञानिक निवेश दूरगामी होते हैं और उनकी लाभ-हानि का तुरंत प्रभाव नही दिखता है ! लिहाजा इस क्षेत्र में निवेश से हमारे नेताओं को तत्काल कोई सियासी लाभ होने की संभावना न के बराबर होती है ! बस इसी कारण हमारे नेताओं द्वारा वैज्ञानिक क्षेत्र की बजाय उन क्षेत्रों में निवेश को अधिक प्राथमिकता दी जाती है जिनमें निवेश का तत्काल प्रभाव दिखता हो ! साफ़ है कि यहाँ मामला आर्थिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक है !

  वैसे भारत के विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ने के लिए सिर्फ निवेश की कमी ही कारण नही है ! बल्कि निवेश के बाद तमाम ऐसी नीतिगत खामियां भी हैं जो हमें विज्ञान के क्षेत्र में लगातार पीछे ले जा रही हैं ! बेशक वैज्ञानिक क्षेत्र में हमारा निवेश काफी कम है, पर वो जितना भी है उसे कैसे खर्च किया जाता है ये अत्यंत  महत्वपूर्ण है ! आज जहाँ समूची दुनिया द्वारा वैज्ञानिक निवेश का सर्वाधिक ३५  फिसदी हिस्सा आईटी एवं इलेक्ट्रोनिक्स के शोध व विकास पर खर्च किया जाता है, वहीँ भारत अपने वैज्ञानिक निवेश का सर्वाधिक ३८ फिसदी हिस्सा दवाईयों के शोध, परीक्षण व विकास आदि पर व्यय करता है ! वैसे इस विषय में ये तर्क हो सकता है कि हर देश की अपनी-अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं, पर ये भी एक सत्य है कि आज के इस तेज-तरार्र समय में राष्ट्र के तीव्र विकास के लिए आईटी क्षेत्रों का विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया है ! ऐसा कत्तई नही है कि दवाओं के क्षेत्र में व्यय गलत है, पर प्राथमिकता के लिहाज से इसे सबसे पहले रखने को आज के दौर के हिसाब से सही नीति भी नही कहा जा सकता ! कुछ समस्या हमारे राजनेताओं की सोच की भी है ! उदाहरणार्थ अभी हाल ही में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बेहद कम खर्च वाले इसरो के मंगलयान पर उन्हें बधाइयाँ तो मिलीं, पर कुछ राजनेताओं द्वारा इसे ‘अत्यधिक महंगा’ बताने जैसी  टिप्पणियां भी की गईं ! इसके अतिरिक्त अगर आपको याद हो तो हमारे राजनीतिक तबके से ऐसी ही कुछ टिप्पणियां इसरो के ‘चंद्रयान’ मिशन के समय भी आई थीं ! एक तो नेताओं द्वारा वैज्ञानिक क्षेत्र के लिए बेहद कम धन दिया जाता है, उतने में भी अगर हमारे वैज्ञानिक कुछ बेहतर करते हैं, तो अगर उन्हें ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलें तो ये उनमे हताशा का ही संचार करेगा ! बहरहाल, वैज्ञानिक प्रगति के लिए निश्चित ही आज हमारी प्रथम आवश्यकता यही है कि हमारे सियासी हुक्मरान इस क्षेत्र के प्रति अपना सौतेला नजरिया बदलते हुए इसमे अधिकाधिक निवेश बढ़ाने का प्रयास करें ! साथ ही, उस निवेश के उपयोग के लिए पुख्ता नीतियां व उचित प्राथमिकताएँ भी तय की जाएँ ! आखिर में, ऐसा कत्तई नही है कि इन बातों को अपनाने के बाद हमारी वैज्ञानिक प्रगति बहुत तेज हो जाएगी ! पर इतना जरूर है कि अगर इन सभी बातों का सही ढंग से क्रियान्वयन होता है तो धीरे-धीरे ही सही हमारी वैज्ञानिक प्रगति सही दिशा में आगे बढ़ने लगेगी ! 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

भोजपुरी लघुकथा : बियाह कटवा [हमारा मेट्रो में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हमारा मेट्रो 
शुक्ला जी गाँव के चौउराहा प पहुँच के, एने-ओने ताके लगले ! जईसे कुछ खोजत होखस ! फेर जाके बरगद के पेड़ तर बईठल एगो आदमी से पूछने, “ई हुशियार पुर ह न ?”
“हूँ, का भईल?” ऊ आदमी कहलें !
“अरे, हरिहर तिवारी जी की इहाँ जाएके बा ! घरवा नईखी जानत !” शुक्ला जी कहलें !
“तिवारी भाई किहाँ, उनकर रिश्तेदार हईं का ?”
“नाही, बाकिर सब ठीक रहल त रिश्तेदार बन जाईब, ओही खातिर आईल बानी !”
“अच्छा, ऊ कईसे?”
“केहू से सुनि के उनकी बड़का लईका खातिर आईल बानी ! सुननी बड़ी होनहार लईका ह, आ परिवारो नीक बा !”
“अच्छा, शादी-बियाह के फेर में” ऊ आदमी तनि गंभीर होके कहलें, “नाही, बढिए बा ! तिवारी भाई, अपने देहीं ठीक आदमी हंवे ! आ लईकओ....ठीके ह, बस तनि...?” ई कहिके ऊ आदमी चुपा गईलें !
“बस तनि का? कौनो बाति बा ?” शुक्ला जी चौक के पूछलें !
“नाही, कुछ खास ना ! सब ठीक बा !”
“नाही, कौनो त बाति बा, बताईं ! हमरी लईकी के जिनगी के सवाल बा !”
“कहल त ना चाहत रहनी हं, बाकिर सुनी, तिवारी भाई त ठीक आदमी हंवे, बाकिर ऊ लईका एक नम्बर के पियक्कड़ ह ! झगड़ा-लड़ाई ओकरा खातिर आम बा !”
“का कहतानी, सही में ?” शुक्ला जी एकदम बऊवा गईने !
“हम काहे खातिर झूठ बोलब, रऊरा जाईं, खुदे देखब !”
“ना, अब ना जाएब, एकदम ना जाएब ! राऊर धन्यवाद भाई !” कहिके शुक्ला जी वापस चल दिहलें !
अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस, “का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”

“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह !” कहिके ऊ आदमी मुस्काए लगले !

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

कितनी बदली है स्त्रियों की दशा [डीएनए और दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत  

बीते वर्ष इसी दिसंबर महीने की सोलह तारीख को दिल्ली के वसंत बिहार इलाके में कुछ मानवरूपी दरिंदों द्वारा घर लौट रही एक लड़की के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया गया, उसने तब देश को झिंझोड़ के रख दिया ! इस घटना ने अवाम के मन पर इतना गहरा असर डाला कि लगभग पूरे देश से लोग दिल्ली की सड़कों पर इकठ्ठा होकर पुलिस-प्रशासन का विरोध करते हुए ‘लड़की को इंसाफ और बलात्कारियों को फांसी’ जैसी मांग करने लगे !
दैनिक छत्तीसगढ़ 
विरोध कर रहे उन लोगों में स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से शामिल थे ! लोगों के इस भारी विरोध के कारण हमारा राजनीतिक महकमा भी तब काफी सक्रिय हुआ था और आनन-फानन में महिला सुरक्षा कानूनों में बदलाव के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी गई ! उसवक्त की ये स्थिति देख मन में एक उम्मीद जगी थी कि लोग जागरुक हो रहे हैं और देश बदल रहा है ! पर आज जब उस निर्भया प्रकरण को लगभग एक वर्ष हो गए हैं, तब सवाल ये उठता है कि स्त्रियों की स्थिति में कितना बदलाव हुआ है ? आज वो कितनी सुरक्षित हैं ? आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष दिल्ली में बीते वर्ष के मुकाबले काफी ज्यादा बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं ! दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर के आधार पर जारी किए गए आंकड़े की माने तो ३० नवंबर तक राष्ट्रीय राजधानी में बलात्कार के लगभग १५०० मामले दर्ज कराए गए हैं जो कि पिछले साल की तुलना में दोगुने हैं ! जब देश की राजधानी में ये हालत है तो बाकी राज्यों की दशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ! हालाकि इस विषय पुलिस का ये भी कहना है कि अब लोगों में जागरुकता आ रही है और वो अधिकाधिक मामले दर्ज कराने लगे हैं, इसलिए दर्ज मामलों की संख्या बढ़ रही है ! अब जो भी हो, पर इतना तो साफ़ है कि निर्भया प्रकरण के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर की गई तमाम कोशिशों के बावजूद आज देश की राजधानी में महिलाऐं महफूज नही हैं !
डीएनए 
   अगर विचार करें तो भारतीय समाज में स्त्री दशा को लेकर आदिकाल से विमर्श चलता आ रहा है ! इस विमर्श की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इसमे स्त्रियों से अधिक सक्रिय वही पुरुष वर्ग रहा है जिसका इस विमर्श में सर्वाधिक विरोध होता है ! पर दुर्भाग्य ये है कि वो पुरुष वर्ग जितनी रूचि इस स्त्री विमर्श में अपनी विद्वता के प्रदर्शन में लेता है, उतनी रूचि स्त्री के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाने में नही लेता ! बस यही कारण है कि आज लगभग देश के हर कोने से बलात्कार तथा स्त्री उत्पीड़न की हर घटना पर विरोध के स्वर तो सुनाई दे रहे हैं, पर इस तरह की घटनाएँ नही रुक रही ! यहाँ समझना होगा कि जिस पुरुष समाज द्वारा स्त्री उत्पीड़न के हर मुद्दे पर विरोध देखने को मिलता है, बलात्कारी भी उसी पुरुष समाज का हिस्सा हैं ! जाहिर है कि पुरुष समाज का स्त्री विमर्श में संलग्न होना भी उसके पुरुष अहं की संतुष्टि का एक साधन मात्र है ! इसमे उसका ये कत्तई उद्देश्य नही है कि स्त्री दशा में कोई व्यापक सुधार हो ! पुरुष अहं की ये भावना हमारे राजनीतिक महकमे से लिए प्रशासनिक महकमे तक में व्याप्त है ! एक आंकड़े के अनुसार जहां संसद में महिलाओं की उपस्थिति मात्र ११ फीसद है, वहीँ सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट में महिलाओं की मौजूदगी मात्र ७ फीसद है ! इनके अतिरिक्त अखिल भारतीय सेवाओं तथा केन्द्राधीन नौकरियों में भी हमें महिला वर्ग की क्रमशः मात्र १५ और १० फीसद मौजूदगी ही देखने को मिलती हैं ! इन आंकड़ों को देखते हुए साफ़ तौर पर ये कहा जा सकता है कि देश की आधी आबादी को पूरी समानता देने की बात करने में तो कोई राजनीतिक दल पीछे नही है, पर जब बात उनको मौका देने की आती है तो कोई दल आगें नही आता ! सब ऐसे छुप जाते हैं जैसे इस संबंध में उनका कोई सरोकार ही न हो ! राजनीतिक दलों से इतर प्रशासनिक महकमे में भी महिलाओं की अल्प उपस्थिति के लिए काफी हद तक पुरुष समाज द्वारा बनाए कायदे-क़ानून ही जिम्मेदार हैं ! तमाम साक्षरता अभियानों के बावजूद आज देश में ३४ फीसद महिलाऐं ऐसी हैं जिन्हें अपना नाम तक लिखने नही आता ! अगर विचार करें तो महिलाओं की इस निरक्षरता का मुख्य कारण पुरुष समाज द्वारा उनकी स्वतंत्रता पर लगाए गए तमाम प्रतिबंध ही प्रतीत होते हैं ! उदाहरणार्थ अगर किसी गाँव में कोई विद्यालय नही है तो लड़की को पढ़ने के लिए गाँव से बाहर भेजने की बजाय उसकी पढ़ाई ही रोक दी जाती है ! बेशक इस स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव हो रहा है, पर अब भी अधिकाधिक ग्रामीण भारत की स्थिति यही है ! कुल मिलाकर साफ़ है कि जहाँ महिलाओं के शिक्षा की स्थिति इतनी निम्न हो, वहाँ प्रशासनिक क्षेत्रों में महिलाओं की अधिक उपस्थिति कैसे हो सकती है !
  उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए इतना ही कह सकते हैं कि आज देश में महिलाओं के साथ कुछ भी गलत, विशेषकर बलात्कार, होने पर जो पुरुष समाज मोमबत्ती और बैनर पोस्टर लिए ‘पीड़िता को इंसाफ, बलात्कारियों को फांसी’ जैसे नारों के साथ सड़कों पर उतर पड़ता है ! वही पुरुष समाज सामाजिक-व्यावसायिक क्षेत्रों में स्त्रियों की अल्प उपस्थिति पर कुछ नही बोलता ! इस संबंध में कुछ न बोलने का कारण यही है कि पुरुष समाज आज भी पूरी तरह से अपने पुरुष अहं से मुक्त नही हो पाया है ! वो आज भी आतंरिक रूप से यही चाहता है कि स्त्री बाहरी दुनिया में हस्तक्षेप न  करे ! इस नाते महिलाओं के साथ कुछ गलत होने पर तो वो बोलता है, पर उनके लिए कुछ अच्छा करने और विकास के रास्ते खोलने पर कभी नही बोलता जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत है !

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सामाजिक संरचना के खिलाफ है समलैंगिकता [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आज से लगभग चार साल पहले २ जुलाई, सन २००९ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में समलैंगिक संबंध को जायज बताया था जिसे आज सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नकार दिया गया ! तत्कालीन दौर में उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि ये संबंध भी सामाजिक स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं, अतः इन्हें आपराधिक नही माना जा सकता ! उसवक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को जहाँ दुनिया भर में सराहा गया, वहीँ हिंदू, मुस्लिम आदि धार्मिक संगठनों द्वारा इस फैसले का विरोध करते हुए इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई ! तबसे ये मामला सर्वोच्च न्यायालय में था ! आज इसी मामले में फैसला सुनते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक संबंधों को धारा-३७७ के तहत अपराध की श्रेणी में बताया गया है ! हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में क़ानून में बदलाव की बात संसद और सरकार के ऊपर छोड़ दी है ! पर समलैंगिक संबंधों को आपराधिक घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने आज समलैंगिक संबंधो के संदर्भ में कई सवालों को जन्म दे दिया है ! साथ ही, समलैंगिक सबंधों के औचित्य और आवश्यकता पर भी एकबार पुनः विचार करने की जरूरत महसूस होने लगी है ! अगर विचार करें तो आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पारम्परिक रूप से चले आ रहे स्त्री-पुरुष या नर मादा संबंधों के बीच हमारे इस समाज में समलैंगिक संबंधों की क्या आवश्यकता है ? और इनका क्या औचित्य है ?  इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए सर्वप्रथम हमें समझना होगा कि आखिर समलैंगिक संबंध क्या है तथा ये हमारे समाज और संस्कृति के कितने अनुकूल है ! समलैंगिक संबंध दो समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच मुख्यतः शारीरिक व कुछ हद तक मानसिक संबंध कायम करने की एक आधुनिक पद्धति है ! अर्थार्थ इस संबंध पद्धति के अंतर्गत दो स्त्रियां अथवा दो पुरुष आपस में पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं ! अब अगर इस संबंध पद्धति को भारत की सामाजिक व कानूनी व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखें तो इस तरह के संबंध के लिए न तो भारतीय समाज के तरफ से अनुमति है और न ही क़ानून की तरफ से ! भारत के संविधान में इस तरह के संबंधो को अप्राकृतिक बताते हुए इनके लिए सज़ा तक का प्रावधान किया गया है ! भारतीय संविधान की धारा-३७७ के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को आपराधिक माना गया है और इसके लिए दस साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा का प्रावधान है ! सन २००९ में उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद ये बातें गौण हो गई और कानूनी रूप से समलैंगिक संबंध स्वीकृत हो गए ! पर अभी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद से कानूनी दृष्टिकोण से समलैंगिक संबंध फिर से अपराध हो चुके हैं ! ये तो बात हुई कानून की ! अब अगर एक नज़र समाज पर डालें तो सामाजिक दृष्टिकोण से भी सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंध कायम करने को सही माना जाता है, वो भी तब जब स्त्री-पुरुष वैवाहिक पद्धति से एकदूसरे को स्वीकार चुके हों ! हालांकि आज के इस आधुनिक युग में लोगों, खासकर शहरी युवाओं द्वारा शारीरिक संबंध के लिए वैवाहिक अनिवार्यता की इस सामाजिक मान्यता को दरकिनार करके संबंध बनाए जा रहे हैं ! पर ऐसा करने वालों की संख्या अभी काफी कम है !

  अगर विचार करें तो स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित होने के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं – प्रजनन एवं शारीरिक संतुष्टि ! इनमे भी प्रजनन का स्थान सबसे पहले आता है ! क्योंकि सभी संबंधों की बारी प्रजनन के बाद ही आती है ! अगर प्रजनन ही नही होगा तो फिर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक उत्तरदायित्व, एवं प्राकृतिक संतुलन अर्थविहीन हो जायेगा । संविधान में समलैंगिक सम्बन्ध को अप्राकृतिक कहने का एक कारण यह भी है कि समाज में प्राकृतिक एवं परम्परागत रूप से जो सम्बन्ध स्थापित होते आ  रहें हैं और जिन सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है, उनको  समाज में उत्पन्न यह नया सम्बन्ध खुली चुनौती दे रहा है । अतः ये कहना कत्तई ग़लत नहीं होगा कि समलैंगिकता प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचना को ही चुनौती दे रहा है । समलैंगिक रिश्तों के भावी परिणामो की अनदेखी करते हुए  इसके वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति के आधार पर इसे क़ानूनी एवं सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर देना शायद हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल होगी । बात चाहें समाज की स्थापना की हो या सम्बन्ध की स्थापना की या फिर प्राकृतिक संतुलन की ही क्यों न हो, इन तीनों का स्रोत प्रजनन ही है और समलैंगिक सम्बन्धों में प्रजनन की सम्भावनाओं को प्राकृतिक  रूप से प्राप्त करना असम्भव नज़र आता है । जाहिर है कि प्रजनन की योग्यता  से हीन समलैंगिक संबंध दो समलिंगी लोगों की शारीरिक इच्छाओं को पूर्ण करने का जरिया भर है ! इसके अलावा फ़िलहाल इसका कोई अर्थ नही है, ये पूरी तरह से निराधार है ! बेशक, आज इस समलैंगिक संबंध के समर्थकों की संख्या काफी कम है, पर जिस तरह से इसके समर्थक बढ़ रहे हैं, वो आने वाले समय में हमारी सामाजिक व्यवस्था को व्यापक तौर पर प्रभावित या दुष्प्रभावित करेगा ! लिहाजा आज हमें समलैंगिक संबंध को अपराध घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान फैसले का पूरी एकजुटता से स्वागत करना चाहिए ! साथ ही सरकार को भी चाहिए कि वो न्यायालय के इस फैसले के महत्व को समझते हुए इससे सम्बंधित धारा ३७७ के क़ानून में कुछ खासा बदलाव न करे ! बल्कि उस क़ानून में ऐसे प्रावधान करे जिससे कि इस तरह के अप्राकृतिक, अनावश्यक और निराधार संबंध स्थापित करने वालों पर समुचित नियंत्रण स्थापित किया जा सके ! 

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

शीतकालीन सत्र में सरकार की चुनौतियां [आईनेक्स्ट इंदौर और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
संसद के शीतकालीन सत्र का आगाज़ हो चुका है ! इससे पहले हम देख चुके हैं कि कैसे संसद के पिछले कई सत्र बिना किसी काम-काज के सत्तापक्ष के अड़ियल रवैये और विपक्ष के हंगामे की भेट चढ़ गए ! उन संसदीय सत्रों में कुछ काम नही होने के कारण आज स्थिति ये है कि सरकार के तमाम महत्वपूर्ण विधेयक अब भी कतार में खड़े अपने पारित होने का इंतज़ार कर रहे हैं ! यहाँ ये भी गौर करना होगा कि संसद के पिछले सत्र जिन मुद्दों के कारण बर्बाद हुए अबतक उन मुद्दों की सूची में कोई खासा कमी होने की बजाय बढोत्तरी हुई है ! पिछले सत्रों की नाकामी के कारण इस संसदीय सत्र में सरकार के सामने काफी सारी चुनौतियाँ हैं ! मसलन, अब लोकसभा चुनाव २०१४ में बहुत अधिक समय शेष नही है, पर अपनी नीतिजन्य विफलता तथा केंद्रीय मंत्रियों के भ्रष्टाचार के कारण जनता के सामने सरकार की छवि पूरी तरह से खराब हो चुकी है ! तिसपर पिछले कई संसदीय सत्रों में कुछ काम-काज न होने के कारण भी सरकार की बड़ी भारी किरकिरी हुई है ! इन सब बातों को देखते हुए इस संसदीय सत्र में सरकार की कोशिश होगी कि वो काफी समय से अटके पड़े कई  महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करवाके लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र जनता के बीच अपनी धूमिल हुई छवि को कुछ ठीक कर सके ! पर वहीँ विपक्ष का प्रयास होगा कि लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र बेहद महत्वपूर्ण संसद के इस शीतकालीन सत्र में सरकार की नाकामियों व भ्रष्टाचार के मुद्दों के जरिए उसकी घेराबंदी करके उसे इस संसदीय सत्र का सियासी लाभ नही लेने दिया जाए ! कहा जाता है कि राजनीति में अवसर और मुद्दा सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और फ़िलहाल ये दोनों ही विपक्ष के पास हैं ! कारण कि फ़िलहाल कहीं भी सरकार के लिए कुछ अच्छा नही चल रहा है ! बात चाहें आर्थिक नीतियों की हो या विदेश नीति की अथवा देश के आतंरिक हालात की इनमे से किसी भी मोर्चे पर सरकार के पास नाकामियों की फेहरिस्त के सिवा कुछ नही है ! अतः इस संसदीय सत्र में मौका और मुद्दा दोनों विपक्ष के पास है और पूरी संभावना है कि इनके जरिये वो सरकार पर हावी होने की पूरी कोशिश करेगा !
आईनेक्स्ट 
हालांकि सरकार के संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ द्वारा शीतकालीन सत्र को बिना किसी गतिरोध के सुचारू ढंग से चलाने के लिए सभी दलों की बैठक जरूर की गई, पर नही लगता कि इस सर्वदलीय बैठक में ऐसी कोई सहमति बनी होगी जिससे कि सरकार की समस्या कुछ कम हो ! क्योंकि इस बैठक के बाद कुछेक दलों की तरफ से जिस तरह के बयान आए हैं वो सरकार के लिए कोई अच्छा संकेत नही दे रहे हैं ! सपा की तरफ से कहा गया है कि अगर सरकार महिला आरक्षण विधेयक संसद में नही लाती है तो वो संसद में हंगामा नही करेगी ! मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने भी अपना रुख साफ़ करते हुए कह दिया कि सरकार सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक जो कि बहुसंख्यक विरोधी है, को हटाए ! वर्ना भाजपा द्वारा संसद में उसका विरोध किया जाएगा ! भाजपा की इस मांग पर सरकार दंगा विरोधी बिल में कुछ संसोधन के लिए राजी भी हुई है ! इसके अतिरिक्त भाजपा द्वारा तेलंगाना समेत और भी कई महत्वपूर्ण विधेयकों को संसद में पेश और पारित करवाने की बात कही गई है ! लिहाजा साफ़ है कि अब अगर सरकार भाजपा, सपा आदि दलों की इन मांगों को मान लेती है तभी संसद का सत्र सुचारू ढंग से चलाने में इन सभी दलों का सहयोग मिल सकेगा ! 

  इसी संदर्भ में अगर एक नज़र पारित होने की कतार में खड़े सरकार के कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों पर डालें तो इस संसदीय सत्र में सरकार द्वारा लगभग ३० विधेयकों को सूचीबद्ध किया गया है ! जिनमे कई साल से अटके लोकपाल बिल समेत पदोन्नति मे आरक्षण विधेयक, सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक, महिला आरक्षण विधेयक, तेलंगाना विधेयक आदि और भी कई छोटे-बड़े विधेयक शामिल हैं ! अब चूंकि संसद का ये सत्र ५ से २० दिसंबर तक चलना है जिसमे कि महज १२ बैठकें ही होनी हैं ! इस नाते इतने कम समय में सरकार के लिए इन सभी विधेयकों को संसद में पेश करके इनपर चर्चा करवाना और इन्हें पारित करवाना एक बड़ी चुनौती होगी ! स्थिति को देखते हुए स्पष्ट है कि यहाँ हर हाल में सत्तारूढ़ कांग्रेस ये चाहेगी कि इस संसदीय सत्र में पेश सब विधेयकों में से सभी नही तो कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों को ही पारित करवा लिया जाए जिससे कि लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने के लिए कुछ साजो-समान हो जाए ! पर वहीँ मुख्य विपक्षी दल भाजपा की सोच होगी कि इन विधेयकों को जिस-तिस तरह से भी पारित होने से रोककर सरकार को इस संसदीय सत्र का चुनावी लाभ न लेने दिया जाए ! अब ये देखना दिलचस्प होगा कि संसद के इस शीतकालीन सत्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा में किसका दाव किसपर भारी पड़ता है और कौन किसे मात देता है ? आखिर में अब जो भी हो, पर इस बात के पूरे संकेत हैं कि चुनावी लाभ की प्रत्याशा में राजनीतिक दलों के बीच मचे इस सिरफुटौव्वल के कारण संसद के पिछले कुछ सत्रों की तरह ही ये सत्र भी बेवजह के हंगामे की भेट चढ़ सकता है ! 

रविवार, 8 दिसंबर 2013

भुखमरी से मुक्ति कब [जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो प्रमुखतः रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है ! इनमे भी रोटी सर्वोपरि है ! क्योंकि बिना रोटी के बाकी सब चीजें व्यर्थ सी प्रतीत होती हैं ! रोटी अर्थात भोजन और बिना भोजन के मनुष्य के लिए एकदिन भी चलना कठिन है ! प्रथमतः प्राणिमात्र के समस्त संघर्ष इस भोजन को ही केन्द्र में रखकर होते हैं ! साथ ही किसी भी राष्ट्र के निरंतर प्रगतिशील रहने में भी भोजन की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है ! कारण कि अगर अमुक राष्ट्र के व्यक्तियों को समुचित भोजन मिलेगा तो ही वो शारीरिक और मानसिक स्तर पर इस योग्य होंगे कि अपने राष्ट्र को प्रगति के पथ पर लेकर चल सकें ! गौर करना होगा कि अभी हाल ही में विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर संयुक्त राष्ट द्वारा कुछ आंकड़े जारी किए गए जिनके  अनुसार पूरी दुनिया में लगभग ८५ करोड़ लोग आज भी भुखमरी का शिकार हैं ! दुनिया से इतर अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि आज भी भारत की लगभग २२-२५ फिसदी आबादी की हालत ऐसी है कि अगर वो रात में खाकर सोती है तो उसे नही पता कि अगली सुबह फिर खाने को मिलेगा या नही ! इसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे राष्ट्र आर्थिक दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहाँ भी हमसे कम मात्रा में भुखमरी की स्थिति है ! अभी हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स २०१३ (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में भारत को श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों से भी नीचे ६९ वे स्थान पर रखा गया है ! रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत में अब भी पाँच साल से कम आयु के ४० फिसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं ! इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि बांग्लादेश, श्रीलंका आदि देश भारत से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की श्रेणी में आते हैं ! ऐसे में अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि भुखमरी के मामले में हमारी हालत बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों से भी बदतर हो रही है ? इस सवाल के यूँ तो कई जवाब हैं, पर प्रमुखतः इसका एक ही जवाब है वो ये कि भारत के राजनीतिक महकमे में भुखमरी को लेकर कभी संजीदगी दिखाई ही नही जाती ! बस यही कारण है कि आज भारत में भुखमरी इस कदर विकराल रूप ले चुकी है कि भुखमरी के मामले में, वो अपने से काफी कमजोर अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्रों से भी बदतर स्थिति में जा चुका है !
  एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है ? इस सवाल पर विचार करने पर हम पाते हैं कि भले ही हमारे यहाँ प्रतिवर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन होता हो, पर वो अनाज लोगों तक पहुंचने की बजाय गोदामों में रखे-रखे सड़ जाता है ! ऐसा होने के लिए कारण तो कई हैं, पर कुछ प्रमुख कारणों पर गौर करें तो इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण कारण ये है कि हमारे यहाँ अनाज लोगों तक पहुंचाने के लिए समुचित वितरण प्रणाली का खासा अभाव है जिस कारण बहुतों अनाज गोदामों में रखे-रखे सड़ तो जाता है, पर भूखे लोगों की भूख मिटाने के काम नही आ पाता ! खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है ! संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष १.३ अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेका जाता है ! जाहिर है कि अनाज के रख-रखाव के प्रति लापरवाही बरतने के कारण ही ये अनाज खराब हो जाता है !
  यहाँ उल्लेखनीय होगा कि अभी हाल ही में संप्रग अध्यक्षा सोनिया गाँधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में पारित किया गया ! इस विधेयक पर सोनिया गाँधी समेत लगभग सभी कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि ये भारत से भुखमरी की समस्या को काफी हद तक खत्म कर देगा ! इस संदर्भ में इस विधेयक के कुछ प्रमुख प्रावधानों के द्वारा अगर ये समझने का प्रयास करें कि आखिर किस प्रकार ये विधेयक देश से भुखमरी को खत्म करने का दम रखता है, तो निश्चित ही ये विधेयक पूरी तरह से निराश नही करता, पर साथ ही इसे लेकर कोई बड़ी आशा भी नही पाली जा सकती ! इस विधेयक में मुख्य प्रावधान यही है कि  इसके तहत कमजोर और गरीब तबके के लोगों को प्रतिमाह काफी सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराया जाएगा ! बाकी इस विधेयक के प्रावधानों पर पहले ही काफी बात हो चुकी है अतः हम प्रावधानों को छोड़ते हुए असल बिंदु पर आते हैं ! असल बिंदु ये है कि इस विधेयक में सस्ता अनाज देने के लिए चाहें जितने भी प्रावधान हों, पर उस अनाज को सस्ती दरों पर गरीबों तक पहुँचाने के लिए  वितरण प्रणाली के विषय में इस विधेयक में कोई प्रावधान नही है ! लिहाजा इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जनता को सस्ती दरों पर दिए जाने वाला अनाज सम्बंधित अधिकारियों तथा उनके बाद दुकानदारों की  धन उगाही का साधन बन जाएगा ! अतः घूम-फिरकर हम फिर वहीँ आ गए जहाँ से शुरू किए थे !
  यहाँ समझना होगा कि आज हमारी पहली जरूरत इस बात की है कि हम अपनी वितरण प्रणाली को दुरुस्त करें ! एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों व दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकें ! साथ ही अनाज की रख-रखाव के लिए भी गोदाम आदि की समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बर्बाद होने से बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जा सके ! इसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर नियंत्रण की भी जरूरत है ! ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का ईलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए !
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

वैवाहिक संबंध बनाम सहजीवन [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
अभी हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में सहजीवन संबंध को तो पुनर्परिभाषित किया ही, वैवाहिक संबंध बनाम सहजीवन संबंध के विमर्श को भी फिर एक नए सिरे से शुरू कर दिया ! दरअसल ये मामला कुछ यों है कि सहजीवन संबंध में रहने वाली एक महिला द्वारा संबंध समाप्त होने पर पुरुष से गुजारा भत्ता मिलने के लिए न्यायालय में एक अर्जी दी गई थी ! इसी मामले का निपटारा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सहजीवन संबंध न तो अपराध है और न ही पाप ! इसके अतिरक्त न्यायालय ने सरकार को भी ये निर्देश दिया कि वो सहजीवन संबंधों के लिए एक ऐसा क़ानून बनाए जिससे कि इन संबंधों के दौरान पुरुष-महिला दोनों ही पक्षों के अधिकारों का हनन होने से रोका जा सके और सबको समानता मिल सके ! इसी संदर्भ में अगर एक नज़र सहजीवन संबंधों पर डालें तो सहजीवन संबंध हमारे इस आधुनिक युग में विकसित जीवन की वो पद्धति है जिसके अंतर्गत स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से बिना किसी वैवाहिक संबंध के एकसाथ पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं ! इसे सहजीवन संबंधों की विशेषता कहें या विसंगति कि ये संबंध वैवाहिक संबंधों की अपेक्षा अत्यंत सरल व लचीले होते हैं ! इनमे वैवाहिक संबंधों के जैसे मर्यादाएं नही होती तथा स्त्री-पुरुष दोनों ही एक तरह से अपनी इच्छा के स्वामी होते हैं ! स्त्री-पुरुष दोनों का अपनी-अपनी इच्छा के आधीन होना जहाँ सहजीवन संबंध को वैवाहिक संबंध से अलग और विशिष्ट बनाता है वहीँ इसके तमाम दुष्प्रभाव भी हैं ! सहजीवन संबंध में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का सर्वाधिक सकारात्मक पहलू ये होता है कि स्त्री-पुरुष किसीके ऊपर कोई दबाव नही रहता, अतः दोनों पक्ष स्वेच्छा से अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकते हैं ! पर इसके साथ ही इस निजी स्वतंत्रता के कुछ नकारात्मक पहलू भी होते हैं ! मसलन इस निजी स्वतंत्रता के कारण सहजीवन संबंध में अविश्वास की स्थिति के कायम होने की पूरी संभावना बनी रहती है ! साथ ही ये भय भी बना रहता है कि कभी भी, कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष की इच्छा जाने बिना अपनी मर्जी से संबंध समाप्त कर सकता है ! जाहिर है कि सहजीवन संबंध पद्धति अगर कुछ ठीक है तो इसकी कई खामियां भी हैं !

  इसी क्रम में अगर वैवाहिक और सहजीवन संबंधों के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करें तो पता चलता है कि जहाँ वैवाहिक संबंध आजीवन साथ रहने के  विश्वास से पूर्ण, सामाजिक-पारिवारिक सहमति से पुष्ट व हमारी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप होते हैं, वहीँ सहजीवन संबंध मात्र स्त्री-पुरुष जोड़े की स्वेच्छा का प्रतिरूप तथा समाज-परिवार सबकी सहमति से दूर मात्र एक अनुबंध की तरह  होते हैं ! कहा भी जाता है कि विवाह सिर्फ दो लोगों का नही, दो परिवारों, दो समाजों का संयोग होता है ! पर सहजीवन संबंध ठीक इसके उलट मात्र दो लोगों की सहमति व संयोग का ही प्रतिरूप होता है ! वैसे ये कत्तई नही है कि वैवाहिक संबंध असफल नही होते अथवा उनकी कोई खामी नही है ! बेशक वैवाहिक संबंध भी असफल होते हैं, पर बावजूद इसके वैवाहिक संबंध बिगड़ने अथवा टूटने की स्थिति में व्यक्तिओं के पास परिवार व समाज का सहारा होता है जिसके द्वारा वो अपने संबंध को टूटने से बचाने की कोशिश कर सकते  है ! और फिर भी  अगर संबंध टूट जाए तो भी सम्बंधित व्यक्ति के पास आगे बढ़ने के लिए तमाम रास्ते होते हैं और सबसे बड़ी बात कि इसमे उसका परिवार और समाज भी उसके साथ होता है ! जबकि सहजीवन संबंध में संबंध बीच में ही टूटने की स्थिति में व्यक्ति लगभग पूरी तरह से अकेला हो जाता है ! परिवार के लोग तो उसे फिर भी स्वीकार लें, पर समाज के लिए वो अस्वीकार्य ही रहता है ! इसके अतिरिक्त अगर सहजीवन संबंध के दौरान कोई बच्चा है तो संबंध टूटने की स्थिति में सबसे अधिक समस्या उस बच्चे को होती है कि वो कहाँ जाएगा और किसके पास रहेगा ? इस समस्या का कारण होता है कि हमारे समाज की नज़र में वैवाहिक संबंध से पहले यौन संबंध गलत माने जाते हैं ! इस कारण विवाह से पूर्व  यौन संबंध से उत्पन्न बच्चे को भी समाज द्वारा गलत ही माना जाता है ! ऐसे में उस बच्चे को अपने पास रखने के लिए स्त्री-पुरुष में से कोई भी राजी नही होता और अंततः परिणाम ये होता है कि बच्चे को सड़क अथवा अनाथालय के भरोसे छोड़ दिया जाता है ! अब यही स्थिति अगर वैवाहिक संबंध में हो तो बच्चे को लेकर बात सहजीवन संबंध की तुलना में पूरी तरह से उलट नज़र आती है और यहाँ दोनों ही पक्ष बच्चे को अपने पास रखने के लिए आपस में विवाद करते दिखते हैं ! सहजीवन संबंधों के विषय में मुख्यतः इसी बात को रेखांकित करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ताज़ा फैसले में सहजीवन संबंधों के लिए सरकार को एक ऐसा क़ानून बनाने के निर्देश दिए हैं जिससे कि सहजीवन संबंधों के दौरान पैदा बच्चों का भविष्य सुरक्षित व सुनिश्चित किया जा सके ! कुल मिलाकर साफ़ है कि वैवाहिक संबंध, सहजीवन संबंध की अपेक्षा सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से फ़िलहाल अधिक पूर्ण व परिपक्व दिखते हैं ! पर इसका ये भी निष्कर्ष नही मानना चाहिए कि सहजीवन संबंध पूरी तरह से गलत हैं अथवा इनका कोई मतलब नही है ! सही मायने में सहजीवन संबंध हमारे यहाँ अभी अपने शैशव काल से गुज़र रहा है और अभी इसमे कई परिवर्तन अपेक्षित है ! सर्वोच्च न्यायालय के वर्त्तमान निर्णय  के साथ इन परिवर्तनों की शुरुआत हो भी गई है ! समय के साथ ऐसे ही और भी कई परिवर्तन इसमे आएंगे और इसी प्रकार एकदिन सहजीवन संबंधों की ये जीवन पद्धति अपने पूर्ण विकसित रूप में हमारे सामने होगी ! संदेह नही कि अगर ये सहजीवन संबंध की पद्धति पूर्ण रूप से विकसित हो गई तो इसमे माद्दा है कि ये सबंधों की मुख्यधारा में शामिल होकर भारतीय समाज का अभिन्न अंग बन जाएगी !