मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

कितनी बदली है स्त्रियों की दशा [डीएनए और दैनिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत  

बीते वर्ष इसी दिसंबर महीने की सोलह तारीख को दिल्ली के वसंत बिहार इलाके में कुछ मानवरूपी दरिंदों द्वारा घर लौट रही एक लड़की के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया गया, उसने तब देश को झिंझोड़ के रख दिया ! इस घटना ने अवाम के मन पर इतना गहरा असर डाला कि लगभग पूरे देश से लोग दिल्ली की सड़कों पर इकठ्ठा होकर पुलिस-प्रशासन का विरोध करते हुए ‘लड़की को इंसाफ और बलात्कारियों को फांसी’ जैसी मांग करने लगे !
दैनिक छत्तीसगढ़ 
विरोध कर रहे उन लोगों में स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से शामिल थे ! लोगों के इस भारी विरोध के कारण हमारा राजनीतिक महकमा भी तब काफी सक्रिय हुआ था और आनन-फानन में महिला सुरक्षा कानूनों में बदलाव के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी गई ! उसवक्त की ये स्थिति देख मन में एक उम्मीद जगी थी कि लोग जागरुक हो रहे हैं और देश बदल रहा है ! पर आज जब उस निर्भया प्रकरण को लगभग एक वर्ष हो गए हैं, तब सवाल ये उठता है कि स्त्रियों की स्थिति में कितना बदलाव हुआ है ? आज वो कितनी सुरक्षित हैं ? आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष दिल्ली में बीते वर्ष के मुकाबले काफी ज्यादा बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं ! दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर के आधार पर जारी किए गए आंकड़े की माने तो ३० नवंबर तक राष्ट्रीय राजधानी में बलात्कार के लगभग १५०० मामले दर्ज कराए गए हैं जो कि पिछले साल की तुलना में दोगुने हैं ! जब देश की राजधानी में ये हालत है तो बाकी राज्यों की दशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ! हालाकि इस विषय पुलिस का ये भी कहना है कि अब लोगों में जागरुकता आ रही है और वो अधिकाधिक मामले दर्ज कराने लगे हैं, इसलिए दर्ज मामलों की संख्या बढ़ रही है ! अब जो भी हो, पर इतना तो साफ़ है कि निर्भया प्रकरण के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर की गई तमाम कोशिशों के बावजूद आज देश की राजधानी में महिलाऐं महफूज नही हैं !
डीएनए 
   अगर विचार करें तो भारतीय समाज में स्त्री दशा को लेकर आदिकाल से विमर्श चलता आ रहा है ! इस विमर्श की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इसमे स्त्रियों से अधिक सक्रिय वही पुरुष वर्ग रहा है जिसका इस विमर्श में सर्वाधिक विरोध होता है ! पर दुर्भाग्य ये है कि वो पुरुष वर्ग जितनी रूचि इस स्त्री विमर्श में अपनी विद्वता के प्रदर्शन में लेता है, उतनी रूचि स्त्री के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाने में नही लेता ! बस यही कारण है कि आज लगभग देश के हर कोने से बलात्कार तथा स्त्री उत्पीड़न की हर घटना पर विरोध के स्वर तो सुनाई दे रहे हैं, पर इस तरह की घटनाएँ नही रुक रही ! यहाँ समझना होगा कि जिस पुरुष समाज द्वारा स्त्री उत्पीड़न के हर मुद्दे पर विरोध देखने को मिलता है, बलात्कारी भी उसी पुरुष समाज का हिस्सा हैं ! जाहिर है कि पुरुष समाज का स्त्री विमर्श में संलग्न होना भी उसके पुरुष अहं की संतुष्टि का एक साधन मात्र है ! इसमे उसका ये कत्तई उद्देश्य नही है कि स्त्री दशा में कोई व्यापक सुधार हो ! पुरुष अहं की ये भावना हमारे राजनीतिक महकमे से लिए प्रशासनिक महकमे तक में व्याप्त है ! एक आंकड़े के अनुसार जहां संसद में महिलाओं की उपस्थिति मात्र ११ फीसद है, वहीँ सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट में महिलाओं की मौजूदगी मात्र ७ फीसद है ! इनके अतिरिक्त अखिल भारतीय सेवाओं तथा केन्द्राधीन नौकरियों में भी हमें महिला वर्ग की क्रमशः मात्र १५ और १० फीसद मौजूदगी ही देखने को मिलती हैं ! इन आंकड़ों को देखते हुए साफ़ तौर पर ये कहा जा सकता है कि देश की आधी आबादी को पूरी समानता देने की बात करने में तो कोई राजनीतिक दल पीछे नही है, पर जब बात उनको मौका देने की आती है तो कोई दल आगें नही आता ! सब ऐसे छुप जाते हैं जैसे इस संबंध में उनका कोई सरोकार ही न हो ! राजनीतिक दलों से इतर प्रशासनिक महकमे में भी महिलाओं की अल्प उपस्थिति के लिए काफी हद तक पुरुष समाज द्वारा बनाए कायदे-क़ानून ही जिम्मेदार हैं ! तमाम साक्षरता अभियानों के बावजूद आज देश में ३४ फीसद महिलाऐं ऐसी हैं जिन्हें अपना नाम तक लिखने नही आता ! अगर विचार करें तो महिलाओं की इस निरक्षरता का मुख्य कारण पुरुष समाज द्वारा उनकी स्वतंत्रता पर लगाए गए तमाम प्रतिबंध ही प्रतीत होते हैं ! उदाहरणार्थ अगर किसी गाँव में कोई विद्यालय नही है तो लड़की को पढ़ने के लिए गाँव से बाहर भेजने की बजाय उसकी पढ़ाई ही रोक दी जाती है ! बेशक इस स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव हो रहा है, पर अब भी अधिकाधिक ग्रामीण भारत की स्थिति यही है ! कुल मिलाकर साफ़ है कि जहाँ महिलाओं के शिक्षा की स्थिति इतनी निम्न हो, वहाँ प्रशासनिक क्षेत्रों में महिलाओं की अधिक उपस्थिति कैसे हो सकती है !
  उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए इतना ही कह सकते हैं कि आज देश में महिलाओं के साथ कुछ भी गलत, विशेषकर बलात्कार, होने पर जो पुरुष समाज मोमबत्ती और बैनर पोस्टर लिए ‘पीड़िता को इंसाफ, बलात्कारियों को फांसी’ जैसे नारों के साथ सड़कों पर उतर पड़ता है ! वही पुरुष समाज सामाजिक-व्यावसायिक क्षेत्रों में स्त्रियों की अल्प उपस्थिति पर कुछ नही बोलता ! इस संबंध में कुछ न बोलने का कारण यही है कि पुरुष समाज आज भी पूरी तरह से अपने पुरुष अहं से मुक्त नही हो पाया है ! वो आज भी आतंरिक रूप से यही चाहता है कि स्त्री बाहरी दुनिया में हस्तक्षेप न  करे ! इस नाते महिलाओं के साथ कुछ गलत होने पर तो वो बोलता है, पर उनके लिए कुछ अच्छा करने और विकास के रास्ते खोलने पर कभी नही बोलता जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत है !

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