गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

भोजपुरी लघुकथा : बियाह कटवा [हमारा मेट्रो में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हमारा मेट्रो 
शुक्ला जी गाँव के चौउराहा प पहुँच के, एने-ओने ताके लगले ! जईसे कुछ खोजत होखस ! फेर जाके बरगद के पेड़ तर बईठल एगो आदमी से पूछने, “ई हुशियार पुर ह न ?”
“हूँ, का भईल?” ऊ आदमी कहलें !
“अरे, हरिहर तिवारी जी की इहाँ जाएके बा ! घरवा नईखी जानत !” शुक्ला जी कहलें !
“तिवारी भाई किहाँ, उनकर रिश्तेदार हईं का ?”
“नाही, बाकिर सब ठीक रहल त रिश्तेदार बन जाईब, ओही खातिर आईल बानी !”
“अच्छा, ऊ कईसे?”
“केहू से सुनि के उनकी बड़का लईका खातिर आईल बानी ! सुननी बड़ी होनहार लईका ह, आ परिवारो नीक बा !”
“अच्छा, शादी-बियाह के फेर में” ऊ आदमी तनि गंभीर होके कहलें, “नाही, बढिए बा ! तिवारी भाई, अपने देहीं ठीक आदमी हंवे ! आ लईकओ....ठीके ह, बस तनि...?” ई कहिके ऊ आदमी चुपा गईलें !
“बस तनि का? कौनो बाति बा ?” शुक्ला जी चौक के पूछलें !
“नाही, कुछ खास ना ! सब ठीक बा !”
“नाही, कौनो त बाति बा, बताईं ! हमरी लईकी के जिनगी के सवाल बा !”
“कहल त ना चाहत रहनी हं, बाकिर सुनी, तिवारी भाई त ठीक आदमी हंवे, बाकिर ऊ लईका एक नम्बर के पियक्कड़ ह ! झगड़ा-लड़ाई ओकरा खातिर आम बा !”
“का कहतानी, सही में ?” शुक्ला जी एकदम बऊवा गईने !
“हम काहे खातिर झूठ बोलब, रऊरा जाईं, खुदे देखब !”
“ना, अब ना जाएब, एकदम ना जाएब ! राऊर धन्यवाद भाई !” कहिके शुक्ला जी वापस चल दिहलें !
अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस, “का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”

“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह !” कहिके ऊ आदमी मुस्काए लगले !

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