- पीयूष द्विवेदी भारत
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शुक्ला जी गाँव के चौउराहा प पहुँच के,
एने-ओने ताके लगले ! जईसे कुछ खोजत होखस ! फेर जाके बरगद के पेड़ तर बईठल एगो आदमी
से पूछने, “ई हुशियार पुर ह न ?”
“हूँ, का भईल?” ऊ आदमी कहलें !
“अरे, हरिहर तिवारी जी की इहाँ जाएके बा !
घरवा नईखी जानत !” शुक्ला जी कहलें !
“तिवारी भाई किहाँ, उनकर रिश्तेदार हईं का
?”
“नाही, बाकिर सब ठीक रहल त रिश्तेदार बन
जाईब, ओही खातिर आईल बानी !”
“अच्छा, ऊ कईसे?”
“केहू से सुनि के उनकी बड़का लईका खातिर आईल
बानी ! सुननी बड़ी होनहार लईका ह, आ परिवारो नीक बा !”
“अच्छा, शादी-बियाह के फेर में” ऊ आदमी तनि
गंभीर होके कहलें, “नाही, बढिए बा ! तिवारी भाई, अपने देहीं ठीक आदमी हंवे ! आ
लईकओ....ठीके ह, बस तनि...?” ई कहिके ऊ आदमी चुपा गईलें !
“बस तनि का? कौनो बाति बा ?” शुक्ला जी चौक
के पूछलें !
“नाही, कुछ खास ना ! सब ठीक बा !”
“नाही, कौनो त बाति बा, बताईं ! हमरी लईकी
के जिनगी के सवाल बा !”
“कहल त ना चाहत रहनी हं, बाकिर सुनी,
तिवारी भाई त ठीक आदमी हंवे, बाकिर ऊ लईका एक नम्बर के पियक्कड़ ह ! झगड़ा-लड़ाई ओकरा
खातिर आम बा !”
“का कहतानी, सही में ?” शुक्ला जी एकदम
बऊवा गईने !
“हम काहे खातिर झूठ बोलब, रऊरा जाईं, खुदे
देखब !”
“ना, अब ना जाएब, एकदम ना जाएब ! राऊर
धन्यवाद भाई !” कहिके शुक्ला जी वापस चल दिहलें !
अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस,
“का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”
“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह !” कहिके
ऊ आदमी मुस्काए लगले !
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