शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

वैवाहिक संबंध बनाम सहजीवन [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
अभी हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में सहजीवन संबंध को तो पुनर्परिभाषित किया ही, वैवाहिक संबंध बनाम सहजीवन संबंध के विमर्श को भी फिर एक नए सिरे से शुरू कर दिया ! दरअसल ये मामला कुछ यों है कि सहजीवन संबंध में रहने वाली एक महिला द्वारा संबंध समाप्त होने पर पुरुष से गुजारा भत्ता मिलने के लिए न्यायालय में एक अर्जी दी गई थी ! इसी मामले का निपटारा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सहजीवन संबंध न तो अपराध है और न ही पाप ! इसके अतिरक्त न्यायालय ने सरकार को भी ये निर्देश दिया कि वो सहजीवन संबंधों के लिए एक ऐसा क़ानून बनाए जिससे कि इन संबंधों के दौरान पुरुष-महिला दोनों ही पक्षों के अधिकारों का हनन होने से रोका जा सके और सबको समानता मिल सके ! इसी संदर्भ में अगर एक नज़र सहजीवन संबंधों पर डालें तो सहजीवन संबंध हमारे इस आधुनिक युग में विकसित जीवन की वो पद्धति है जिसके अंतर्गत स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से बिना किसी वैवाहिक संबंध के एकसाथ पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं ! इसे सहजीवन संबंधों की विशेषता कहें या विसंगति कि ये संबंध वैवाहिक संबंधों की अपेक्षा अत्यंत सरल व लचीले होते हैं ! इनमे वैवाहिक संबंधों के जैसे मर्यादाएं नही होती तथा स्त्री-पुरुष दोनों ही एक तरह से अपनी इच्छा के स्वामी होते हैं ! स्त्री-पुरुष दोनों का अपनी-अपनी इच्छा के आधीन होना जहाँ सहजीवन संबंध को वैवाहिक संबंध से अलग और विशिष्ट बनाता है वहीँ इसके तमाम दुष्प्रभाव भी हैं ! सहजीवन संबंध में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का सर्वाधिक सकारात्मक पहलू ये होता है कि स्त्री-पुरुष किसीके ऊपर कोई दबाव नही रहता, अतः दोनों पक्ष स्वेच्छा से अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकते हैं ! पर इसके साथ ही इस निजी स्वतंत्रता के कुछ नकारात्मक पहलू भी होते हैं ! मसलन इस निजी स्वतंत्रता के कारण सहजीवन संबंध में अविश्वास की स्थिति के कायम होने की पूरी संभावना बनी रहती है ! साथ ही ये भय भी बना रहता है कि कभी भी, कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष की इच्छा जाने बिना अपनी मर्जी से संबंध समाप्त कर सकता है ! जाहिर है कि सहजीवन संबंध पद्धति अगर कुछ ठीक है तो इसकी कई खामियां भी हैं !

  इसी क्रम में अगर वैवाहिक और सहजीवन संबंधों के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करें तो पता चलता है कि जहाँ वैवाहिक संबंध आजीवन साथ रहने के  विश्वास से पूर्ण, सामाजिक-पारिवारिक सहमति से पुष्ट व हमारी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप होते हैं, वहीँ सहजीवन संबंध मात्र स्त्री-पुरुष जोड़े की स्वेच्छा का प्रतिरूप तथा समाज-परिवार सबकी सहमति से दूर मात्र एक अनुबंध की तरह  होते हैं ! कहा भी जाता है कि विवाह सिर्फ दो लोगों का नही, दो परिवारों, दो समाजों का संयोग होता है ! पर सहजीवन संबंध ठीक इसके उलट मात्र दो लोगों की सहमति व संयोग का ही प्रतिरूप होता है ! वैसे ये कत्तई नही है कि वैवाहिक संबंध असफल नही होते अथवा उनकी कोई खामी नही है ! बेशक वैवाहिक संबंध भी असफल होते हैं, पर बावजूद इसके वैवाहिक संबंध बिगड़ने अथवा टूटने की स्थिति में व्यक्तिओं के पास परिवार व समाज का सहारा होता है जिसके द्वारा वो अपने संबंध को टूटने से बचाने की कोशिश कर सकते  है ! और फिर भी  अगर संबंध टूट जाए तो भी सम्बंधित व्यक्ति के पास आगे बढ़ने के लिए तमाम रास्ते होते हैं और सबसे बड़ी बात कि इसमे उसका परिवार और समाज भी उसके साथ होता है ! जबकि सहजीवन संबंध में संबंध बीच में ही टूटने की स्थिति में व्यक्ति लगभग पूरी तरह से अकेला हो जाता है ! परिवार के लोग तो उसे फिर भी स्वीकार लें, पर समाज के लिए वो अस्वीकार्य ही रहता है ! इसके अतिरिक्त अगर सहजीवन संबंध के दौरान कोई बच्चा है तो संबंध टूटने की स्थिति में सबसे अधिक समस्या उस बच्चे को होती है कि वो कहाँ जाएगा और किसके पास रहेगा ? इस समस्या का कारण होता है कि हमारे समाज की नज़र में वैवाहिक संबंध से पहले यौन संबंध गलत माने जाते हैं ! इस कारण विवाह से पूर्व  यौन संबंध से उत्पन्न बच्चे को भी समाज द्वारा गलत ही माना जाता है ! ऐसे में उस बच्चे को अपने पास रखने के लिए स्त्री-पुरुष में से कोई भी राजी नही होता और अंततः परिणाम ये होता है कि बच्चे को सड़क अथवा अनाथालय के भरोसे छोड़ दिया जाता है ! अब यही स्थिति अगर वैवाहिक संबंध में हो तो बच्चे को लेकर बात सहजीवन संबंध की तुलना में पूरी तरह से उलट नज़र आती है और यहाँ दोनों ही पक्ष बच्चे को अपने पास रखने के लिए आपस में विवाद करते दिखते हैं ! सहजीवन संबंधों के विषय में मुख्यतः इसी बात को रेखांकित करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ताज़ा फैसले में सहजीवन संबंधों के लिए सरकार को एक ऐसा क़ानून बनाने के निर्देश दिए हैं जिससे कि सहजीवन संबंधों के दौरान पैदा बच्चों का भविष्य सुरक्षित व सुनिश्चित किया जा सके ! कुल मिलाकर साफ़ है कि वैवाहिक संबंध, सहजीवन संबंध की अपेक्षा सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से फ़िलहाल अधिक पूर्ण व परिपक्व दिखते हैं ! पर इसका ये भी निष्कर्ष नही मानना चाहिए कि सहजीवन संबंध पूरी तरह से गलत हैं अथवा इनका कोई मतलब नही है ! सही मायने में सहजीवन संबंध हमारे यहाँ अभी अपने शैशव काल से गुज़र रहा है और अभी इसमे कई परिवर्तन अपेक्षित है ! सर्वोच्च न्यायालय के वर्त्तमान निर्णय  के साथ इन परिवर्तनों की शुरुआत हो भी गई है ! समय के साथ ऐसे ही और भी कई परिवर्तन इसमे आएंगे और इसी प्रकार एकदिन सहजीवन संबंधों की ये जीवन पद्धति अपने पूर्ण विकसित रूप में हमारे सामने होगी ! संदेह नही कि अगर ये सहजीवन संबंध की पद्धति पूर्ण रूप से विकसित हो गई तो इसमे माद्दा है कि ये सबंधों की मुख्यधारा में शामिल होकर भारतीय समाज का अभिन्न अंग बन जाएगी !

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप की बात से सहमत हूँ भाई ..अच्छा लेख हैं आप का |वेसे भी अभी भारतीय समाज में अभी लिव इन अपने बाल्यकाल पे ही हैं और अभी हमारे यंहा के लोग मुक्त प्रेम की अवस्था को नहीं समझ सके हैं और समझते भी हो तो सामजिकता उसे स्वीकार नहीं करती ......
    बहुत अच्छे विषय को आप ने चुना हैं ..सुंदर
    अनुभूति

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