मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

इतिहास के पुनर्लेखन का प्रश्न (दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत 17 सितम्बर को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गुप्तवंशक वीर : स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का ऐतिहासिक पुन:स्मरण एवं भारत राष्ट्र का राजनीतिक भविष्य' विषय पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि इतिहास में गड़बड़ियों के लिए अंग्रेजों वामपंथियों को दोष देने से कुछ नहीं होगा बल्कि वर्तमान में भारतीय दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन किए जाने की जरूरत है। उन्होंने मौर्य वंश, गुप्त वंश से लेकर शिवाजी तक का उदाहरण देते हुए कहा कि इन महापुरुषों के विषय में आज ढूँढने पर कोई संदर्भ ग्रन्थ नहीं मिलता तो यह हमारी कमी है।

अमित शाह के इस वक्तव्य में भारतीय इतिहास का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य मौजूद है। दरअसल आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू पर पश्चिम का गहरा प्रभाव था। समाजवाद को वे देश की समस्याओं का सबसे बेहतर समाधान मानते थे। पश्चिम का यह प्रभाव उनकी इतिहास-दृष्टि पर भी रहा। पश्चिमी विद्वानों द्वारा स्थापित आर्य आक्रमण सिद्धांत, जो इतिहास का एक विवादास्पद विषय रहा है, में उनकी आस्था थी।पिता के पत्र पुत्री के नामपुस्तक में संकलित एक पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘..हिंदुस्तान के रहने वाले द्रविड़ कहलाते थे। ये वही लोग हैं, जिनकी संतान आजकल दक्षिण हिंदुस्तान में मद्रास के आसपास रहती है। उनपर आर्यों ने उत्तर से आकर हमला किया, उस जमाने में मध्य एशिया में बेशुमार आर्य रहते होंगे... आर्य एक मजबूत लड़ने वाली जाति थी, उसने द्रविड़ों को भगा दिया।


प्रथम प्रधानमंत्री की इस पश्चिम-प्रभावित दृष्टि का प्रभाव देश के इतिहास लेखन पर भी पड़ा और इतिहासकारों ने पूर्वग्रहयुक्त अभारतीय दृष्टि के साथ भारतीय इतिहास का लेखन किया, जिसमें विदेशी आक्रान्ताओं के पराक्रम शासन का वर्णन तो खूब हुआ, परन्तु देश के अनेक महापुरुष उचित स्थान नहीं पा सके।  ये इतिहास कुछ यूँ रहा, जिसमें साम्राज्य-विस्तार की लालसा में खून की नदियाँ बहाने वाले  मुग़ल शासक अकबर को महान बना दिया गया, लेकिन उसके खिलाफ जंगल-जंगल भटककर संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप की कोई विशेष चर्चा नहीं की गयी।
रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, मंगल पाण्डेय, तात्या टोपे जैसे 1857 के स्वाधीनता संग्राम के अनेक नाम हैं, जिन्हें इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं मिला। शाह ने ठीक ही कहा कि अगर सावरकर होते तो 1857 के स्वाधीनता संग्राम को हम प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नहीं, विद्रोह ही मान रहे होते। कुल मिलाकर अमित शाह ने अपने वक्तव्य में इतिहास में गड़बड़ी की समस्या को तो रेखांकित किया ही, लेकिन उससे कहीं अधिक जोर भारतीय दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन कर इस समस्या को दूर करने पर दिया।            

शाह इतिहास के जिस भारतीय दृष्टि से युक्त पुनर्लेखन की बात कर रहे, संस्थागत रूप से वर्तमान में उसके लिए कोई संभावनापूर्ण स्थिति नहीं दिखती। भारतीय अनुसन्धान इतिहास परिषद की वेबसाइट खंगालने पर किसी भी नए ऐतिहासिक शोध या स्थापना से सम्बंधित किसी किताब की जानकारी नहीं मिलती। ऐसी किसी किताब की कोई चर्चा भी कहीं नहीं सुनाई देती।  
इससे इतर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य कर रहे नए लेखकों को देखें तो आज  हिंदी का ज्यादातर नया लेखन कथा-कविता पर केन्द्रित हो रहा है, शोध-इतिहास की तरफ नए लेखक जाना ही नहीं चाहते। जो भी नया लेखक रहा, वो कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह या उपन्यास के साथ रहा है। कथा-कविता की पुस्तकों की भीड़ में ऐसी पुस्तकें बहुत कम दिखती हैं जो इतिहास में उपेक्षित रहे किसी विषय पर प्रकाश डालती हों या किसी ऐतिहासिक स्थापना को निरस्त कर नयी स्थापना करती हों।  

हालांकि ऐसा नहीं है कि रचनात्मक साहित्य लिखते हुए ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं लिखे जा सकते। आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर दिनकर तक हिंदी साहित्य में कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने रचनात्मक साहित्य के साथ इतिहास पर भी जमकर कलम चलाई और उनका लिखा आज हमारी थाती है। परन्तु, ये कर्म असीम धैर्य, श्रम और समर्पण के साथ-साथ साहस भी मांगता है, जिसका आज केफास्ट फ़ूड लेखनकी संस्कृति में जी रही नए लेखकों की पीढ़ी में ख़ासा अभाव है। इतिहास ग्रन्थ तो छोड़िये, अच्छे ऐतिहासिक उपन्यास भी अब नहीं लिखे जा रहे, बल्कि उनका स्थान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की कल्पित कथाओं ने ले लिया है। विश्वविद्यालयों के इतिहास विभाग में भी शोध के स्तर पर कुछ बेहतर होता नजर नहीं आता। कुल मिलाकर इस बात से अधिकांश लोग सहमत मिलेंगे कि भारतीय इतिहास में सबकुछ ठीक नहीं है, किन्तु कोई इसे ठीक करने की जहमत नहीं उठाना चाहता।  

एक प्रश्न यह भी उठता है कि नए सिरे से इतिहास-लेखन की दिशा क्या होनी चाहिए और उसमें किन बिन्दुओं पर काम किया जाना चाहिए। इसके लिए कुछ-कुछ दिशा तो गृहमंत्री ने अपने भाषण में ही दे दी कि इतिहास के उपेक्षित महापुरुषों और साम्राज्यों पर संदर्भ ग्रन्थ तैयार किए जाएं। इसके अलावा अबतक जो इतिहास लेखन हुआ है, उसका अधिकांश हिस्सा ईसा के बाद का है जबकि भारतीय सभ्यता की जड़ें बहुत गहरी, बहुत पुरातन हैं। दिक्कत यही है कि हमने भारतीयता युक्त इतिहास दृष्टि से कभी उनको देखने का प्रयत्न ही नहीं किया। यह अभारतीय दृष्टि ही है, जिसने रामायण और महाभारत जैसे हमारी सभ्यता-संस्कृति के महान ऐतिहासिक ग्रंथों को मिथक के रूप में निरुपित किया है, जबकि भारत सहित दुनिया भर में प्राप्त अनेक प्रमाण यह इंगित कर चुके हैं कि यह ग्रन्थ इतिहास हैं। 

राखीगढ़ी में प्राप्त बसावट के अवशेष हों या सिनौली में प्राप्त रथ, मुकुट हों या इंडोनेशिया के समुद्र में मौजूद भगवान् विष्णु का पांच हजार साल पुराना मंदिर हो अथवा काफी पहले जर्मनी में प्राप्त हुई नरसिंह भगवान की कई हजार साल पुरानी प्रतिमा हो, इस तरह के तमाम साक्ष्य हमारी विस्तृत, पुरातन और समृद्ध सभ्यता की कथा कहते हैं। ऐसे ही रामायण और महाभारत  से जुड़े विश्व भर में प्राप्त सभी साक्ष्यों को संकलित कर इन महाकाव्यों का मिथक से ऐतिहासिक निरूपण करने वाले इतिहास ग्रंथों के लेखन की दिशा में कार्य किया जा सकता है। निस्संदेह यह कार्य आसान नहीं है, और इसके लिए जैसा कि अमित शाह ने कहा हमें हमारीमेहनत करने की दिशा को केन्द्रितकरने की जरूरत है।

गृहमंत्री के इस वक्तव्य के पश्चात् यह उम्मीद कर सकते हैं कि देश के बौद्धिक वर्ग में इसका असर होगा और वे इतिहास की बात आने पर अंग्रेजों और वामपंथियों को कोसने की बजाय नया इतिहास लिखने में ऊर्जा खर्च करना शुरू करेंगे।